परिणय के बाद
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इस ई बुक में मेरी १३ कहानियाँ संग्रहीत हैं ये समाज के आधुनिक रूप का दर्पण कही जा सकती हैं. मेरी हर कहानी अंत में पाठक को सन्देश और संतोष देकर ही समाप्त होती है. इन कहानियों में सामाजिक विसंगतियों को विशेष रूप से उभारा गया है. सभी कहानियाँ अलग-अलग विषय वस्तु पर लिखी गई हैं. मेरी हर कहानी आपको अपने आसपास ही घटती हुई दिखाई देगी. जो आप पढ़ने के बाद ही जान सकेंगे.
कल्पना रामानी
६ जून १९५१ को उज्जैन में जन्म। कंप्यूटर से जुड़ने के बाद रचनात्मक सक्रियता। कहानियाँ, लघुकथाओं के अलावा गीत, गजल आदि छंद विधाओं में रुचि.लेखन की शुरुवात -सितम्बर २०११ सेरचनाएँ अनेक स्तरीय मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही अंतर्जाल पर लगातार प्रकाशित होती रहती हैं।*प्रकाशित कृतियाँ-१)नवगीत संग्रह- “हौसलों के पंख”(२०१३-अंजुमन प्रकाशन)३)गीत-नवगीत- संग्रह-“खेतों ने ख़त लिखा”(२०१६-अयन प्रकाशन)४)ग़ज़ल संग्रह- संग्रह मैं ‘ग़ज़ल कहती रहूँगी’(२०१६ अयन प्रकाशन)*पुरस्कार व सम्मान-पूर्णिमा वर्मन(संपादक वेब पत्रिका-“अभिव्यक्ति-अनुभूति”)द्वारा मेरे प्रथम नवगीत संग्रह पर नवांकुर पुरस्कार से सम्मानित-कहानी प्रधान पत्रिका कथाबिम्ब में प्रकाशित कहानी 'कसाईखाना' कमलेश्वर स्मृति पुरस्कार से सम्मानित- कहानी 'अपने-अपने हिस्से की धूप" प्रतिलिपि कहानी प्रतियोगिता में प्रथम व लघुकथा "दासता के दाग" के लिए लघुकथा प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित*सम्प्रतिवर्तमान में वेब पर प्रकाशित होने वाली पत्रिका- अभिव्यक्ति-अनुभूति(संपादक/पूर्णिमा वर्मन) के सह-संपादक पद पर कार्यरत।
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परिणय के बाद - कल्पना रामानी
मीरा ने ज्योंही रसोई का कचरा डालने के लिए घर के पिछवाड़े का द्वार खोला, सामने एक सुदर्शन युवक को उसी तरफ घूरता पाकर सकपका गई. उसने बिना इधर-उधर देखे जल्दी से ढेर पर कचरा डाला और अन्दर जाकर तुरंत द्वार बंद कर दिया. बड़ी मुश्किल से अपनी बढ़ी हुई धड़कनों पर काबू पाया. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वो कौन है और उसे इस तरह क्यों घूर रहा था...पहले तो कभी उसे वहाँ नहीं देखा.
मीरा का उस गाँव की निम्न मध्यमवर्गीय कालोनी में छोटा सा दो कमरों का घर था जो तीन तरफ से ईंटों की चारदीवारी से घिरा हुआ था. सामने की तरफ कुछ चौड़ी और पक्की सड़क तथा पिछवाड़े कुछ संकरी और कच्ची गली थी. सामने वाला कमरा कुछ बड़ा और दूसरा छोटा, एक सीध में बने हुए थे. आगे और पीछे का आँगन पक्का था और बगल वाली कच्ची ज़मीन पर नीम का एक बड़ा सा पेड़ लगा हुआ था. छोटे कमरे से बाहर आँगन में निकलते ही एक तरफ क्रमशः रसोईघर और स्नानघर-शौचालय बने हुए थे. आँगन का द्वार कच्ची गली में खुलता था जिसका उपयोग महिलाएँ अक्सर कचरा डालने के लिए ही करती थीं. चूँकि सुबह मुँह-अँधेरे ही सफाई होकर कचरा वहाँ से उठ जाता था तो मीरा जल्दी उठकर सबसे पहले यही काम करती थी ताकि द्वार के सामने गंदगी रह न जाए.
उस कोलोनी के सभी घर लगभग इसी तरह बने हुए थे. पिछवाड़े का द्वार खोलते ही सामने वाले घरों की कतार का पिछवाड़ा नज़र आता था. उसके सामने वाले दो घरों के बीच की खाली ज़मीन पर कोई चारदीवारी नहीं थी बल्कि मालिकों ने अपना अपना हिस्सा कँटीले तारों की बाड़ से घेर रखा था. दाहिनी तरफ वाले घर की स्वामिनी यानी मीना की अम्मा और मीरा की अम्मा के बीच अच्छी दोस्ती थी. वे अक्सर पिछवाड़े से ही एक दूसरी के यहाँ आना जाना करती थीं. मीना, मीरा से कुछ वर्ष बड़ी थी और उसका विवाह हो चुका था, अतः मीरा का उससे अधिक परिचय नहीं था. कभी-कभी वो उनके घर अपनी माँ को बुलाने चली जाती थी तो औपचारिक बातचीत हो जाती थी.
वो युवक मीरा को उसी घर की तरफ वाले हिस्से की बाड़ के अन्दर खड़ा दिखा था. उसने सोचा कोई रिश्तेदार होगा, वो क्यों सर फोड़े...मगर उसका वो घूरना मीरा के मन को विचलित कर रहा था. दूसरे दिन भी जब यही हुआ तो मीरा असमंजस की स्थिति में पहुँच गई. एक महीना पहले ही तो पास के ही शहर में उसकी सगाई हुई है, कहीं वो बिना बात बदनाम न हो जाए, सोचकर उसने अपना कचरा डालने का समय ही बदल दिया. अब वो रात को ही सारे काम निपटाकर कचरा बाहर डाल देती थी. दो दिन ठीक से गुजरे, तीसरे दिन जब वो कचरा डालने लगी तो उसने गली के उस तरफ वाली नाली के रास्ते एक काले साँप को उसी घर में घुसते देखा. मीरा ने घबराकर उन्हें सावधान करने के लिए आगे बढ़कर उस घर का दरवाजा पीटना शुरू कर दिया.
जल्दी ही पिछवाड़े की बत्ती जली और द्वार खुला तो मीरा सामने उसी युवक को देखकर हतप्रभ रह गई और घबराहट में साँप भूलकर उलटे पाँव वापस जाने ही लगी थी कि उस युवक ने उसका रास्ता रोककर पूछा-
तुम मीरा हो न?
अपना नाम उस युवक के मुँह से सुनकर मीरा का कलेजा धड़कने लगा. घबराई आवाज़ में उसने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाते हुए प्रति प्रश्न किया-
मगर मैं तो आपको नहीं जानती, आप कौन हैं, मुझे कैसे जानते हैं और मेरे नाम से आपको क्या लेना?
कहते हुए वो आगे बढ़ने लगी कि युवक ने उसका हाथ पकड़ लिया और चुप रहने का इशारा करते हुए अनुनय के स्वर में कहा-
चिल्लाना मत मीरा प्लीज़!. मैं श्याम हूँ, तुम्हारा मंगेतर...यहाँ अपनी भाभी को लिवाने आया हूँ. उसी ने मुझे कल तुम्हारे इसी द्वार से बाहर निकलते समय तुम्हारी तरफ इशारा करके यह बात बताई थी. वैसे तो भाभी को लेने भाई साहब ही आते हैं मगर इस बार जानबूझकर मुझे भेजा ताकि मैं अपनी होने वाली दुल्हन को देख सकूँ.
हाय राम! आप यहाँ? मुझे जाने दीजिये...कोई देख लेगा.
इस अँधेरे में गली में कोई नहीं झाँकेगा...और घर में भी इत्तफाक से अभी कोई नहीं है.
कहते हुए उसने मीरा का हाथ चूम लिया.
हाय राम! यह आप क्या कर रहे हैं...मुझे जाने दीजिये प्लीज़!
यह हाय राम! हाय राम! की रट क्यों लगा रखी है, मेरा नाम श्याम है, हाय श्याम! कहो तो छोड़ दूँगा.
हाय राम! मैं आपका नाम कैसे ले सकती हूँ...?
फिर वही राम!...मैं कहता हूँ न! जब तक श्याम नहीं कहोगी, जाने न दूँगा.
अच्छा श्याम, अब जाने दो, मुझे न देखकर अम्मा बाहर आ जाएगी.
मीरा का हाथ थर-थर काँपने लगा था.
मीरा, परसों शाम तक मैं वापस चला जाऊँगा... यह तो इत्तफ़ाक ही है कि तुम यहाँ आ गई और मुझ खुशनसीब को यह अवसर मिल गया. कल सुबह तुम अपने उसी समय पर कचरा डालने के लिए बाहर निकलना, मैं तुम्हें वहीँ खड़ा मिलूँगा. तार की बाड़ के पास पत्थर में लिपटा हुआ कागज़ का पुर्जा होगा, तुम उठा लेना और पढ़कर जवाब लिखकर उसी तरीके से वहीँ रख देना. मेरी नज़र इसी तरफ ही लगी रहेगी.
मगर मैं यह पूछना तो भूल ही गया...तुम यहाँ किस प्रयोजन से आई थी..."
वो... वो...इस तरफ साँप घुसा था...अरे! न जाने कहाँ चला गया होगा.
अच्छा वो... उसे तो मैंने ही तुम्हें बुलाने के लिए भेजा था...
कहकर हँसते हुए श्याम ने फिर से उसका हाथ चूम लिया.
मीरा का रोम-रोम पुलक और सिहरन से भर गया. वो हाथ छुड़ाकर तेज़ी से अपने घर में घुस गई.
रात भर वो अपने हाथ को बार बार सहलाती, चूमती और मन ही मन बुदबुदाती रही. "कितना सुदर्शन और सुन्दर है श्याम...मेरा श्याम, और
मैं उसकी मीरा... कितना सुखद अहसास...! काश! वे पल वहीँ ठहर जाते..." नींद तो अब श्याम ने चुरा ही ली थी...सुबह के इंतजार में करवटें बदलती रही.
मुँह-अँधेरे उठकर मीरा ने जल्दी-जल्दी कुछ कचरा इकठ्ठा किया, क्योंकि कल वाला तो वो रात में ही बाहर डाल चुकी थी. जैसे ही द्वार खोला, श्याम को वहीँ खड़े पाया. श्याम ने हवाई चुम्बन उछाला तो उसने शर्माकर पलकें झुका लीं. कनखियों से देखा, श्याम ने पत्थर में लिपटा हुआ कागज़ तार की बाड़ से बाहर सरका दिया और अन्दर चला गया.
मीरा ने इधर-उधर देखा और टहलते हुए वो पत्थर उठाकर वापस अन्दर आकर जल्दी से पत्थर से कागज़ अलग करके छिपा लिया.
अब बारी थी पत्र पढ़ने और उत्तर लिखने की...तो इसके लिए बाथरूम से सुरक्षित स्थान कौनसा हो सकता था भला...?
मीरा कोरा कागज़ और लेखनी हाथ में दबाकर इधर-उधर देखती हुई बाथरूम में बंद हो गई. जल्दी-जल्दी एक ही साँस में पूरा पत्र पढ़ लिया.
"प्यारी मीरा, बहुत बहुत प्यार
मैं जैसा तुम्हें बता चुका हूँ, परसों शाम तक यहाँ से चला जाऊँगा. मगर जाने से पहले एक बार पुनः तुम्हारा हाथ चूमना और जी भरकर सान्निध्य महसूस करना चाहता हूँ. फिर तो विवाह होने तक पत्रों से ही जी बहलाना पड़ेगा. यह गाँव तुम्हारा जाना पहचाना है और तुम बाहर के कार्यों के लिए भी घर से निकलती ही हो, तो कल दिन में कोई ऐसा स्थान तय करके बताना जहाँ हमें पहचाने जाने का कोई डर न हो.
बाकी बातें मिलकर ही होंगी.
सिर्फ तुम्हारा श्याम
यानी अपनी लैला का मजनू"
पत्र पढ़ते-पढ़ते मीरा के पूरे बदन में अजीब सी खुशनुमा खुमारी छाने लगी थी.
उसने उत्तर लिखना शुरू किया-
"मेरे श्याम, यह नहीं हो सकता...जिस गाँव/समाज के बुजुर्ग बच्चों की सगाई भी लड़के-लड़की की अनुपस्थिति में, बिना उनकी स्वीकृति लिए कर देते हों, उस समाज से इतने खुलेपन की उम्मीद तो की नहीं जा सकती और हमारा चोरी छिपे मिलना भी उचित नहीं. मन की मानकर मिलें तो भी तुम इस छोटे से शहर में नए हो तुम्हें तो कोई नहीं पहचान पाएगा मगर मैं कहीं भी आसानी से पहचान ली जाऊँगी. अतः अभी मिलने और प्यार जताने की उम्मीद छोड़ दो. सिर्फ छः महीने की तो बात है, तब तक इंतजार ही करना होगा. यह पत्र भी छिपकर लिख रही हूँ, ताकि किसी का उलाहना न सुनना पड़े.
और हाँ, तुम हमारे प्यार की तुलना लैला-मजनू अथवा अन्य किसी अन्य ऐतिहासिक प्रसिद्ध प्रेमी युगल से कभी मत करना...यह तो तुम जानते ही हो श्याम! कि जिन प्रेम-कहानियों को दुनिया प्यार का प्रतीक मानती चली आई है, उनमें से अधिकांश के नायक-नायिका प्रेम की परिणति यानी परिणय-सूत्र में बंधने से पहले ही जुदाई का ज़हर पीने को मजबूर कर दिए गए. विवाहोपरांत उनका जीवन कैसा होता, यह कोई नहीं बता सकता... लेकिन हमारी कहानी परिणय से शुरू होकर प्रेम की परिणिति तक पहुँचेगी और हमारी प्रेम-कहानी में जुदाई का कोई अध्याय नहीं होगा. यह मीरा अपने श्याम से जुदा होने के लिए नहीं बल्कि एक साथ जीने-मरने के लिए जन्मी है."
सिर्फ तुम्हारी मीरा
छः महीने बीतते देर कहाँ लगती है... मीरा ने श्याम को तो तसल्ली दे दी मगर उसके लिए ये छः महीने छः युगों से कम न थे जैसे-तैसे समय बंजारे ने उसे श्याम से मिलन के पलों तक पहुँचा ही दिया और मीरा श्याम की दिल-दुनिया आबाद करने दुल्हन बनकर ससुराल आ गई.
परिवार में श्याम और उसके अलावा जेठ-जिठानी और उनके दो बच्चे थे. सास-ससुर छः वर्ष पहले ही एक एक करके काल कवलित हो चुके थे. वे किराने के थोक व्यापारी थे. शहर में उनकी छोटी सी दुकान थी, मगर इतनी कमाई हो जाती थी कि गुजर-बसर आसानी से हो सके. जेठानी मीना उसकी पूर्व परिचित थी अतः मीरा को परिवार के साथ सामंजस्य बिठाने में कोई परेशानी नहीं हुई. मीना को वो मायके के रिश्ते से दीदी कहकर ही संबोधित करती थी.
मीरा यह तो जानती थी कि जोड़े ऊपर से ही बनकर आते हैं मगर मिलन का माध्यम तो धरतीवासी ही बनते हैं न... अतः वो जेठ-जिठानी का अपने ऊपर उपकार मानती थी कि उन्होंने बिना दहेज के श्याम के लिए उसे पसंद किया था. मीरा के माँ-पिता भी इतनी आसानी से जाने पहचाने माध्यम से बेटी के लिए बराबरी का वर-घर पाकर निश्चिन्त हो गए थे.
दुकान का लेनदेन और रुपयों का हिसाब जेठजी जयंत रखते थे तो घर खर्च की बागडोर जिठानी मीना के हाथ में थी. शीघ्र ही मीना बड़ी सफाई से मीरा के साथ भावनात्मक रिश्ता बनाकर घर के सारे कार्य उसके माथे डालती गई.
वो बच्चों में व्यस्त रहने का दिखावा