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Minti - A Mysterious Girl in the Hair Bun
Minti - A Mysterious Girl in the Hair Bun
Minti - A Mysterious Girl in the Hair Bun
Ebook339 pages3 hours

Minti - A Mysterious Girl in the Hair Bun

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About this ebook

दोस्ती के चार साल बाद नौ पन्नों की चिट्ठी में लिखकर अमित ने अंकिता से अपनी दिल की बात कही। उस अंकिता से जिसकी शादी होने वाली है।  जिसे प्यार शब्द से चिढ है, नफरत है। साहिल और वंशिका दोनों पंद्रह साल से पडोसी रहे हैं। एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं। इन दोनों के अभी सेकंड टर्म के पेपर हुए हैं। जनता कर्फ्यू और लोक डाउन के ठीक एक दिन पहले एक रद्दी वाले भैया की गलती से इन दोनों के हाथ एक किताब आती है। जिसका शीर्षक है 'मिंटी अ मिस्टीरियस गर्ल इन द हेयर बन'। जिसमें एक दशक पहले से शुरू होती हुई अमित और अंकिता की कहानी है। तो फिर मिंटी कौन है? उसका क्या रहस्य है?

Languageहिन्दी
Release dateJun 15, 2023
ISBN9798223376262
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    Minti - A Mysterious Girl in the Hair Bun - Dilip Rangwani

    ISBN: 978-8119251049

    Published by:

    Rajmangal Publishers

    Rajmangal Prakashan Building,

    1st Street, Sangwan, Quarsi, Ramghat Road

    Aligarh-202001, (UP) INDIA

    Cont. No. +91- 7017993445

    www.rajmangalpublishers.com

    rajmangalpublishers@gmail.com

    sampadak@rajmangalpublishers.in

    ——————————————————————-

    प्रथम संस्करण: मई 2023 – पेपरबैक

    प्रकाशक: राजमंगल प्रकाशन

    राजमंगल प्रकाशन बिल्डिंग, 1st स्ट्रीट,

    सांगवान, क्वार्सी, रामघाट रोड,

    अलीगढ़, उप्र. – 202001, भारत

    फ़ोन : +91 - 7017993445

    ——————————————————————-

    First Published: May 2023 - Paperback

    eBook by: Rajmangal ePublishers (Digital Publishing Division)

    Copyright © दिलीप रंगवानी

    यह एक काल्पनिक कृति है। नाम, पात्र, व्यवसाय, स्थान और घटनाएँ या तो लेखक की कल्पना के उत्पाद हैं या काल्पनिक तरीके से उपयोग किए जाते हैं। वास्तविक व्यक्तियों, जीवित या मृत, या वास्तविक घटनाओं से कोई भी समानता विशुद्ध रूप से संयोग है। यह पुस्तक इस शर्त के अधीन बेची जाती है कि इसे प्रकाशक की पूर्व अनुमति के बिना किसी भी रूप में मुद्रित, प्रसारित-प्रचारित या विक्रय नहीं किया जा सकेगा। किसी भी परिस्थिति में इस पुस्तक के किसी भी भाग को पुनर्विक्रय के लिए फोटोकॉपी नहीं किया जा सकता है। इस पुस्तक में लेखक द्वारा व्यक्त किए गए विचार के लिए इस पुस्तक के मुद्रक/प्रकाशक/वितरक किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं। सभी विवाद मध्यस्थता के अधीन हैं, किसी भी तरह के कानूनी वाद-विवाद की स्थिति में न्यायालय क्षेत्र अलीगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत ही होगा।

    मिंटी

    मिंटी एक ऐसा ख़्वाब है, जो एक अरसे से मैंने खुली आँखों से देखा है। मिंटी को लिखना इतना आसान नहीं है। क्यूंकि मिंटी किसी तूफ़ान से कम नहीं, वो भी रहस्य से भरपूर। ना ही मिंटी कभी किताब के रूप में प्रस्तुत होगी यह कभी सोचा था। क्यूंकि मिंटी को सिर्फ एक किताब में, एक उपन्यास में समेट लेना नामुमकिन है।

    हालांकि काफी वक़्त से यह कहानी लिखनी थी, एक सपने की तरह इसका कॉन्सेप्ट नॉट डाउन करके रखा था। आज जब इस कहानी को सही दिशा दे पाया हूँ, तो हाँ... झूठ नहीं कहूँगा थोड़ी नर्वसनेस भी है, और इसी नर्वसनेस के साथ मिंटी आपको सौंप रहा हूँ। उम्मीद है आप मिंटी को बड़े प्यार से स्वीकार करेंगे।

    कहते हैं किसी लेखक के लिए उसका लेखन, खास कर अगर वो उपन्यास हो तो वो नवजात शिशु की तरह होता है। और इसी बात में अगर मैं कुछ जोडू तो, प्रकाशक ढूँढना ऐसा है जैसे छोटे बच्चे के लिए स्कूल ढूँढना। और आज कल के कुछ स्कूल वाले तो साफ़ मना कर देते हैं।

    क्यूंकि अब बच्चे की प्रतिभा वो एक इंटरव्यू में क्या देख पाएंगे। उन्हें तो ऐसे बच्चे चाहिए होते हैं जो किसी बड़े परिवार से हो। रुपया पैसा खरच करने में झिझकते न हो।

    तो वैसे कुछ स्कूलों से ना सुनने के बाद, फिर आते हैं ऐसे स्कूल जिनके प्रिंसिपल उस बच्चे के माता पिता देखकर नहीं, उनकी दौलत देखकर नहीं, बल्कि उस बच्चे के प्रयास देखते हैं। और थाम लेते हैं फिर उनकी उंगलयां। ले जाते हैं उन्हें साथ, उस स्कूल के नए दोस्तों से मिलाने। यहाँ दोस्तों का रूपक, किताब के पाठक है।और शिक्षक - समीक्षक।

    कहानी शुरू करने से पहले, मुझे मेरे पसंदीदा लेखक दिव्य प्रकाश दुबे  जी की एक बात याद आ रही है, जो उन्होंने अपनी किताब में लिखी थी... कहानियाँ कोई भी झूठ नहीं होती या तो वो हो चुकी होती हैं, हो रही होती हैं, या फिर होने वाली होती हैं।

    अब आगे यह किताब, इसके किरदार सब आपके हवाले।

    अंग्रेजी में कहते हैं न, हैप्पी रीडिंग :)

    सादर,

    दिलीप रंगवानी

    नवंबर 2016

    ऐसा क्यों होता है कि हम जिस चीज़ को खो देते हैं, या खोने वाले होते हैं, तब हमें उस चीज़ का, उस बात का एहसास होता है... और फिर हम सोचते हैं कि काश ये मैंने पहले समझा होता, तो कहानी आज कुछ और होती बात कुछ और होती।

    इस कहानी में भी कुछ-कुछ ऐसा ही है।

    दोस्ती के पांच साल बाद अमित ने अपने दिल की बात अंकिता से एक चिठ्ठी में लिख कर कही। उस अंकिता को, जिसकी सिर्फ दोस्ती की हाँ के लिए, अमित ने बीस महीने बड़ी शिद्दत से इंतज़ार किया। एक या दो पन्नों की नहीं, पूरे 9 पन्नों की चिठ्ठी।

    अंकिता - जिसकी शादी कहीं और होने वाली है। अमित और अंकिता दोंनो एक दूसरे के बहुत अच्छे दोस्त हैं। शायद उन दोनों को एक दूसरे से बेहतर कोई जान नहीं सकता इतने करीबी दोस्त। ऐसा तो क्या लिखा था उस चिट्ठी के नौ पन्नों में...? जिसमे सिर्फ ढाई अक्षर का इज़हार था। लेकिन मानो उन नौ पन्नों में, उसने अपना दिल रख दिया हो जैसे। और वो लेटर दिया भी तो किसे, उस अंकिता को... जिसे प्यार-मोहब्बत के नाम से नफरत-सी थी? हालांकि अमित उसकी प्यार-लव इन शब्दों से, चिढ़ का कारण जानता था।

    अंकिता को चिट्ठी देने के बाद, पूरी रात अमित को नींद नहीं आयी। वक़्त के पन्ने पीछे पलट रहे थे, उसकी आँखों के सामने।

    मार्च 2020

    साहिल और वंशिका दोनों पिछले पंद्रह साल से साथ पढ़ रहे हैं, और तो और पड़ोसी भी है। कॉलेज के सेकंड ईयर की एग्ज़ाम अभी हाल ही में पूरी हुई थी । दोनों बैठ कर अपने-अपने घर में, पब-जी खेल रहे थे। इतने में ही, माँ ने आवाज़ देकर वंशिका को बुलाया...

    वंशी... ये रद्दी - भंगार में कुछ अखबारें दी थी पुरानी, तो वो भैया एक किताब देकर गए। वो कह रहे थे, कि अखबारों में से निकली है यह किताब। देख लो, तुम्हारी है या फिर साहिल की है?

    माँ किताब देकर अपने काम में व्यस्त हो गयी, वंशिका ने किताब का कवर देखा, तो उसपे किसी लड़की के कंधे और बालों में बने हाई हेयर बन का चित्र था और शीर्षक लिखा था ‘मिंटी’। वंशिका ने सामने वाले घर की डोर-बेल बजायी और साहिल से पूछा,

    क्या यह किताब तुम्हारी है?

    साहिल ने किताब को देखा और कहा,

    नहीं मेरी तो नहीं है... पर मुझे तो यह कोई नॉवल लग रही है।

    हाँ मुझे भी यह कोई हिंदी नॉवल लग रही है।

    किसकी है? कहाँ से आई?

    "माँ ने कहा कि... रद्दी वाले अंकल देकर गए, उनको माँ ने

    पुरानी अखबारें दी थी, तो उनमे से निकली।"

    अगले दिन जनता कर्फ्यू का ऐलान कर दिया गया था।

    वंशिका - साहिल साथ में बैठे थे। फिर से उस किताब की बात निकली, दोनों ने देखा उस पर या उसके बैक कवर पर कहीं कोई लेखक का या पब्लिशर का, कोई नाम नहीं था। बस एक शीर्षक और चित्र, जिसने उन दोनों को क्यूरियस किया हुआ था। इस नॉवेल की क्या कहानी होगी? किसकी है ये नॉवेल? 

    वंशिका ने कहा... क्या पता पढ़ने से पता चले ये किसकी किताब है?

    हाँ पॉसिबल तो है...वैसे भी अब जब वो अंकल आएंगे, बाद में ही पता चल पायेगा यह किसकी किताब है। क्यों न हम इसे पढ़े? वैसे भी फ्री बैठे हैं।

    ठीक है, लेकिन मेरी एक शर्त है साहिल, हम दोनों ये साथ में बैठ कर पढ़ेंगे।

    "जो भी ये किताब रखेगा, वो अगली बारी से पहले दूसरा हिस्सा

    पहले से पढ़ के नहीं रखेगा..."

    ठीक है कहकर - वंशिका ने हामी भर दी...

    लेकिन ये किताब बारी-बारी दोनों के पास रहेगी।

    अभी किताब खोल कर पहले पन्ने पर लिखे, उस चिठ्ठी के बारे में पढ़ा ही था कि दोनों को उनके घर वालों ने बुला लिया।

    अब रात का समय फिक्स हुआ, खाना खाने के पहले बैठ कर कुछ पन्ने और पढ़ेंगे। दोपहर से लेकर रात के साढ़े आठ बजे तक, दोनों के मन में बहुत सारे सवाल थे...

    कौन है यह अमित और अंकिता? इसमें नवंबर 2016 की तारीख थी, तो इस वक़्त दोनों कहाँ होंगे? क्या लिखा होगा उन नौ पन्नों की चिठ्ठी में? कैसे दोस्ती हुई होगी अमित और अंकिता की? क्या सच में कोई किसी की दोस्ती के लिए बीस महीने इंतज़ार कर सकता है?

    पांच सालों की दोस्ती में क्या अंकिता कभी अमित के प्यार को नहीं देख पायी होगी? नहीं समझ पायी होगी? सैकड़ों सवाल और बस रात का इंतज़ार...

    यहाँ यह दोनों कहानी को पढ़ने में, आगे बढ़ रहे थे, और वहां कहानी के मुख्य किरदार, अमित के ज़हन में... वक़्त के पन्ने पीछे पलट रहे थे...

    जनवरी 2011

    ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता हुआ सीधा साधा शर्मीला लड़का अमित। बाल एक साइड बने हुए, शर्ट ढीली-ढीली सी इन की हुई। स्कूल टाइम में दो तरह के लड़के होते हैं। एक वो जो बिना झिझक के लड़कियों से बातें करते, उनसे क्लॉज़ रहते - मस्ती करते

    और दूसरे अमित जैसे, बिलकुल अलग। लड़कियों से बात नहीं करने वाले, एकदम इंट्रोवर्ट टाइप। हर उस दूसरे लड़के की तरह जो आपको अक्सर स्कूल / ट्यूशन के टाइम पे दिख ही जायेंगे... बड़ी - बड़ी आँखें, कंफ्यूज सा मासूम चेहरा। 

    अमित ज्ञानचंद सर के वहां अकाउंट्स की ट्यूशन क्लासेज़ में शाम के वक़्त पढ़ता था। उसने गीत से नोट्स मंगवाए थे। गीत... उसकी दूर की मौसी की बेटी थी, जो की वहीं क्लासेज़ में आती थी। उस दिन गीत नहीं आयी लेकिन गीत की सहेली थी एक, अंकिता। गीत ने अंकिता से कहा था, कि वो नोट्स जो है अमित को दे दे।

    अंकिता - टाइट पोनी टेल हेयर-स्टाइल बनायीं हुई, चेहरा एकदम साफ़, गाल पे तिल। काली प्यारी आँखें, जब मुस्कुराये तो उसकी उस मुस्कुराहट की चमक उसकी आँखों में दिखाई दे।

    उस दिन अमित पहली बार मिला था अंकिता से। ऐसे तो अमित किसी भी लड़की से बात नहीं करता था, यहाँ तक कि गीत से भी ज्यादा बात नहीं करता था।

    अंकिता ने सामने से हाय कहकर पूछा,

    तुम गीत के कज़िन हो ना... अमित?

    अमित ने फीका सा मुस्कुरा कर, हाँ कहा...

    "ये गीत के नहीं मेरे नोट्स है, वैसे भी गीत तुम्हें मेरे नोट्स

    ही देने वाली थी। गीत ने कहा था... तुम्हें दे दूँ।"

    अमित ने औपचारिक तौर पे थैंक यू कहा और चला गया।

    शाम को नोट्स पढ़ते वक़्त शुरू में लिखे अंकिता के नाम को स्पर्श किया अमित ने और उसके मुंह से निकला जितनी सुन्दर अंकिता दिखती है, उतनी ही सुन्दर उसकी हैंड राइटिंग है। स्कूल, क्लासेज़ के समय में कहाँ लड़कियां मेकअप करती थी। आँखों में हल्का सा काजल, गाल पे तिल और कोई मेकअप नहीं, चेहरे पे मासूमियत और सादगी से सुन्दर अंकिता। उसे वो अंकिता का हाय याद आ गया और उसका मुस्कुराता खिलता हुआ चेहरा।

    पहले भी अंकिता को दूर से गीत के साथ कई बार वहीं क्लासेज़ में देखा था। अंकिता दूसरे स्कूल में पढ़ती थी, लेकिन बस अमित और अंकिता की क्लासेज़ एक ही थी, ज्ञानचंद सर की क्लासेज़ ।

    अब ट्यूशन में भी अमित चुपके से अंकिता को देखता था, लेकिन अंकिता के देखते ही नज़रे फेर लेता था। अमित को थोड़ा बहुत शौकिया लिखने की आदत थी। वो ऐसे ही उसके मन से निकले हुए अल्फ़ाज़ को कभी-कभी अपने किसी नोट्स के पीछे लिख लेता था।

    वैसे ही उस दिन उसने लिखा,

    जी चाहता है बस तुम्हें देखता ही रहूं ,

    बस नज़रे फेर लेता हूँ ये सोच कर कि,

    कहीं... तुम्हें बुरा न लग जाए

    एक हफ्ते बाद... शाम के आठ बजे, अमित के फोन पर एक अननोन नंबर से फोन आया। सामने से आवाज़ आयी, अमित मैं अंकिता बोल रही हूँ, गीत की फ्रेंड। वो तुम मेरे नोट्स लेकर गए थे न और तुम दो-तीन दिन से आये नहीं थे। अब जब आओ ट्यूशन में, तो वो मेरे नोट्स लेते आना न।

    अमित ने कहा... "ओह हाँ सॉरी मैं भूल गया था, मैं वैसे

    भी कल आने वाला हूँ, कल ही लेकर आऊंगा।"

    ‘ओके'’ कहने के बाद औपचारिक बात ख़तम करके फोन डिसकनेक्ट किया।

    अमित ने अपने फोन में अंकिता का नंबर सेव कर लिया। अगले दिन, अमित ने अंकिता को नोट्स वापस देकर सॉरी और थैंक यू दोनों ही कहा।

    अंकिता ने मुस्कुराकर कहा... नहीं, इट्स ओके।

    उत्तरायण और रिपब्लिक डे जैसे मौकों पर दोनों ने एक दूसरे को, फॉरवर्ड्स वाले फॉर्मल मेसेज भेजे थे। दोनों के पास कीपैड फ़ोन थे, इसलिए सिर्फ एस.एम.एस किया था। उत्तरायण पर एस.एम.एस की शुरुआत अमित ने की थी और फिर 26 जनवरी को अंकिता ने फॉरवर्ड भेजा था ।

    फिर दोनों में कोई बात नहीं हुई । लेकिन ग्यारहवीं की परीक्षा के बाद अमित से रहा नहीं गया तो उसने एक मेसेज टाइप करके अंकिता को भेज दिया।

    अप्रैल 2011

    उस टेक्स्ट मेसेज में लिखा था... हाय, हमारी कभी ठीक से बात नहीं हुई है... पर मुझे तुमसे कुछ पूछना है, अगर तुम मुझे ग़लत न समझो, तो क्या हम दोस्त बन सकते हैं?

    तकरीबन तीन घंटे तक एस.एम.एस का जवाब नहीं आया और अचानक मेसेज की रिंग बजी, अमित के फ़ोन में अंकिता का मेसेज था जिसमे लिखा था.....

    "दोस्ती मुझसे? लेकिन क्यों? कोई ख़ास कारण? खैर

    मुझे सोचने के लिए थोड़ा समय चाहिए..."

    अमित ने तुरंत मेसेज देख कर रिप्लाई किया

    "ऐसा कोई खास कारण नहीं है, तुम भले जितना समय

    लेना चाहो, ले सकती हो ।"

    इस मेसेज का कोई जवाब नहीं आया।

    लेकिन हर फेस्टिवल पर दोनों एक दूसरे को एस.एम.एस भेजते, एस.एम.एस का सिलसिला चलता रहा, पर मेसेज में बातें नहीं होती थी। ना ही गुड मॉर्निंग, गुड नाईट जैसे सन्देश।

    बारहवीं आते-आते गीत के पापा का दूसरे शहर में ट्रांस्फ़र हो गया था । अब ज्ञानचंद सर के क्लासेज़ में अंकिता अकेली आती थी। ऐसे दूसरे बच्चे थे पर, फिर भी दोनों में कोई ख़ास बातचीत नहीं होती थी। हाँ कभी - कभी नोट्स के बहाने, अकाउंट्स की कोई प्रॉब्लम सॉल्व कराने के बहाने, वहीं क्लासेज़ के बाहर दोनों मिलते। वो भी कुछ ज्यादा देर तक नहीं, पांच या दस मिनट ही बस।

    ऐसे ही ज्ञानचंद सर के क्लासेज़ में दोनों के बारहवीं का सफर भी पूरा हुआ। लेकिन अमित ने दोबारा अंकिता से नहीं पूछा, उसे लगा शायद उसे पूरा समय देना चाहिए, उसने कहा था उसे टाइम चाहिए। बारहवीं की परीक्षा हुई उसके बाद वेकेशन।

    जून 2012

    इत्तेफ़ाक़ से दोनों का एडमिशन एक ही कॉलेज में हुआ। आर.डी कॉलेज। इस दौर में लगभग एक साल और दो महीने हो चुके थे, जब पिछली बार सिर्फ दोस्ती के लिए अमित ने अंकिता से पूछा था। अब कॉलेज के दरमियान जब भी दोनों एक दूसरे से क्रॉस होते तो एक दूसरे को स्माइल कर देते। क्योंकि एक औपचारिक पहचान तो दोनों की थी ही।

    अमित ने उस दिन घर जा कर, अपने

    बैग में से एक डायरी निकाली और उसमे लिखा...

    तुम्हारी वो पहली नज़र आज भी याद है मुझे,

    तुम्हारी वो पिंक जैकेट, जिसके कॉलर

    पर मखमली फर बने हुए थे

    तुम्हारी वो पोनी टेल हेयर स्टाइल

    और वो आते ही प्यारी सी मुस्कान से साथ

    हाय कहना, याद है मुझे

    तुम्हारी नज़र का मेरी तरफ होना ,

    नज़रें मिलते ही वो एक दूसरे का मुस्कुराना

    ऐसे कई छोटी-छोटी बातें याद है मुझे

    तुम बताओ क्या मेरी कोई बात याद है तुम्हें?

    लेकिन फिर भी अमित ने उसे कुछ कहा नहीं, पूछा नहीं कभी भी। इसी तरह लगभग साल ख़त्म होने वाला था और इनके फर्स्ट ईयर कॉलेज को छह महीने हो चुके थे।

    22 मार्च 2020 (जनता कर्फ्यू)

    वंशिका की मम्मी ने आवाज़ लगायी... वंशी चलो मुँह हाथ धो लो खाना खा लो। इधर साहिल को भी उसके पिताजी ने किसी काम से बुला लिया। दोनों ने तय किया के अब इसको कल पढ़ेंगे। अगर सुबह वक़्त मिला तो सुबह, नहीं तो शाम को छ: बजे।

    दोनों के मन में यही सवाल थे, कि अब तो बीस महीने हो गए न। तो कैसे हुई होगी उनकी दोस्ती?

    अगले दिन सुबह साहिल इडली सांभर देने आया और वंशिका की मम्मी से कहा आंटी, ये मम्मी ने दिया आपके लिए। वंशिका भी अपने कमरे से आ गयी। आंटी ने साहिल से कहा, तू खड़ा क्यों है... बैठ। साहिल और वंशिका सोफे पर बैठे थे। वंशिका अख़बार उठा कर पढ़ने लगी।

    तभी साहिल ने पूछा "तुझे क्या लगता है? बीस महीने बाद अमित ने फिर से पूछा होगा या अंकिता ने सामने से कहा होगा? या उन दोनों में कोई

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