ऑनलाइन त्रैमासिक हिंदी पत्रिका स्वर्गविभा
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About this ebook
स्वर्गविभा, मुम्बई द्वारा प्रकाशित ऐसी एकमात्र त्रैमासिक पत्रिका है, जिसके प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य देश-विदेश में बसे हिंदी प्रेमियों की साहित्य प्रतिभा को सुअवसर प्रदान करना है| परन्तु इसके साथ-साथ इस पत्रिका में नवोदित साहित्यकारों की कवितायें, कहानियाँ, ग़ज़लें, एकांकी, लेख आदि भी प्रकाशित की जाती हैं|
हमेशा की तरह स्वर्गविभा पत्रिका का यह अंक भी समस्त विश्व को, विभिन्न देशों के हिंदी पाठकों, अनुसन्धान-कर्त्ताओं एवं विद्वानों के विविध शोध-पत्रों एवं आलेखों से अवगत कराने का मार्ग प्रशस्त करेगी| अनेक लेखकों एवं चिंतकों की रचनाओं को एकत्रित करना, और उन्हें अंतिम रूप देकर पत्रिका में सम्मिलित करना, परम्परागत रूप से महत्वपूर्ण कार्य रहा है|
ब्रिटिश उपनिवेश की भाषा पर पूरी तरह निर्भर होना, भारतीय मनीषा को कुंद करने जैसा ही है| भाषाई आत्म- निर्भरता की यात्रा, परम्परा और सभ्यता के समानांतर चलते हुए संवाहिका बन सभ्यता को परिभाषित करती है| आत्म-निर्भरता वह पारस है, जिसके संस्पर्श मात्र से स्वभाषा कुंदन बन अपनी कीमत कई गुना बढ़ा लेती है|
हमारे देश में सैकड़ों समृद्ध भाषाएँ व हजारों सुसंपन्न बोलियाँ अपना सृजनात्मक अवदान कर, भारती मनीषा को सर्वोत्कृष्ट आसन प्रदान करती है| ऐसे में अपनी बोलियों और भाषाओं पर पूरा निर्भर न रहकर, किसी ऐसी भाषा पर निर्भरता सुनिश्चित किया जाये, जिसका वहाँ की मिट्टी से कोई सरोकार न हो, तो फिर भारतीय, आशाओं, आकांक्षाओं पर ग्रहण लगना तय है|
किसी भी, राष्ट्र-भाषा की बुनियाद, वहाँ की मिट्टी में पैदा हुई भाषाएँ होती हैं| जिस पर उस राष्ट्र के एक सुन्दर भव्य सुघर राष्ट्र के भवन का निर्माण होता है, और उस भव्य भवन के आँगन में वह पल्लवित और पुष्पित होती है, जो वहाँ के जनमानस की इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करती है|
विगत कुछ सदियाँ इस बात की गवाह है कि हम अपने शास्त्र ज्ञान के अभाव में अपनी राष्ट्रीयता को धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं| राष्ट्र टुकड़े-टुकड़े में बंटे जा रहे हैं| राष्ट्रीय सीमायें संकड़ी होती चली जा रही हैं| स्वभाषा के ज्ञान के अभाव में हम अपने देश के लिए भाषाओं को हितकारी नहीं बना रहे हैं| फल:स्वरूप, हमारा इतिहास और भूगोल, दोनों बदल जा रहे हैं|
हिंदी भाषा को पीछे की ओर ढकेलने में, भाषाई द्वेष अहम रहा है| जो सदियों से हिंदी का पैर खीचने का असफल प्रयास करता रहा है| इन सब के बावजूद, हमें हिंदी भाषा के लिए, ठोस सामाजिक, सांस्कृतिक मनोभूमि एवं रचनात्मक वैशिष्ट्य के अलोक में, हिंदी के विकास को, श्रेष्टता बोध के भाव में जाँचने की जरूरत है, क्यों, मन का हारा व्यक्ति किसी के आगे चुनौती बनकर खड़ा नहीं हो सकता|
भाषा की नदी जब आम जनमानस द्वारा बनाये गए घाटों से होकर गुजरती है, तभी लोग उसे अपने ह्रदय में, देवता का स्थान देकर, उसमें डुबकी लगाकर, उसकी पूजा करते हैं| तभी भाषाई गरिमा अक्षुण्ण रहेगा| हम अभी अगर इसे गंभीरता से विचार करने में चूक गए, और सिर्फ दिखावे के लिए, हिंदी को सुदृढ़ व उन्नत बनाने का नारा देकर, बड़े-बड़े सम्मलेन करते रहे, तो इससे कुछ होने-हवाने वाला नहीं है| हिंदी को बचाना है, तो हिंदी को जन मानस की भाषा बनाना होगा|
-तारा सिंह
डॉ. तारा सिंह
Dr. Tara Singh, well known Hindi Litterateur, a versatile writer, taking keen interests in writing Poems, Short Stories, Novels, Ghazals, Filmy Songs and Essay Books.She always deals with real facts and original aspects of a relationships between individuals / family members / friends. Thus, she illustrates not only the pleasant love but also sometimes resulting development like despair, betrayals and disloyalties.With publication of 46 books (Novels-4, poetry books-20, story books-15, Ghazal books-7), she is presently working as the Editor-in-Chief and Administrator of www.swargvibha.com (A leading Hindi Website) and the Swargvibha Hindi quarterly magazine. She has gotten wide applauses for her emotional and thoughtful Poems, Stories and Ghazals, while dealing with Social and Family issues, Personal and Social delicacies, Philosophy of life and Reality, Birth and Death Cycles, etc.Dr. Tara Singh's outstanding works have been duly recognized and she has already been awarded 255 awards / felicitations / trophies from both National and International Organizations of repute. Her writings / books are now available at www.swargvibha.com and www.kukufm.com (As Audiobooks), Google books, www.amazon.in, www.flipkart.com, Insta Publish, Suman Publications, www.pothi.com, Central and State Libraries in India and 30 other websites world over, etc. Her Biography, “TARA SINGH AUTHOR” has been published by Barnes and Noble (USA 2011) and also by Rifacimento International, 9 times in Who's Who (2006-2019) and Wikipedia. Her writings are always full of serious thoughts, topics, pace of happenings and philosophy of life.
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ऑनलाइन त्रैमासिक हिंदी पत्रिका स्वर्गविभा - डॉ. तारा सिंह
ऑनलाइन त्रैमासिक हिंदी पत्रिका
स्वर्गविभा
Chief Editor: Dr. Tara Singh
Edition: June 2022
Printer Details: Paperback
Copyright: Dr. Tara Singh
All rights reserved including reproduction, whole or in part or in any form
Pubslisher: Swargvibha Publishing House
Publisher Address: A-1601, Seaqueen Heritage, Plot-6, Sector-18, Sanpada, Navi Mumbai, Maharashtra - 400705
प्रधान संपादक
डॉ. तारा सिंह, साहित्यकार
संपादक
चीफ़ ई. (मे.) राजीव कुमार सिंह
सहायक संपादक
आयुष कुमार
परामर्श मंडल
डॉ. तेज नारायण कुशवाहा
उपकुलपति,बिक्रमशिला विद्यापीठ,भागलपुर
श्री नृपेन्द्र नाथ गुप्त
अध्यक्ष,भारतीय भाषा साहित्य समागम,पटना
डॉ. बी. पी. सिंह
भूतपूर्व प्राचार्य, आचार्य जे.सी.बोस कोलेज,कोलकाता
वेब साईट swargvibha.com
मो. न. 09322991198; 07980853274
निवेदन:-
स्वर्गविभा वेबसाईट पत्रिका में प्रकाशित लेखों के विचार, लेखकों के अपने हैं|
स्वर्गविभा टीम और संपादक मंडल का उनके विचारों से सहमत होना आवश्यक नहीं है|
सम्पादकीय
स्वर्गविभा, मुम्बई द्वारा प्रकाशित ऐसी एकमात्र त्रैमासिक पत्रिका है, जिसके प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य देश-विदेश में बसे हिंदी प्रेमियों की साहित्य प्रतिभा को सुअवसर प्रदान करना है| परन्तु इसके साथ-साथ इस पत्रिका में नवोदित साहित्यकारों की कवितायें, कहानियाँ, ग़ज़लें, एकांकी, लेख आदि भी प्रकाशित की जाती हैं|
हमेशा की तरह स्वर्गविभा पत्रिका का यह अंक भी समस्त विश्व को, विभिन्न देशों के हिंदी पाठकों, अनुसन्धान-कर्त्ताओं एवं विद्वानों के विविध शोध-पत्रों एवं आलेखों से अवगत कराने का मार्ग प्रशस्त करेगी| अनेक लेखकों एवं चिंतकों की रचनाओं को एकत्रित करना, और उन्हें अंतिम रूप देकर पत्रिका में सम्मिलित करना, परम्परागत रूप से महत्वपूर्ण कार्य रहा है|
ब्रिटिश उपनिवेश की भाषा पर पूरी तरह निर्भर होना, भारतीय मनीषा को कुंद करने जैसा ही है| भाषाई आत्म- निर्भरता की यात्रा, परम्परा और सभ्यता के समानांतर चलते हुए संवाहिका बन सभ्यता को परिभाषित करती है| आत्म-निर्भरता वह पारस है, जिसके संस्पर्श मात्र से स्वभाषा कुंदन बन अपनी कीमत कई गुना बढ़ा लेती है|
हमारे देश में सैकड़ों समृद्ध भाषाएँ व हजारों सुसंपन्न बोलियाँ अपना सृजनात्मक अवदान कर, भारती मनीषा को सर्वोत्कृष्ट आसन प्रदान करती है| ऐसे में अपनी बोलियों और भाषाओं पर पूरा निर्भर न रहकर, किसी ऐसी भाषा पर निर्भरता सुनिश्चित किया जाये, जिसका वहाँ की मिट्टी से कोई सरोकार न हो, तो फिर भारतीय आशाओं, आकांक्षाओं पर ग्रहण लगना तय है|
किसी भी, राष्ट्र-भाषा की बुनियाद, वहाँ की मिट्टी में पैदा हुई भाषाएँ होती हैं| जिस पर उस राष्ट्र के एक