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वाणावर-रहस्य
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वाणावर-रहस्य

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यह पुस्तक वाणावर स्थित सिद्धनाथ मंदिर की पौराणिक कथा को संकलित करने का एक प्रयास है। यह वैष्णव और शैव मतों के बीच संघर्ष की कहानी भी है। शिव असुरों के साथ युद्ध में हैं और श्री कृष्ण के खिलाफ लड़ते हैं। यह शिव के अ-आर्यीकरण का प्रतीक है। दैत्य बाणासुर को पुत्रत्व देने की कहानी ने बहुसंख्यक स्वदेशी लोगों के बीच उसकी लोकप्रियता बढ़ा दी। यह संभव है कि बौद्ध और अन्य समकालीन धर्मों के उद्भव के कारण, भारतीय उपमहाद्वीप में सनातन धर्म की लोकप्रियता में गिरावट आई हो, तब ब्राह्मणों ने शिव के माध्यम से वंचित बहुजन समूह को वापस लाने के लिए ऐसी कहानियों को पुराण में शामिल किया हो.

Languageहिन्दी
PublisherAarsh kumar
Release dateSep 6, 2020
ISBN9781393182566
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    वाणावर-रहस्य - Subodh kumar

    संस्करण: प्रथम

    प्रकाशक:सिद्ध ई-बुक्स

    पु.क्र.-0000001

    सर्वाधिकार सुरक्षित @ लेखक

    समर्पित

    बाबा सिद्ध्नाथ

    ––––––––

    प्रस्तावना

    जहानाबाद शहर से 25 किलोमीटर की दूरी पर वाणावर पर्वत श्रृंखलाएं स्थित है. वाणावर सड़क और रेल मार्ग से जुड़ा है, पटना-गया रेलखंड पर मखदुमपुर के बाद 'वाणावर हाल्ट' है. वाणावर पर्वत श्रृंखला और इसके आसपास का क्षेत्र अधिसूचित वन क्षेत्र है. यहां का प्राकृतिक सौंदर्य हरियाली और शांति एक आध्यात्मिक माहौल सृजित करता है. जो प्राचीन काल से आध्यात्मिक पुरुषों को अपनी ओर आकृष्ट  करता रहा है. यहां  सुर्यांकगिरी पर्वत के शिखर पर बाबा सिद्धनाथ का मंदिर है. इस मंदिर से जुड़े पौराणिक आख्यान को संकलित करने का यह एक छोटा सा प्रयास है.    .  सुबोध

    03 अगस्त 2020, श्रावण, पूर्णिमा

    ––––––––

    १.वाणासुर को भगवान शिव का वरदान

    पौराणिक आख्यानो में बाणासुर से जुड़े होने के कारण इस क्षेत्र का नाम  पड़ा जो 'वाणावर' अपभ्रंश होकर सामान्य बोल-चाल की भाषा में बराबर नाम से विख्यात है.

    बाणासुर असुर राज बली वैरोजन के सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे. उनकी माता का नाम आसना था. ये पराक्रमी योद्धा और पाताल लोक के असुर स्वामी थे.  इन्हें आख्यानो में सहस्त्रबाहु तथा भूतराज भी कहा गया है.

    शोनितपुर जो लोहितपुर के नाम से भी जाना जाता है, इनकी राजधानी थी. (शोनितपुर की पहचान पर्वत श्रृंखला से दक्षिण सोनपुर गांव के रूप में की गई है जो बेला के समीप स्थित है.)

    असुरों के उत्पात से जब ऋषि-मुनि, साधु-तपस्वी त्रस्त हो गए तब उन्होंने असुरों के संधान के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की. प्रार्थना सुन भोले-शंकर ने असुरों के विख्यात तीनों पुरियों को नष्ट कर दिया इसके बाद अग्निदेव ने इसे भस्म करना प्रारंभ कर दिया.

    असुरों पर आए इस संकट के निदान के लिए बाणासुर ने भगवान आशुतोष की कठिन तपस्या की. शिव को प्रसन्न किया और अपनी राजधानी सोनितपुर को भस्म होने से बचा लिया. उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उसे सहस्त्रबाहु और अपार बल का वरदान दिया. बाणासुर ने अपनी तपस्या और शिव भक्ति से यह वरदान प्राप्त किया था, पर उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ की उसकी हजार भुजाओं में हजार हाथियों का बल है. इसके परीक्षण के लिए उसने बाणावर पर्वत श्रृंखला पर मुष्ठिका प्रहार किया. प्रहार करते ही पर्वत खंड-खंड होकर चट्टान के गोल टुकड़ों के साथ बिखर गया. बाणासुर अपनी शक्ति पर स्तब्ध था, तभी उसे त्रिनेत्रधारी का स्मरण हो आया. वह भयभीत हो गया कि बल के इस दुरुपयोग से हे भगवान शंकर उससे नाराज हो कोइ श्राप ना दे, दे. यह बात मन में आते ही वह बिखरे पत्थर के छोटे-बड़े टुकड़ों को अपने सहस्त्रबाहु से एकत्रित कर पुनः पर्वत का रूप देने लगा. कुछ ही देर में उसने पर्वत का पुनर्निर्माण कर दिया. आज यंहा पर्वत शिखरों पर पत्थर के छोटे-बड़े गोले दीखते है.

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