Jaana Nahi Dil Se Door
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About this ebook
Thirsting for the attention of his seniors in college, Sarang begins to use his half-baked knowledge of palmistry to attract friends, but soon he finds more people coming to him for solace than he ever wanted. A runaway student from Jalandhar meets an old aristocrat in Kolkata who wishes to produce remakes of old films. A boy unknowingly befriends a prostitute's son, but has to face his parent's ire when he gets home.Prachand Praveer's new collection of stories on themes as varied as love, youth, death and old age bears testimony to his awareness of the pathos and humour in all things routine and ordinary. A brilliant second book from the writer of Alpahari Grihtyagi.
Prachand Praveer
Prachand Praveer is a chemical engineer who studied at IIT Delhi. His first book Alpahari Grihtyagi: IIT Se Pehle was an instant bestseller.
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Jaana Nahi Dil Se Door - Prachand Praveer
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते
नन्हे बहुत छोटा था। उसकी एक बड़ी दीदी थी। दीदी बहुत बड़ी थी, माँ से लम्बी और पापा से छोटी। नन्हे दीदी की कमर तक आता था। दीदी आठवीं में पढ़ती थी। नन्हे तीसरी में पढ़ता था। नन्हे को स्कूल जाना कभी पसन्द नहीं था, लेकिन दीदी हमेशा स्कूल जाती थी। नन्हे बेचारा स्कूल में हमेशा या तो फेल होता था या फिर किसी तरह पास कर दिया जाता था। स्कूल की गाड़ी में लदे-लदे वापस घर आ जाता था। घर में माँ काम कर रही होती, या सो रही होती। उसे लगता कि बड़े होने में कितना आराम है, आराम से घर में बैठने को मिलता है। पापा अपने मन से सोते हैं, उनको कोई पढ़ने को नहीं कहता। दीदी को पढ़ने में पता नहीं क्या मज़ा आता था।
आज दीदी पढ़ रही थी :
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला क्रिया:...
अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता बसते हैं, और जहाँ पूजा नहीं होती है वहाँ पर सारे काम बेकार हो जाते हैं।"
दीदी बार-बार दोहरा रही थी। नन्हे ने माँ से जा के अर्थात् का मतलब पूछा। माँ ने बताया कि अर्थात् का मतलब मतलब होता है। नन्हे को समझ में ही नहीं आया, ये क्या मतलब है। लेकिन डर के मारे उसने कुछ पूछा नहीं। आखिरी बार उसने आश्चर्य का मतलब पूछा था, लाख बताने पर भी समझ नहीं आया। कुछ होता होगा। लेकिन एक बात नन्हे को समझ में आ गई कि नारी की पूजा होती है। नन्हे ने गौर किया, तो देखा कि दुर्गा जी, काली जी, सरस्वती जी, लक्ष्मी जी सब की पूजा होती है। लेकिन आदमी भगवान कितने कम हैं, एक गणेश जी हैं, लेकिन वो तो हाथी जैसे हैं। आदमियों की कोई पूछ नहीं।
सच में, आदमियों की कोई पूछ ही नहीं होती। क्लास में किशमिश को टीचर कितना मानती है, और नन्हे को हमेशा डाँट सुननी पड़ती है। किशमिश कितनी सुन्दर है। माँ कितनी सुन्दर है, दीदी कितनी सुन्दर है, और नन्हे है जो हमेशा गन्दा रहता है। कभी धूल में गिर पड़ता है तो कभी मैदान में चोट खा जाता है। कपड़े हमेशा गन्दे हो जाते हैं। मामा जी आते हैं तो दीदी को कितना प्यार करते हैं, कितनी टॉफी देते हैं। नन्हे को सब की बात सुननी पड़ती है। दूध नहीं पीता है, क्लास में फेल हो जाता है, पता नहीं बड़ा हो कर क्या बनेगा। नन्हे रिक्शा चलाएगा। दीदी और माँ सब उसके रिक्शा पर घूमेंगे। नन्हे माँ से पैसा नहीं लेगा, ये सुन कर लोग हँसते हैं और फिर बाद में डाँटते भी हैं। किसलिए?
लड़की होने के कितने आराम हैं, शादी कर लो और घर में बैठो। दीदी पढ़ रही है :
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।
दीदी माँ से बोल रही है, माँ, मेरा िडबेट है। और कुछ बात बताओ? नारियों की महत्ता पर कुछ बोलना है। ये साल बालिका वर्ष है। बोलो न।
नन्हे माँ के पास पहुँच गया, माँ िडबेट क्या होता है?
वाद-विवाद,
माँ ने कहा।
मतलब?
नन्हे को नहीं समझ में आया।
तुम चुप रहो, बस घड़ी-घड़ी पहुँच जाते हो। शब्दकोष है न। जाओ देखो।
दीदी कस के चिल्लाती है।
नन्हे चुप से बाहर चला आता है। माँ बोल रही थी, पापा से पूछना। तुम वो श्लोक और डाल सकती हो...
नन्हे को डांटा तो कोई कुछ नहीं बोलता है। नन्हे की दोस्त थी प्रीति। उसको सब बहुत मानते थे। उसके पापा रोज़ उसको टॉफी देते थे, भले ही वो हर बार फेल हो जाती थी। लड़का होना ही ग़लत बात है।
पापा शाम को आ गए। नन्हे पापा से जा कर पूछता है, पापा, नारी महान होती है?
पापा ने कहना शुरू किया, जगद जननी होती है। शक्ति का रूप होती है। उनका आदर करना चाहिए। तुम माँ को कभी तंग मत किया करो, दीदी को भी नहीं। अच्छे से पढ़ो और कपड़ों को इतना मत गन्दा किया करो।
नन्हे क्या पूछे, जगद जननी का मतलब क्या होता है?
नन्हे कमरे में आ कर गुमसुम बैठ गया। छी, वो लड़का क्यों हुआ? भगवान ने कितना बड़ा धोखा दिया है उसे? न वो सुन्दर है, न ही पूजने लायक। अब क्या किया जा सकता है। नन्हे की रुलाई छूट गई। नन्हे पहले सिसकने लगा। लेकिन कोने में कोई उसे देख ही नहीं रहा था। अगर दीदी रोती तो सब दौड़ कर देखने आते। लड़के होने पर कोई रोना भी नहीं देखता। नन्हे से बर्दाश्त नहीं हुआ, और वो ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।
बु हू हू हू...। आँ आ आँ या ऊऊँ ... हु हु।
घर में हड़कम्प मच गया।
क्या हुआ? किसने काट लिया? साँप है क्या?
पापा दौड़ते हुए आए।
क्या हुआ, क्या हुआ? पिंकी तुमने नन्हे को मारा है क्या?
माँ किचन से भागी हुई आई।
नहीं माँ। मैं तो िडबेट के लिए पढ़ रही हूँ। क्या हुआ नन्हे को?
पिंकी दीदी भी आई।
क्या हुआ नन्हे? बोलो?
पापा ने पूछा।
नन्हे नहीं बोलेगा। सब सोचते रहो, नहीं बताया जाएगा।
क्या हुआ?
माँ ने पूछा। नन्हे और जोर से रोने लगा।
क्या हुआ रोंदू? क्यों गला फाड़ रहा है?
पिंकी दीदी ने पूछा।
तुम चुप रहो। जब देखो, इसको तंग करती हो। तुम ने ही कुछ किया होगा।
पापा ने पिंकी दीदी को थप्पड़ दिखाया। पिंकी दीदी इशारा समझ के चली गई।
नन्हे कुछ बोलो?
माँ ने पूछा। फिर थोड़ी देर में वो सब समझ गई जैसे। अच्छा, तुम बैठो, खाना परोस कर तुम्हारे पास आती हूँ।
नन्हे चुप हो गया। माँ कभी धोखा नहीं देती।
खाना खाने के बाद माँ नन्हे के पास आ कर बिछावन पर लेट गई।
क्या हुआ? तुम क्यों रो रहे थे?
माँ ने पूछा।
नन्हे धीरे से बोला, माँ, मैं लड़का क्यों पैदा हुआ?
क्यों?
लड़की होना कितनी बड़ी बात है। है न?
नन्हे ने धीमे से टुकुर-टुकुर ताकते हुआ कहा।
माँ हँसने लगी। ऐसा कुछ नहीं है। किसने कह दिया। अरे, देखो कितने बड़े लोग सब, सब लड़के ही तो होते हैं।
फिर माँ की आवाज़ थम-सी गई। पता नहीं क्या सोचने लगी थी, मेरा राजा बेटा, तू बड़ा हो कर राज करेगा। लड़के ही तो सब कुछ करते हैं।
माँ की आवाज़ कैसी धीमी-सी — घुटी-घुटी-सी हो गई। माँ जल्दी-जल्दी नन्हे को हलकी-हलकी थपकियाँ देने लगी। वह कहीं और देख रही थी।
नन्हे को समझ में ही नहीं आया कि क्या हुआ। माँ, जगद जननी मतलब?
सब को पैदा करने वाली...
माँ ने कहा।
नन्हे को नहीं समझ में आया। नन्हे ने फिर से पूछा, माँ, अर्थात् का मतलब...
माँ ने कुछ नहीं कहा। फिर नन्हे को देखा, और कहा, अभी सो जाओ। कल बताऊँगी।
नन्हे ने आँखें मूँदी और गहरी नींद में खो गया।
सितम्बर 2007
118122.pngसमीक्षा
मैं शोध के लिए प्रस्तावना दे रही हूँ। इस प्रस्तुति से मैं ख़ुद ही विवश हूँ। मैं नहीं जानती मैं किस विषय को सम्बोधित कर रही हूँ। इस स्थिति से लज्जित हो कर मैं विश्वविद्यालय के मानविकी विभाग के प्राध्यापकों से ये अनुरोध करती हूँ कि इस सम्बन्ध में वो मेरा मार्गदर्शन करें। ये न साहित्य से पूरी तरह सम्बन्धित है, न ही दर्शन से। मैं इसे मनोविज्ञान नहीं कहूँगी, न ही फ़िल्म संगीत पर परिचर्चा। मेरा दृढ़ विश्वास है कि मेरी प्रस्तावना शोध के लिए पूरी तरह उपयुक्त और समीचीन है।
मेरा शोध कुछ ऐसे पृष्ठों से सम्बन्धित है जो किसी अनाम लेखक के हैं। ये मुझे विश्वविद्यालय के प्रांगण में नहीं मिले, वरन एक छोटे-से मूँगफली के ठेले पर। मेरी इस स्वीकृति पर, जो मेरे शोध का आधार है, मेरे कई प्रियजनों ने मेरे विचारों पर गहरा खेद प्रकट किया। सबके अनुरोध, उपहास, व्यंग-बाणों को सहती मैं यह प्रस्तुति रखते हुए ख़ुद को गौरवशालिनी समझ रही हूँ। मेरी स्वीकारोक्ति दम्भ की श्रेणी में नहीं आती है, मैं इसका प्रमाण दे सकती हूँ।
कुछ दिनों पहले, गंगा महोत्सव के दिन अपनी सखियों के साथ मैं जब उस मूँगफली के ठेले पर रुकी, तब कुछ-कुछ ऐंठे और पीले पड़ चुके पुराने पन्नों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। इन पन्नों का भविष्य शायद वही होता जो मेरे हाथ में मूँगफली के दोने का वर्तमान था। किसी की धरोहर शायद गरीबी या फिर उद्वेग के कारण जो इस तरह लाचार मिली थी।
पहले ही पन्ने पर सुन्दर नीली रोशनाई से अंकित सुदृढ़ अक्षरों में लिखा था —
चाँदनी रात बड़ी देर के बाद आई है, ये मुलाकात बड़ी देर के बाद आई है। आज की रात वो आए हैं बड़ी देर के बाद, आज की रात बड़ी देर के बाद आई है।
लाली ने अनुबोध को देखते ही अपने गुलाबी दुपट्टे को उँगलियों से छुड़ाते हुए कहा।
ये था मेरे आकर्षण का कारण। मैं जानती हूँ ये पंक्तियाँ स्वर्गीय मीना कुमारी जी की आखिरी चलचित्र पाकीज़ा से हैं। मजरूह सुल्तानपुरी जी की अद्भुत लेखनी का एक उत्कृष्ट उदाहरण! आज तक के मेरे अध्ययन काल में चलचित्रों का प्रसंग अनुचित और धृष्ट माना जाता है। पर शोध के लिए मैं वो सारी वर्जनाएँ तोड़ देना चाहती हूँ जो मेरे अस्तित्व का निर्धारण करती आई हैं। मेरा पहला प्रश्न है — क्या हम परिचित से आकर्षित होते हैं या नवीनता से? क्या उत्कृष्टता हमारी चेतना पर हावी होती है या उन्माद? ऐसे कई प्रश्न हैं जो मुझे इन अनाथ पन्नों में मिले। मैं उस लेखक का सम्मान करते हुए कहना चाहती हूँ कि इस शोध में मैं लेखक के सन्दर्भ में कोई सूचना नहीं रखती, ना ही ऐसी अपेक्षा रखती हूँ। लेखक के परिचय की उपस्थिति एक नवीनता का अनादर करती है जो हमने परम्परा और अनभिज्ञता से आज तक सहेज रखा है। मेरा प्रश्न उस परम्परा की वैधता और गरिमा पर है जो किसी बिन्दु से सारे आयाम जानने और परखने की आकांक्षा रखता है, और इसे अपनी विवशता कहता है।
काश, मैं सारी कहानी उद्धृत कर पाती, लेकिन कुछ अनुच्छेदों का विवरण दे कर मैं एक महान कृति का परिचय देना चाहती हूँ। चूँकि मैं लेखक को नहीं जानती, इसलिए ये रचना कभी प्रकाशित नहीं हो सकती। मेरा ये नैतिक अधिकार भी नहीं कि मैं किसी पत्रिका में इसके मूल्यांकन के लिए सम्पर्क करूँ। फिर भी मैं अपना कर्त्तव्य समझ कर अपने शोध के माध्यम से इस अनुपम कृति को समस्त जगत के सामने लाना चाहती हूँ। इतने पुराने पृष्ठ देख कर ये अनुमान लगाया जा सकता है कि लेखक अपनी रचना से कोई स्नेह नहीं रखता या रखने लायक नहीं रहा। कदाचित उसकी जीवनयात्रा समाप्त हो चुकी है या सम्भव है वो अब भी जीवित है, मैं इस बात से भी सम्बन्ध नहीं रखना चाहती।
बिना शीर्षक की इस कहानी को मैं 'समीक्षा' कह कर सम्बोधित करना चाहती हूँ। ये सम्बन्धों की समीक्षा है, ऐसा ही था कुछ लाली और अनुबोध का सम्बन्ध। इन पंक्तियों को देखिये —
पापा, कितनी देर लगा दी।
लाली अल्हड़ता से शिकायत करती है। शाम ढल चुकी थी और रात बस निकलने ही वाली थी। अनुबोध लाली का हमउम्र था, उसने लाली के साथ गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा — लाली बिटिया, यूँ ही कोई मिल गया था, सरे राह चलते चलते। वहीं थम के रह गई थी मेरी रात ढलते-ढलते।
लाली की स्थिति काल से परे है और मैं ये भी जानना चाहती हूँ कि रात कब और कैसे निकलती है? अनुबोध की बेटी उसकी हमउम्र है, इस पर मैं प्रश्न नहीं कर सकती। क्योंकि मैं जानती हूँ — ये उसके अस्तित्व पर कुठाराघात है। मेरे तमाम प्रयासों के बाद भी मैं ख़ुद को नहीं रोक पा रही कि मैं इस सन्दर्भ में समीक्षा की बातें कहूँ, पर उसके बिना यह सम्भव नहीं। कदापि नहीं।
लाली, तुम शाम की लाली हो या सुबह की?
अनुबोध पूछता है।
लाली, बस पापा की लाली है।
लाली ख़ूब ठठा कर हँसती है और अपने गुलाबी सूट को सँभालती है। लाली का दुपट्टा बहुत लम्बा है, दिल्ली से शुरू हो कर इंदौर पर खत्म होता है।
लाली और अनुबोध अगले बस स्टॉप तक पैदल चल रहे हैं।
तुम पापा की लाड़ली लाली कब बनीं?
पापा ने एक बार बेटी से कहा था — वो है करिश्मा, है नाज़ उस पर! लाखों में है एक सोने से बढ़ कर, भोली अदाएँ आँखों का तारा है वो। वो थी, वो है, रहेगी, टुकड़ा इस दिल का वो, हमेशा!
दोनों हँसते हैं।
इन पंक्तियों में शायद कुछ भी अद्वितीय न लगे, शायद ये शब्दों का भ्रमजाल है, पर मैं क्यों इनमें िखंची चली जाती हूँ? आगे जब लाली और अनुबोध बातें करते हुए यूँ ही कोई मिल गया था
गाने की चर्चा करते हैं। किस तरह का निर्देशन? क्या ये व्यक्तित्व की परिभाषा है? जैसा कि नीचे देखिये —
पापा, आप बस मेरे जितने बड़े हो। कॉलेज अभी-अभी छूटा है आपका। क्यों ऐसे सवाल करते हो? मैंने तो नहीं कहा कि मैं डाइरेक्टर बनना पसन्द करूँगी।
फिर भी लाली, बताओ, अगर ये गाना तुम्हें फ़िल्माना हो तो कैसे फ़िल्माओगी? थोड़ा सोचो।
सोचने का समय दो न पापा।
किसी नए रीमिक्स वाले डाइरेक्टर को मिलता तो कैसे बनाता — एक समन्दर का किनारा होता। एक सुन्दर लड़की, एक छरहरा बलिष्ठ जवान चल रहा होता, कभी एक-दूसरे को ताकते या मुस्कुराते, पीछे रीमिक्स किया हुआ शोर... कभी लड़की को नहाते हुए दिखाते, कभी लड़के के बाजुओं को... तुम ऐसा मत बनाना।
पापा, आप फालतू टीवी मत देखा करो।
लाली मुँह बिचका के कहती है। फिर जैसे उसे कुछ याद आया। कहती है — मुख़्तसर मतलब?
मतलब छोटी… खत्म होने वाली। क्यों?
वो लाइन है न — शब-ए-इन्तज़ार आख़िर कभी होगी मुख़्तसर भी, कभी होगी मुख़्तसर भी, ये चिराग, ये चिराग बुझ रहे हैं, ये चिराग बुझ रहे हैं, मेरे साथ जलते जलते... यूँ ही कोई मिल गया था, यूँ ही कोई मिल गया था...
वाह। तुम्हें तो अच्छे से याद है।
पापा की बेटी हूँ, पापा से कम नहीं हो सकती न। लेकिन पापा इसका जवाब मैं कल दूँगी। मुझे थोड़ा समय दे दो।
ठीक है।
पापा ये बताओ, आप कैसे फ़िल्माते इसको?
मैं... मैं इसे किसी ख़ूब भीड़-भरे बाज़ार में फ़िल्माता। मेरी नन्ही लाली बाज़ार में पैदल चल रही होगी। काफी चहल-पहल है। चूड़ियों की दुकानें, बाजे, बच्चे, शोर-शराबा, लोग आ-जा रहे होंगे... वहीं पर कोई आ कर हलके से लाली का हाथ अपने हाथों में थाम लेगा... फिर लाली शरमा जाएगी... और फिर...
कौन आएगा पापा?
तुम्हारा राजकुमार — करन।
प्लीज़ उसका नाम मत लो, अनुबोध।
चलचित्रों से हम भले ही बचते रहें लेकिन ये हमारे जन मानस में कहीं अन्दर तक उपस्थित है। हम क़ैफ़ी आज़मी, साहिर, शकील बदायूँनी की पँक्तियों से कहीं ज़्यादा जुड़े हुए हैं, जितना कि मैथिली शरण गुप्त, महादेवी वर्मा, त्रिलोचन शास्त्री से। इसी रचना में आगे लाली इस बात को स्वीकार भी करती है। हम देव आनन्द और गुरु दत्त के गाने भी सुनते हैं। समीक्षा भले ही फ़िल्म संगीत से अन्तरंग ढंग से जुड़ी है, पर उतनी ही मानवीय सच्चाईयों से परिचित भी है। आगे जब लाली ‘सुजाता’ के गाने के बारे में बातें करती है तो अनुबोध की प्रतिक्रिया, मेरे हिसाब से उत्तर आधुनिक साहित्य की प्रमुख रचनाओं में गिने जाने योग्य है।
हमारी तुम्हारी ज़िन्दगी कितनी समान है। हम दोनों छोटे जगहों से, टी०वी० देख कर, फ़िल्मों के गाने सुन कर बड़े हुए हैं। तुम्हे पता है अनुबोध, मेरे पापा जब ऑफिस से घर आते थे तो माँ पियानो पर ये गाना गाती थी —
धीरे धीरे मचल ऐ दिल-ए-बेकरार, कोई आता है... और जब सावन घिर कर काले बादलों से सीधे टीन की छत पर ज़ोर से उतर आने वाला होता था तो माँ गाती थी —
देख रे घटा घिर के आई, पापा कहते थे —
रस भर भर लाई... फिर दोनों गाते थे —
घटा घिर के आई।" जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई दोनों का गाना कम होता गया। शायद माँ को पसन्द नहीं था।
अनुबोध खोयी हुई लाली को देख कर खाली पड़े बस के सूनेपन को तोड़ते हुए कहता है — जब हम छोटे थे, तो गर्मियों में अक्सर छत पर बैठ जाते थे। कैसे चाँदनी उतर आती थी, पूरे शहर को ओढ़ लेती थी। हमारा घर नारियल और नीम के पेड़ों से घिरा था। एक कागजी बादाम का पेड़ आँगन में था। उसमें से हमें चन्दा मामा छुपे-छुपे नज़र आते थे। ठण्डी हवा का झोंका आता था। मेरी छोटी बहन पालने में हुआ करती थी। बिल्कुल दूध जैसी गोरी, दाँत भी नहीं थे उसके। माँ सारा काम करने के बाद थकी होती थी, फिर भी शाम को नहा कर पूजा-पाठ करके ऊपर छत पर आती थी। मेरी बहन को पालने में झुलाती थी, और कैसे मधुर-मधुर मद्धिम-मद्धिम गाती थी —
नन्हीं कली सोने चली हवा धीरे आना। नींद भरे पंख लिए, झूला झुला जाना। माँ गाती थी, हम लोग चौंके-चौंके माँ को देखते थे, पापा मन्द-मन्द मुस्कुराते थे। मुझे और भाई को गोद में ले कर ख़ूब दुलार करते थे। माँ आगे गाती थी —
रेशम की डोर अगर पैरों को उलझाये, रेशम की डोर अगर पैरों को उलझाये, घूँघर का दाना कोई शोर मचा जाए, दाने मेरे जागे तो फिर निंदिया तू बहलाना। नींद भरे पंख लिए, झूला झुला