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Yasi Rasa Ta
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Ebook277 pages3 hours

Yasi Rasa Ta

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About this ebook


In this story of three cousins, Vinod Kumar Shukla has introduced the meagre material culture of Chhatisgarh villages illuminated by Yasi, Rasa and Ta's sense of wonder about their parents' existence and the world at large. It is a children's book because the narrative is simple. It is a poet's book because each object - chappal, ghada, katori, phugga - seems more than itself, full of primal sounds and dipped in the mystery of 'being'.The exquisite beauty of the text reminds one of Saint-Exupery's Little Prince. It can become a source of wonder for both children and adults around the world.A dream of small-scale harmony against a cosmic backdrop.
LanguageEnglish
PublisherHarperHindi
Release dateJan 10, 2017
ISBN9789352643806
Yasi Rasa Ta
Author

Vinod Kumar Shukla

VINOD KUMAR SHUKLA is a poet and novelist from Raipur, Chhattisgarh. In 1999, Shukla received the Sahitya Akademi Award for his novel, Deewar Mein Ek Khidki Rehti Thi. In 2023, he was awarded the PEN/Nabokov Award for Achievement in International Literature.    

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    Yasi Rasa Ta - Vinod Kumar Shukla

    2

    जेब से फर्श पर गिरे

    जितने सिक्के

    पड़े मिले उससे अधिक

    मामा को, इतनी देर बाद लग रहा था जैसे बहुत दिनों बाद खाना खायेंगे। आम तोड़ने छत की सीढ़ी पर वे सीढ़ियाँ ऊपर तक चढ़े पर बिना तोड़े उतर आये।

    मामा! मैंने खाना परस दिया—यासि ने कहा।

    और खाने की टेबिल पर आम रखा था। देखकर मामा को अच्छा लगा। टेबिल पर थाली लगी थी। थाली के पास एक रुपये का सिक्का पड़ा था। सिक्का क्यों? रासा ने रखा होगा।

    सिक्के को अनदेखा किया। कुर्सी पर बैठे।

    रासा की आवाज आयी—मामा! खाने के पहले हाथ धो लीजिये!

    रासा की आवाज टेबिल के नीचे से आयी। मामा टेबिल के नीचे झाँकते झुके। उन्होंने कमीज की जेब को बाँये हाथ से दबा लिया कि सिक्के हों भी तो न गिरें। सिक्कों ने मामा का साथ दिया था। वे जेब में नहीं थे। जेब में जो सिक्के नहीं थे उन पर भी वे भरोसा नहीं करते। असल में उन्हें अपने ऊपर भरोसा नहीं था, उन्हें लगता कि रासा को देखने टेबिल के नीचे झुको तो जेब से सिक्के गिर सकते हैं चाहे हों या न हों।

    टेबिल के नीचे बैठी, रासा आम खा रही थी। मामा के नीचे झाँकते ही रासा ने कहा—एक आम आपके लिए भी है। रासा ने आम को दिखाया—आम जो सिक्का नहीं था। सिक्के की जगह आम देखकर मामा को अच्छा लगा। और वे हाथ धोने चले गये।

    यासि ने बहुत अच्छे से खाना परोसा था। सब्जी, दाल कटोरियों में थी। एक रोटी थी। रोटी खतम हुई तो यासि ने दूसरी रोटी रख दी।

    टेबिल के नीचे से रासा ने यासि से तब पूछा—एक रोटी खा लिये क्या?

    हाँ खा लिये—मामा और यासि दोनों ने कहा।

    दूसरी रोटी खतम हो जाये तो बताना—रासा ने कहा। केवल यासि ने हाँ कहा था।

    यासि ने कटोरी में दाल डाल दी, कम थी।

    रासा को बताया—मामा को दुबारा दाल दी। दूसरी रोटी मामा नहीं खा रहे हैं। बस दाल पी रहे हैं।

    मामा रोटी नहीं खा रहे हैं, पता नहीं क्यों?

    दाल और है?—मामा ने पूछा।

    हाँ, है।—यासि ने कहा और दाल कटोरी में डाल दी।

    दूसरी रोटी खा लिये?—रासा ने मामा से पूछा।

    नहीं खाया।—मामा ने कहा।

    मामा ने रासा से पूछा—क्यों पूछ रही हो?

    यासि ने कहा—माँ ने अच्छे से खिलाने के लिए कहा है।

    रासा ने कहा—दाल पीना अच्छे से खाना नहीं है।

    बाहर जाते समय माँ ने दो बार कहा था कि मामा को अच्छे से खाना खिला देना। फिर तीसरी बार कहा, मामा को आम भी देना।

    मामा की दूसरी रोटी आधी खतम हो गयी।

    तब यासि ने पूछा—मामा आप कितनी रोटी खाते हैं?

    मामा ने कहा—चार।

    यासि ने दो रोटी थाली में रख दिये। कटोरी में सब्जी डाल दी।

    यासि ने जोर से घोषित करते हुए कहा ताकि रासा सुन ले, बल्कि उससे भी जोर से—मामा की दूसरी रोटी खतम होने वाली है। मामा चार रोटी खाते हैं। मैंने तीसरी और चौथी रोटी थाली में डाल दी है।

    टेबिल के नीचे रासा ने कहा—सुन लिया।

    मामा—मैं दूसरी रोटी खतम कर रहा हूँ।

    मामा ने दूसरी रोटी का आखिरी टुकड़ा उठाया। तभी यासि ने मामा की थाली उठा ली।

    थाली क्यों उठा ली?—मामा ने पूछा।

    शान्त यासि ने मामा से कहा—आधा खाना मैंने खिला दिया। माँ ने दोनों से खिलाने को कहा था। अब आपको टेबिल के नीचे, रासा की बारी में खाना है।

    तब सिर के ऊपर एक हाथ से थाली उठाये यासि कत्थक की मुद्रा में पैरों से चट! चट! कर, दूसरा हाथ कमर में रखे स्थिर खड़ी थी। थाली लेने टेबिल के नीचे से रासा थोड़ा बाहर आयी। यासि ने रासा को थाली पकड़ा दी।

    मामा! टेबिल के नीचे खाना खाने आइये।—बड़ों के समान रासा ने कहा।

    मामा जैसे उनके खेल में शामिल थे। भूख थी। रासा ने टेबिल के नीचे बैठने, मामा के लिए अखबार बिछाया था। मामा टेबिल के नीचे घुसे। उनकी दाहिने हाथ की उँगलियों में दाल-सब्जी लगी थी। इस हाथ को वे जमीन से नहीं छुआ रहे थे। नहीं तो हाथ धोने जाना पड़ेगा। मामा से बिछा अखबार उसल कर फट गया। रासा को यह अच्छा नहीं लगा।

    किसी तरह बैठे, सिर झुकाये मामा खाने लगे।

    टेबिल के नीचे से रासा ने कहा—दीदी! एक रोटी बची है।

    यासि टेबिल से कुछ हटकर कुर्सी पर बैठी थी। रासा को नीचे से यासि के पैर दिखे। यासि घुटने पर रखे पैर को हिलाने लगी।

    दीदी! तुम कुर्सी पर बैठी हो!—रासा ने यूँ ही कहा।

    हाँ!—यासि ने कहा।

    मामा भात खायेंगे?—यासि ने रासा से पूछा।

    हाँ।—मामा ने कहा।

    मामा की चौथी रोटी खतम हो गयी। गेट खुलने की आवाज मामा को आयी।

    दीदी आ गयी।—मामा ने कहा। मामा नीचे से निकलने लगे।

    पड़ोसी के दरवाजे की आवाज है।—यासि ने कहा। और मामा का बाहर निकलना रह गया।

    रोटी खतम हो गयी।—रासा ने यासि को बताया।

    मैं क्या करूँ? मामा को भात दूँ?—यासि ने पूछा।

    हाँ! भात खाऊँगा।—मामा ने कहा।

    रासा ने थाली यासि दीदी को पकड़ा दी। यासि ने भात परोसा, और मामा को थाली दिखाकर पूछा—इतना भात ठीक है?

    मामा का मन तो हुआ, थोड़ा और ले लें। पर वे टेबिल के नीचे से, जल्दी खाकर मुक्त होना चाहते थे।

    उन्होंने कहा—ठीक है।

    यासि ने भात से आधा भात निकाल लिया। असल में वह, आधा भात टेबिल के ऊपर अपनी बारी में खिलाना चाहती थी। आधा भात वाली थाली उसने रासा को पकड़ा दी। मामा ने भी देखा कि भात कम कर दिया गया है।

    घर के गेट खुलने की आवाज आयी।

    माँ आ गयीं!—यासि ने कहा।

    माँ!—रासा ने अन्दर आती माँ के पैरों को देखा।

    बेटी!—निया ने कहा।

    माँ! आपके बाँयें पैर की बिछिया कहीं गिर गयी!—रासा ने कहा।

    निया को टेबिल के नीचे बैठे रासा और भूना नहीं दिखे थे। वह सीधे कमरे में गयी। और कपड़े बदलने लगीं। वहाँ से बोलीं—बिछिया घर में है। खोई नहीं। टूट गयी थी तो रख दी थी।

    मामा कहाँ गये?—दीदी ने पूछा। भूना उसे दिखे नहीं थे। कहाँ से दिखते, टेबिल के नीचे थे।

    थाली लो! भात खतम हो गया।—थाली यासि को पकड़ाते हुए रासा ने कहा।

    यासि ने थाली पर बाकी भात परोस दिया, जिसे मामा को टेबिल के ऊपर खाना था।

    दीदी टेबिल के पास आकर पानी पीने लगी। टेबिल पर रखी थाली देखकर दीदी ने पूछा—मामा ने क्या इतना भात छोड़ दिया?

    किसी ने कुछ नहीं कहा।

    छोड़ा नहीं। मैं खाने आ रहा हूँ—टेबिल के नीचे से निकलते मामा ने कहा। वे धीरे-धीरे, घुटने के बल टेबिल के नीचे से निकले। दीदी पीछे हट गयीं और आश्चर्य से कहा—भूना!

    क्षण भर में पूरे भूना बाहर निकले। और निकलते ही भात खाने बैठ गये। सब चुप थे और किसी के बोलने के पहले जल्दी-जल्दी खाकर मामा ने भात खतम भी कर दिया था।

    भात खतम हो गया—यासि ने रासा से तब कहा।

    अब मामा को आम टेबिल के नीचे खाना था। टेबिल के नीचे रासा के हाथ में आम, मामा को दिख रहा था, शायद रासा मामा को दिखा रही थी। तथा एक आम टेबिल के ऊपर कटोरे से ढँका हुआ रखा था। बाद में जिसे वे शायद बाहर टेबिल पर खायेंगे। और तब सबने देखा, मामा आम खाने टेबिल के नीचे जा रहे हैं।

    टेबिल दीवाल से सटी थी। छैः कुर्सियों वाली टेबिल थी, अभी चार थीं। उसकी दो कुर्सियाँ पूरे घर में इधर-उधर होती रहती थीं। अभी जैसे पूरा घर टेबिल के इधर-उधर हो रहा था। टेबिल के ऊपर एक गिलसिया में ऊपर तक भरा, पीने का पानी रखा था। क्या मामा को इसका आधा पानी टेबिल के ऊपर पीने के बाद, टेबिल के नीचे पीना था!

    0

    वेन्द्र जब यासि और रासा की माँ को निया बुलाते तो पुकारने में तत्काल दोनों बेटी पिता की सहायता अपनी पुकार जोड़ कर करतीं—ओ निया माँ! ओ निया माँ!! वेन्द्र की पुकार के बाद बच्चों की पुकार होती। पर पिता की पुकार बाद में पहुँचती। या नहीं पहुँचती। वेन्द्र धीरे पुकारते। बच्चों के इस तरह बुलाने को माँ समझ जातीं कि वेन्द्र ने बुलाया होगा। लगता हाजिरी पर बुला रहे हैं। वे भूल जाते कि सभी घर पर उपस्थित हैं। गैरहाजिर कोई नहीं।

    तब माँ बच्चों को जवाब देतीं—चिल्लाओ मत। आ रहीं हूँ।

    और वेन्द्र समझ जाते कि उन्हें भी चिल्लाने के लिए मना किया गया है। वेन्द्र बाद में जब पुकारते तो धीरे पुकारते। नहीं सुनती तो उसके पास जाकर पुकारते। सही माने में वेन्द्र, पत्नी से दिनभर पुकार-पुकार कर बात करते थे।

    वेन्द्र और पत्नी निया हर साल, मिलकर घर की पुताई करते। बच्चों की गोदा-गादी दीवाल में रहती। लकीरें कितने प्रकार की हो सकतीं हैं इसका प्रदर्शन घर की दीवालों पर रहता। लकीरों को संरक्षित किया जा सके जैसी लकीरें। घर में यह प्रदर्शन खुले आम रहता। बच्चों को डाँटा भी जाता।

    खाने की टेबिल जहाँ दीवाल से सटी थी, वहाँ टेबिल के नीचे की दीवाल पर रासा की गोदा-गादी की लकीरें थी। उन लकीरों में आकृतियों का घर था। इसे एक बार के बाद दूसरी बार देखो तो आकृतियाँ बदल जातीं। जैसे उनमें कोई और आ गया। असंख्य लकीरें। पता नहीं कहाँ से इन बनी लकीरों में आकृतियाँ उभर कर आती-जातीं और बदल-बदल आती-जाती।

    यासि का बस्ता टेबिल पर रहता, दीवाल से टिका हुआ। यासि बस्ता की आड़ में अपनी लकीरों को छुपा कर रखती। वह बस्ता उठाती। बस्ता हटते ही उसकी लकीरें कुलबुलाती दिखाई देतीं। जैसे यासि उन्हें अब खाना देगी। बस्ता हटाने से लकीरें कहीं फर्श पर गिर न जायें, ऐसा यासि को लगता। रासा की खींची लकीरें जैसे यासि को पहचानती होंगी। और यासि की लकीरें रासा को। घर की पुताई की आड़ से पिछले साल की लकीरें अचानक दिखाई देतीं। वेन्द्र और पत्नी लकीरों पर पुताई का रंग, फीका चलाते होंगे कि फीके रंग की आड़ में बची रहें। रासा की तीन साल की ऊँचाई पर पिछले साल की बनी लकीरों पर माँ ने पिछले साल रंग नहीं पोता था, कि इस साल रहने देते हैं।

    3

    अँधेरे के काले बोर्ड पर

    सफेद चाक से बने सूरज का

    सूर्योदय

    घरों में प्रायः काले फर्शी पत्थर लगे होते, पुराने और नये बनते घरों में भी। बच्चों के लिखने की शुरुआत घर के इन्हीं पत्थरों पर होती थी। पास के गाँव में फर्शी पत्थर की खदान

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