योग और योगा की शक्ति
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बह्माकुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्यालय के विचारों पर आधारित ‘‘अवैकनिंग विद द ब्रह्माकुमारीज’’ टेलीविजन कार्यक्रम के अन्तर्गत बी0के0 सिस्टर शिवानी और फिल्म अभिनेता सुरेश ओबेराॅय के बीच दार्शनिक वार्ता एवं बी0के0 सिस्टर शिवानी-कनुप्रिया के साथ विभिन्न विषयों पर दार्शनिक वार्ता का उपयोग मानसिक योग की व्याख्या में की गई है।
बह्माकुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्यालय के विचारों पर आधारित ‘‘अवैकनिंग विद द ब्रह्माकुमारीज’’ टेलीविजन कार्यक्रम के अन्तर्गत बी0के0 सिस्टर शिवानी और फिल्म अभिनेता सुरेश ओबेराॅय के बीच दार्शनिक वार्ता एवं बी0के0 सिस्टर शिवानी-कनुप्रिया के साथ विभिन्न विषयों पर दार्शनिक वार्ता का उपयोग मानसिक योग की व्याख्या में की गई है।
बह्माकुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्यालय के विचारों पर आधारित ‘‘अवैकनिंग विद द ब्रह्माकुमारीज’’ टेलीविजन कार्यक्रम के अन्तर्गत बी0के0 सिस्टर शिवानी और फिल्म अभिनेता सुरेश ओबेराॅय के बीच दार्शनिक वार्ता एवं बी0के0 सिस्टर शिवानी-कनुप्रिया के साथ विभिन्न विषयों पर दार्शनिक वार्ता का उपयोग मानसिक योग की व्याख्या में की गई है।
वर्जिन साहित्यपीठ
सम्पादक के पद पर कार्यरत
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योग और योगा की शक्ति - वर्जिन साहित्यपीठ
योग और योगा की शक्ति
मनोज कुमार श्रीवास्तव
मनोज कुमार श्रीवास्तव
9412047595 dio.hdr2010@gmail.com
सम्प्रति: सहायक निदेशक, सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग: प्रभारी अधिकारी, उत्तराखण्ड विधान सभा मीडिया सेन्टर, उत्तराखण्ड सरकार
लेखक की पूर्व प्रकाशित पुस्तक
मेडिटेशन के नवीन आयाम,प्रभात प्रकाशन(दिल्ली), 2016
आत्मदीप बनें,प्रभात प्रकाशन(दिल्ली), 2017
निर्णय लेने की शक्ति,वर्जिन साहित्यपीठ(दिल्ली), 2018
Be Your Own Light,वर्जिन साहित्यपीठ(दिल्ली), 2018
सम्मान:
विक्रमशीलाहिन्दीपीठद्वाराविद्यावाचस्पति(पीएचडी)मानदउपाधि
दो शब्द
मनोज कुमार श्रीवास्तव जीवन की चुनौतियों को दार्शनिक पैमाने से विश्लेषित करते हैं। विश्लेषण के बाद समस्याओं का व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करते हैं। इनके पूर्व पुस्तकों में भी सामान्य जीवन का दार्शनिक विश्लेषण किया गया है। इस विश्लेषण में समस्या को सामने रखकर सरल समाधान प्रस्तुत किया गया है। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद में 2 फरवरी, 1971 को जन्मे, मनोज श्रीवास्तव ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय अकादमिक में प्रतिरक्षा अध्ययन, अर्थशास्त्र, प्राचीन इतिहास, आधुनिक इतिहास विषयों की पढ़ाई की। उत्तराखण्ड पीसीएस, 2002 बैच, प्रशासनिक सेवा में आने के बाद दर्शन के आधाभूत तत्व का व्यवहारिक विश्लेषण प्रारम्भ किया।
यह अकारण नहीं है कि इस पुस्तक में भी दार्शनिक पहलुओं की व्यवहारिक अभिव्यक्ति हुई है। पुस्तक के समस्त कथ्यों में मोटिवेशनल (प्रेरणा परक) प्रतिध्वनि देखी जा सकती है।
समर्पण
दादा लेखराज, ब्रह्मा बाबा-संस्थापक प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्यालय
आभार
बह्माकुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्यालय के विचारों पर आधारित ‘‘अवैकनिंग विद द ब्रह्माकुमारीज’’ टेलीविजन कार्यक्रम के अन्तर्गत बी0के0 सिस्टर शिवानी और फिल्म अभिनेता सुरेश ओबेराॅय के बीच दार्शनिक वार्ता एवं बी0के0 सिस्टर शिवानी-कनुप्रिया के साथ विभिन्न विषयों पर दार्शनिक वार्ता का उपयोग मानसिक योग की व्याख्या में की गई है।
आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध एवं होम्योपैथी(आयुष) मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रचारित पुस्तिका अन्तर-राष्ट्रीय योग दिवस, सामान्य योग दिवस, अभ्यासक्रम (प्रोटोकाल) - शारीरिक योग - अभ्यास अनुक्रम की सहायता से शारीरिक योग के महत्वपूर्ण पहलूओं को दर्शाया गया है।
पुस्तक रचना में अमूल्य सहयोग देने वाली धर्म पत्नी श्रीमती रश्मि श्रीवास्तव के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दर्शन शास्त्र विभागाध्यक्ष प्रो0 ऋषिकान्त पाण्डेय एवं डा. शिप्रा मिश्रा ने पुस्तक लेखन में निरन्तर उत्साहवर्द्धन किया। मेरे सहायक श्री गोपाल सिंह बिष्ट और इंजीनियर राकेश श्रीवास्तव का अमूल्य सहयोग मिला।
इन सभी का हार्दिक आभार।
भूमिका
पुस्तक लेखन का उद्देश्य 21 जून, अन्तर-राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर सम्मिलित प्रयासों में जागरूकता लाना है। जागरूकता लाकर आम जन तक योग का लाभ पहुचाना है। योग का सामान्य अर्थ मन और शरीर में सन्तुलन स्थापित करना एवं आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना है।
योग और योगा को सामान्य प्रचलित अर्थों में देखा जाय, सामान्य व्यक्ति योग को योगा का नाम देकर योग का अर्थ मात्र शारीरिक व्यायाम के रूप में जानता है। परन्तु शारीरिक व्यायाम एवं प्राणायाम योग की प्रारंम्भिक स्थिति है। योग का अन्तिम लक्ष्य ईश्वर से योग लगाकर ऊर्जा प्राप्त करना है। ऊर्जा प्राप्त कर आत्म साक्षात्कार करना है।
आज के जीवन में हम इतने खो गये हैं कि ईश्वर या आस्था को भूलते जा रहे हैं। इसका मूल कारण है हमारे ऊपर अस्तित्ववादी प्रभाव। अर्थात् मेरा ही अस्तित्व है, केवल मैं हूं। केवल मैं से अहम आता है। इस प्रभाव से हम स्वतंत्रतावादी सोच से जीवन जीने लगते हैं। अस्तित्ववादी दार्शनिक सात्र कहता है कि मानव स्वतंत्र है और स्वतंत्रता के लिए अभिशप्त है। इस विचार से व्यक्ति अकेले जीवन जीना चाहता है। उसे समाज का ख्याल नहीं होता लेकिन व्यक्ति के जीवन में तो समाज का हस्तक्षेप आएगा ही। व्यक्ति इस हस्तक्षेप से बचना चाहता है और इसके लिए अनेक प्रकार के झूठ का सहारा लेना चाहता है। एक तो व्यक्ति समाज से झूठ बोलता है और दूसरा झूठ वह होता है जो व्यक्ति अपने आप से बोलता है। इसे आत्म प्रवंचना या बैड फैथ कहते हैं। अर्थात् व्यक्ति गुड फेथ, गाॅड आस्था (फेथ) व ईश्वर को छोड़कर केवल अपने बल पर जीवन चलाना चाहता है।
जब व्यक्ति के सामने चुनौतियां, कठिनाईयां आती हैं, तो वह अपने को अकेला पाता है। इसमें व्यक्ति असफल होता है तो व्यक्ति में कुंठा, हताशा, निराशा व अवसाद जन्म लेता है। समाज, मित्र, सगे संबंधी, ईश्वर को इसका दोष देता है। हमें अगर सही जीवन जीना है तो हमारे पास आस्था के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। व्यक्ति के पास आज सूचनाओं को अंबार है, परन्तु ज्ञान नहीं है। जिनके पास ज्ञान है, उनके पास अहंकार है। अहंकार के बिना ज्ञान विवेक कहलाता है। यदि हमारे पास विवेक है, अर्थात सही विचार हैं तो हम प्रत्येक क्षेत्र में सफल होंगे।
वैज्ञानिक रूप में जहां सभी चीजों का व्यवसायीकरण हो रहा है वहां हमें यह भी देखना होगा कि उन चीजों का क्या मूल्य है जो व्यवसाय से संबंधित न होकर शुद्ध आत्मचिंतन से संबंधित हैं।
यह सत्य है कि वैज्ञानिक युग में टैक्नोलाजी का महत्व बड़ा है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जहां इससे हमारी भौतिक सुविधाओं में वृद्धि हुई है वहीं दूसरी ओर हमारी आंतरिक अशांति में भी अपार वृद्धि हुई है। आज हम ऐसे विश्व में रह रहे हैं जहां सब कुछ रिमोट दबाते ही उपलब्ध हो जाता है। इसके बावजूद मनुष्य को शांति नहीं है। प्रशन उठता है ऐसा क्यों है? इसका एकमात्र उत्तर है आत्मचिंतन का अभाव। केवल आत्मचिंतन ही हमें अशांति से मुक्ति दिला सकता है। क्योंकि शांति का स्थान ही आत्मा है। यदि आधुनिकता की अंधी दौड में हम मानवीय मूल्यों को बचाने में असमर्थ रहते हैं तो विकास की संपूर्ण अवधारणा एक दिवास्वप्न के रूप में प्रतीत होगी, जहां केवल पश्चाताप ही अवशिष्ट के रूप में बचेगा।
मानवीय व्यक्तित्व के दो पक्ष हैं - शरीर (जड़) और आत्मा (चेतन)। यहां विकास का अर्थ केवल बौद्धिक विकास (शरीर) से नहीं बल्कि आत्मिक विकास भी उसका एक अभिन्न पक्ष है जिसका किसी भी परिस्थिति में परित्याग करना उचित नहीं है।
भारत में गरीबी व भुखमरी के बावजूद रूस व अन्य देशों की तरह क्रांति नहीं हुई है। क्योंकि यहां की भूमि अघ्यात्म से ओत प्रोत है। यहां गरीबी व भुखमरी को मनुष्य द्वारा किये गये कर्मों के प्रतिफल के रूप में स्वीकार किया गया है। यही नही यहां किसी आततायी के अत्याचार को भी यह मानकर सहन कर लिया जाता है कि एक न एक दिन ईश्वर उसे अवश्य दंड देगा। इसलिए यह कहना गलत है कि इस प्रकार के मनोविज्ञान, अवधारणा साधारण मनुष्य को क्या देगा। पहले भारत सोने की चिड़िया था। क्योंकि हम अध्यात्मिक चिंतन पर बल देते थे।
हमें अध्यात्मिक संतुष्टि व सामाजिक संतुष्टि में भेद करना होगा। एक फिल्म स्टार का कहना है कि शिवलिंग पर चढ़ाये गये एक गिलास दूध का मूल्य 20 रूपये होता है और हम इस 20 रूपये से एक गरीब का पेट भर सकते हैं। इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि उस एक्टर की फिल्म का टिकट 300 रूपये का होता है और यदि हम उस एक्टर की अगली फिल्म न देखकर किसी भूखे को भोजन करायें तो हम 15 बार उस भूखे को भोजन करा सकते हैं।
प्राचीन काल के बाद आधुनिक काल में पहली बार स्वामी रामदेव ने योग संबंधी विशिष्ट ज्ञान को आम जनता के बीच में लाने का कार्य किया। स्वामी रामदेव द्वारा विशिष्ट ज्ञान योग जो कुछ लोगों तक सीमित था, इसका सरलीकरण करके इसके व्यावहारिक एवं सकारात्मक परिणाम लोगों के सामने रखकर अपने दावे को पुष्ट किया। इसके परिणाम स्वरूप आर्थिक रूप से वंचित आम जन भी डाक्टर के चंगुल से बचकर अपना स्वास्थ्य संबंधी लाभ पा रहे हैं।
माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहले प्रधानमंत्री है जिनके प्रयास से संयुक्त राष्ट्र संघ ने 21 जून को ‘‘योग दिवस’’ के रूप में घोषित किया। प्रधानमंत्री ने योग की महत्ता को समझा और विश्व रंगमंच पर योग की स्वीकार्यता व महत्ता को स्थापित किया। अब योग सीमित व विशिष्ट दायरे से निकलकर विस्तृत व आम दायरे तक पहुंचने लगा है।
कहना न होगा कि जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए हमें विचारों को प्रबन्धन करना होगा और पूर्वाभासी ज्ञान अर्जित करना होगा। यह हम मेडिटेशन व ध्यान से कर सकते हैं।
योग, भारतीय परम्परा एवं संस्कृति की अमूल्य उपलब्धि है। मानव जीवन में योग का अर्थ शरीर, मन, विचार, कर्म के बीच सन्तुलन स्थापित करना है। इसका उद्देश्य आत्मसयंम के माध्यम से आत्मस्थ होकर मानव प्रकृति के बीच सन्तुलन स्थापित करना है एवं स्वस्थ्य रहकर मानव कल्याण के लिए कार्य करना है।
समकालीन विश्व का सार्वाधिक लोकप्रिय दर्शन अस्तित्ववाद का जन्म द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समाज में फैले अवसाद, कुण्ठा, पलायन, दर्द, हताशा, अकेलापन, सन्त्रास के पश्चात हुआ। अस्तित्ववाद के प्रमुख चिन्तक सात्र ने मानव अस्तित्व को प्रमुखता दी। उन्होंने ईश्वर, आत्मा जैसे आन्तरिक पक्ष को नकार दिया। सात्र का कथन है, मैं हूँ, इसलिए सोचता हूॅ।
अस्तित्ववाद का यह दर्शन आन्तरिक एवं भावनात्मक समस्या का समाधान करने में असफल रहा। वास्तव में अस्तित्ववाद का जन्म पूर्व भारतीय दार्शनिक एवं आध्यात्मिक दर्शन के विरूद्ध हुआ था। समाज में फैले अवसाद, कुण्ठा, पलायन, दर्द, हताशा, अकेलापन, सन्त्रास, समस्या के समाधान में भारतीय दार्शनिक एवं आध्यात्मिक दर्शन पूर्णतः समर्थ है। भारतीय दर्शन के शिखर पुरूष शंकराचार्य के अनुसार मैं हूॅ इसलिए मैं सोचता हूॅ। अर्थात पहले आत्मा का अस्तित्व है इसके बाद हमारे शरीर का अस्तित्व है। इसी बात को पाश्चात्य दार्शनिक रेने देकार्त कहते हैं -