Yog Aur Bhojan Dwara Rogo Ka Ilaj: Prevent or manage diseases with foods & Yogic postures
By SUMITA BOSE
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Yog Aur Bhojan Dwara Rogo Ka Ilaj - SUMITA BOSE
जाएंगी।
योग का विषय आध्यात्मिक उन्नति में आगे बढ़ने के लिए ज्ञान प्राप्त करना, मार्ग पाना और उस मार्ग पर चलकर ही सुख व शान्ति की प्राति करना है।
योग शास्त्र की रचना महर्षि पतंजलि जी महाराज ने की है। ‘योगशिचत् वृति निरोध:’ अर्थात् ‘चित की वृत्तियों का शमन’ ही योग है। योग के आठ अंगों-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि में यदि हम देखे, तो चित्त वृत्तियों का शमन हो योग की रीढ़ के रूप में दिखाई देता है। जब चित्त की चंचलता पर अधिकार होगा, तभी ‘यम’ के अंतर्गत आने वाले-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन हो पाएगा।
इसी प्रकार नियम: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान तभी संभव होगा, जब मन वश में रहेगा। हमारा मन सभी इंद्रियों का संचालन करने वाला है। इंद्रियों को नियंत्रित रखने के लिए यह आवश्यक है कि मन नियम के अनुसार चले और इस मन को रोकना साधारण बात नहीं है। आप अपने शरीर तथा स्नायुओं को वश में कर सकते हैं, लेकिन मन को एक क्षण भी स्थिर नहीं रख सकते। जिस समय मन कुछ क्षणों के लिए भी निर्विचार अवस्था में चला जाए तथा विषयों विमुख हो कर अंतर्मुखी हो जाए और अपने को जानने लगे, तो समझिए कि आप में योग क्रिया प्रारंभ हो रही है। इसलिए सभी धर्मों मैं, सब संतों-सूफियों, गुरुओं और महात्माओं ने ऐसे ही मानव को मान्यता दी है।
‘आसन’ और ‘प्राणायाम’ की क्रियाएं भी मानसिक नियंत्रण की अनिवार्यता चाहती है। ‘प्रत्याहार’ स्पर्श-रूप-रस-गंध की कामनाओं का दमन ही है। ‘धारणा’ में एकनिष्ठा अनिवार्य होती है और ‘ध्यान’ में एकाग्र मन अविचार की स्थिति में रहता है। ‘समाधि’ और कुछ नहीं, अटल ध्यान की लंबी उपस्थिति है। इस प्रकार यदि हम देखे, तो पाएंगे कि योग आनंदमय जीवन जीने को एक कला है।
योग के आठ अंग
1. यम
2. नियम
3. आसन
4 प्राणायाम
5 प्रत्याहार
6. धारणा
7 ध्यान
8 समाधि
यम
यम पांच है: 1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय 4. ब्रह्माचर्य 5. अपरिग्रह
अहिंसा: ‘अहिंसा’ का अर्थ है - कभी भी किसी प्राणी का अपकार न करना, कष्ट न देना। अहिंसा व हिंसा का मुख्य स्रोत ‘बुद्धि’ है। बुद्धि ही भले-बुरे का निर्णय करके वचन तथा कर्म में मन को तैयार करती है। अत: मन, वचन तथा कर्म से हिंसा को पूरी तरह छोड़ देना ही ‘पूर्ण अहिंसा'। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ (सब को अपने जैसा समझना) ऐसा साक्षात्कार हो जाने पर ही योगी। पूर्ण अहिंसक' बनता है। ऐसी अनुभूति से जब जीवन रंग जाता है हैं तब किसी प्राणी के द्वारा कष्ट हैं अपमान व हानि पाकर भी बुद्धि में उत्तेजना नहीं होती। तभी व्यक्ति को ‘अहिंसावादी’ कहा जा सकता है।
सत्य: जो व्यक्ति मन, वचन, कर्म से समान रहे, अर्थात्.एक. जैसी वाणी और मन का व्यवहार करना, जैसा देखा और अनुमान लगाकर बुद्धि से निर्णय किया अथवा जैसा सुना, जैसा ही वाणी से कह दिया और मन में धारण किया। अपने ज्ञान के अनुसार, दूसरे व्यक्ति को ज्ञान करवाने मेंकहा हुआ वचन यदि धोखा देने वाला या भ्रम मेँ डालने वाला न होकर ज्ञान करवाने वाला हो हैं तभी सत्य होता है। यह वचन उपकारी भी होना चाहिए। सब प्रकार से परीक्षा करके सर्वभूत हितकारी वचन बोलना ही ‘सत्य’ है।
अस्तेय: दूसरों के पदार्थों की ओर ध्यान न देना, उन्हें चुराने का विचार मन में न लाना तथा धन, भूमि, संपति, नारी, विद्या आदि किसी भी ऐसी वस्तु, जिसे हमने अपने पुरुषार्थ से अर्जित नहीं किया या किसी ने हमें भेंट या पुरस्कार में नहीं दिया, को लेने का विचार स्वप्न में भी नहीं आने देना, अस्तेय का 'पूर्ण स्वरूप’ कहलाता है। गृहस्थी यदि अति तृष्णा न करे, तो इस दोष से काफी हद तक मुक्त हो सकता है।
ब्रह्माचर्य: प्रभु का ध्यान करते हुए अपनी समस्त इंद्रियों सहित गुप्तेंद्रियों पर संयम रखना, विशेषकर मन, वाणी तथा शरीर से यौन-सुख प्राप्त न करना ‘ब्रह्माचर्य’ है। सभी इंद्रियों पर यम-नियमों के आचरण द्वारा अधिकार प्राप्त करके आत्मोत्थान का प्रयत्न करना, असत्य आचरण, चोरी, मांस-भक्षण, खट्टे-तीखे पदार्थ खाना, मादक द्रव्य का सेवन करना, जुआ खेलना, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मैथुन आदि का त्याग करना ब्रह्माचर्य है।
अपरिग्रह: ज्ञानेन्द्रियों कर्मेन्द्रियों विषय रूप भोगो के उपभोग में या विषयों का उपार्जन व संग्रह करने में, उनकी रक्षा करने, उन्हें स्थिर रखने में हिंसा क्या उनकी क्षीणता में होने वाले कष्टों को देखकर उन पर विचार करके, उन्हें मन, वचन, कर्म से स्वीकार न करना ‘अपरिग्रह’ कहलाता है। इस प्रकार गुण-दोष की निर्णायक बुद्धि जब इन विषयों को भोगने में पाप तथा हिंसा का निश्चय करती है, तभी ‘अपरिग्रह’ होता है, अन्यथा यह परिग्रह है, विषय-उपभोग है, विषय-सेवन है।
नियम
नियम भी पांच है: 1. शौच 2. संतोष 3. तप 4. स्वाध्याय 5. ईश्वर प्रणिधाना। यम दूसरों के साथ व्यवहार से संबंधित है और नियम निज के पालन के लिए हैं।
शौच: शरीर तथा मन की पवित्रता शौच है। पवित्रता दो प्रकार की होती है, बाह्य और आंतरिक। मिट्टी, उबटन, त्रिफला, साबुन आदि लगाकर जल से स्नान करने से त्वचा एवं अंगों की शुद्धि होती है और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि को त्याग कर मन शुद्ध होता है सत्यचारण से। ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, अभिमान, कुविचार व पंच क्लेशों को छोड़ने से तथा दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग से आंतरिक पवित्रता आ जाती है।
संतोष: शरीर के पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त धन से अधिक की लालसा न करना। न्यूनाधिक को प्राप्ति पर शोक या हर्ष न करना ‘संतोष’ है। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए जो प्राप्त हो, उसी से संतुष्ट रहना या प्रभु की कृपा से जो मिल जाए, उसे ही प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना ‘संतोष’ है। जब विचारपूर्वक अपने भाग्य पर विश्वास दृढ़ होगा, तभी संतोष होता है।
तप: सुख-दु:ख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि को सहन करते हुए मन तथा शरीर को साधना तप है। कुवृत्तियों का सदा निवारण करते रहना हैं मान, अपमान, हानि,निंदा से भी बुद्धि का संतुलन न खोना, हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, परिग्रह आदि यम नियमों की विपरीत भावनाओं का दमन करना, विषयों में दौड़ने वाली इंद्रियों और मन का दमन करते रहना तथा आसक्तियों से स्वयं को हटाए रखना 'तप' है।
स्वाध्याय: अपनी रुचि तथा निष्ठा के अनुसार विचार-शुद्धि और ज्ञान प्राप्त करने के लिए समाजिक, वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक विषयों का नित्य नियम से पठन करना, मनन करना, और सत्संग तथा विचारों का आदान-प्रदान करना ‘स्वाध्याय’ कहलाता है।
ईश्वर प्रणिधान: बुद्धि, नम्रता, भक्ति विशेष तथा पूर्ण तन्मयता के साथ प्रत्येक कर्म को फल सहित परमात्मा को निर्मल भाव से सानंद समर्पित करना ‘ईश्वर प्रणिधान’ कहलाता है।
कर्म किए बिना कोई प्राणी रह नहीं सकता। 'जो भी कर्म मैं कर रहा हुं, वह प्रभु के आदेशानुसार कर रहा हूँ'। इसमें कर्तापन के अभिमान-त्याग का भाव ही प्रबल रहता है। इस प्रकार उपासक अपने देह आदि से किए गए सभी कर्म तथा फलाफल प्रभु को सहर्ष अर्पित करता है। फलत: दंभ के कलुष से व्यक्ति का अंत:करण सर्वदा रहित हो जाता है। ये सब शुद्ध मन से ही संभव है।
आसन
आसन एक वैज्ञानिक पद्धति है। ये हमारे शरीर को स्वच्छ, शुद्ध व सक्रिय रखकर मनुष्य को शारीरिक व मानसिक रूप से सदा स्वस्थ रख सकते हैं। इनका लाभ प्रतिदिन अभ्यास करने से ही मिल सकता है। केवल आसन ही एक ऐसा व्यायाम है, जो हमारे अंदर के शरीर पर प्रभाव डाल सकता है। शरीर और मन का स्वस्थ रहना हमारे शरीर के आंतरिक अंगों के ठीक प्रकार से कार्यं करने पर निर्भर करता है। अंदर के अंग है-हदय, फेफड़े पाचन-संस्थान, बहुत-सी ग्रंथिया, मूत्र-संस्थान, मस्तिष्क-नाड़ियां इत्यादि। स्वस्थ रखना शरीर का अपना काम है। प्रकृति ने शरीर में इस प्रकार की सारी व्यवस्था कर रखी है, जिससे उसे (शरीर को) स्वस्थ रखा जा सकता है और हर प्रकार के रोगों से बचाया जा सकता है। नाड़ी-सूत्रों तथा मस्तिष्क से ही पूरे शरीर का संचालन होता है। मस्तिष्क तथा नाड़ी-संस्थान दोनों को स्वस्थ रखने के लिए योग के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है।
योगियों ने ऐसे आसन, प्राणायाम आदि का वर्णन किया है, जिनके अभ्यास से शरीर एवं मन पर संयम रखा जा सकता है। ‘स्थिरम् सुखमासनम्’ (यो.सू) शरीर स्थिर रहे तथा मन को सुख प्राप्त हो, इस प्रकार की स्थिति ‘आसन’ है। लौकिक कर्मों में शरीर को अधिक कसने का नाम ‘प्रयत्न’ है। इस प्रयत्न में शरीर को अधिक न थकाना, प्रयास की शिथिलता यानी सामान्य निवृति, शरीर को विश्राम की स्थिति में रखने और प्रभु का ध्यान करने से आसन की सिद्धि होती है। आसन की सिद्धि से नाड़ियों की शुद्धि, आरोग्य की वृद्धि एवं स्फूर्ति प्राप्त होती है।
आसन दो प्रकार के होते हैं- 1. प्राणायाम - ध्यान आदि के लिए, जैसे-पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन। 2. शरीर तथा मन को निरोग रखने के लिए-पशिचमोत्तानासन, अर्धमत्य्येंद्रासन, गोरक्षासन, जानुशिरासन, सुप्तवज्रासन, उष्ट्रासन, भुजंगासन, शलभासन, धनुरासन, हलासन, मकरासन, पवनमुक्तासन, सर्व़ांगासन, मत्स्यासन, शीर्षासन इत्यादि। इनसे शारीरिक बल, यौवन, अतिरिक अवयव और अंतर्ग्रन्थियों की कार्यक्षमता बढ़ती है तथा शरीर का सर्वांगीण विकास होता है। योगासन तो 100 से ऊपर बताए गए हैं, परंतु उपरोक्त आसनों का अभ्यास प्रतिदिन करने से शरीर तथा मन को स्वस्थ व शांत रख कर आयु लंबी करने और आजीवन युवा रहने का लाभ अवश्य ले सकते हैं।
प्राणायाम
महर्षि पतंजली ने कहा है: ‘श्वासप्रश्वासयो गतिविच्छेद: प्राणायम (यो सू.2/49) यानी प्राण की स्वाभाविक गति श्वास-प्रश्वास को रोकना ‘प्राणायाम’ है। पतंजलि योग सूत्र के अनुसार, योगी प्राणायाम के द्वारा आत्मा के प्रकाश में बाधक अविद्या को हटाता है। शरीर, मन तथा प्राण को शुद्ध करने के लिए प्राणायाम बहुत अच्छा साधन है। इसके निरंतर आयाम से अंतर्चेतना-जागृत होती है। स्नायुमंडल की शुद्धि होती है। शरीर का कोई भी रोग ऐसा नहीं, जो प्राणायाम के अभ्यास से ठीक न किया जा सके।
प्राणायाम स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर की ओर अग्रसर होने का प्रवेश-द्वार है। यह तो हम सभी जानते है कि हम श्वास लेते हैं और वायु में मिली हुई ओषजन, जिसकी शरीर को बहुत आवश्यकता होती है, ग्रहण करते हैं तथा उससे जीवनी-शक्ति प्राप्त करते रहते हैँ। यह क्रिया सोते-जागते निरंतर चलती रहती है।
वैसे तो सभी प्राणी जाने- अनजाने हर समय प्राणायाम करते रहते हैँ। प्राणायाम में मुख्य रूप से तीन ही क्रियाएं होती हैं। 1. श्वास लेना 2. श्वास छोड़ना 3. उसे कुछ क्षण अंदर तथा बाहर रोकना।
इसी क्रिया को विधि अनुसार ध्यान तथा लगन से भिन्-भिन्न प्रकार से किया जाता है, तो 'प्राणायाम' कहलाता है। इससे शक्ति-संपन्नता प्राप्त होती है।
हमारे शरीर में 72,000 नस नाड़ियां है, जिनमें 10 विशेष है और उनमें भी तीन विशेषतम् हैं। वास्तव में ये तीन नाड़ियां न होकर ‘स्नायुमंडल’ ही हैं। ऐसा विज्ञान भी मानता है। ये तीन हैं:
इड़ा या चंद्र नाड़ी: यह शरीर के बाएं भाग का नियंत्रण करती है। यह ठंडी है तथा मानव के विचारों का नियंत्रण करती है।
पिंगला या सूर्य नाड़ी: यह शरीर के दाएं भाग का नियंत्रण करती है। यह गर्म है तथा व्यक्ति में प्राण-शक्ति का नियंत्रण करती है।
सुषुम्ना: यह मध्य नाड़ी है। मेरुदंड के मध्य में से होकर मूलाधार तक जाती है। न गर्म न ठंडी, परंतु दोनों के संतुलन में सहायक है। यह प्रकाश तथा ज्ञान देती है।
मनुष्य के शरीर में ये तीनों प्रकार की नाड़ियां (इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना) अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैँ। प्राणायाम का उद्देश्य इड़ा तथा पिंगला में ठीक संतुलन स्थापित करके सुषुम्ना के द्वारा प्रकाश तथा ज्ञान प्राप्त कराने में सहायता देना होता है। शारीरिक दृष्टि है इन तीनों नाड़ियों में ठीक-ठीक संतुलन, आरोग्य, बल-शांति तथा लंबी आयु प्रदान करने की क्षमता रहती है।
हमारे शरीर में सभी अंगों में वायु का परिभ्रमण होता रहता है। पूरे शरीर में रक्त की नलियों तथा कोशिकाओं का जाल-सा बिछा हुआ है। ये सभी नलियों तथा कोशिकाएं इड़ा, पिंगला या सुषुम्ना से किसी-न-किसी रूप में संबंधित हैं। इनमें ही श्वास-प्रश्वास के द्वारा वायु के परिभ्रमण से रक्त का संचार होता है। ऑक्सीजन रक्त में पहुंचकर उसे शुद्ध करती रहती है तथा उसका गंदा तत्व कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में प्रश्वास द्वारा बाहर निकल जाता है। यह आवश्यक है कि श्वसन क्रिया का नियंत्रण करने वाले सभी अंग स्वस्थ तथा शक्तिशाली रहें। प्राय: श्वास क्रिया के अंगों की दुर्बलता के कारण श्वास किया उचित ढंग से नहीं हो पाती। फलत: अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।
इसका तात्पर्य यह है कि जिस मात्रा में हमारे अपने शरीर में स्थित नाड़ियों तथा अंगों की तोड़-फोड़ जीवन-काल में होती है, उसी मात्रा में उनकी क्षति-पूर्ति न हो सकने के कारण ही रोग उत्पत्र होते हैं। प्राणायाम से न केवल इन अंगों की दुर्बलता ही दूर होती है, बल्कि उनमें शक्ति-संपत्रता बढ़ती है, जिसके कारण योगी अपने प्राणों तथा स्नायुमंडल पर नियन्त्रण पाकर मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है।
लाभ: प्राणायाम का अभ्यास करने से फेफड़े मजबूत होते हैं, उनका लचीलापन बढ़ता है, अधिक-से-अधिक ऑक्सीज़न शरीर को मिलती है तथा उसका उपयोग शरीर के विकार को बाहर निकालने में होता है। प्राणायाम से मस्तिष्क के अंदर के स्नायुमंडलों पर भी प्रभाव पड़ता है, मस्तिष्क के विकार दूर होते है। द्वंददों को सहन करने की शक्ति बढ़ती है, आत्म-विश्वास पैदा होता है, स्मरण-शक्ति प्रबल होती है तथा मस्तिष्क की कार्यंक्षमता बढ़ती है।
शरीर के अन्य अंग आंख, कान, जिह्वा, गला आदि पर भी प्राणायाम का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है और उनकी कार्यक्षमता बढ़ती है। प्राणायाम करने से आमाशय, लिवर, क्लोम ग्रंथि, गुर्दे तथा आंत स्वस्थ रहते हैं। इन अंगों में भी शुद्ध रक्त के परिभ्रमण की गति तेज होती है, जिससे विकार दूर होता है और कार्यक्षमता बढ़ जाती है।
प्राणायाम से नाड़ियों का तनाव दूर होने है उनका संतुलन भी प्राप्त होता है, असीम स्नायविक बल प्राप्त होता है, कठिनाई में तथा अत्यंत्त विपरीत अवस्था में भी मनुष्य धैर्यपूर्वक सही निर्णय ले सकने में समर्थ होता है, मस्तिष्क का संतुलन नहीं बिगड़ता है।
प्राणायाम का मन से भी घनिष्ट संबंध है। प्राण पर नियंत्रण होने से मन पर सहज ही संतुलन प्राप्त हो जाता है। प्राणायाम एक प्यार से श्वसन क्रियाओं का व्यायाम है। इसलिए इसे प्रात: काल शुद्ध व स्वच्छ वायु में खुले में करना चाहिए। आधुनिक जगत में, जबकि प्राय: लोगों को शुद्ध वायु नहीं मिलती, व्यक्ति का जीवन अत्यंत व्यस्त तथा कृत्रिम हो गया है। फलत: व्यक्ति तनाव तथा घबराहट में जी रहा है, जिसका दुष्परिणाम ह्रदय, फेफड़े तथा मस्तिष्क पर पड़ रहा है और वह अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहा है। अत: प्राणायाम का अभ्यास सभी के लिए लाभदायक ही नहीं, आवश्यक भी है।
प्रत्याहार
यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार-योग के ये पांच अंग ‘बहिरंग योग' कहलाते है। इनकी साधना से व्यक्ति का शरीर, मन, बुद्धि, मस्तिष्क, स्नायुमंडल आदि शुद्ध व शांत हो जाते हैं। धारणा, ध्यान, समाधि योग के आंतरिक अंग हैँ, जहां से मानव अपने स्वरूप को जाकर आत्मा तथा परमात्मा को जाने के द्वार खोलता है।
बाहरी स्थूल इंद्रियों को निज विषयों से विमुख करके स्थिर करना प्रत्याहार है। अर्थात् अपने-अपने विषयों के साथ संपर्क न करके, इंद्रियों का बुद्धि के स्वरूप का अनुकरण-सा करना के ‘प्रत्याहार’ कहलाता है। हम अंत:करण को मन, बुद्धि, अहंकार-चित्त के रूप में अलग- अलग मानते हैं, क्योकि त्रिगुणों की तारतम्यता के कारण इनके निर्माण तथा गुण-कर्मों में भी स्पष्ट भेद पाया जाता है। जैसे-बाह्य स्थूल ज्ञानेंद्रियों तथा कर्मेंद्रियों का विषय -ज्ञान के आदान-प्रदान में बाह्यरंध्र में स्थित सूक्ष्म इंद्रियों के माध्यम से मन तथा बुद्धि के साथ सीधा संपर्क होता है।
यह समस्त क्रिया इस प्रकार होती है-स्थूल विषयों के ज्ञान को लेकर ये स्थूल इंद्रियां कपालगत सूक्ष्म इंद्रियों को और सूक्ष्म इंद्रियां मन को देती है, मन बुद्धि को समर्पित करता है। बुद्धि इन समस्त विषयों का निर्णय करके इसे सूक्ष्म बनाकर ह्रदय में स्थित कारण-शरीर के अंगभूत चित्त को संस्कारों के रूप में भेजती रहती हैं। चित्त इन संस्कारों का संग्रह करता जाता है। इस क्रम-परंपरा में इन स्थूलेंद्रियों का साक्षात् संपर्क मन-बुद्धि के साथ होता रहता है। चित्त तक इंद्रियों की पहुंच नहीं होती। नींद के समय भी केवल सूक्ष्मेंद्रियों के साथ ही मन-बुद्धि का व्यापार होता है। बाह्य इंद्रियों पर इसका प्रभाव न पड़ने से उनमें किसी प्रकार की क्रिया नहीं होती। इसका परिणाम यह होता है कि नेत्र खुले होने पर भी सामने उपस्थित रूप को नहीं देख पाते, कान सुनते नहीं, हाथ हिल नहीं पाते, पैर चलने में असमर्थ रहते हैं इत्यादि। यह अवस्था योगी को जब प्राप्त होने लगती है तब चित्त आत्मचिंतन में व्यस्त और शांत हो जाता है।
धारणा
योग का अर्थ है-मिलाप। आत्मा का परमात्मा में मिलन को 'योग' कहा जाता है। अपने नियमित अभ्यास से रोग की साधना करते समय व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है। उसे पूरी सृष्टि परमात्मामय दिखने लगती है। समस्त मानवजाति, पशु-पक्षी, पेड़-पौधा, कीट-पतंग आदि सबमें परमात्मा दिखने लगता है।
स्वयं को स्वयं में स्थिर करने की साधना को ‘धारणा’ कहते हैं। स्थूल व सूक्ष्म-किसी भी विषय में अर्थात् हृदय, भृकुटि, नासिका, ‘ॐ’ शब्द आदि आध्यात्मिक संदेश तथा इष्ट प्रदेश देवता की मूर्ति में चित्त को लगाना धारणा कहलाता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि के उचित अभ्यास के पश्चात यह कार्य सरलता से होता है। प्राणायाम से प्राण वायु और प्रत्याहार से इंद्रियों के वश में होने से चित्त में दुविधा नहीं