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जीवन के पहलू (Jeevan Ke Pahlu)
जीवन के पहलू (Jeevan Ke Pahlu)
जीवन के पहलू (Jeevan Ke Pahlu)
Ebook114 pages49 minutes

जीवन के पहलू (Jeevan Ke Pahlu)

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About this ebook

ज़िंदगी अनेक मनोभावों का पुलिंदा है-खुशी-ग़म, प्यार-नफरत, हसद, लालसा. कभी कोई भाव उभरता है तो कभी कोई, स्थाई कोई भी नहीं रहता. फिर भी हम हर उस दौर से गुजरते हैं ज़िंदगी के गुज़र जाने के पहले...! इस दौर व् इस दौर के बीच आओ हम ज़िन्दगी के कुछ पल जियें.
कहते है ज़िंदगी सफ़र है...
हमें सिर्फ़ क़दम बढ़ाना है ...
पहले एक, उसके बाद एक और...
तो आओ आज पहला क़दम बढ़ाएं...
और फिर एक और, उसके बाद एक और...
आपकी अपनी
देवी नागरानी

Languageहिन्दी
PublisherRaja Sharma
Release dateJan 27, 2018
ISBN9781370483693
जीवन के पहलू (Jeevan Ke Pahlu)

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    जीवन के पहलू (Jeevan Ke Pahlu) - Devi Nangrani

    देवी नागरानी

    www.smashwords.com

    Copyright

    जीवन के पहलू (Jeevan Ke Pahlu)

    देवी नागरानी

    Copyright@2018 Devi Nangrani

    Smashwords Edition

    All rights reserved

    जिँदगी के पहलू

    Copyright

    मेरी बात

    रजा में राज़ी

    राहत

    शिकायत

    दुख-दर्द

    खुशियाँ

    कामयाबी

    नसीहत

    तन्हाई

    दिल तो पागल है, दिल दीवाना है

    मुहब्बत

    दौलत

    झल्लाहट

    इत्मीनान

    दानवीर बादशाह

    विदूषित भाषा के स्वरूप

    ख़्वाहिश

    बेरँग आँसू

    सोच की परवाज़

    आरज़ू

    प्यासी ज़िंदगी

    फूल और काँटे

    कंगाल

    पसँद-नापसंद

    मन ही मन

    जिंदगी के रंग

    प्रार्थना

    निश्चय

    कभी-कभी

    बदलाव

    दरबदर

    मान्यता

    मायूसी

    सुकून

    रहमत

    अच्छा बुरा

    राह की मंजिल

    अँकुश

    सत्य असत्य

    ठहराव

    मक्सद

    सच का सरमाया

    रिश्तों की पहचान

    अनुभव

    उम्र का दरिया

    ये पल, वो पल

    दुनिया के मेले में

    अहं

    खोना-पाना

    परिवर्तन एक पहलू

    ठहराव के आने तक

    मौत की सरहद के उस पार

    तत्वों की गर्दिश

    मेरी सोच के अधर

    ज़हरीले धुएं से घिरी जीवन की शाम

    जीवन के दो छोर

    ज़िन्दगी क्या है?

    भूख

    यादें अमर हैं

    यस सर

    तन्हाई का आलम

    परिचय

    मेरी बात

    ज़िंदगी अनेक मनोभावों का पुलिंदा है-खुशी-ग़म, प्यार-नफरत, हसद, लालसा. कभी कोई भाव उभरता है तो कभी कोई, स्थाई कोई भी नहीं रहता. फिर भी हम हर उस दौर से गुजरते हैं ज़िंदगी के गुज़र जाने के पहले...! इस दौर व् इस दौर के बीच आओ हम ज़िन्दगी के कुछ पल जियें.

    कहते है ज़िंदगी सफ़र है...

    हमें सिर्फ़ क़दम बढ़ाना है ...

    पहले एक, उसके बाद एक और...

    तो आओ आज पहला क़दम बढ़ाएं...

    और फिर एक और, उसके बाद एक और...

    आपकी अपनी

    देवी नागरानी

    रजा में राज़ी

    भरोसा एक ऐसी नोक है जिसपर आदमी बिना तैरे पानी के इस पार से उस पार पहुँच सकता है. मन से माँगी हुई मुराद अनकही फरियाद बन कर उस ख़ुदा की दरबार में दर्ज हो जाती है। वही एक मालिक है जो उस अनकही को सुन सकता है. हमारे कहने के पहले, उस अनकही प्रार्थना को सुनकर वह हमें सब कुछ देता है जो दुनियाँ की कोई भी ताकत हमसे नहीं छीन सकती. उस खुदा की दी हुई हर बख्शीश पर हमारा हक़ बन जाता है और कोई भी कारण उस को हम से दूर नहीं कर सकता, न ही नाश कर सकता है.

    बाकी जो नाश हो जाता है वो हमारा था ही नहीं, यही विश्वास लेकर जिँदगी में आगे बढ़ना ही उसकी रज़ा में राज़ी रहना है. इसके बाद हम जब भी मुसीबतों से घिरे हुए उसे आवाज़ देते हैं तो हम को इसका भली भाँति अहसास होता है कि हमें उसकी मदद मिल रही है। वर्ना जिँदगी रूपी कश्ती में बैठ यह आग का दरिया हम कभी पार नहीं कर पाते.यही विश्वास रज़ा का एक अँग है.

    राहत

    ‘सुबह की खातिर रोते रोते शबनम बेहाल हुई

    जब सुबह हुई तो सब से पहले शबनम ही पामाल हुई.’

    राहत राह पर नहीं मिलती, उस मुक़ाम पर पहुंच कर मिलती है, जहां और कुछ पाने की लालसा ख़त्म हो जाती है. अपनी ज़रूरतों की परिधि में रहकर रज़ा में राज़ी रहने से राहत की बख़शीश मिलती है, और जहाँ पाने और न पाने का अंतर मिट जाये वहीं राहत बस जाती है.

    शिकायत

    ऐ मेरे मालिक! तेरी इस दुनियाँ में अगर इन्सान पत्थर के होते, या कुछ मिट्टी के होते, कुछ रेत के, या सीमेंट के होते, या फिर संगमर्मर के होते तो शायद दुनिया में इस क़दर दुख न होते, क्योंकि पत्थर के इन्सान तो गूँगे बहरे होते है, वे हर अहसास से परे होते हैं।

    वे क्या जाने किसी का दुख दर्द? किसी की चाहत का मर्म वो क्या समझें? एक इन्सान की अना जब दूसरे इन्सान के मिट्टी और रेत से बने घरौंदे को तोड़ देने में कामयाब होती है, तब उस खुमारी के अलाम में सोच उनका साथ नहीं देती. उस झूठी शान में धंसे वे आदमी दूसरे के मर्म को क्या जानें? वे तो उनके टूटे हुए सपनों की झनकार तक सुन नहीं पाते। उन की पीड़ा या दुख दर्द की झनझनाती चीखों को सुनकर भी अनसुना कर देते हैं।

    अगर इन्सान इन्सान को जान लेता, पहचान लेता तो इस क़दर

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