Parindon Sa Mann
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About this ebook
मन को किसी भी बंधन में बाँधा नही जा सकता। मन किसी के द्वारा नियंत्रित नही किया जा सकता। वो तो आसमान में उड़ने वाले उस परिंदे की तरह है जो खुले आसमान में जी भर के उड़ना चाहता है। बिना किसी रोक-टोक और समय सीमा के। यह पुस्तक कुछ इसी तरह के भाव लिए हुए है। जिसे पढ़ते वक़्त आप वैसा ही अनुभव करेंगे जैसा लेखिका ने लिखते वक़्त महसूस किया था।
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हॉकी की नेशनल प्लेयर, युवा हिन्दी लेखिका पी. एस. भौरिया (पूजा भौरिया) हरियाणा के सोनीपत जिले के गांव सेवली से ताल्लुक रखती हैं। इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा विद्या देवी जिंदल स्कूल, हिसार बोर्डिंग से पूरी करी। ततपश्चात् जीसस एंड मैरी कॉलेज से स्नातक एवं आईपी कॉलेज फॉर वुमन, दिल्ली यूनिवर्सिटी से परास्नातक (M.A.) पॉलिटिकल साइंस की शिक्षा प्राप्त की है। पूजा जी अपने आप को दिल से घुमक्कड़ मानती हैं।
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Book preview
Parindon Sa Mann - P. S. Bhoria (Pooja Bhoria)
ISBN : 978-9388202848
Published by :
Rajmangal Publishers
Rajmangal Prakashan Building,
1st Street, Sangwan, Quarsi, Ramghat Road
Aligarh-202001, (UP) INDIA
Cont. No. +91- 7017993445
www.rajmangalpublishers.com
rajmangalpublishers@gmail.com
sampadak@rajmangalpublishers.in
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प्रथम संस्करण : जनवरी 2020
प्रकाशक : राजमंगल प्रकाशन
राजमंगल प्रकाशन बिल्डिंग, 1st स्ट्रीट,
सांगवान, क्वार्सी, रामघाट रोड,
अलीगढ़, उप्र. – 202001, भारत
फ़ोन : +91 - 7017993445
——————————————————————-
First Published : Jan. 2020
eBook by : Rajmangal ePublishers (Digital Publishing Division)
Cover Design : Rajmangal Arts
Copyright © पूजा भौरिया
This is a work of fiction. Names, characters, businesses, places, events, locales, and incidents are either the products of the author’s imagination or used in a fictitious manner. Any resemblance to actual persons, living or dead, or actual events is purely coincidental. This book is sold subject to the condition that it shall not, by way of trade or otherwise, be lent, resold, hired out, or otherwise circulated without the publisher’s prior consent in any form of binding or cover other than that in which it is published and without a similar condition including this condition being imposed on the subsequent purchaser. Under no circumstances may any part of this book be photocopied for resale. The printer/publishers, distributer of this book are not in any way responsible for the view expressed by author in this book. All disputes are subject to arbitration, legal action if any are subject to the jurisdiction of courts of Aligarh, Uttar Pradesh, India
प्रस्तावना
यह किताब सुलझी-उलझी बातों को बताती है। कुछ पूरी कुछ अधूरी ख़याली दुनिया को दिखाती है। आसान शब्दों से कठिन ज़िन्दगी को समझाती है। हर पल का एहसास समझाती है। ख़ुद का सच दिखाती है। बेबसी ख़ुद की बताती है। मन क्या चाहता है? वो रास्ता भी दिखाती है। सपनों का घर बनाती है, ज़ज़्बातों की तकलीफ़ दिखाती है। मासूमियत भरी ज़िन्दगी तब और अब में कैसे सिमट गई है, पल-पल का एहसास ख़ुद को कराती है। ख़ुद को सच महसूस कराती है। थकान भरी ज़िन्दगी को कम शब्दों में बताती है।
~~
अनुक्रमणिका
शीर्षक
प्रस्तावना
धूल
सागर सा इंसान
कल
मौत के लिए ख़ुद मरना पड़ता है
भंवरे खूब नाचे
परिंदों सा मन लोगों से डरता है
ख़ुद पर ना मर मिटे
पंख
दाग और धब्बे
शरीर का कालापन
पिंजरे के कबूतर सा मन
आज़ादी पर मचलता
मोती
नया सवेरा
तेरे कर्मों का फल
क़हर
क़लम
जख़्मी नारी
सड़क किनारे बैठ
भिखारी
रिवाज़ अपने बदलती
झड़ता पीपल
कुछ कच्चे धागे
धागा
ख़ुद में ही गुमनाम सा हो गया
दुख का दामन
रिश्ते और रास्ते जरूरतों में सिमट गए
एक मेरा ही शोर
ख़्वाहिशों का परिंदा हूँ
ख़ुद से ज्यादा जिम्मेदारी
रास्ते अनेक और मैं एक
कहीं दूर निकल जाऊँ
ख़ुशी रुठ जाने के लिए
चाहे इरादे रोज़ मरते रहे
चाहत जरूरत में बदलने लगी
थकान भरी ज़िन्दगी
चरित्र का झोला बदनाम गली में
मैं ही हूँ
गलियाँ बदनाम सोच अनजान
बदनाम गलियों का भी चरित्र
शोहरत
रुकने का मन नहीं
दो क़दम आगे
आसमान छोड़ डाल की चिंता
घर की जरूरत ख़ुद से ज्यादा
बंद दरवाज़े
जितनी जरूरत
चारदीवारी
क्या?
परछाई साथ लिए
ख़ुद से दौड़
एक सोच
सपने ख़ुद से झूठे
सच्चाई ख़ुद में
ज़िन्दगी का वहम
दूर निकल आया
रिश्ता नहीं कोई
मायूसी मेरी दर्द से गुजर गई
ख़ुद से जोड़कर हर रात में सोता हूँ
हक़ नहीं
चाहत ज़िन्दगी की कमी
गैरों में अपना
रोए बहुत टूटते सपनों पर
यही सोच काफी है
खेल साँसों का ही है
पता नहीं चाहते क्या हो
कैसे रिश्ते है
तब और अब
अकेलापन
खाना
तेरे चारों तरफ बसेरा
वादों से ज़िन्दा
चेहरे पर तेरी हँसी
मन भरने वाली बात
तेरे जितना प्यार नहीं
भीड़ में हाथ पकड़कर चलते थे
हर वक़्त की बेचैनी
~~
एक सच
ख़ुद का
धूल
ख़ुद मर जाता है
शरीर छोड़ साँसे साथ ले जाता है
अपनों के पास शरीर छोड़ जाता है
शरीर का क्या होगा नहीं जानता
बस इतना पता है
अपने जला देंगे या दफना देंगे
जीता रहा सोच कर उसके बिना क्या होगा
मरने के बाद पता चला
दुनिया उससे चलती ही नहीं थी
बोझ उठाए अपनों का चलता रहा
आज ख़ुद बोझ दूसरों के कंधो पर
बन कर चलता बना
पूरी ज़िन्दगी दूसरों से बचता रहा
आज उन्हीं के बीच पड़ा जलता रहा
आग जलती रही राख बनती रही
आग बुझने के बाद
राख शांत सी पड़ी ठंडी होती रही
धीरे-धीरे राख उड़ती रही
हवा के साथ उड़ कर धूल बनती रही
ख़ुद को धूल बनने से बचा ना सका
सारी ज़िन्दगी दरवाज़ों के पीछे
धूल से बचता रहा
आज ख़ुद धूल बनकर उड़ता रहा
क्या पता था
अपने ही गैरों के काफ़िले के बीच सजा कर
दूसरों से भी लकड़िया मँगवा कर
बदल बदल कंधा दूसरों को बुला कर
ले जाएँगे, जला आएंगे
समझा नहीं कभी साँस ही मेरी थी
बाकी तो शरीर तक भी मेरा अपना ना था
अपनों की दुनिया बना रखी थी
गैरों की दुनिया दरवाज़े के बाहर बसा रखी थी
बस थोड़ी बात करने की देरी थी
बाकी पता नहीं दूरी क्यों बना रखी थी
अपनों की दुनिया में ख़ुद को फंसा रखा था
बाहर की दुनिया से ख़ुद को बचा रखा था
आज धूल बन चारों तरफ बिछा पड़ा हूँ
लोगों के पैरों की धूल बने बिखरा पड़ा हूँ
सब लगे है
धूल से बचने में घर को धूल से साफ करने में
एक दिन आएगा
सब