Manushya Bhi Ek Shabd Hai
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About this ebook
राजकुमार कुंभज का जन्म 12 फ़रवरी 1947 को मध्य प्रदेश के इंदौर में एक स्वतंत्रता सेनानी एवं किसान परिवार में हुआ। छात्र-जीवन से ही कविताएँ लिखने लगे थे और राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे। 1972 में अपनी कविताओं की पोस्टर-प्रदर्शनियों के लिए चर्चित हुए, गिरफ़्तार भी किए गए। 1975 के आपातकाल में सक्रिय रहे और पुलिस दबिश का शिकार हुए। 'चौथा सप्तक' (1979) में शामिल किए जाने पर नाम-चर्चा और बढ़ी। 'मानहानि विधेयक' का विरोध करने के लिए ख़ुद को ज़ंजीरों में बाँध सड़क पर उतर आए थे। कवि-लेखक और स्वतंत्र-पत्रकार के रूप में सक्रिय बने रहे हैं। भावना के साथ तर्कों से सामंजस्य बनाने के लिए विवश करने की शैली के धनी राजकुमार कुम्भज की कविताओं का चयन श्री सचिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने अपने संपादन में निकले चौथा सप्तक में सम्मिलित कर इस बात पर मोहर भी लगाई कि कविता के मानकों पर अमिट छाप छोड़ने का सामर्थ्य भी कुम्भज जी में विद्यमान है।
प्रकाशित प्रमुख कृतियाँ : 'कच्चे घर के लिए', 'बुद्ध को बीते बरस बीते', 'मैं चुप था जैसे पहाड़', 'प्रार्थना से मुक्त', 'अफवाह नहीं हूँ मैं', 'जड़ नहीं हूँ मैं', 'और लगभग इस ज़िन्दगी से पहले , 'शायद ये जंगल कभी घर बने , 'आग का रहस्य', 'निर्भय सोच में', 'घोड़े नहीं होते तो ख़िलाफ़ होतेֹ', 'खौलेगा तो खुलेगा', 'पूछोगे तो जानोगे', 'एक नाच है कि हो रहा है', 'अब तो ठनेगी ठेठ तक' (कविता-संग्रह); 'आत्मकथ्य' (व्यंग्य-संग्रह); 'विचार कविता की भूमिका', 'शिविर', 'त्रयी', 'काला इतिहास', 'वाम कविता', 'चौथा सप्तक', 'निषेध के बाद', 'हिन्दी की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविता , 'सद्भावना', 'आज की हिन्दी कविता', 'नवें दशक की कविता-यात्रा', 'कितना अँधेरा है', झरोखा', 'मध्यान्तर', 'Hindi Poetry Today', 'छन्द प्रणाम', 'काव्य चयनिका' आदि अनेक महत्त्वपूर्ण तथा चर्चित कविता-संकलनों में कविताएँ सम्मिलित और अंग्रेज़ी सहित भारतीय भाषाओं में अनूदित।
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Book preview
Manushya Bhi Ek Shabd Hai - Rajkumar Kumbhaj
मनुष्य भी एक शब्द है
————————
राजकुमार कुम्भज
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D:\R PUblishers\R PUB\B-W-Logo.pngराजमंगल प्रकाशन
An Imprint of Rajmangal Publishers
ISBN : 978-9394920071
Published by :
Rajmangal Publishers
Rajmangal Prakashan Building,
1st Street, Sangwan, Quarsi, Ramghat Road
Aligarh-202001, (UP) INDIA
Cont. No. +91- 7017993445
www.rajmangalpublishers.com
rajmangalpublishers@gmail.com
sampadak@rajmangalpublishers.in
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प्रथम संस्करण : 2022 – पेपरबैक
प्रकाशक : राजमंगल प्रकाशन
राजमंगल प्रकाशन बिल्डिंग, 1st स्ट्रीट,
सांगवान, क्वार्सी, रामघाट रोड,
अलीगढ़, उप्र. – 202001, भारत
फ़ोन : +91 - 7017993445
——————————————————————-
First Published : 2022 - Paperback
eBook by : Rajmangal ePublishers (Digital Publishing Division)
Manushya Bhi Ek Shabd Hai : Poem
Copyright© राजकुमार कुम्भज
यह एक काल्पनिक कृति है। नाम, पात्र, व्यवसाय, स्थान और घटनाएँ या तो लेखक की कल्पना के उत्पाद हैं या काल्पनिक तरीके से उपयोग किए जाते हैं। वास्तविक व्यक्तियों, जीवित या मृत, या वास्तविक घटनाओं से कोई भी समानता विशुद्ध रूप से संयोग है। यह पुस्तक इस शर्त के अधीन बेची जाती है कि इसे प्रकाशक की पूर्व अनुमति के बिना किसी भी रूप में मुद्रित, प्रसारित-प्रचारित या बिक्रय नहीं किया जा सकेगा। किसी भी परिस्थिति में इस पुस्तक के किसी भी भाग को पुनर्विक्रय के लिए फोटोकॉपी नहीं किया जा सकता है। इस पुस्तक में लेखक द्वारा व्यक्त किए गए विचार के लिए इस पुस्तक के मुद्रक/प्रकाशक/वितरक किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं। सभी विवाद मध्यस्थता के अधीन हैं, किसी भी तरह के कानूनी वाद-विवाद की स्थिति में न्यायालय क्षेत्र अलीगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत ही होगा।
राजकुमार कुम्भज की कविताएँ
मनुष्य भी एक शब्द है
"शब्द जैसे
मनुष्य भी एक शब्द है
शताब्दियाँ ख़त्म भी हो जाएँ तो क्या
क़ायम रहना ही चाहिए यह शब्द
शब्द जैसे हवा जैसे
आग और पानी"
मनुष्य और शब्द को
क़ायम रखने के पक्ष में जो
उनके लिए
क्रमशः
धब्बा हूँ, ईमान हूँ
तटबंध तोड़ो सभी
जो सिरे से रात - विरुद्ध
बचो
कल की रात बेहद सर्द रात थी शायद
और जो सबसे नज़दीक
डूबो
सवाल उठाने का सवाल है भाई
जलो
वह एक वक़्त कुछ ऐसा ही वक़्त था
इतना भी बेसुरा नहीं है जीवन
वैसे तो अकेला ही चलता है हर कोई
मैं भी उसी आग में
सच का चेहरा
वहाँ एक काली पहाड़ी है
रात - विरुद्ध अपना मुकुट
घनी थीं झाड़ियाँ, बेहद घनी
एक न एक दिन
जारी है तलाशी अभियान
मैं चुरा लाया हूँ आग
झुकने का क़ैदी
अपनी मनुष्यता की तरह
मनुष्य भी एक शब्द है
नागरिक नहीं भूलता है
चूँकि लोकतंत्र
थकान है पैरों में
मेरी खीझ
वह नहीं था कहीं भी
वक़्त - बेवक़्त
एक दिन मैं यही हुआ
और मैं चला ढूँढने वह कुल्हाड़ा
सूचना का अधिकार है
फ़ैसला मेरा ही था
ख़ुद की मृत्यु में
वह मैं भी या तुम भी
मेरे पास कविता है
ताज़ा ख़बर यही है
था अंदेशा बुरे वक़्त का
पता करो, पता करो कि सच है क्या?
चिड़िया सोचे, हिम्मत सोचे
भरी सभा में बेचैनी तमाम
एक लौ बची रहेगी
एक ज़रुरी मौसम जो प्रेम
ग़र याद रहे तो
सरल साधे तो क्या?
बिल्कुल बीच भँवर में
मैं प्रेम करता हूँ
कुछ रास्ते अब भिन्न भी
दौड़ की होड़ में
पंक्तिबद्ध
रात गहरी है, नींद गहरी है
मैंने याद किया पिता को
जन-जन धूप
गाते हुए देशगान
धूर्तताएँ नई-नई
प्रार्थना से परे होता है प्रेम
अपने स्वाद की ख़ातिर
कल और आज के चक्कर में
अपना क्या है?
खाते हैं जो वो पचता नहीं है
गली - गली बह रही है ख़ुशबू
बीहड़ के शहंशाह हम सभी
छप - छप छपाक छप - छप
जो ख़िलाफ़ - हवा
जा रहा है वसंत
मन की बात
आँसू वह जो प्राण वृक्ष का
जीवन एक सराय है
अपनी जिजीविषा के लिए
वे, कहते कुछ और थे
कहाँ नहीं है काई?
पानी ही सच है
बस नहीं कुछ और
मैं करता हूँ उम्मीद
कविता चाहती है बेहतर
प्रतीक्षा में
घेरा कोई भी हो
भ्रम