JINDAGINAMA
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JINDAGINAMA - Pramod Bharti
ज़िंदग़ीनामा
(गीत और ग़ज़ल)
IconeISBN: 978-81-2882-227-8
© लेखकाधीन
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली-110020
फोन: 011-40712100, 41611861
फैक्स: 011-41611866
ई-मेल: ebooks@dpb.in
वेबसाइट: www.diamondbook.in
संस्करण: 2017
ज़िंदग़ीनामा
लेखक: प्रमोद भारती
प्राक्कथन
‘ज़िंदग़ीनामा’ मेरे द्वारा लिखित कतिपय मौलिक ग़ज़लों व गीतों का संकलन है। ग़ज़ल का मुहावरा हिंदी के अधिकांश पाठकों के लिए एक नई बात हो सकती है। ग़ज़ल की सबसे बड़ी विशेषता इसकी बहर होती है। बहर अथवा बहर का शाब्दिक अर्थ छंद अथवा संरचना अथवा पद-विन्यास होता है। राजस्थानी में इसी को ‘मांड’ व अंग्रेजी में ‘कम्पोज़ीशन’ कहते हैं। यह सभी को विदित है कि हिंदी में प्रचलित सभी छंद जैसे दोहा, चौपाई, कवित्त, द्रुत-विलम्बित आदि मात्रिक होते हैं, किन्तु ग़ज़ल का छन्द मात्रिक नहीं होता है। उदाहरण के लिए, दोहे की प्रत्येक पंक्ति में चौबीस मात्राएं होती हैं और चौपाई की प्रत्येक पंक्ति में सोलह मात्राएं होती हैं किन्तु ग़ज़ल में मात्राओं के संबंध में कोई नियम नहीं होता। ग़ज़ल की बहर अथवा ग़ज़ल का मीटर संगीतात्मक होता है और प्रत्येक शेर के वजन को गाकर देखना पड़ता है। ग़ज़ल एक सांगीतिक संरचना होती है जिसका पद-विन्यास इस प्रकार से किया जाता है कि इसे गाया जा सके। जहां मात्रिक छंदों का विन्यास सर्वनिष्ठ होता है, वहीं पर प्रत्येक ग़ज़ल की बहर विशिष्ट होती है और इसका दूसरी ग़ज़लों की बहर जैसा होना सामान्य नियम नहीं होता। जैसे कि सभी दोहों की प्रत्येक पंक्ति में चौबीस मात्राएं होती हैं, चौपाई की प्रत्येक पंक्ति में सोलह मात्राएं होती हैं, इत्यादि; किन्तु ग़ज़ल की बहर के संबंध में कोई सर्वनिष्ठ अवधारणा नहीं की जा सकती। ग़ज़ल के संगीतात्मक दृष्टिकोण से किए गए विन्यास को ही उसकी बहर कहा जाता है। अपने पद-विन्यास में ग़ज़ल हिंदी के मुक्त छंद से भी सर्वथा नहीं मिलती; मुक्त-छंद में जहां वैकल्पिक शब्दों व वाक्याशों के प्रयोग की पर्याप्त स्वच्छंदता होती है, वहीं पर ग़ज़ल के हर्फ़ों में हेराफेरी करना बहुत मुश्किल होता है, क्योंकि एक भी हर्फ़ बदलने पर ग़ज़ल की गेयता प्रभावित हो सकती है।
अस्तु, शब्दकोश के अनुसार ग़ज़ल की परिभाषा है-
‘उर्दू-फारसी कविता का एक प्रकार विशेष, जिसमें प्रायः पांच से ग्यारह शेर होते हैं। सारे शेर एक ही रदीफ और काफिये में होते हैं और हर शेर का मजमून अलग होता है। पहला शेर ‘मत्ला’ कहलता है जिसके दोनों मिस्रे सानुप्रास होते हैं और अंतिम शेर मक्ता होता है, जिसमें शायर अपना उपनाम लाता है।’’
इस परिभाषा को समझने के लिए हम ग़ालिब की एक ग़ज़ल को लेते हैं-
जहां तेरा नक्शे-कदम देखते हैं
खियाबां-खियाबां इरम देखते हैं।।1।।
दिल आशुफ्तगां खाले-कुंजे-दहन के
सुवैदा में सैरे-अदम देखते हैं।।2।।
तेरे सर्वे-कामत से इक कद्दे-आदम
कयामत के फितने को कम देखते हैं।।3।।
तमाशा करे ऐ महवे-आइनादारी
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं।।4।।
सुराग़े-तुफे-नाला ले दागे दिल से
कि शब-रौ का नक्शे-कदम देखते हैं।।5।।
बनाकर फकीरों का हम भेस ‘ग़ालिब’
तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैं।।6।।
इस ग़ज़ल में छह अशआर हैं। ग़ज़ल का मत्ला है-
जहां तेरा नक़्शे-कदम देखते हैं
खियाबां-खियाबां इरम देखते हैं।।1।।
इसकी दोनों पंक्तियां सानुप्रास (तुक-बंदी सहित) होती हैं। अर्थात् दोनों पंक्तियों में काफिया होता है। अगले सभी शेरों की संरचना संगीत की दृष्टि से एक जैसी होती है। ऊपर की पंक्ति में तुक नहीं होती और इसे गाने के ढंग को रदीफ कहते हैं। नीचे की पंक्ति में तुक होती है और इसके गाने के ढंग को काफिया कहते हैं। इस ग़ज़ल में तीसरी, पांचवीं, सातवीं, नवीं व ग्यारहवीं पंक्तियों को एक ही ढंग से गाया जाएगा और इस ढंग को तथा प्रत्येक पंक्ति को भी रदीफ कहा जाएगा। इसी प्रकार चौथी, छठी, आठवीं, दसवीं व बारहवीं पंक्तियों को एक जैसे ढंग से गाया जाएगा और इस ढंग को तथा इनमें से प्रत्येक पंक्ति को काफिया कहा जाएगा। रदीफ और काफिया अलग-अलग ढंग से गाया जाता है। यदि हम मत्ले को गाने का ढंग सीख लें व किसी भी एक अन्य शेर को गाने का ढंग सीख लें तो हम पूरी ग़ज़ल को गा सकते हैं। इस शेर का मक्ता है-
बनाकर फकीरों का हम भेस ‘ग़ालिब’
तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैं।
मक्ता अंतिम शेर होता है और मक्ते में शायर अपने उपनाम का प्रयोग करता है और यहां पर यह उपनाम ‘ग़ालिब’ है।
यह कुछ बातें हमने ग़ज़ल की बहर के बारे में कीं। जैसा कि ग़ज़ल की परिभाषा में दिया है, ग़ज़ल के प्रत्येक शेर की विषय-वस्तु दूसरे शेरों से भिन्न हो सकती है।
इस संकलन से ही एक उदाहरण लें-
वो सवाल उठ खड़ा है जो जवाब को पड़ा है
गोया आदमी का कद भी तकदीर से बड़ा है।।1।।
ऐ कातिबे-किस्मत कोई तहरीर यह भी देखे
जो हिज़ाब है जबीं पर वो भी सोने से जड़ा है।।2।।
कोई मर्ज़ ऐसा भी हो कि खुद को भूल जाएं
इस आलमे-जुनूं में भी एक वक्त तो पड़ा है।।3।।
यद्यपि दूसरा और तीसरा शेर एक ही ग़ज़ल से हैं किन्तु उनकी विषय-वस्तु भिन्न-भिन्न हैं। दूसरे शेर का मजमून जहां वर्ग-संघर्ष है, वहीं तीसरे शेर का मज्मून रहस्यवाद है। यदि हम सूर, कबीर, भूषण, सेनापति आदि के पदों का स्मरण करें तो हम देखेंगे कि यह बात हिंदी के किसी भी छंद पर लागू नहीं होती। एक ही पद-विन्यास के अंतर्गत आने वाली सभी पंक्तियों का मजमून एक ही होता है। सूर के पद व भूषण के कवित्त भी गेय हैं, किन्तु पूरे पद अथवा छंद की विषय-वस्तु एक ही होती है। भिन्न-भिन्न दोहों व सोरठों आदि की विषय-वस्तु भिन्न-भिन्न हो सकती है, किन्तु ग़ज़ल के विभिन्न अशआरों की तरह उन्हें एक ही संरचना में समन्वित नहीं किया जा सकता और न ही एक