Pragyan Purush Pt. Suresh Neerav
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Pragyan Purush Pt. Suresh Neerav - Acharya Nishantketu
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ग़ज़लों का शिगुफ़्ता चेहरा
एक शायर की हैसियत से रचनात्मक तौर पर, इधर आठ-दस सालों से मेरे भीतर बहुत-सी तब्दीलियां आई हैं और मैंने अपने अहद की शायरी की ज़बान और उसके ‘पोयटिक ट्रीटमेंट’ के बारे में बड़ी शिद्दत से सोचना शुरू कर दिया है और मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ग़ज़ल हर दौर में अपने-अपने वक़्त की बोली जानेवाली ज़बान में ही लिखी गई है और लिखी जाती रहेगी। यह शायर का ही कमाल होता है कि वह बोलचाल की भाषा के बूते पर ही कई ज़बानों की धड़कन बन जाता है। इस मामले में मैं कबीर को अपना रहबर मानता हूं। अगर और पीछे जाएं तो हैरत होती है कि जिस खुसरो को हम जानते हैं और उनकी जिन ग़ज़लों को जानते हैं, उसके एक मिसरे में आधा मिसरा उस देहाती बोली का है, जो खुसरो के शायराना कमाल से मिलकर आज भी हरी-भरी है। कबीर को अपना सबसे बड़ा रहबर मानने का मतलब यह कतई नहीं है कि मैं उनकी शब्दावली को अपनी शब्दावली बना लूं और न ही मुझमें इतना कमाल है कि मैं उनके हर तलफ्फुज़ को शब्दों में बांधकर सही साबित कर दूं, क्योंकि कबीर ही ऐसे शायर हैं, जिनका ‘पोयटिक ट्रीटमेंट’, ‘पोयटिक एक्सप्रेशन’ इतना सहज है, इतना ‘नेचुरल है’ कि उसके मुक़ाबले सही शब्द भी गलत लगने लगता है। ऐसी मिसालें ग़ज़ल के तमाम शायरों की ग़ज़ल में मिलती हैं कि लफ्ज़ का नया इस्तेमाल हो और हर लफ्ज़ बिलकुल अपने अहद की बोलचाल से लिया गया हो। आज 21वीं सदी तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल के मुख्य मेटॉफर (रूपक), सिंबल (प्रतीक), सिम्लीज (उपमाएं); जो कभी रिवायत में थे, अब बिलकुल अनपोयटिक (ग़ैर शायराना) हो चुके हैं और इनमें कोई खूबसूरती नहीं रह गई है। हमें नए-नए शब्दों को, नए-नए रूपकों को अपनाना ही होगा, यह वक़्त की मांग है। पोयटिक क्रिएशन के दौर में नए शब्द ही ग़ज़ल को नई शक्ल दे सकते हैं और पंडित सुरेश नीरव ने यह कमाल अपनी गजलों में बखूबी करके दिखाया है। तंजो-मिज़ाह के इनके ग़ज़ल संग्रह ‘मज़ा मिलेनियम’ में मैंने टेलीफोन, स्टेशन, कमांडो, करेंट, फ्यूज, कंप्यूटर और टी.वी. जैसे कम-से-कम डेढ़ सौ ऐसे शब्द निकाले हैं, जिन्हें आज अंग्रेजी के शब्द कहना या मानना गलत होगा, क्योंकि काफ़ी लंबे समय से ज़िंदगी में इस्तेमाल होते रहने के कारण, अब ये शब्द अंग्रेजी के नहीं रह गए हैं। अब वे हिंदी और उर्दू ज़बान के हिस्सा बन चुके हैं। हमने अपनी ज़बान के सौंधे सांचे में इन्हें ढालकर, अपना बना लिया है। ऐसे अद्भुत प्रयोग आनेवाले अहद की शायरी के लिए बहुत अहम हैं ही और अब ज़रूरी भी हो गए हैं।
सुरेश नीरव ने तज़ुर्बों और गहरी पकड़ की बिना पर ग़ज़ल की जो सच्ची भाषा है, उसकी आत्मा को छू लिया है। नीरव जैसे शायरों ने अपनी शायरी से यह साबित कर दिया है कि भाषा का सफ़र कभी थमता नहीं है और जो उसके साथ कदम-से-कदम मिलाकर नहीं चल पाता है, वह शायर बेमानी हो जाता है। शायरी शिगुफ़्तगी (खिलावट), नुदरत (नयापन), मानीआफ़रीनी (अर्थपूर्णता) और ख़ूबसूरती, सब हमारी ज़िंदगी का ही हिस्सा हैं, जिसकी मुख़्तलिफ ख़ुशबुओं से बोलचाल की जबान को एक नई महक, एक नयी शक्ल देना उस दौर के शायर का तहज़ीबी फर्ज़ है। आज पूरे भारत की जो हिंदी है या उर्दू है, वह हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत की ही नई शक़्ल है और वही ग़ज़ल की सच्ची भाषा है। इस भाषा में एक ‘वर्डक्लास लिटरेरी लेैंग्वेज’ की संपूर्णता है और इसकी बेहतरीन मिसाल हैं सुरेश नीरव की ग़ज़लें। अदबी हलकों से इन्हें और इनके क़लाम को पजीराई (स्वीकारता) हासिल होगी, इन नेक ख़्वाहिशों के साथ मैं लफ्ज़ों के इस सफीर को आपके सुपुर्द कर रहा हूं।
-पद्मश्री डॉ. बशीर बद्र
(अंतर्राष्ट्रीय स्तर के लोकप्रिय शायर)
पुरुषोत्तम प्रज्ञान-पुरुष पंडित सुरेश नीरव
पंडित सुरेश नीरव शब्द-यज्ञ के ‘अग्निमीले पुरोहितम्’ पुरश्चरण के उद्गाता के रूप में प्रतिष्ठित मंत्र-मातृक हैं। इन्हें स्वर-साहित्य तथा रव-राहित्य का सुर-सिद्ध ‘सुरेश’ कहा जाता है, जो पंडा (प्रज्ञा) में इतच्-प्रत्ययांत ‘पंडित’ भी हैं। अंतःप्रज्ञात कवि और तर्क-प्रज्ञात विश्लेषक के सम्मिलित व्यक्तित्व के कारण ये पंडितराज जगन्नाथ की ध्रुवांतरीण मिश्रिति की परंपरा में आते हैं। पंडित सुरेश नीरव कहीं युगांतर का शंखनाद करते होते हैं तो कहीं युग-बोध का वेणुवादन करते हुए ‘मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्’ के रूप में उपस्थित होते हैं।
सुंदर के सौंदर्य-रस और ईश्वर के ऐश्वर्य-रस के मिश्रण से ‘रसतम’ का जो ‘उद्गीथ आनंद’ निर्मित होता है, उसकी भारतीय परंपरा के अमृतत्व-भाव से द्रष्टा तथा दृष्टि-रक्षक-धारा बनती है, वहीं से कविता की वांछाकल्पलता और आर्शवाणी का कल्पद्रुम आरण्यक निर्मित होता है। यहाँ कुछ भी मिलावटी और कृत्रिम नहीं होता। इसीलिए ‘अरण्य’ (रण-रहित) प्रकृति का प्रथम स्वाभाविक महाकाव्य है।
पंडित सुरेश नीरव इस अभयारण्य महाकाव्य के अध्वर्यु और पक्षिवाक् वृक्ष भी बनते हैं, जहाँ आज भी अक्षय-वट-वाटिका का गणतंत्रगीत और सह-अस्तित्व संगमनी संगीत श्रुतिपेशल बन जाता है। श्री नीरव ऐसे अभयारण्य के वार्चस और क्रतु-कंचन हैं।
अतीत की स्मृति, वर्तमान की मति और भविष्य की प्रज्ञा के समानुपातिक मिश्रण से जो रसायन बनता है, उस माधवी मेधा की यज्ञशाला के वे जातवेदस् स्थंडिल हैं।
कविता की शब्दाहुति प्रज्ज्वलित स्थंडिल पर पहुँच दग्ध-विदग्ध होकर कमनीय कुंदन बन जाती है। पंडित सुरेश नीरव की कविता इसी ताप की तपस्या से शुरू होती है। कविता का कंचन जब कीर्तिपताका का कुंदन बनने लगता है तो उस रथ का सारथि कोई कृष्ण ही बन सकता है। कृष्णत्व कविता की सर्वत्याग-तपस्या है।
पंडित सुरेश नीरव की कविताएँ मिलावट का कंचन-मृग और छल की छद्म हिरणी नहीं हैं। गीत लिखने के बाद इस बगीचे को ही सींचना एवं इसमें नए फूल उगाने थे, पर कवि ने ग़ज़ल भी लिखी। भाव-भरी ग़ज़ल लिखी। हिंदी के दोहा ने ग़ज़ल में रूपांतरित होकर कई-कई जलवे दिखाए। पंडित सुरेश नीरव इस जलवा के पुरोध पुरुष हैं।
श्री नीरव एक सफल मंच-कवि भी हैं। हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं की इनकी कविता एवं ग़ज़ल की माँग निरंतर बनी हुई है। मंच पर किसी कवि के प्रतिष्ठित होने के लिए जो व्यक्तित्व, स्वर और काव्य-सौंदर्य चाहिए (शब्द-सौष्ठव, उच्चावच-स्वरधारा और चंचरीक-भंगिमा चाहिए)- इन सभी प्रवाह-पथ का स्वामित्व पंडित नीरव को सहज स्वायत्त है। वे कहीं से सिले हुए वस्त्रपट नहीं लगते, वरन एकपट समवाय तंतु की एकतानता सिद्ध होते हैं। पंडित नीरव मुशायरों के मंच और कवि-सम्मेलन के मंच दोनों पर समान-रूप से आकर्षक सिद्ध होते हैं। जब ये काव्य-पाठ करते हैं तो इनकी कविता नर्तिका बन जाती है। जब-तक नृत्य होता है, नर्तक अनुपस्थित हो जाता है। जब-तक नर्तक उपस्थित होता है, नृत्य गायब हो जाता है। नर्तक और नृत्य का ऐसा एकाश्रय अन्यत्र नहीं देखा जाता है। श्री नीरव इस लोपागम-साधना के सिद्ध-पुरुष हैं। अपनी अनुपस्थिति में भी उपस्थिति को दर्ज करनेवाले और उपस्थिति में भी अनुपस्थित रहने का कौशल्य श्री नीरव की साधना-लब्धि है। इन कई कारणों से मैं पंडित सुरेश नीरव को ‘प्रज्ञान-पुरुष’ की संज्ञा देता हूँ।
चार वेदों के चार महावाक्य हैं, जिनमें ‘ऋग्वेद’ का महावाक्य है-‘प्रज्ञानं ब्रह्म।’ ‘आत्रेयोपनिषद्’ में भी इसका उल्लेख किया गया है। प्र एक अव्यय है, जो संस्कृत उपसर्गों में पहला स्थान रखता है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है-पृथ़्+ड (प्रथयतीति)। प्र उपसर्ग की परिभाषा में अनेक स्थलों पर उल्लेख हुआ है, जिनमें तीन ग्रंथों का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है-
1. प्र प्रकर्षे गताद्यर्थेऽप्यव्ययं परिकीर्त्तितम्। (वाङ्मयार्णवः, 3605)
2. प्र आदिकर्मदीर्घेशभृशसम्भवतृप्तिवियोग-
शुद्धिशक्तीच्छाशान्तिपूजाग्रदर्शनेषु-(प्रयात)
3. विंशत्युपसर्गान्तर्गतप्रथमोपसर्गः। (शब्दकल्पद्रुम)
पंडित सुरेश नीरव बाहर से एक सुलक्षित तत्पुरुष समास हैं, किंतु भीतर से अबोध्य द्वंद्व समास। इनका जन्म मध्य-प्रदेश के ग्वालियर में हुआ, किंतु रहते हैं दिल्ली में। औपचारिक रूप से ये विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं, किंतु लेखन हिंदी-साहित्य में करते हैं। ये लिखते हैं हिंदी में, किंतु इनकी रचनाओं का अनुवाद फ्रेंच, अंगरेजी, ताइबानी और उर्दू में होता रहा है। एक समर्पित राष्ट्रवादी और देशभक्त होकर भी ये मॉरीशस, लंदन, पेरिस, सिंगापुर, थाइलैंड, डेनमार्क, मलेशिया एवं नेपाल (काठमांडु)-जैसे देशों में साहित्यिक के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। जाति से शुद्ध नैष्ठिक ब्राह्मण होकर भी ये वंचित-वाक् समाज के सात्विक वक्ता बने रहे हैं। इसी गुण-धर्मिता के आधार पर ‘सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन’ के संस्थापक पद्मभूषण डॉ. विन्देश्वर पाठक से इनकी सहचर-निकटता हुई। तबसे अनेक कार्यक्रमों में दोनों ने अपनी सामाजिक सेवा और अपनी वर्चस्विता का विपुलाचल स्थापित किया है। इन्होंने भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीयम्’ से अपनी यात्रा आरंभ की और महर्षि पाणिनि के अक्षर-तत्त्व पर मंत्राक्षत चढ़ाते रहे। बीच में महर्षि पतंजलि के शब्द-यज्ञ में गंगाजल भी छिड़कते रहे। पेशे से पत्रकार होने के बावजूद साधना से साहित्यकार हैं। ये टी.वी. श्रृंखला की पटकथा लिखने से लेकर सामाजिक संदर्भ के आलेख और संस्मरण भी लिखते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अपनी शोभित उपस्थिति देने के साथ ये घर के एकांत नेपथ्य में मौन-ध्यान-योगी भी हैं। ये सभी द्वंद्व-समास एक ओर इनके व्यक्तित्व की विविधता को स्पष्ट करता है तो दूसरी ओर इनके आंतरिक रहस्य-दर्शन और अद्वैत-साधना को प्रकट करता है। इसलिए पंडित नीरव अपनी समस्त सरलता और स्वाभाविकता के बावजूद एक प्रधी प्रहेलिका-पुरुष बन जाते हैं। इनका विश्लेषण और मनोविश्लेषण साफ-सीधे शब्दों में नहीं किया जा सकता।
आधुनिक लेखन के साथ प्राचीन भारतीय संस्कृति को उज्जाग्रत् करने का इनका पावन प्रयत्न सदैव सक्रिय रहता है। इसलिए मैं इन्हें द्वंद्व-समास कहकर इनकी गहराई को नापने की चेष्टा करता हूँ। इनकी ऊँचाई तो सभी देखते ही हैं, मैं इनके भीतर मौजूद समुद्र की गहराई नापना चाहता हूँ। हिमालय की ऊँचाई और समुद्र की गहराई के बीच समतल पर ये समाज के साथ खाते-पीते-चलते-बोलते हैं, सहजता यहाँ है।
‘ऋग्वेद’ के दशम मंडल के 12वें अध्याय के अंतर्गत 191वें सूक्त में चार मंत्र-पदी श्लोक हैं, जहाँ ‘ऋग्वेद’ समाप्त होता है और भारतीय दर्शन का एक निष्कर्ष भी उपस्थित होता है-
संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ
इलस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भरा।
सङ्गच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्
देवा भागं यथा पूर्वे सेजनाना उपासते।
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।
सूक्त का मंत्रार्थ है-
‘हे अग्ने! तुम कामनाओं की वर्षा करनेवाले हो। तुम सब प्राणियों में निवास करते हो। तुम्हीं यज्ञवेदिका पर प्रदीप्त होते हो। हे अग्ने! तुम हमें वसुद्ध समृद्धि, संपत्ति, धन इत्यादि प्रदान करो।’
हे स्तोतागण! आप सभी सहचरण-पूर्वक एकत्र हों और भली तरह एक साथ मिलकर रहें। आप सभी स्तोत्र का समान-रूप से शुद्ध उच्चारण करते हुए परस्पर प्रेमपूर्वक वार्तालाप करें। तुम सभी समान मनवाले बनो अर्थात् सबके अंतस् में ऐक्यभाव हो और सभी सदैव अविरोधी ज्ञान ग्रहण करें। जिस प्रकार देवगण समान मतिवाले होकर यज्ञ में हविरन्न (हविव्यान्न) ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार तुम भी समान मतिवाले होकर वसुभूत धन-धान्यादि सर्वविध संपत्ति-समृद्धि को समान-रूप से ग्रहण करनेवाले बनो।
इन स्तोताओं के स्तोत्र समान हों। वे एक साथ यहाँ आएँ। इनके मन भी समान हों, इनके चित्त समान हों अर्थात् जिस प्रकार विद्वान व्यक्ति सदा से ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करते हुए उनकी उपासना करते रहे हैं, उसी प्रकार आप सभी ज्ञान एवं उपासना में दत्तचित्त हों अर्थात् सबके संकल्प, निश्चय एवं अभिप्राय एक हों।
हे पुरोहितो! मैं तुम सबको समान मंत्र से अभिमंत्रित करता हुआ समान (साधारण) हवि-द्वारा तुम्हारा यज्ञ करता हूँ। यजमानो और पुरोहितो! तुम्हारा कर्म समान हो। तुम्हारे हृदय और मन भी समान हों। तुम सभी समान मतिवाले होकर सभी प्रकार से सुसंघटित हो जाओ अर्थात् सबके मन में एक-सी उच्च और सर्वमंगलकारी भावना हो और सभी परस्पर-सहयोगपूर्वक अच्छी तरह करणीय कर्म और कार्य में लग जाएँ।’
पंडित सुरेश नीरव जीवन के संघर्ष में अपराजेय और सफल दोनों हैं। यदि दोनों के बीच किसी एक के चयन की आवश्यकता पड़े तो ये अपराजयेता को स्वीकार करेंगे। जीवन में व्यक्ति सफल-विफल होता रहता है, किंतु अपराजयेता एक विलक्षण दिव्य शक्ति है। सुकरात, बुद्ध, गाँधी, सुभाषचंद्र बोस-जैसे सभी महापुरुष जीवन में विफल तो रहे, किंतु कभी पराजित नहीं हुए। इसलिए अपराजेयता इनके जीवन-सौंदर्य का जन्मजात कवच-कुंडल है।
ऐसे जीवन-संघर्ष में स्वाभिमान और विनम्रता दोनों को साथ लेकर चलना और जीना कठिन है। विनम्रता इनका संस्कार और स्वाभिमान इनका स्वभाव है। विनम्रता अर्जित होती है, जिसे संस्कार का सर्वोत्तम कहा जाता है। पंडित सुरेश नीरव दोनों धरातलों पर सफल और सिद्ध व्यक्तित्व हैं। अनेक टी.वी. श्रृंखलाओं की पटकथा लिखने के अतिरिक्त आप ‘कादम्बिनी’-जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका के उपसंपादक के रूप में आपने विशेष ख्याति अर्जित की। आपने अनेक सुख्यात ग्रंथों की रचना की, जिनमें उल्लेखनीय हैं-‘समय सापेक्ष हूँ मैं’, ‘शब्द नहीं हैं हम’, ‘भोर के लिए’, ‘उत्तरार्द्ध कविता’, ‘सद्भाव कविता’, ‘इक्कीसवीं सदी की दृष्टि’, ‘पॉयट्री ऑफ सुरेश नीरव’, ‘पोयटिक इलेक्ट्रॉन्स’, ‘संवेदना के स्वर’, ‘मजा मिलेनियम’, ‘जहान है मुझमें’, ‘तत्पश्चात्’ तथा ‘दरीचे’।
पंडित सुरेश नीरव एक सौभाग्यशाली पारिवारिक परंपरा के मेधावी रचनाकार हैं। इनके पितामह हास्य-रसावतार पंडित जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी थे। इनके पिताश्री भी प्रतिष्ठित साहित्य पंडित माने जाते थे। दूसरे धरातल पर इन्होंने अपना मानव-संसाधन-विकास उपलब्ध ऊँचाई तक किया। तीसरे धरातल पर ये समाज-संदर्भ से सद्भावपूर्वक जुड़े रहे हैं। यही कारण है कि इनकी कविताओं में अतीत की वैदिक दिव्यता और वर्तमान की वैज्ञानिक चमत्कृति का विलक्षण सामंजस्य मिलता है। ‘तत्पश्चात्’ की एक कविता में ऐसा ही एक सुगंधि-बिंब उपलब्ध होता है-
श्लोक अधर मंत्र-सी आँखें
देवालय-सा मन
रामायण-सा रूप तुम्हारा
साँसें वृंदावन
मौलश्री की छाँव के नीचे
तुम ऐसी दिखती हो
भोजपत्र पर जैसे कोई
वेद-ऋचा लिख जाए
जबसे दरस तुम्हारा पाया
हुआ तथागत मन,
श्लोक अधर मंत्र-सी आँखें।
पंडित सुरेश नीरव ने अपनी कविताओं में विशेषण-विपर्यय का बहुत प्रयोग किया है। इससे कविता में एक खास बिंब उभरकर आया है, साथ ही सौंदर्य के आह्लाद का सम्मोहन भी उपस्थित हुआ है, जैसे-‘हँसते-हँसते अनुप्रास मिले’, ‘साँसों के तुलसी-दल में’ इत्यादि। गीत है-
हँसते-हँसते अनुप्रास मिले
साँसों के तुलसी-दल में
तैरते यों छंद हों गीत के गंगाजल में
देखी शुभकारी छवि
तेरी, नयन-दर्पण
जैसे उतरी हो किरण
भोर के चंदन-वन में
मन हृषीकेश हुआ
प्रीत के पुष्कर-तल में
तैरते यों छंद हों गीत के गंगाजल में।
ग़ज़लों के क्षेत्र में भी पंडित नीरव ने अपनी विशेष भंगिमा का परिचय दिया है। ग़ज़लों में उनकी अभिव्यक्ति अभिधा-सी लगती है, किंतु उसका शिल्प व्यंजना तक पहुँच जाता है और शैली लक्षणा के वैलक्षण्य की हो जाती है। कुल मिलाकर इसका असर वाद्ययंत्र की ठुमरी की तरह हो जाता है। त्रिर्यक्-वाक् का चुभन-भरा स्पर्श इनकी ग़ज़ल की विशेषता है। उदाहरण के लिए दो ग़ज़लें उपस्थित हैं-
आग से तो मैं घिरा हूँ, जल रहा कोई और है
मंजिलें मेरी हैं, लेकिन चल रहा कोई और है।
आती-जाती साँसों की हलचल ने मुझसे कहा
जिस्म तो ‘नीरव’ है, जिसमें पल रहा कोई और है।
श्री नीरव एक उत्तम मंच-संचालक भी माने जाते हैं। व्यक्ति को व्यक्ति से मेधा-सूत्रित करने और विचार को विचार से प्रज्ञा-सूत्रित करने में सूपयुक्त शब्दों के प्रयोग में श्री नीरव का शब्द-कौशल्य किसी भी मानस के उद्यान में ‘सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्’ बन जाता है। श्री नीरव की रचना की द्वंद्वशाला में भी ध्रुवांतर दूरियाँ मिलती हैं। वे अपने को एक ओर ‘पानी पर की लकीरें’ प्रमाणित कर देते हैं तो दूसरी ओर सम्राट् अशोक-द्वारा निर्मित स्तूप का शिलालेख सिद्ध कर देते हैं। इसे ही व्यक्तित्व के आयाम का विस्तार कहते हैं। एक ओर वे सुबह-सुबह नन्ही दूब की नोंक पर बने हुए वर्तुलितस्फटिक के भीतर इंद्रधनुष-सा वितानित हो जाते हैं तो दूसरी ओर अक्षय-वट की छाया में कूष्मांड में संपुटित स्वर्णदान का अमिट यज्ञ बन जाते हैं। कठिन है व्यक्तित्व की यह साधना। इसे सुभाषितों की भाषा में इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं-
‘अणोरणीयान् महतो महीयान्।’
‘समुद्रमिव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव।’
श्री नीरव जी किसी भी साहित्यिक मंच के प्रतिष्ठित और प्रतीक्षित साहित्यकार के रूप में स्वागत होते हैं। सहज मैत्री की स्थापना कर लेना इनका विशेष गुण है। ये शब्दों के प्रस्तर-खंडों से मैत्री के भव्य भवन का निर्माण करते हैं। इनकी मैत्री के बीच सबसे बड़ा संपृक्ति-तत्त्व शब्द होता है। ये शब्दों का कभी दुरुपयोग भी नहीं करते। शब्दों का सद्भाव इन्हें और इनके श्रोताओं को रसतम आनंद देता है।
जब मैं पाटलिपुत्र से उत्पाटित होकर दिल्ली में प्रतिरोपित हुआ तो मेरी शाखाएँ इसलिए नहीं सूखीं कि यहाँ पंडित सुरेश नीरव-जैसे निर्मल व्यक्ति का साहचर्य और मित्र-भाव मिलता रहा। मेरे प्रत्येक जन्म-दिवस पर ये मित्रों के साथ मेरे घर पर आकर शुभकामना के फूल अर्पित करना नहीं भूलते। मेरे उपन्यास ‘योषाग्नि’ के लोकार्पण का मंच-संचालन आपने जिस शिल्प और शैली से किया था, वह आज भी लोगों को अविस्मरणीय है। मेरे ऊपर लिखित ‘सचल तीर्थ वागर्थ’ नामक अभिनंदन-ग्रंथ के लोकार्पण का भी स्मरणीय मंच-संचालन आपने ही किया था। इन्होंने मुझसे एक सौ प्रश्न किए थे, जिनके उत्तर ‘सर्वतोष प्रश्नोत्तर-शतक’ ग्रंथ में प्रकाशित हुए। उन्हीं दिनों ‘तत्पश्चात्’ नामक इनकी पुस्तक की भूमिका मैंने लिखी थी। पंडित सुरेश नीरव एक ऐसे गुरुत्वाकर्षी व्यक्ति हैं, जो अपने शब्दों की चारुता और संबंधों की वसंत-लतिका कभी नहीं छोड़ते। इसीलिए सभी इनके वशंवद बने रहते हैं और ये अपनी प्रियंवद प्रवृत्ति कभी नहीं भूलते। इन्हें अनेक स्थानों पर अनेक संस्थाओं के द्वारा अनेक पुरस्कार मिले हैं, जिन्हें ये विस्मृति की मंजूषा में बंद रखते हैं। ये कभी इन्हें अपने कंधों पर लेकर नहीं चलते।
पंडित सुरेश नीरव दूसरों की प्रशंसा पर्वताकार-रूप में करते हैं, किंतु दूसरों के द्वारा की गई प्रशंसा स्वीकार नहीं करते। इसीलिए संस्कृत के दो सुभाषित इन पर घटित होते हैं। एक तो यह कि दूसरों के लघुतम परमाणुवत् गुण का पर्वतीकरण कर अपने हृदय में स्थान देते हैं। इतना ही नहीं, इसे अपने हृदय में सँजोकर नित्य अभिवर्धित करते रहते हैं। श्री नीरव इस संत-परंपरा के प्रज्ञान-पुरुष हैं। उन्हें समर्पित और उनके ऊपर घटित यह सुभाषित है-
परगुण-परमाणून् पर्वतीकृत्य
नित्यं निज हृदि विकसन्ति सन्ति
सन्तः कियन्तः।
दूसरे सुभाषित के अनुसार, ये किसी के भी द्वारा प्रस्तुत स्तुति-कन्या को स्वीकार नहीं करते। यही कारण है कि स्तुति-कन्या आज तक अविवाहित रह गई। सज्जनों ने इसे स्वीकार नहीं किया और दुर्जनों को इसने स्वीकार नहीं किया-
अद्यापि दुर्निवारं स्तुति-कन्या भजति कौमारम्
सद्भ्यो न रोचते सा असन्तोऽप्यस्यै न रोचन्ते।
प्रेमांकुरण का आनंदोत्सव हैं नीरव के गीत
पंडित सुरेश नीरव के गीत जीवन में प्रेमांकुरण की प्रत्यगभास-शैली का आनंदोत्सव एवं सर्वोल्लास तंत्र हैं। इस मनोदशा में पहुंचकर युवा-मन का जो सहज-स्वाभाविक दर्शन होता है, उसकी अभिव्यक्ति पंडित सुरेश नीरव के गीतों में बड़े सहज ढंग से देखने को मिलती है। प्रेम के आलंबन, प्रेयसी को स्मृति-समक्ष रखकर समर्पण का जो पुरश्चरण इनके गीतों में उपस्थित होता है, वह रागात्मक होने के कारण जीवन का मकरंदमय एकिक नियम बन गया है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर जो मूल प्राकृतिक संवेग है और जिसे हम इड (ID) कहते हैं, वही अपने आश्रय को ‘नृत्तावसने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवंचवारम्’ बना देता है। अंतःकरण की विवेक-दृष्टि (सुपर ईगो) (Super Ego) हमें उदात्तता की ओर ले जाती है और जब हम मन के नियामक स्तर (ईगो) (Ego) पर पहुंचते हैं, जहां शेष दोनों गौण हो जाते हैं और वृत्तियां प्रवृत्ति बनकर अपना आकांक्षित आखेट उपस्थित करने लगती हैं, यहीं अग्नि-पुराण का सुभाषित सार्थक होने लगता है-‘अपारे काव्य संसारे कविरेकः प्रजापतिः,यथास्मै रोचते विश्वं तथास्मै परिवर्त्तते।’ कवि सुरेश नीरव मानवीय मूलैषणा पर पहुंचकर ही ऐसी पंक्तियां लिखते हैं-
प्रज्ञा के धूमिल प्रांगण में
सपनों का शुचि संसार खिला।
पंडित सुरेश नीरव का गीति-मन प्रज्ञा के प्रांगण को पारदर्शी नहीं मानता है। इनके गीतकार मन का मानना है कि वहां तर्क के अनेक वितर्क-जाल फैले होते हैं। प्रेम के प्रकाश में भीतर के फूल खिलते हैं, जहां सपने ‘वांछाकल्पलता’ बन जाते हैं और प्रेम के पुष्प शुचिता के संसार में परिवर्तित हो जाते हैं। जहां शुचिता उस ऊंचाई पर बैठ जाती है, जहां हृदय का संपूर्ण निर्मलीकरण हो जाता है, जिसके लिए वैदिक श्रीसूक्तम है-‘यः शुचिः प्रयतो भूत्वा।’ निराला ने प्रेम की शुचिता-यात्रा करते हुए लिखा है- वासना की मुक्ति मुक्ता त्याग में तागी (गीतिका)। प्रकृति-चित्रण के क्रम में कविवर सुरेश नीरव नैसर्गिक छवि का बिंब उपस्थित करते हुए लिखते हैं कि-
शोभन निसर्ग के नंदन में
कंदर्प दूतियों का नर्तन
देखें ख्नगभर, सुनलें जीभर
सुमनों पर भृंगों के गुंजन।
कवि के चित्रण में रति- शृंगार तथा कंदर्प-सौंदर्य, दोनों हैं और दोनों ही नर्तन और गुंजन में हैं। सुरेश नीरव के गीतों को पढ़कर मन सहज ही छायावाद को स्मरण करने लगता है। संपूर्ण हिंदी-साहित्येतिहास में भक्ति-काल यदि स्वर्ण-युग है तो उत्तर-द्विवेदी-काल में छायावाद ही स्वर्ण युग कहा जाएगा। पिछले सौ वर्षों में हिंदी कविता-यात्रा में छायावाद ही स्वर्ण युग माना जाएगा। इस काल में छंदोबद्धता तथा स्वच्छंदन दोनों ही देखने को मिल जाते हैं। कविता के क्षेत्र में भाषा-शैली की ऐसी प्रवाह-प्रंजलता फिर कहीं नहीं मिलती। अनुभूति का सरलीकरण तथा संप्रेषण-कौशल्य भी इस प्रवृत्ति-काल में उपलब्ध हैं। प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी तथा मैथिलीशरण गुप्त को इस काल का पंचरत्न माना जाता है। इनमें भी यदि मैथिलीशरण गुप्त जी को अज्ञेय ने कवि-गुरु की सर्वश्रेष्ठता प्रदान की है तो इसके पीछे अभिव्यंजना की छांदसी-शैली तथा संप्रेषण की विलक्षण सर्वतोषिणी प्रकृति ही है। कविवर नीरव यदि उस स्वर्ण-युग को पुनः स्थापित करना चाहते हैं तो इसमें लोकमत की स्वीकृति एवं सहमति ही होगी, किंतु इसके लिए किसी भी कवि को हीरक-खंड बनकर आगे आना होगा। स्वर्ण का उत्तर रजत बनकर नहीं और स्वर्ण बनकर भी नहीं वरन् हीरक-दीप्ति बनकर देना होगा। सुरेश नीरव ने अपने गीत-संग्रह का नाम रखा है-‘तत्पश्चात---।’ यह बहुत ही सार्थक और अभिव्यंजनापूर्ण समास है। ‘तत’ अनेकार्थी शब्द है। जिसका अर्थ वह सर्वनाम से लेकर साथ-ही-साथ परमात्मा भी है। यह ‘तत्’ ही ‘परा’ है। जिसका प्रतिबिंब ‘अपरा’ है। इस ‘अपरा’ को ही हम जीवन की यज्ञशाला मानते हैं। इस जीवन और जगत की ‘अपरा’ के प्रस्थान बिंदु से ‘परा’ की यात्रा ही जीवन का लक्ष्य है, जिसे हम प्रेम के पथ पर चलकर ही प्राप्त कर सकते हैं। फिर एक और दूसरी व्याख्या भी हो सकती है। ‘तत्’ अर्थात छायावाद। इस छायावाद