भावगीता
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यह भावगीता खासकर युवाओं के लिये ही तैयार की गई है, वैसे पढ़ने की किसी को मनाही नहीं है। मेरी नज़र में आज की युवा पीढ़ी, कहीं ज्यादा व्यवहारिक, जिम्मेदार, कर्त्तव्यनिष्ठ है। वह बाहर से आधुनिकता में सराबोर रहकर भी अंदर अपनी संस्कृति व मूल्यों की पहचान संजोए हुए है।
उपलब्ध संस्कृत गीताओं में जो हिंदी अनुवाद है वह एक-एक श्लोक का अर्थ अलग-अलग होने से, जन-सामान्य (जिसमें हमेशा मैं भी शामिल रही हूँ) को समग्र रूप से समझने में कठिनाई आती है। इसलिये इस 'भावगीता' में श्लोक का अर्थ, भावार्थ के आधार पर किया गया है। कहीं एक-दो श्लोकों का अनुवाद एक साथ किया गया है, कहीं अधिक का।
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भावगीता - Indu Parashar
भावगीता
इंदु पाराशर
Published by:
Sahityapedia Publishing
Noida, India – 201301
www.sahityapedia.com
Contact - +91-9618066119, publish@sahityapedia.com
Title: Bhaav Gita
Author: Indu Parashar
Copyright © 2020 Indu Parashar
All Rights Reserved
First Edition – 2020
Format- Ebook
ISBN - 978-93-89100-82-2
This book is published in its present form after taking consent from the author & all reasonable efforts have been made to ensure that the content in this book is error-free. No part of this book may be reproduced, stored in or introduced into a retrieval system, or transmitted, in any form, or by any means (electrical, mechanical, photocopying, recording or otherwise) without the prior written permission of the author.
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अनुक्रमणिका
भूमिका
आभार
समर्पण
परिचय
प्रथम अध्याय अर्जुन विषादयोग
द्वितीय अध्याय सांख्ययोग
तृतीय अध्याय कर्मयोग
चतुर्थ अध्याय "ज्ञान कर्म संन्यास योग''
पंचम अध्याय कर्म सन्यास योग
षष्ठम् अध्याय आत्मसंयम योग
सप्तम् अध्याय ज्ञान-विज्ञान योग
अष्टम अध्याय अक्षरब्रह्म योग
नवम् अध्याय राजाधिराजगुह्ययोग
दशम् अध्याय विभूति योग
एकादश अध्याय विश्वरूप दर्शन योग
द्वादश अध्याय भक्ति-योग
त्रयोदश अध्याय क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभागयोग
चतुर्दश अध्याय गुणत्रय विभाग योग
पंचदश अध्याय पुरुषोत्तम योग
षष्ठदश अध्याय दैवासुरसंपद्विभागयोग
सप्तदश अध्याय श्रद्धात्रयविभागयोग
अष्टदश अध्याय मोक्षसंन्यासयोग
श्लोक
आरती
एरे मन
भूमिका
प्रिय पाठको,
यह भावगीता खासकर युवाओं के लिये ही तैयार की गई है, वैसे पढ़ने की किसी को मनाही नहीं है। मेरी नज़र में आज की युवा पीढ़ी, कहीं ज्यादा व्यवहारिक, जिम्मेदार, कर्त्तव्यनिष्ठ है। वह बाहर से आधुनिकता में सराबोर रहकर भी अंदर अपनी संस्कृति व मूल्यों की पहचान संजोए हुए है। मुझे आशा है यह ‘भावगीता’ युवा पीढ़ी में बहुत लोकप्रिय होगी।
गीता के इस काव्यानुवाद में कुछ जगहों पर कविता की लयात्मकता व्यक्तियों या वस्तुओं के नाम आने से टूटी है, तो कहीं एक श्लोक का काव्यानुवाद कभी एक लाईन में तो कहीं 4-5 लाइन में भाव की गहराई के आधार पर हुआ है। इस बात को मैं स्वीकारती हूँ।
उपलब्ध संस्कृत गीताओं में जो हिंदी अनुवाद है वह एक-एक श्लोक का अर्थ अलग-अलग होने से, जन-सामान्य (जिसमें हमेशा मैं भी शामिल रही हूँ) को समग्र रूप से समझने में कठिनाई आती है। इसलिये इस ‘भावगीता’ में श्लोक का अर्थ, भावार्थ के आधार पर किया गया है। कहीं एक-दो श्लोकों का अनुवाद एक साथ किया गया है, कहीं अधिक का। अतः क्रम अलग-अलग हैं, इससे ऐसा भ्रम होता है कि कुछ श्लोक छूट गये , किन्तु ऐसा नहीं है।
भावगीता में भाषा को सरल-से-सरलतम् बनाने का प्रयास किया गया है। इसीलिए कुछ शब्दों के शब्दार्थ भी प्रत्येक अध्याय के अंत में दिये गये हैं। इस तरह से यह ‘भावगीता’ पूर्णत: संस्कृत से अनभिज्ञ व्यक्तियों द्वारा भी पढ़ी एवं समझी जा सकती है।
इसकी सरलता इसमें छुपे हमारी संस्कृति के संदेश, जीवन-दर्शन, दिनचर्या, आचार-विचार, आहार-व्यवहार, वैज्ञानिक तथ्य, सबको अच्छी तरह आपके द्वारा आत्मसात करने में एक विशेष भूमिका निभाएगी।
इन्दु पाराशर
आभार
भगवद् गीता के इस काव्यानुवाद में सबसे बड़ा योगदान या सच कहूँ तो इस सृजन का सारा श्रेय मेरे किशोर बच्चों पिंकू-कुन्नी (अब डॉ. पंकज, सौ.पूजा शर्मा) को जाता है जिन्होंने चौदह और बारह साल की छोटी उम्र में, एक ने बाहर की और दूसरे ने रसोई की सारी जिम्मेदारी अपने कंधों पर, स्वयं आगे बढ़कर, खुशी-खुशी ली और मुझे भौतिक रूप से ही नहीं मानसिक रूप से भी सृजन के अनुकूल वातावरण प्रदान किया। (मेरे पति उन दिनों इंदौर से बाहर, अहमदाबाद में कार्यरत थे।) अपनी आँखों, कानों, हाथों और हृदय को धन्यवाद थोड़े ही दिया जाता है, सिर्फ अहसास किया जाता है, सो उन्हें कैसे धन्यवाद करूँ? कोई धन्यवाद नहीं।
आभारी हूँ ... आदरणीय स्व. रमाकांत तिवारी जी के उस सहयोग की, जो उन्होंने पितृवत आशीर्वाद रूप में किया। उन सब लोगों की भी आभारी हूँ जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, जाने या अनजाने, सहयोग या असहयोग द्वारा मन में इस आग को निरंतर सुलगाए रखा जिससे कि लिखने के पंद्रह साल बाद ही सही आखिर यह पुस्तक का रूप ले सकी (2011-प्रथम संस्करण) और अब 2020 में, ई-बुक के रूप में (द्वितीय संस्करण) उपलब्ध होने जा रहा है।
मेरी हार्दिक इच्छा थी कि इस पुस्तक का विमोचन बाबा रामदेव जी के कर-कमलों द्वारा हो और इस इच्छा को सफल-मनोरथ बनाने का सारा श्रेय जाता है डॉ. पंकज (पिंकू) को। हम श्रद्धेय रामदेव जी के आभारी हैं कि उन्होंने अपने अमूल्य समय में से समय देकर हमें कृतार्थ किया।
परिवार का सहयोग, सदा सर्वदा अमूल्य रहा है।
जिनके संस्कारों ने इस भावगीता को मेरे हृदय में जन्म दिया उन्हीं पिताश्री स्व. बैनीप्रसाद जी व्यास को श्रद्धांजलि स्वरूप समर्पित।
इन्दु पाराशर
समर्पण
पिता! तुम को अर्पित है आज,
तुम्हारे दिये ज्ञान का चिन्ह।
तुम्हारी, स्मृति मन में सदा,
रहे बनकर, जीवन का उत्स।
तुम्हारा प्रेमपूर्ण व्यवहार,
प्रेम की, वह गहरी अनुभूति।
बिठा गोदी में मुझको सदा,
सुनाना, सुन्दर विविध पुराण।
आज भी, मुझे याद सब पिता,
खेलना-खाना विविध प्रकार।
जतन कर रखना सुन्दर वस्तु,
सदा मुझको देने की बात।
लगे जैसे कल की हो बात,
गूँजती कानों में आवाज।
भले, नश्वर हो सारा जगत्,
भले, नश्वर यह मृत्तिका देह।
किन्तु है प्रेम, अनश्वर सदा,
मिला था, जो तुमसे हे तात।
पित: क्या हो सकता प्रतिदान?
पित: कैसे लौटाएँ दाय?
कि जिसके उत्पत्ति कारक आप,
कि जिसके कारण कारक आप।
एक छोटी-सी कोशिश आज,
तुम्हें अर्पित श्रद्धांजलि तात।
-इन्दु
परिचय
श्रीमती इंदु पाराशर का जन्म 27 अक्टूबर 1954 को पिपरिया मध्य प्रदेश में हुआ। आपने 1977 में रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की, लगभग 20 वर्ष इंदौर में अध्यापन कार्य किया, इसी दौरान विज्ञान विषय को सरल, सुरुचिपूर्ण और मनोरंजक ढंग से कविताओं में रचकर एक अभिनव प्रयोग किया,