दूसरी औरत
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तारा जी लिखित उपन्यास, ‘दूसरी औरत’ कोपढने के बाद ऐसा महसूस होता है कि यह कहानी, घटना मात्रका वर्णन नहीं है, बल्कि समय काल की मनोवृति के बाहरी और भीतरी, दोनों ही उपादानों, करुणा- त्याग, भक्ति सेप्रतिस्थापित होती हुई प्रतीत होती है| इसमें लोक जीवन के जातिवाद तथा ऊँच-नीच के कलुष पंक को धोने के लिए नवमानस की अंतर पुकार है, तो अंत:करण को संगठित करने वाला मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार जैसे अवयवों का सामंजस्य भी है|
लेखिका ने अपनी कल्पनाओं को नव-नव उपमाओं द्वारा उसे सजीव रूप प्रदान करने के लिए पंख देती है, जिसमें पूर्णरूपेण सफल भी हैं| यह कहानी एकाकी नहीं है| इसका स्वर, इसकी रचना, अंतरंगता की एकांत धरातल पर हुई है, जो कि कहानी को मुखर कर देता है| सौन्दर्यबोधतथा ऐश्वर्य की दृष्टि से यह उपन्यास सर्वोत्क्रुष्ट और चमत्कारिक सृजन है| इसे पढ़ते वक्त चरित्र सजीव हो उठता है| धर्म, नीति, दर्शन आदि सिद्धांतों से परिपूर्ण किरदारों के आपसी संवाद कानों में घुलने लगते हैं|लेखिका एक कुशल स्वर्णकार की भाँति प्रत्येक दृश्य को समय, काल और परिस्थिति के अनुकूल, नाप-तौलकर, काट-छाँटकर, कुछ नए गढ़कर, अपनी सूक्ष्म भावनाओं में अपनी कोमलतम कलेवर दिया है| भाव जगत के कोने-कोने से तथासौन्दर्य जगत चेतना के अणु-अणु से परिचित डॉ. तारा, भाव जगत की वेदना और गहराई तथा जीवन क्रिया को मानवता के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचानेमें पूर्ण सक्षम हुई हैं |
डॉ. तारा यह मानती है कि समाज के सर्वांगीण विकास के लिए पुरुष हो या नारी, दोनों को जीने का सामान अधिकार चाहिए, क्योंकि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के प्रत्येक क्षेत्र में, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन तभी आ सकता है, जब पुरुष और नारी, दोनों शिक्षित हो| इस उपन्यास में एक गरीब, अशिक्षित औरत ( पारो ) की बेवसी और सामंतवादी क़दमों के तले, उसका कुचला जाना पढ़कर, मन में बरबस एक टीस उठती है, और दिल भावुकता और मार्मिकता से भर जाता है| इस उत्कृष्ट उपन्यास को पढ़कर, मुझे महसूस होता है, कि यह उपन्यास भविष्य में विश्व कथा-साहित्य की धरोहर बनेगी |
डॉ. तारा सिंह
Dr. Tara Singh, well known Hindi Litterateur, a versatile writer, taking keen interests in writing Poems, Short Stories, Novels, Ghazals, Filmy Songs and Essay Books.She always deals with real facts and original aspects of a relationships between individuals / family members / friends. Thus, she illustrates not only the pleasant love but also sometimes resulting development like despair, betrayals and disloyalties.With publication of 46 books (Novels-4, poetry books-20, story books-15, Ghazal books-7), she is presently working as the Editor-in-Chief and Administrator of www.swargvibha.com (A leading Hindi Website) and the Swargvibha Hindi quarterly magazine. She has gotten wide applauses for her emotional and thoughtful Poems, Stories and Ghazals, while dealing with Social and Family issues, Personal and Social delicacies, Philosophy of life and Reality, Birth and Death Cycles, etc.Dr. Tara Singh's outstanding works have been duly recognized and she has already been awarded 255 awards / felicitations / trophies from both National and International Organizations of repute. Her writings / books are now available at www.swargvibha.com and www.kukufm.com (As Audiobooks), Google books, www.amazon.in, www.flipkart.com, Insta Publish, Suman Publications, www.pothi.com, Central and State Libraries in India and 30 other websites world over, etc. Her Biography, “TARA SINGH AUTHOR” has been published by Barnes and Noble (USA 2011) and also by Rifacimento International, 9 times in Who's Who (2006-2019) and Wikipedia. Her writings are always full of serious thoughts, topics, pace of happenings and philosophy of life.
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दूसरी औरत - डॉ. तारा सिंह
दूसरी औरत
उपन्यास
डॉ. तारा सिंह
दूसरी औरत
उपन्यास
Author: Dr. Tara Singh
Published: June 2021
First Edition
Printer Details: Paperback
Copyright: Dr. Tara Singh
All rights reserved including reproduction whole or in part or in any form
Publisher: Swargvibha Publishing House
Publisher Address: A-1601, Sea Queen Heritage, Plot-6, Sector-18, Sanpada, Navi Mumbai, Maharashtra – 400705
अपनी बात
लगातार अठारह काव्य संकलनों के रसास्वादन के बाद, मेरे पाठकों का यह आदेश हुआ कि मैं अन्य विधाओं में भी कुछ लिखूँ| उन्हीं सुधी पाठकों के आदेश का पालन करने हेतुमैं तीन गज़ल संग्रह, एक कहानी संग्रह और अब यह उपन्यास, ‘दूसरी औरत’, उन तक पहुँचाने की कोशिश की हूँ| जिनके प्यार, स्नेह और बल से मैं अब तक 45 कृतियों को लिखने में समर्थ रही; मुझे विश्वास है, यह उपन्यास, ‘दूसरी औरत’ पाठकों के दिलों की आत्मा तक उतरेगी| कारण मैंने वह सब कुछ इसमें लाने की कोशिश की है, जो हमारे समाज में घटित होता है| कहीं पर मैंने कल्पना की उड़ान भरने की कोशिश नहीं की है| यह कहानी, मेरे छात्र जीवन से ही मुझमें, कसक पैदा करती आ रही थी| लेकिन इसे रंग-रूप देकर आप पाठकों के समक्ष उपस्थित करने का मौका मुझे अब मिला| इसके पहले पारिवारिक समस्याओं की उठा-पटक, मुझे लिखने नहीं दिया| आज जब मैं इसे, उस अदृश्य शक्ति की कृपा से पूरी कर सकी हूँतो लगता है, दिल पर का बोझ जो तीस सालों से मेरी साँसों को चलने से पड़ेशान कर रहा थावह हट गया| अब जब मैं इसे पूरा कर खुश हूँ, तो मन भयभीत हो रहा है, यह सोचकर कि मेरे पाठकइसे कहाँ तक स्वीकारते हैं|
कहते हैं न, उम्मीद पर दुनिया टिकी है; इसलिए मैं भी| उसी उम्मीद पर अपने पाठकों परइतना तो भरोसा अवश्य कर सकती हूँ, कि यह उपन्यास हमारी आम जनों की जिंदगी से जुड़ी कहानी है| इसलिए अगर उपन्यास के पात्र- पात्रियों की समस्याओं को अपने संवेदन का आधार आप बनायेंगे, तो आपको रूचिकर लगेगी... ऐसा मेरा विश्वास है| ऐसे अगर आप कोई सुझाव देना चाहेंगे, तो दिल से स्वागत है; नि:संकोच आप दें| उसे मैं अगले संस्करण में, सुधारने की कोशिश करूँगी|
इससे पहले के उपन्यास और आज की शैली में, बहुत भिन्नता आई हैलेकिन यह विकास का सूचक है या अवकाश का, मैं बता नहीं सकती| फ़िर भी मैं पुरानी शैली से बंधे रहने की यथार्थ कोशिश की हूँ| भाषा- भाव भी लगभग कहीं न कहींएक जैसा नहीं, तो मिलता-जुलता अवश्य है| कहानी की गूढ़ता और पवित्रता, दोनों बनी रहे, समाज के लिए अनर्थकारी न हो; इसका भी मैंने यथासंभव ख्याल रखा है| मेरी सुधी पाठकों से एक विनम्रता पूर्वक आवेदन है कि, ‘दूसरी औरत’ की तुलना अँग्रेजी उपन्यासों से, मेरे कहने का मतलब है, पश्चिमी सभ्यता की कसौटी पर न कसें| यह पूरी तरह भारतीय समाज का आईना है| दुख-सुख में, आशा-निराशा, संयोग-वियोग के द्वंद्वों में सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश है| सापेक्ष की पराजय, निरपेक्ष का जय, का गौरव है| मनुष्य की प्राणिक प्रवृत्तियाँ और सामाजिक परिस्थितियों के बीच सुखद सामंजस्य स्थापित करने की एक कोशिश है| मैं मानती हूँ कि व्यक्ति विशिष्ट की चेतना सदैव, हासोन्मुख समाज की रूढ़ि रीति-नीतियों से ऊपर होती है| इसलिए विचार और कर्म को पहला स्थान मिलना चाहिये| मेरी इस ’दूसरी औरत’ में मैंने समाज से इसकी मान्यता के लिए आग्रह-विनय भी किया है| मैं कहाँ तक सफ़ल हुई हूँ, ये तो आपके उदगार ही बता सकते हैं| अब मैं अपनी लेखनी को आपकी प्रतिक्रिया आने तक विश्राम देती हूँ|
- तारा सिंह
दूसरी औरत
पेट की आग क्या नहीं करती, बेसमय मरघट तक पहुँचा देती| यह ऐसी आग हैजो अपनों को भी नहीं बख्शती| कैसे बुझे यह आग, इसकी खोज में मनुष्य ने क्या-क्या नहीं कियाखुद को बेचा, इज्जत तक को पड़ोसा; फ़िर भी यह आग न बुझीतो अपने आप को तकदीर के हवाले कर, कोसता हुआ दुनिया से ही निकल गया।
निम्मी की माँ के आगे भी पति के गुजरने के बाद, ठीक यही सवाल आकर खड़ा हो गया। पापी पेट को भरूँ, तो कैसे? अकेली अपनी तक रहे तो कोई बात नहीं, एक वेला पानी पीकर भी कट जाय| यहाँ तो साथ में एक नन्हीं सी जान भी है| पति की बीमारी घर के माल-मवेशी, घर के बरतन तक बिकवा चुकी थी| कहने के लिए घर के नाम पर एक झोपड़ा खड़ा थाजिसके ठाठ से दीखते आकाश को देख निम्मी, माँ से कभी-कभी पूछ बैठती थी, ‘माँ, यह चाँद वहाँ क्या कर रहा है? रोज एक ही जगह क्यों खड़ा रहता है; क्या उसके पाँव थकते नहीं|’ माँ कहती थी, ‘वह देवता हैभगवान है; भला भगवान के भी पाँव कभी थकते हैं?’ चलो रात हो रही है, सो जाओ और मन ही मन पार्वती, फ़िर झुंझलाती हुई, बुदबुदाती हुई सोना भी तो तभी तक है, जब तक वर्षा नहीं हो रही है| अन्यथा जागना तो है ही और सुबह उठते ही जमींदार के घर हाजिरी भी तो देनी है| पार्वती का नित घर से पौ फ़टने के साथ झोपड़े से निकलना और सूरज ढलने के बाद घर लौटना, जिंदगी जीने का नियमित अंग बन गया था। इस बीच नन्हीं निम्मी को पार्वती, मुहल्ले के लोगों के सहारे, छोड़ जाती थी| निम्मी पूरा दिन इन्हीं गलियों के बच्चों के संग खेलकर बिताया करती थी| लेकिन ज्यों-ज्यों ये बच्चे बड़े होते गये, निम्मी के साथ खेलना छोड़, स्कूल जाने लगे| निम्मी को समझ में नहीं आता था कि ये बच्चे, यहाँ न खेलकर, मुझसे अलग; दुसरी जगह खेलने क्यों चले जाते हैं? एक दिन निम्मी, अपनी सहेली सुनीता से पूछती है, ‘सुनीता, तुम और बबलू सुबह- सुबह कहाँ जाती हो, मुझे भी ले चलो न, मैं भी तुम्हारे साथ जाना चाहती हूँ| तुम नहीं होती होतो मैं अकेली हो जाती हूँ| सोनू भी अब यहाँ खेलने नहीं आता है।’
सुनकर, सुनीता हँसने लगती है और कहती हैअरे बेवकूफ़, हमलोग खेलने नहीं; हम स्कूल जाते हैं|’
निम्मी, ‘यह स्कूल क्या होता है?’
सुनीता, ‘वहाँ, हमलोगों को टीचर किताबें पढ़ने सिखाती है|’
निम्मी, ‘तो चलो न; मैं भी किताबें पढ़ने सीखूँगी|’
सुनीता, ‘नहीं, तुम नहीं जा सकती|’
निम्मी, ‘क्यूँ, मैं क्यों नहीं जा सकती?’
सुनीता, ‘वहाँ जाने के लिए, टीचर के रजिस्टर में अपना नाम लिखवाना पड़ता है, जिसमें बहुत पैसे लगते हैं| पहले माँ से कहकर स्कूल के रजिस्टर में नाम लिखवाओफ़िर जाना|’
निम्मी, ‘ठीक है: आज माँ जब वापस घर आयगी, तो मैं माँ से पैसे माँगकर तुमको दे दूँगी। तुम टीचर को दे देना|’
सुनीता, ‘नहीं, मेरे देने से नहीं होगा| वहाँ, तुम्हारी माँ को जाना होगा|’
शाम को जब पार्वती, जमींदार के यहाँ से वापस घर लौटती हैतब निम्मी, माँ के आँचल से लिपटकर खड़ी हो जाती है| आज जमींदार के यहाँ से मेरे खाने के लिए क्या लाई हो: न पूछकरनिम्मी माँ से कुछ और बात करना चाहती है|
पार्वती, ‘क्या है, बेटा? तुमको कुछ कहना है क्या?
निम्मी, ‘माँ! मैं भी सुनीता की तरह, रोज स्कूल जाना चाहती हूँ| वहाँ किताबें पढ़ने सिखाई जाती है| मैं भी किताबें पढ़ने सीखूँगी| जब मैं किताबें पढ़ना सीख जाऊँगीतब कहानियों की भी किताबें पढूँगी| ऐसे भी तुम्हारे बिना मैं, अकेले रास्ते में बैठी रहती हूँशाम को जब तुम जमींदार के घर से वापस लौटती हो, तब तुमसे कहानियाँ सुनाने कहती हूँतो तुम मारने दौड़ती हो| स्कूल जाने से मैं खुद किताबों से अच्छी-अच्छी कहानियाँ पढूँगी|’ कहती-कहती माँ की गोद में सर रखकर, निम्मी सो जाती है| पार्वती, निम्मी को विस्तर में सुलाते जुए, मन ही मन- तुम ठीक कहती हो, मगर स्कूल भेजने के पैसे, मैं कहाँ से लाऊँ? यही सोचते- सोचते पार्वती की आँखें कब बंद हो गईं| जब आँखें खुली तो देखी, सुबह होने ही