Vedant Darshan Aur Moksh Chintan (वेदांत दर्शन और मोक्ष चिंतन)
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ज्ञातव्य है कि समग्र भारतीय चिन्तन विधा का चरमोत्कर्ष वेदान्त चिन्तन माना जाता हैं। 'वेद' शब्द 'विद्' धातु से व्युत्पन्न है जिसका आशय 'जानने' से अथवा 'ज्ञान प्राप्त करने' से है; अर्थात् जिसको जानने के पश्चात् अन्य किसी प्रकार के ज्ञान को जानने की आवश्यकता नहीं रहती वही वेद है। वेद ही ज्ञान के अक्षय व अक्षुण्ण भण्डार हैं। वैदिक साहित्य के अंतिम भाग को वेदान्त शब्द से निरूपित किया जाता है। संस्कृत में 'अन्त' शब्द के तीन अर्थ होते हैं – 'अन्तिम भाग', सिद्धान्त' और 'सार तत्त्व'। इस प्रकार वेदान्त का अर्थ वेदों के सार तत्त्वों से है। उपनिषदों में वेदान्त के उपर्युक्त तीनों अर्थों का समावेश हो जाता है इसलिए उपनिषदों के लिए वेदान्त शब्द व्यवहार किया जाता है।
प्रस्तुत पुस्तक सभी भारतीय विचारों और दर्शनों के मोक्ष-चिन्तन या आत्म साक्षात्कार के स्वरूपों का निरूपण करते हुए प्रमुख वेदान्त सम्प्रदायों के अनुसार मोक्ष-चिन्तन की व्याख्या करती है। वेदान्त की सभी प्रमुख वैचारिक शाखाओं के गूढ तथ्यों का सरल एवं अनुपम वर्णन पुस्तक में उपलब्ध है। पुस्तक के अंत में सभी विचारकों के मध्य परस्पर अन्तरसंगतता को स्पष्ट करने का प्रयास करते हुए सभी के विचारों को चिंतन के विभिन्न स्तरों के रूप में स्थापित करते हुए एक मात्र पूर्ण सत्य – 'ब्रह्म सत्यं-जगत मिथ्या' के निरुपण करने का प्रयास किया है। साथ ही मोक्ष चिंतन की वर्तमान में व्यवहारिकता और महत्त्व, जीवन का उच्चतम लक्ष्य और नैतिकता के साथ समन्वय की विवेचना की गई है। पुस्तक की भाषा सरल और ग्राह्य है। पुस्तक लेखन की शैली दार्शनिक अभिव्यक्तियों को अधिक स्पष्ट और प्रभावपूर्ण बनाती है।.
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Vedant Darshan Aur Moksh Chintan (वेदांत दर्शन और मोक्ष चिंतन) - Dr. Ravindra Bohra
बोहरा
अध्याय-प्रथम
वेदान्त दर्शन का सामान्य परिचय और
भारतीय चिन्तन परम्परा में मोक्ष विचार
सभ्यता व संस्कृति के उषा:काल से ही मानवीया मनीषा एवं मेघा ने मानव जीवन के चरम अथवा परम लक्ष्य की प्राप्ति के परिप्रेक्ष्य में अनवरत चिन्तन श्रृंखला प्रस्तावित की है। इसी चिन्तन परम्परा के अन्तर्गत जीवन में यत्र-तत्र-सर्वत्र व्याप्त दु:खों से छुटकारें हेतु किसी अदृश्य सत्ता को समर्पण-बुद्धि से सराहा है। मानवीय मेघा ने अपने निरन्तर अनवरत चिन्तन से निष्कर्षत: तथा निर्विवाद रूप से इस सत्य का उद्बोधन किया है कि विश्व में व्याप्त त्रिविध दु:खों यथा - आधिभौतिक, आध्यात्मिक तथा आदिदैविक दु:खों से आत्यन्तिक तथा एकान्तिक निवृत्ति परम पुरुषार्थ अथवा मानवीय जीवन का मूर्धन्य मंतव्य है। इन त्रिविध दु:खों में विश्व में व्याप्त सभी प्रकार के दु:ख समाविष्ट हो जाते है। इस दृष्टिकोण से भारतीय चिन्तन परम्परा विश्व चिन्तन के इतिहास में अग्रगण्य रही है।
भारतीय चिन्तन परम्परा का आदि स्रोत वैदिक वांग्मय रहा है। वैदिक साहित्य को भारतीय चिन्तन में शब्द प्रमाण की संज्ञा से सुशोभित किया जाता है। ज्ञातव्य है कि आप्त पुरूष के उपदेशों को ‘शब्द’ कहा गया है¹ और यथार्थ वचन अथवा सत्य वचन के कथन करने वाले मनीषी को ‘आप्तपुरूष’² कथित किया गया है। तात्पर्य यह है कि समाधि के चरम क्षणों में मानव मेघा ने जिस परम सत्य का साक्षात्कार किया, तदुपरान्त उसे जिन शब्दों में अभिव्यक्ति दी, वही वेद-प्रामाण्य माना गया।
वैदिक-ऋषियों ने वैदिक साहित्य का श्रेणी विभाजन क्रमश: दो, तीन ओर चार भागों में किया है। प्रथमत: वैदिक साहित्य को मोटे तौर पर द्विविभाजित किया गया-
कर्मकाण्ड प्रधान भाग और ज्ञानकाण्ड प्रधान भाग। कर्मकाण्ड प्रधान भाग पर पूर्वमीमांसा दर्शन अवस्थित है और ज्ञानकाण्ड भाग पर उत्तरमीमांसा दर्शन; द्वितीयत: कर्म, उपासना और ज्ञान प्रधान भाग। अंतिम और तृतीयत: वैदिक, साहित्य को चार भागों में बांटा जाता है -
मंत्र भाग जिसे संहिता भाग भी कहते है।
ब्राह्मण भाग जो कर्म काण्ड प्रधान भाग है।
आरण्यक भाग जो कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाण्ड के मध्य का संक्रमण काल में रचित साहित्य है।
उपनिषद् भाग जो ज्ञानकाण्ड प्रधान भाग है।
भारतीय मानव समाज की दार्शनिक चिन्तन विधाओं के आदि स्रोत वेद हैं। आस्तिक चिन्तन सम्प्रदाय तो मुक्त कंठ से अपने विचारों को वेदमूलक स्वीकारता ही है, परन्तु यदि गहनता व सावधानीपूर्वक अन्वेषण किया जाए तो नास्तिक दर्शनिक चिन्तन सम्प्रदायों के मंतव्यों का मूल भी सर्वभूतहितैषिणी भगवती श्रुति में मिल जाता है। कर्मकाण्ड प्रधान भाग में एहिक और आमुष्मिक भोगों की प्राप्ति के साधनों पर विचार किया गया है। उपासनाकाण्ड जीवन को सभी प्रकार के विक्षेपों से छुड़ाकर लोकोत्तर एवं दिव्यानन्द की प्राप्ति का मार्ग प्रदर्शित करता है। और ज्ञानकाण्ड प्रधान भाग जगत् के वास्तविक स्वरूप और इसके मूल तत्त्व का निर्णय करता है। वैदिक साहित्य राशी का ज्ञानकाण्ड प्रधान ही उपनिषद् है। औपनिषदिक साहित्य वेदों के अंतिम भाग होने से वेदान्त की संज्ञा से संबोधित किए जाते हैं। यह वेदों का वेदान्त भाग ही समस्त भारतीय दार्शनिक चिन्तन सम्प्रदायों का सिद्धान्त है। वेदान्त शब्द का शाब्दिक अर्थ वेद का अन्त
है। मूलत: यह उन धार्मिक दार्शनिक ग्रंथों को लक्षित करता है जो वेद के प्रत्येक ब्राह्मण में अंतिम अध्यायों के रूप में निबद्ध है जिन्हें कालान्तर में सामान्यत: उपनिषद्
अर्थात् गुह्य रहस्य
, गुह्य सिद्धान्त
कहा जाता रहा है। कालान्तर में वेदान्त शब्द का प्रयोग वेद के अंतिम लक्ष्य
के अर्थ में उपनिषदों पर आधारित उस धार्मिक-दार्शनिक मतवाद के लिए हो जाता है।³
वेद कहते है अनन्त ज्ञान राशी को। इस संपूर्ण ज्ञान का जिसमें पर्यवसान होता है, जिससे ‘अन्त’ होता है, उसे वेदान्त कहते है। यहाँ अन्त से तात्पर्य है, सम्पूर्ण ज्ञान राशी का चरम और परम फल। ज्ञान यह चरम फल ही इसका मूल स्रोत है। अभिप्राय यह है कि जिससे समस्त ज्ञान का उद्भव होता है तथा जिसमें इसका पर्यवसान होता है, उसकी ही संज्ञा वेदान्त है।
वेदान्त शब्द का एक और अर्थ है और वह है ज्ञान की चरम सीमा। औपनिषदिक साहित्य में चरमज्ञान का उपदेश दिया गया है। इस अर्थ में भी वेदान्त शब्द से उपनिषद् या औपनिषदिक ज्ञान ही लक्षित होता है। उपनिषदुक्त आपातविरूद्ध वाक्यों का समन्वय करके उत्तरमीमांसा की रचना हुई, अत: उत्तरमीमांसा को भी वेदान्त कहते हैं। उत्तरमीमांसा का इतर नाम ‘ब्रह्मसूत्र’ है जिसमें ब्रह्मविषयक ज्ञान का उपदेश दिया गया है, इससे इसका नाम ब्रह्मसूत्र पड़ा। वेदान्त शब्द की सिद्धि वेदस्य अन्त: वेदान्त:
मानी जाए तो अपौरुषेय वेद के अंतिम भाग का नाम वेदान्त होता हैं, क्योंकि वेदान्त के सिद्धान्तों का प्रतिपादन उपनिषदों में दृष्टव्य है जो प्राय: वेद के अंतिम भाग अथवा अंतिम अध्याय रूप हैं अथवा वेदों में प्रतिपादित ब्रह्मज्ञान अथवा ब्रह्मविद्या का वर्णन इन्हीं उपनिषदों में हुआ है और वेद प्रतिपाद्य ज्ञान की पराकाष्ठारूप है। ‘वेदस्य ज्ञान: अन्त: यस्मिन" ऐसी व्युत्पत्ति अंगीकार की जाए तो जिन शास्त्रों में ज्ञान का अन्त हो, वेदान्त कहा जाता है। परब्रह्म परमात्मा का ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है, अत: वेदान्तशास्त्र से ब्रह्मज्ञान वा ब्रह्मविद्या का ही बोध होता है। ‘ब्रह्मणों विद्या ब्रह्म विद्या' अर्थात् ब्रह्म की विद्या ब्रह्मविद्या है।
वेदान्त शास्त्र सभी शास्त्रों का शिरोमणि है जिसमें समस्त वेदों का अंतिम लक्ष्य वर्णित हो, वही वेदान्त है। उपनिषदों को वेदान्त कहते है क्योंकि समस्त वेदों का अंतिम लक्ष्य इन्हीं में निहित है। ज्ञातव्य है कि उपनिषत्प्रमाण को ही वेदान्त कहते है।⁴ औपनिषदिक साहित्य वस्तुत: वैदिक साहित्य का चरमोत्कर्ष है, वैदिक साहित्य का चरम परिमार्जित स्वरूप है, चरम विकास है अथवा वेदों का चरम विकसित व निखरा हुआ स्वरूप है। उपनिषद वेदों के अंतिम भाग होने से ही वेदान्त की संज्ञा से संबोधित नहीं अपितु वेदों के अंतिम तात्पर्य का सर्वांगपूर्ण सम्यक् निरूपण करने के कारण इन्हें वेदान्त कहा जाता है। इतना ही नहीं समग्र भारतीय दर्शन का चरमोत्कर्ष वेदान्त दर्शन ही है।
वेदान्त के विषय में अनेक लोगों ने विशेषत: अभिनव वेदान्तियों ने ही ऐसी भ्रान्ति फैला रखी है कि सामान्यत: अब ऐसा संस्कार दृढ़ हो गया है कि वेदान्त ‘नास्तिक’ है; इसके विरोधियों ने इसे ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ तक कह डाला।⁵ कारण इसका यह कहा जाता है कि वेदान्त में, कर्म काण्डानुष्ठान, पुण्य पापादि भेद का कहीं स्थान नहीं है।
यदि ये बातें सत्य हैं तो अवश्य ही ‘वेदान्त’ नास्तिक है परन्तु वेदान्त के मूल ग्रन्थों अर्थात् ब्रह्मसूत्र तथा शंकराचार्यादिकृत भाष्यों को जो कोई आद्यात पढ़ेगा उससे स्पष्ट हो जाएगा कि ये आलांछन उचित नहीं है। कर्मकाण्डोक्त कर्म-कलापों की परम आवश्यकता वेदान्त के अनुसार भी उतनी ही है जितनी और किसी मत या धर्म के अनुसार। जातकर्मादि संस्कार, ब्रह्मचार्यादि आश्रम चतुष्टय के धर्मों के सम्यक अनुष्ठान-तथा और भी नित्य-नैमित्तिक धर्मों के अनुष्ठान इत्यादि सभी को वेदान्ती भी आवश्यक समझते है।
वस्तुत: हिन्दु धर्म में अनुष्ठान के योग्य एक मात्र धर्म सभी मनुष्यों के लिए नहीं कहा गया है। अनुष्ठाता के सामर्थ्य को चित में रखकर ही हिन्दु धार्मचार्यों ने उपदेश किया है। ‘आचार्यवान् पुरूषों वेद इस सिद्धान्त के अनुसार जब कोई जिज्ञासु आचार्य के पास उपस्थित होता था तो पहले आचार्य उसकी बुद्धि इत्यादि योग्यता की परीक्षा-साक्षात अथवा दिव्य दृष्टि से- कर लेते थे और तदनुसार ही शिष्य के समझने और अनुष्ठान के योग्य ही-धर्म का उपदेश करते थे; और साथ-साथ यह भी सूचित करते थे कि अभी तुम्हारी योग्यता के अनुसार इतना ही अपर्याप्त होगा। इसके अनुसार परिशीलन तथा अनुष्ठान के अनन्तर जब चित में शुद्धि आवेगी तब तुम्हें अग्रिम काष्ठा का अधिकार होगा। इस तरह क्रमश: चित शुद्धि द्वारा एक दिन में अथवा एक जन्म में अथवा अनेक जन्मों में (पूर्व संस्कार के अनुसार) - जब सभी काष्ठा का उपदेश दिया जाता था। जहाँ केवल और केवल
शिवोऽहम्: शिवोऽहम्" इतना की कर्त्तव्य रह जाता है।
इस चरम काष्ठा तक लाखों में कोई एक मनुष्य पहुँच पाता है; ऐसा कहें तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। परन्तु भ्रान्ति वश: लोग ग्रन्थों का पूर्वापर न देखते हुए, मनुष्य मात्र का यही ‘शिवोऽहम्" धर्म है - ऐसा समझकर सकल शास्त्रोक्त कर्मकलापों का त्याग कर बैठते है। हिन्दु धर्म का सामान्य व मौलिक वैशिष्ठ्य यही है कि इसके कर्त्तव्य शास्त्र में सभी स्तर के मनुष्यों के लिए कर्म की योग्यता के अनुसार कर्त्तव्य विधि मौजुद है। इस वैशिष्ठ्य से बहिर्भूत वेदान्त भी नहीं है। इसी से भारत में सभी ग्रन्थों के आरम्भ में प्राय: ‘अधिकारिनिरूपण’ ही देखा जाता है।
भगवद्गीता में भी इसी वैशिष्ट्य के तद्नुसार सभी स्तर के अधिकारियों के उपकारार्थ समुचित उपदेश है; जिन उपदेशों में लोगों ने ‘परस्पर विरोध’ समझकर नाना कल्पनाएँ की है। उपदेशों में ‘विरोध’ कहीं नहीं है- केवल अधिकारिभेदेन ‘भेद’ है।
प्रो.वी.एच. दाँते भी इसी मत के अनुयायी लगते है, जिन्होंने ‘मूर्ती-पूजा से मोक्ष’ का सिद्धान्त आधुनिक युग में देकर भारतीय ज्ञान पताका को पुन: गर्वित किया।⁶
वेदान्त के विभिन्न सम्प्रदाय व तत्त्व विचार
‘वेद’ शब्द ‘विद्’ धातु से व्युत्पन्न है जिसका आशय ‘जानने’ से अथवा ‘ज्ञान प्राप्त करने’ से है; अर्थात् जिसको जानने के पश्चात् अन्य किसी प्रकार के ज्ञान को जानने की आवश्यकता नहीं रहती वही वेद है। वेद ही ज्ञान के अक्षय व अक्षुण्ण भण्डार है। संस्कृत में ‘अन्त’ शब्द के तीन अर्थ होते है - ‘अन्तिम भाग’, सिद्धान्त’ और ‘सार तत्त्व’।⁷ इस प्रकार वेदान्त का अर्थ वेदों के सार तत्त्वों से है। उपनिषदों में वेदान्त के उपर्युक्त तीनों अर्थों का समावेश हो जाता है इसलिए उपनिषदों के लिए वेदान्त शब्द व्यवहार किया जाता है।
वेद का गुढ रहस्य समझी जाने वाली उपनिषदें अनेक है। भिन्न-भिन्न वैदिक शाखाओं में नाना उपनिषदें बनी है। यद्यपि उन सभी में मूलत: विचार सादृश्य है तथापि भिन्न-भिन्न उपनिषदों में जिन प्रश्नों की विवेचना की गई है और उनके जो समाधान दिए गए है उनमें कई स्थानों पर विभिन्नता भी पाई जाती है।
अतएव कालक्रम से आवश्यक होने लगा कि भिन्न-भिन्न उपनिषदों में जो विचार है उनका विरोध परिहार करके सर्व सम्मत उपदेशों का संकलन किया जाए। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर बादरायण ने ब्रह्मसूत्र की रचना की। इसे शारीरक सूत्र, वेदान्त सूत्र, शारीरक मीमांसा या उत्तर मीमांसा भी कहते है।
‘शारीरक’ शब्द ‘शरीर’ शब्द में कुत्सावाचक ‘कन्’ प्रत्यय जोड़कर बने शब्द से व्युत्पन्न है।⁸ इस प्रकार यह नाम अपनी कहानी आप कहता है। ‘शारीरक मीमांसा’ अर्थात वह दर्शन जो कुत्सित शरीर में रहने वाली आत्मा का स्वरूप प्रतिपादन करे। ब्रह्मसूत्र या शारीरक मीमांसा के चार अध्याय है, प्रत्येक अध्याय में चार पाद है। प्रथम अध्याय में ब्रह्म विषयक समस्त वेदान्त वाक्यों का समन्वय; द्वितीय में उन वाक्यों के तर्क स्मृति आदि से अविरोध को प्रदर्शित किया गया है; तृतीय में वेदान्त के विभिन्न साधनों के विषय में और चतुर्थ में; उनके फल के विषय में विचार है।
बादरायण रचित ‘ब्रह्मसूत्र’ के सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त है। कालान्तर में इनकी व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से होने लगी; ब्रह्मसूत्र पर अनेक भाष्य लिखे गए जिनमें भाष्यकारों ने अपनी-अपनी दृष्टि से वेदान्त का प्रतिपादन किया है। प्रत्येक भाष्यकार यह सिद्ध करने की चेष्टा में लगे कि उन्हीं का भाष्य, श्रुति और मूल ग्रन्थ (सूत्र) का असली तात्पर्य बतलाता है। हर एक भाष्यकार एक-एक वेदान्त सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक बन गए। जीव व ब्रह्म में क्या सम्बन्ध है? ये दो हैं कि एक ही है? मुख्यतया इसी प्रश्न के विभिन्न उत्तरों पर वेदान्त के विभिन्न सम्प्रदायों की सृष्टि हुई है।
आचार्य शंकर ने प्रमुख रूप से बारह उपनिषदों (यथा - इशोपनिषद्, केनोपनिषद्, कठोपनिषद, प्रश्नोपनिषद, मुण्डकोपनिषद्, माण्डूक्योपनिषद्, एत्तरेयोपनिषद्, तैत्तिरीयोपनिषद्, श्वेताश्वरोपनिषद्, छान्दोयोपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद् तथा कौषीतकी उपनिषद्), श्रीमद् भगवद्गीता व ब्रह्मसूत्र पर भाष्य ग्रन्थ लिखे है। शंकराचार्य का ब्रह्मसूत्र - शारीरक भाष्य कहलाता है। आचार्य रामानुज ने ब्रह्मसूत्र पर श्री भाष्य व गीता पर भाष्य ग्रन्थ लिखे है। मध्वाचार्य ने भी ब्रह्मसूत्र पर पूर्णप्रज्ञ भाष्य व गीता भाष्य लिखे है। वल्लभाचार्य ने अणुभाष्य, भास्कराचार्य ने भास्कर भाष्य, निम्बार्क ने वेदान्त परिजात सौरभ भाष्य, श्री कण्ठ ने शैव भाष्य, श्रीपति ने श्री कर भाष्य, विज्ञान भिक्षु ने विज्ञानामृत भाष्य; तथा बलदेव स्वामी ने गोविन्द भाष्य के रूप में ब्रह्मसूत्र पर भाष्य ग्रन्थों की रचना कर वेदान्त साहित्य के कलेवर को समृद्ध किया।
प्रत्येक दर्शन में चार प्रकार के ग्रन्थ होते है:- श्रृति, स्मृति, आकर व निबन्ध। वेदान्त दर्शन की श्रुति उपनिषद् है, स्मृति भगवद्गीता है, और सांगोपांग उस दर्शन का युक्तिपूर्वक विवरण जिसमें हो वे आकर ग्रन्थ कहलाते है - इस दर्शन के आकर ग्रन्थ है - ब्रह्मसूत्र और उनके भाष्य ग्रन्थ। भाष्य मुख्य वेदान्त दर्शन पर आचार्य शंकर का है जो कि अद्वैत तत्त्व का विस्तार से प्रतिपादन करता है। इन सूत्र भाष्यों में श्रुतियों में कहे गए सिद्धान्तों को युक्तियों द्वारा भी परिपुष्ट किया गया है और अन्य दर्शनों की युक्तियों की भी विस्तार से आलोचना की गई है।
यद्यपि अन्याय साम्प्रदायिक आचार्यों ने भी सूत्रों पर भाष्य ग्रन्थ लिखे हैं और इनमें परस्पर सिद्धान्तों का विरोध सा भी प्रतीत होता है परन्तु वह दृष्टिभेद मात्र है। सामान्यत: संसार में हम देखते है कि उपादान कारण का अपने कार्य के साथ क्या संबंध है! इस विचार में भी अनेक दृष्टि भेद हो सकते है। जिससे जो वस्तु बनती है उस वस्तु का वह उपादान कारण कहा जाता है। जैसा कि वस्त्र का उपादान कारण धागे या तन्तु है। वस्त्र व तन्तुओं के परस्पर संबंध के विषय में कई प्रकार की दृष्टि हो सकती है।
तन्तुओं से वस्त्र नाम की एक नवीन वस्तु उत्पन्न हो गई, यह एक दृष्टि हैं क्योंकि वस्त्र नाम पहिले नहीं था, किन्तु अब हुआ है। पृथक-पृथक तन्तु रहने पर वैसा आकार भी नहीं था, इसलिए रूप भी नया बना; केवल तन्तु अंग का आच्छादन नहीं कर सकते थे अर्थात् पहनने का काम नहीं दे सकते थे, वस्त्र वह काम देने लगा। इस प्रकार नाम, रूप और कर्म तीनों पृथक होने से वस्त्र नाम की एक नवीन वस्तु बन गई। यह भेदवाद अथवा द्वैतवाद
की दृष्टि है।⁹
द्वितीय दृष्टि यह है कि तन्तुओं का ही तो आतान-वितान (ताना-बाना) वस्त्र के रूप से प्रतीत होता है, नवीन वस्तु क्या आई? उतने तन्तु मिलकर जितने प्रदेश में व्याप्त होते है, उतना ही प्रदेश यह वस्त्र घेरता है; जितना उनका तौल था वही तौल वस्त्र का भी रहता हैं। रही नाम, रूप और कर्म की बात सो ये तो समुदाय में बिना नवीन वस्तु के उत्पन्न हुए भी देखे जाते है। जैसा कि एक-एक वृक्ष वन नहीं कहलाता, किन्तु वृक्षों के समुदाय का नाम वन पड़ जाता है; एक-एक सैनिक को सेना नहीं कहते किन्तु उनका समुदाय सेना कहलाता है। यहाँ वन और सेना में नवीन की उत्पत्ति कोई नहीं मानता। जो काम-नगर आदि को घेरना एक-एक सैनिक नहीं कर सकता, वह नया काम भी सेना के द्वारा होता है, फिर भी सेना अलग नहीं मानी जाती, फिर धागे और वस्त्र ही क्यों अलग माने जाएं? इसलिए धागे या तन्तु ही वस्त्र या पट् है; यह अद्वैतवाद
हुआ।¹⁰
उपर्युक्त द्वैतवादी व अद्वैतवादी दोनों ही प्रकार की युक्तियों को देखकर लगता है कि भेद व अभेद दोनों ही ठीक है। वस्तुत: पट् तन्तु से भिन्न भी है और अभिन्न भी, यह ‘द्वैताद्वैतवाद’ की दृष्टि है। तन्तु तो पट् से पहले भी थे और पट् के नष्ट हो जाने पर भी रहेंगे। इसलिए स्वतन्त्र होने के कारण पृथक है, किन्तु वस्त्र तन्तुओं से पृथक कभी भी नहीं मिलता इसलिए वस्त्र तन्तुओं से अभिन्न है; किन्तु तन्तु वस्त्र से भिन्न है। यह दूसरे प्रकार का ‘द्वैताद्वैतवाद’ हुआ।¹¹
धागों में वस्त्र उत्पन्न करने की एक शक्ति है क्योंकि धागों से ही वस्त्र और अन्य किसी वस्तु से नहीं बनता है वह शक्ति वस्त्र की सूक्ष्मावस्था ही कही जा सकती है। सूक्ष्म अवस्था व स्थूल अवस्था अलग-अलग नहीं हो सकती इसलिए शक्ति विशिष्ट धागों के साथ वस्त्र का अभेद है। यही विशिष्टाद्वैतवाद
की दृष्टि है।¹²
भेद-अभेद साथ-साथ नहीं रह सकते इसलिए वस्त्र एक अनिर्वचनीय वस्तु है; न उसे भिन्न ही कहा जा सकता है ना अभिन्न ही। ऐसी स्थिति में न उसकी सत्ता कह सकते है ना ही असत्ता; वरन् अनिवर्चनीय कहना पड़ेगा। यह अनिवर्चनीयवाद की दृष्टि है।¹³
इन ही दृष्टि भेदों में से एक-एक दृष्टि को प्रधान मानकर एक-एक आचार्य ने अलग-अलग वेदान्त सम्प्रदाय की रचना ब्रह्मसूत्र पर भाष्य की रचना कर की। आचार्य शंकर ने अद्वैत के साथ मिलाकर अनिवर्चनीय की दृष्टि को प्रधान रखा, आचार्य रामानुज ने विशिष्टाद्वैतवाद की, आचार्य निम्बार्क व आचार्य भाष्कर ने द्वैताद्वैतवाद की; आचार्य मध्व ने द्वैत की, तथा आचार्य वल्लभ ने शुद्धाद्वैत की दृष्टियों को प्रधानता देकर वेदान्त के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की स्थापना की।¹⁴
वेदान्त के इन सम्प्रदायों के मूल तथ्यों पर गंभीर विचार करने से ये दृष्टि भेद मात्र ही प्रतीत होते है। वेदान्त का मुख्य कथन यही है कि सम्पूर्ण संसार का मूल तत्त्व एक ही है। जड़, चेतन, स्थावर, जंगम् इत्यादि सभी भेदों में वह मूल तत्त्व व्याप्त है। स्वयं वह मूल तत्त्व मन और वाणी की पहुँच से परे है। नाम और रूप मन तथा वाणी के विषय होते है, मूल तत्त्व नाम रूप से रहित है। नाम रूप उसी के आधार पर उत्पन्न हुए है।
औपनिषदिक साहित्य में इसी सम्दर्भ में एक कथा आती है कि अरूण के पुत्र आरूणि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु से उसके पिता ने पूछा कि - "ऐसी कौन सी वस्तु है कि जिस एक के सुनने से बिना सुनी हुई सभी वस्तुएं सुनी जा सके; जिस एक के विचार से बिना विचार की हुई सब वस्तुओं का विचार हो जाता है; जिस एक के ज्ञान से नहीं जानी हुई सब वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है?
श्वेतकेतु द्वारा अज्ञानता उजागर करने पर उद्दालक कहते है - हे सौम्य! जैसे कारण रूप मिट्टी के पिण्ड का ज्ञान होने से मिट्टी के कार्य रूप घट्, शराव आदि समस्त वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है और यह पता लग जाता है कि घट् आदि कार्य रूप वस्तुएं सत्य नहीं हैं, केवल वाणी के विकार है, सत्य तो केवल मिट्टी ही है; जैसे कारण रूप स्वर्ण पिण्ड का ज्ञान हो जाने से कड़े, कुण्डलादि सभी कार्यों का ज्ञान हो जाता और यह पता लग जाता है कि ये कड़े कुण्डलादि सत्य नहीं है केवल वाणी के विकार है सत्य तो केवल स्वर्ण ही है ठीक उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत का मूल तत्त्व, सत्य तत्त्व, अतिकारी तत्त्व जिसने जान लिया उसने सम्पूर्ण जगत् को जान लिया, उसके पश्चात् उसके लिए जानने की कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती।
इसके पश्चात् उद्दालक, श्वेतकेतु से कहते है के - हे श्वेतकेतु। जगत का वह मूल तत्त्व तुम हो
तत्त्व; इसी का नाम अद्वैत है अर्थात् जगत में दो वस्तु नहीं हैं। एक ही मूल तत्त्व भिन्न-भिन्न नामों और विकार रूपों से दिखाई दे रहा है, इसे समझ लेने पर ज्ञान का अन्त हो जाता है और कुछ जानने को शेष नहीं रह जाता (वेदान्त)
।¹⁵
यहाँ पर उपर्युक्त कथा में कार्यरूप जगत को मिथ्या कहा गया है सत्य नहीं इसी को पुष्ट करते हुए लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक¹⁶ कहते है - नाम, रूप तथा अवस्था को मिथ्या तो व्यवहार में भी कहा जाता है। जैसे एक धनिक ने अपनी सम्पति के युग में बहुत से मनोहर आभूषण बनवाए। उनमें गढ़ाई और जड़ाई की ऐसी सुन्दरता करवायी की
सोने से गढ़ाई भारी की कहावत को प्रत्यक्ष करा दिया। देवात् वह दरिद्र हो गया और उन आभूषणों का विक्रय करने को सर्राफ के पास ले गया और उनमें जितनी लागत लगी थी वह सर्राफ को सुनाई, तो सर्राफ क्या कहेगा? यह कि,
बाबुजी गढ़ाई-जड़ाई की बात जाने दीजिए, असली सोने का दाम ले लीजिए।"
इससे स्पष्ट है कि कारण द्रव्य ही व्यवहार में भी सत्य माना जाता है। गढ़ाई-जड़ाई या नाम रूप तो कल्पित या मिथ्या ही समझे जाते है, उनका मूल्यांकन नहीं होता। वस्तुत: मिथ्या कहने का तात्पर्य इतना ही है कि नाम रूपात्मक जगत् की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, वह सत्-चित् आनन्द रूप परब्रह्म या परमतत्त्व के आधार पर ही व्यवस्थित है, अत: कल्पित मात्र हैं।
भारतीय दर्शन में मोक्ष विचार
मानव जीवन का भारतीय दृष्टिकोण इतना सुन्दर तथा मंजा हुआ है कि इसको देखकर विदेशी विद्वानों और दार्शनिकों ने आश्चर्य प्रकट किया है। भारतीय जीवन पहाड़ी नदी की तरह स्वच्छन्द व निर्द्धन्द नहीं होकर मैदान में बहने वाली शान्त सरिता की तरह सुव्यवस्थित और सुसंगठित है। भारतीय जीवन का एक प्रधान लक्ष्य माना गया है, जिसके इर्द-गिर्द अन्य लक्ष्य मंडराते है; यह प्रधान लक्ष्य है -‘मोक्ष की प्राप्ति’। प्रधान लक्ष्य तक पहुँचने के लिए मानव को दूसरे लक्ष्यों की क्रमश: पूर्ति करते हुए आगे बढ़ना होता है। इन लक्ष्यों को भारतीय नीति दर्शन की शब्दावली में पुरूषार्थ
कहा गया है। पुरूषार्थ भारतीय सन्दर्भ में जीवन के प्रधान मूल्य है। ‘पुरूषार्थ’ का शाब्दिक अर्थ है -पुरूष अर्थात् जीव या आत्मा का लक्ष्य, मूल्य धन या अर्थ।¹⁷ वास्तव में ये पुरूषार्थ जीव के धन है, जीव के नैतिक मूल्य है, जीवन के लक्ष्य है, जिनकी प्राप्ति मानव जीवन का चरम उत्कर्ष हैं।
वैदिक ऋषियों व दार्शनिकों ने देह (Body), मन (Mind), बुद्धि (Intellect) तथा आत्मा (Soul) के क्रमिक विकास के लिए क्रमश: अर्थ, काम, धर्म तथा मोक्ष इन चार पुरूषार्थों की रचना की है। इनकी प्राप्ति करता हुआ मानव आत्मज्ञान की और प्रवृत होता है और अपने वास्तविक स्वरूप (Reality of own self)) का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, यही मोक्ष की अवस्था है। ये पुरूषार्थ भारतीय सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन के आधार भूत सिद्धान्त है। इनकी पूर्ति ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है।
भारतीय दृष्टिकोण से संसार में मानव से श्रेष्ठतर कुछ भी नहीं है।¹⁸ यह मानव केवल हाड, मांस व चाम का पुतला ही नहीं वरन् आत्मा का खिलौना है, इसीलिए वह आत्मा की उन्नत्ति चाहता है। इस संसार के आवागमन के चक्कर तथा तीनों व्याधियों यथा - आधिदैविक, आधि भौतिक तथा आधि दैहिक -से आत्यान्तिक व एकान्तिक निवृत्ति का नाम ही मोक्ष है। मोक्ष के स्वरूप को भारतीय आचार शास्त्र व दर्शन में विभिन्न विचारकों ने विभिन्न रूप से प्रस्तुत किया है परन्तु सभी ‘ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नही।¹⁹ के सिद्धान्त पर एक मत है। भारतीय दृष्टिकोण से यों तो ‘जीवन्मुक्ति’, ‘विदेह मुक्ति’ तथा चार्वाक मत से ‘मृत्यु मुक्ति’ से मुक्ति के तीन प्रकार है पर आधुनिक युग के महान वेदान्ती विचारक डा. राधाकृष्णन एक और प्रकार बता कर मुक्ति के चार प्रकार कर देते है।²⁰ वह प्रकार है - ‘सर्वात्मवादी मुक्ति’ (Universality Liberation)।
संसार में दु:ख के तीन प्रधान कारण माने गए है - (1) अपनी आत्मा को बन्धन में डालना (2) इस प्रकट देह में ही विश्राम करना; और (3) इस प्रकट देह को ही सत्य मानना। इस प्रकार यदि इन तीनों कारणों को दूर कर यदि मानव दु:ख से छुटकारा, जीवन रहते पा लेता है तो यह जीवन्मुक्ति है और यदि मृत्यु के साथ इन दु:खों से छुटकारा पाता है और फिर इस जन्म-मरण चक्र में नहीं फसता है तो यह विदेह मुक्ति है। यद्यपि विदेह मुक्ति का एक और रूप चार्वाक मृत्यु और केवल मृत्यु के रूप में भी देता है।²¹
डा. राधाकृष्णन् के अनुसार मुक्ति या मोक्ष का चौथा प्रकार जो जीवन्मुक्ति के स्वरूप से भी उठकर है - मनुष्य द्वारा अपने मस्तिष्क और तर्क से अपने हृदय और प्रेम से तथा अपनी इच्छ व शक्ति से सर्वात्मभाव की प्राप्ति मानवता का उच्चादर्श है और यही मुक्ति की सर्वोत्कृष्टता है।
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जैसा कि ज्ञातव्य है, भारत में दर्शन की अनेक शाखाएं है, और जिस उर्वरा-भूमि पर दर्शन रूपी वृक्ष खड़ा है वह वेद है। वेद ही वह मूल है, वेद ही वह आधार है, जिस पर दर्शन रूपी वृक्ष खड़ा है। इसलिए भारत में दर्शनों का वर्गीकरण भी ‘वेद’ के आधार पर हुआ है- वैदिक व अवैदिक - ये दो भाग भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों के किए जाते है।
भारतीय चिन्तन परम्परा में अवैदिक व नास्तिक तथा वैदिक व आस्तिक शब्दों को परस्पर पर्याय के रूप में लिया गया है। यद्यपि महान वैयाकरण पणिनि²³ ने ‘नास्तिक’ शब्द का अर्थ किया है ‘परलोक में विश्वास न रखने वाला’; फिर भी बुद्धौतर लेकिन ईसापूर्व की एक परम्परा ने आस्तिक शब्द का एक अर्थ निर्धारित किया है - ‘वेदों’ की सर्वथा निर्दोषता और उनकी चरम प्रामाणिकता में विश्वास रखने वाला।
²⁴ कदाचित इस परम्परा को सर्वाधिक बल मिला स्मृतिकार मनु से जिनकी घोषणा थी कि वेद निन्दक ही नास्तिक है।²⁵ अस्तु, जो भी हो; इस परम्परा ने गहरी जड़ पकड़ी और भारतीय दर्शन में आस्तिकता की कसौटी ‘वेदों की चरम प्रामाणिकता की स्वीकृति’ ही बन गई। वेद भक्त दृष्टिकोण से तीन सम्प्रदायों को नास्तिक घोषित किया गया और इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये तीनों ही वेद विरोधी है - चार्वाक, बौद्ध व जैन दर्शन।
तथा जिन छ: सम्प्रदायों को आस्तिक अर्थात वेद-भक्त घोषित किया गया है, वे है - मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक।
भारतीय दर्शन में मोक्ष के व्यापक अध्ययन के लिए इन दोनों दृष्टिकोणों के माध्यम से प्रकाश डाला जाना आवश्यक है।
अवैदिक या नास्तिक दर्शनों में मोक्ष-विचार
(1) चार्वाक दर्शन व मोक्ष विचार -
भारतीय दर्शन के क्षेत्र में न्यायवैशेषिक विचारों ने जिनको ज्ञान-शास्त्रीय समस्याओं में संजीदा अभिरूचि थी; ने चेतना के सन्दर्भ में यह युक्ति दी थी कि, इसकी उत्पत्ति के लिए शरीर का होना अनिवार्य है, लेकिन वे भी युगों पुराने आत्मा तथा मोक्ष सम्बन्धी विश्वासों से छुटकारा न पा सके। ज्ञान, सुख-दु:ख, इच्छा-द्वेष आदि को स-शरीर आत्मा की अवस्थाएं माना गया और क्योंकि कल्पना की गई कि मोक्षावस्था में आत्मा शरीर-रहित हो जाती है; अत: यह मत भी बल पाता गया कि मोक्षावस्था में आत्मा चेतना शून्य हो जाती है। ज्ञान शास्त्रीय सन्दर्भ में सबल वैज्ञानिक आधार को पाने के लिए केवल एक कदम की और आवश्यकता थी; लेकिन इसके भयानक परिणाम की सोच कर किसी प्रचलित सम्प्रदाय ने यह घोषणा नहीं की - शरीर से पृथक आत्मा की बात बेतुकी है और मोक्ष की कल्पना महज प्रवंचना है।
यह घोषणा भारतीय दार्शनिक जगत के सर्वाधिक आक्रमक व वैज्ञानिक सम्प्रदाय लोकायत या चार्वाक जिसे आलोचक भौतिकवाद भी कहते है ने की थी। चार्वाक या लोकायत मत का सबसे बड़ा वैशिष्ठ्य यह है कि यह दर्शन आज हमारे समक्ष ‘पूर्वापक्ष’ के रूप में ही - अर्थात् उस रूप में ही जिसमें कि उसे उसके विरोधियों ने प्रस्तुत किया, उपलब्ध है। टूची, गार्बे, दास गुप्त आदि मूर्धन्य विद्वानों ने इस मत के सन्दर्भ में निश्चित प्रमाण दिए हैं कि प्राचीन तथा आदि मध्य युगों में वास्तविक लोकायत ग्रन्थों से भी लोगों का परिचय था।²⁶ लेकिन जैसे कि महाभारत के एक प्रसंग में कहा गया कि कुरूक्षेत्र के युद्धोपरान्त पाण्डवों के विजय समारोह में इकठ्ठे हुए ब्राह्मणों में से एक ब्राह्मण ‘चार्वाक’ भी थे जिन्होंने रक्त से सने राज्य को पाने पर युधिष्ठर आदि पाण्डवों को धिक्कारा, उसने युधिष्ठर को मार्मिक रूप से आहत किया और उनके मन में आया कि वह मर जाए। लेकिन दूसरे ब्राह्मणों ने राजा से कहा कि यह चार्वाक तो छद्मवेशी राक्षस है तब राज-आज्ञा से विद्रोही चार्वाक को आग में जला डाला।²⁷ इस प्रसंग से स्पष्ट है कि चार्वाक दर्शन के प्रति लोगों में द्वैष था जिसके परिणाम स्वरूप चार्वाक दर्शन आज हमारे समक्ष मूल रूप में न होकर पूर्वापक्ष रूप में ही है।
लोकायत मत से सम्बन्धित एक मात्र ग्रन्थ जय राशि भट्ट द्वारा रचित ‘तत्त्वोपप्लव सिंह’²⁸ है। ग्रन्थ के शीर्षक का शब्दार्थ है ‘सभी तत्त्वों को उलटने-पलटने वाला सिंह, क्योंकि ग्रन्थ का उद्देश्य यह प्रदर्शित करना था कि प्रमाणिक ज्ञान एक असम्भव व्यापार है, और इसीलिए असम्भव है वस्तुओं का कैसा भी स्वरूप निर्धारण। कई आलोचक गण इस ग्रन्थ को, ‘तत्त्वापल्लववाद’ नामक मत का समर्थक बताते है तथा इसे लोकायत या भौतिकवाद से परे मानते है।²⁹
अस्तु। विभिन्न भारतीय ग्रन्थों में चार्वाक का परिचय इस प्रकार मिलता है - ‘लोकायत ही एक मात्र शास्त्र है; प्रत्यक्ष ही एक मात्र प्रमाण है; पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ही एक मात्र तत्त्व; सुखोपभोग ही मानव सत्ता का एक मात्र श्रेय है; मानव जड़ की एक उत्पत्ति मात्र है; कोई परलोक नहीं है; मृत्यु का अर्थ निर्वाण है"।³⁰
चार्वाक वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार - "कोई स्वर्ग नहीं है, कोई अन्तिम मोक्ष नहीं है न ही परलोक में कोई आत्मा है; न चारों वर्णों के कर्म व्यवस्थाओं इत्यादि का कोई यर्थार्थ फल होता है।’
"न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पार लौकिक:।
तव वर्ण श्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिका:।।"³¹
"जब तक जीवन चलता है तब तक मनुष्य को सुख से रहना चाहिए, ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए, जब शरीर एक बार राख बन जाता तो फिर वह यहाँ कैसे लौट सकता है?
"यावज्यीवेत सुख जीवेत ऋणम् कृत्वा घृतम् पिवेत।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।।"³²
चार्वाक दर्शन ‘प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्’ अर्थात प्रत्यक्ष ही एक मात्र प्रमाण है मानने के कारण चार ही महाभूतों को मानने को बाध्य है। चार्वाक दर्शन को महाभूतों में चेतना को प्रकट करने का स्वभाव मानने के कारण स्वभाववादी भी कहते है। चार्वाक का उद्देश्य स्वतन्त्र प्रमेयों की स्थापना नहीं है। अन्य दर्शनों व मतों का निराकरण करने का इसका प्रयास इसे एक वितण्डा का रूप प्रदान करता है। इसी क्रम में चार्वाक दर्शन शरीर से पृथक किसी अप्रत्यक्ष, अपरिवर्तनीय और अमर आत्मा में विश्वास नहीं करता। उनके अनुसार ज्ञान, क्रिया, चेतना, स्मृति, संकल्प और अनुभूतियाँ आत्मा नहीं वरन् चेतन शरीर के ही गुण है। शरीर से पृथक उनकी कोई सत्ता नहीं है। चेतन शरीर के अलावा और किसी आत्मा को प्रत्यक्ष द्वारा नहीं जाना जा सकता। अतएव चेतन शरीर को ही आत्मा कहना चाहिए।³³ इन्द्रिय गोचर चत्त्वारी महाभूतों के संगठन से ही चेतन्य शरीर उत्पन्न होता है;