Gurjar Vansh Ka Gauravshali Itihaas - (गुर्जर वंश का गौरवशाली इतिहास)
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Gurjar Vansh Ka Gauravshali Itihaas - (गुर्जर वंश का गौरवशाली इतिहास) - Dr. Rakesh Kumar Arya
वंश
अध्याय-1
भारत की क्षत्रिय परम्परा और गुर्जर जाति
भारत में जितनी भी क्षत्रिय जातियां आज मिलती हैं वे सभी की सभी भारत की उस प्राचीन क्षत्रिय परम्परा की प्रतिनिधि हैं, जिसे हमारी वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय वर्ण के रूप में मान्यता दी गई थी। वास्तव में मनुष्य के तीन शत्रु माने गए हैं-अन्याय,अज्ञान और अभाव। जहाँ ब्राह्मण वर्ण के लोग अज्ञान नाम के शत्रु से लड़ते थे वहीं अन्याय नाम के शत्रु से लड़ने का काम क्षत्रिय जाति का था। परन्तु इसके उपरान्त भी उसका वेदवेत्ता, धर्मवेत्ता, न्यायप्रिय और जनहितकारी नीतियों के प्रति समर्पण आवश्यक माना गया था। यही कारण है कि हमारे क्षत्रियों की परम्परा में कहीं भी किसी का भी शोषण करने की नीति और नियत दिखाई नहीं देती। लोक कल्याण करना हमारे यहां पर केवल ‘संत’ का ही काम नहीं है, अपितु ‘सिपाही’ का भी यही काम है,अर्थात लोक कल्याण ब्राह्मण या ऋषि महर्षि का ही उद्देश्य नहीं क्षत्रियों का भी है। अतः लोक कल्याण के लिए लोगों ने ‘सिपाही धर्म’ अर्थात क्षत्रिय धर्म को स्वीकार किया और सिपाही के रूप में अपने देश व धर्म की रक्षा करने को अपना सर्वोत्तम कर्तव्य-कर्म अथवा धर्म स्वीकार किया।
परम्परा महान है हमारी ब्रह्म और क्षत्र की।
पर्यायवाची है यह बंधु शास्त्र और शस्त्र की॥
पवित्र भारत के अतीत को उन्नत किया।
प्यारे भारतवर्ष को विश्व में समुन्नत किया॥
क्षत्रिय परम्परा में लगने लगा जंग
धीरे-धीरे हमारी वर्ण-व्यवस्था में शिथिलता, आलस्य, प्रमाद, असावधानी और निष्क्रियता का जंग लगने लगा। परम्परागत आधार पर व्यक्ति ने अपने ही बेटे-पोते को अपना कार्यभार सौंपने का अनैतिक, अवैधानिक, वेद- विरुद्ध और नीति-विरुद्ध कार्य करना आरम्भ किया। हमने पात्र के स्थान पर पुत्र को वरीयता देनी चाही। जिससे पात्र पीछे हटता गया और पुत्र प्रमुख भूमिका में आ गया। फलस्वरूप लोगों ने अपना उत्तराधिकारी निश्चित करते समय भारत की परम्परा के साथ न्याय न करते हुए उसकी ‘हत्या’ करनी आरंभ की। पात्र को पीछे धकेलकर पुत्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने की परम्परा आरम्भ कर दी। उसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण बनने लगा, क्षत्रिय का क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का बेटा वैश्य और शूद्र बनने लगा। जिससे पात्र अर्थात विद्वत्ता के स्थान पर ‘मोह’ विराजमान हो गया। न्याय करते समय यदि मोह बीच में आ जाता है तो निश्चित है कि ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति न्याय न करके अन्याय कर बैठ करता है।
महर्षि दयानन्द जी ने महाभारत के युद्ध के 1000 वर्ष पूर्व से भारत के क्षत्रिय धर्म में पतन की प्रक्रिया का आरंभ होना माना है। महर्षि दयानन्द जी की यह बात तार्किक आधार पर उचित ही लगती है। क्योंकि जब भी कोई जीवन प्रणाली पतन की ओर चलती है तो उसकी प्रक्रिया बहुत लम्बी होती है। धीरे-धीरे वह क्षरण को प्राप्त होती है। महाभारत का युद्ध हमारे क्षरण की कहानी है। हमारे पतन की गाथा है। यह दुर्भाग्य रहा कि श्री कृष्ण जी ने जिस युद्ध को ‘धर्म युद्ध’ कहकर अर्जुन को इसलिए लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया कि उसके पश्चात हम भारत की क्षरण होती हुई परम्परा को रोक पाने में सफल होंगे, उसके पश्चात भी हमारे क्षरण और पतन की कहानी रुकी नहीं, प्रत्युत हम निरन्तर पतनोन्मुख होते चले गए। सभी जानते हैं कि महाभारत का युद्ध पुत्रमोह के कारण हुआ था। यदि वहाँ पर पात्रता को सम्मान दिया जाता तो निश्चित रूप से महाभारत न हुआ होता। अतः मोह कितना घातक होता है?-इस एक युद्ध से ही हमें पता चल जाता है।
पुत्र और पात्र में जब मानव कर ले भेद।
विवेक सदा जीवित रहे होता ना कोई छेद॥
भारत द्वेषी इतिहासकार और गुर्जर जाति
जब भारत के गौरवपूर्ण अतीत की बात की जाती है या उस स्वर्णिम काल की बात की जाती है जब वैदिक संस्कृति का डंका सारे विश्व में बजता था तो भारत द्वेषी इतिहासकार उस पर प्रकाश न डालकर उससे बहुत आगे की कहानी से भारत का इतिहास आरम्भ करते हैं। वे हमें ऐसा आभास दिलाते हैं कि भारत प्रारम्भ से ही गड़रियों, मूर्खों व जंगली लोगों का देश रहा है। जिन्हें सभ्यता सिखाने का काम हमने आरम्भ किया। फलस्वरूप वर्तमान भारत का इतिहास महाभारत से भी आरम्भ न करके उसके भी दो ढाई हजार वर्ष बाद से अर्थात लगभग अशोक सम्राट के काल से इतिहास का आरम्भ करते हैं।
इसके पश्चात ये भारतद्वेषी इतिहास लेखक यथाशीघ्र हमें सम्राट हर्षवर्धन तक ले आते हैं और यहाँ आकर हमको बता दिया जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन भारत का अन्तिम ‘हिंदू सम्राट’ था। साथ ही हमें यह भी बता दिया जाता है कि भारत के क्षत्रिय लोग शासन करने योग्य नहीं थे। वे परस्पर फूट और लड़ाई-झगड़ों में व्यस्त रहते थे। जिस कारण देश को ‘एक’ रखने की कोई योजना उनके पास नहीं थी। राष्ट्रवाद उनके भीतर नहीं था और वह शासन के माध्यम से केवल ऐश्वर्य भोग को ही अपना जीवन लक्ष्य बनाए हुए थे।
भारतद्वेषी इन इतिहासकारों के इस प्रकार के वर्णन से इतिहास का जिज्ञासु पाठक अपने अतीत के प्रति नीरसता के भावों से भर जाता है। वह अपने इतिहास को पढ़ना नहीं चाहता और गौरवपूर्ण अतीत को खोजना नहीं चाहता। बस, यही वह भाव है जिसने हमें अपने गौरवपूर्ण अतीत से काटने का काम किया है। जबकि सच यह है कि भारत निरन्तर अपनी अध्यात्म साधना में तो रत रहा ही साथ ही वह अपनी क्षत्रिय परम्परा के माध्यम से अपने गौरवपूर्ण अतीत को पाने के लिए भी संघर्ष करता रहा है। सम्राट हर्षवर्धन भारत के अन्तिम हिंदू सम्राट नहीं थे, प्रत्युत उनके पश्चात भी उनसे बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित करने वाले ‘हिन्दू सम्राट’ इस देश में हुए। गुर्जर सम्राट नागभट्ट प्रथम, नागभट्ट द्वितीय और सम्राट मिहिर भोज, कश्मीर के राजा ललितादित्य, बहुत बाद में चलकर सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य, शिवाजी और उनके उत्तराधिकारियों का साम्राज्य हमें ऐसे ही इतिहास बोध से परिचित कराता है। इन सभी के साम्राज्य हर्षवर्धन के साम्राज्य से बड़े थे।
वास्तव में गुर्जर जाति के शासकों ने भारत के इसी इतिहास बोध को प्रतिस्थापित करने का ‘लाघनीय’ कार्य किया।
सारी भारतीय क्षात्र-परम्परा का अध्ययन करने के उपरान्त यह कहा जा सकता है कि जिस समय देश की सीमाएं अरब आक्रमणकारियों के कारण असुरक्षित हो रही थीं और भारत का भीतरी शासन भी शिथिलता का शिकार था, जब भारत के धर्म को बौद्ध धर्म की अहिंसा की जंग लगी तलवार दुर्बल कर रही थी, तब अपने आपको इस बात के लिए प्रस्तुत करना कि हम भारत की क्षरण होती हुई व्यवस्था का फिर से उद्धार करेंगे-वास्तव में गुर्जर जाति और उस समय के क्षत्रियों का बहुत बड़ा कार्य था। जो लोग यह कहते हैं कि भारत के लिए क्षत्रिय लोगों में राष्ट्रवाद का भाव नहीं था या वे इस देश के धर्म, संस्कृति के उद्धार और राष्ट्रवाद की भावना को बलवती करने के लिए कभी संघर्षशील या प्रयासरत नहीं रहे, उन्हें इस घटना को समझना चाहिए और फिर इसके परिणामों पर विचार करना चाहिए। यदि ऐसा किया जाएगा तो निश्चय ही उनकी धारणा बदल जाएगी। अगले अध्यायों में हम यह स्पष्ट करेंगे कि भारत के गुर्जर सम्राटों ने किस प्रकार देश में राजनीतिक एकता और राष्ट्रवाद की भावना को बलवती करने का सराहनीय कार्य किया था?
आर्यों की संतानें हैं गुर्जर
सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु सन् 648 ई० में हुई। इसके बाद के इतिहास को प्रस्तुत करते समय इतिहासकारों ने यह भ्रान्त धारणा फैलाई है कि उसके बाद गुर्जर व कई अन्य जातियों के छोटे-छोटे राज्य भारतवर्ष में स्थापित हो गये। पृथ्वीराज चौहान तक के काल में कोई बड़ा शक्तिशाली सम्राट नहीं हुआ जो पूरे भारतवर्ष का शासक रहा हो। इसी समय में गुर्जरों, राजपूतों, जाटों, अहीरों के राज्य एवं शक्ति
अपने-अपने ढंग से देश का अलग-अलग क्षेत्रों में नेतृत्व करती रहीं। इस भ्रांति पूर्ण इतिहास के माध्यम से हमें यह भी पढ़ाया जाता है कि ये जातियां अलग-अलग शासन करते हुए कई बार आपस में लड़ती भी रहीं। हमारा मानना है कि अपने भीतरी राजनीतिक कारणों के चलते इन उपरोक्त वर्णित जातियों के शासक परस्पर संघर्षरत रहे यह अर्ध सत्य है। परंतु इसके उपरान्त भी इनकी पारस्परिक लड़ाइयों का एक सुखद पक्ष यह रहा कि किसी भी जाति के किसी भी शासक ने कभी अलग देश की मांग नहीं की। आपस की तकरार को इन्होंने देश तोड़ने की तकरार में परिवर्तित करने का मूर्खतापूर्ण कार्य कभी नहीं किया। क्यों भारतद्वेषी इतिहासकार हमें यह बताते नहीं थकते कि भारत के राजा परस्पर फूट पर शिकार थे और परस्पर लड़ते हुए अपनी शक्ति का अपव्यय कर रहे थे, उन्हें इतिहास के इस सत्य से भी हमें अवगत कराना चाहिए यह लड़ते रहकर भी देश विरोधी क्यों नहीं थे?
हम यह भी मानते हैं कि इन राजाओं के परस्पर युद्ध होते रहे और कभी-कभी इनमें शत्रु भाव भयंकर स्तर तक भी बढ़ गया। ऐसे उदाहरण भी आए कि जब कोई राजा विदेशी शक्ति से जाकर मिल गया। इसके उपरान्त भी उन कुछ उदाहरणों को अलग कर दिया जाए तो भारत के इतिहास की संपूर्ण कहानी बहुत ही रोमांचकारी है। इतिहास के उस रोमांच को प्रस्तुत करना ही देश की युवा को देशभक्त बनाने के लिए आवश्यक होता है। किसी भी दुर्बलता को बैठकर रोते रहने से शक्ति के अपव्यय और मनोबल को तोड़ने के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं आता। वैसे भी हमारे देश के इतिहास का यह भी एक सच है कि विदेशियों से जाकर मिलने और देशघात करने के उदाहरण 100 में से एक दो हैं तो फिर इन उदाहरणों को देश के इतिहास की मुख्यधारा क्यों स्वीकार किया जाए?
भारतवर्ष में आपसी युद्ध होते रहे तथा शत्रुता रही। विदेशी आक्रमणकारियों का इन वीरों ने समय-समय पर बड़ी वीरता से सामना किया और देश की रक्षा करके देशभक्ति का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया। ऐसे अनेकों अवसर आए जब हमारे क्षत्रिय शासक वर्ग ने सामूहिक रूप से राष्ट्रीय सेना तैयार कर विदेशी आक्रमणकारियों का सामना किया।
हमारा मत है कि भारत की सभी क्षत्रिय जातियां आर्यों की संतानें हैं जो क्षत्रिय होकर देश व धर्म की रक्षा करने के लिए तत्पर रहा करते थे।जाट, अहीर, गुर्जर, राजपूत और मराठे क्षत्रिय आर्यवंशज हैं, विदेशी नहीं।
देश आर्यों का रहा, हम आर्यों की संतान।
हर धड़कन ये बोलती मेरा प्यारा हिंदुस्तान॥
सर चौ० छोटूराम ने एक शब्द ‘अजगर’ की घोषणा की थी अर्थात् अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत को एक ही श्रेणी के क्षत्रिय आर्य होने के आधार पर इनका एक ही संगठन बनाने का प्रयत्न किया था। उन्होंने यह प्रयास इसी आधार पर किया था कि ये सारी की सारी जातियां आर्य क्षत्रियों की संतानें हैं। जिन्हें देश, काल, परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग दिखाकर प्रस्तुत किया गया है। यदि आज के सन्दर्भ में भी ये सब एक हो जाएं तो देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा बड़ी सहजता से हो सकती है।
हमारी इन सभी क्षत्रिय जातियों का मूल ‘क्षत्रिय’ शब्द में निहित है। हमारा मानना है कि गुर्जर जाति के शासकों ने देर तक शासन कर भारत की वीरता, शौर्य और साहस की क्षत्रिय परम्परा का दिव्य वरण किया। इसलिए सर्वप्रथम उसने ही क्षत्रिय परम्परा को अपने नाम के साथ अभिषिक्त कराने का सराहनीय और ऐतिहासिक कार्य किया। यही कारण है कि ‘राजपूत’ शब्द क्षत्रिय लोगों के लिए 12 वीं शताब्दी में प्रयुक्त होना आरम्भ हुआ। सर्वप्रथम यदि क्षत्रियों को किसी एक जातिगत नाम से पुकारा गया तो निश्चित रूप से वह नाम ‘गुर्जर’ ही था। देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा के गुरुत्तर दायित्व को निभाने के कारण गुर्जर शब्द की उत्पत्ति होना इसीलिए कई विद्वान इतिहासकारों ने गुर्जर शब्द के सन्दर्भ में व्यक्त किया है। बहुत लंबे समय से भारत की सामाजिक राजनीतिक धार्मिक व्यवस्थाएं जिस प्रकार विश्व का मार्गदर्शन करती आ रही थी उनको संभालने का गुरुत्तर दायित्व क्षत्रिय लोगों ने ही लिया था। क्योंकि किसी भी व्यवस्था को बनाने वाले लोग अलग होते हैं तो उसे बाधित कर तोड़फोड़ कर नष्ट करने वाले भी हर काल में बने रहते हैं। जिन का विनाश करना क्षत्रिय लोगों का धर्म बताया गया। इसी धर्म का निर्वाह हमारे देश के क्षत्रियों ने हर काल में किया है। गुर्जरों ने क्षत्रियों की इसी वंश परम्परा को निभाने का महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक कार्य किया।
गुरुजन का अपभ्रंश है ‘गुर्जर’
विद्वानों की मान्यता है कि जिस देश के व्यक्ति शत्रुओं के आक्रमणों और परिश्रम आदि को नष्ट करने वाले हों उन साहसी सूरमाओं को गुर्जर कहा जाता है। शत्रु के लिए युद्ध में भारी पड़ने के कारण इन्हें पहले गुरुतर कहा गया, किसी के मतानुसार बड़े व्यक्ति के रूप में गुरुजन कहकर अपभ्रंश स्वरूप ‘गुर्जर’ शब्द का चलन हुआ। पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार प्राचीनकाल में गुर्जर नामक एक राजवंश था। अपने मूल पुरुषों के गुणों के आधार पर इस वंश का नाम गुर्जर पड़ा था। उस पराक्रमी गुर्जर के नाम पर उनके अधीन देश ‘गुर्जर’, ‘गुर्जरात्रा’ और ‘गुर्जर देश’ प्रसिद्ध हुए।
इसके उपरान्त भी जिन लोगों ने गुर्जरों को विदेशी माना है उनका मत स्वीकरणीय नहीं है। ऐसे इतिहास लेखक कर्नल जेम्स टॉड, सर जेम्स कैम्पवेल, विसेन्ट स्मिथ, श्री के० एम० मुन्शी (गवर्नर उ० प्र०), मि० क्रुक, डा० भण्डारकर, मि० कनिंघम आदि हैं। भारत की क्षत्रिय परम्परा को कम करके प्रस्तुत करने का इनका कार्य भारत द्वेष की भावना से ग्रसित है। इसलिए भारतीय इतिहास में इन लोगों के इस प्रकार के कार्य को अधिक स्थान दिया जाना भी उचित नहीं है। असत्य और अमान्य धारणाओं पर आधारित इनके लेखों को पढ़ाना भारतीय इतिहास के जिज्ञासु पाठकों का समय ही नष्ट करना होता है। अतः भारत के गौरवपूर्ण इतिहास के लेखन कार्य में लगे विद्वान लेखकों को चाहिए कि ऐसे भारतद्वेषी लोगों के लेखों को अपने लेखन में स्थान न दें।
जिसको सदा से ही रहा निज देश का अभिमान है।
जिसने दिए बेजोड़ अपने देशहित बलिदान हैं॥
निज रक्त से सींचा है जिसने इस हिंद के चमन को।
गुर्जर वही है जो मानता है निज प्राण इस वतन को॥
भारत के प्रति समर्पण का भाव गुर्जरों में उत्कृष्ट रूप से पहले दिन से मिलता है। उन्होंने पहले दिन से भारत के क्षत्रिय धर्म का निर्वाह करने का संकल्प लिया और इतिहास के प्रत्येक मोड़ पर उसे सम्पन्न करने का सराहनीय प्रयास किया। कहीं पर भी उनके द्वारा ऐसा एक भी उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया गया जिससे यह ज्ञात हो सके कि उन्होंने कहीं भारत के साथ ‘द्रोह’ किया। उन्होंने अपनी अटूट आस्था भारत के प्रति व्यक्त की और भारत को विदेशी आक्रांताओं से मुक्त करने और फिर से ‘विश्वगुरु’ बनाने की दिशा में प्रशंसनीय कार्य किया। विद्वानों की स्पष्ट मान्यता है कि युक्ति, तर्क, प्रमाण और इतिहास से यह सिद्ध है कि गुर्जर शुद्ध क्षत्रिय और भारतीय हैं। गुर्जरों की ऐसी उत्कृष्ट देशभक्ति की भावना और अपने देश के प्रति अटूट आस्था को देखकर ही इन्हें चीनी यात्री ह्वेनसांग ने श्रेष्ठ योद्धा क्षत्रिय लिखा है। अबुजैद की भाषा में भारत के जुजर (गूजर) लोग हिन्दुस्तानी राजशासकों में चौथी श्रेणी के थे।
सर हरबर्ट रिस्ले ने सन् 1901 की जनगणना में शीर्षमापन सिद्धान्त से चेहरा और सिर नापने की नई प्रणाली अपनाकर गुर्जरों को आर्यन रेस के सिद्ध किया है। (यद्यपि हमारी मान्यता है कि ऐसी माप तोल करना मूर्खतापूर्ण कार्य है। क्योंकि मनुष्य मनुष्य है और भौगोलिक परिस्थितियों व जलवायु के अनुसार उसके शरीर की बनावट में अंतर पाया जाना स्वाभाविक है। यदि ऐसा ही कोई सर्वेक्षण करना है तो इस बात का किया जाए कि आर्यों का किन-किन देशों पर शासन रहा? और जब वह सम्पूर्ण भूमण्डल पर शासन कर रहे थे तो सम्पूर्ण भूमण्डल की शासन व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक व्यवस्था कैसी थी? यदि इन बिंदुओं पर सर्वेक्षण के लिए कहा जाए तो इन तथाकथित विद्वानों की नानी मर जाती है। क्योंकि इन्हें भारत के हित में जाने वाला कोई सर्वेक्षण नहीं करना है। इन्हें तो सर्वेक्षण वही करना है जिससे भारत दुर्बल होता हो और उसके भीतर हीन भावना उत्पन्न होती हो।) उनकी सीधी ऊँची नासिका, लम्बी गर्दन, ऊँचा माथा, सुडौल भरा हुआ शरीर देखकर पाश्चात्य ऐतिहासिकों ने भी इन्हें भारतीय एवं आर्य प्रमाणित किया है। सर इबट्सन ने पंजाब कास्ट
में पृ० 194 पर लिखा है कि गुर्जर पंजाब की सबसे बड़ी आठ जातियों में से एक हैं। वे डील-डौल और शारीरिक बनावट में जाटों से मिलते-जुलते हैं। सामाजिक रीति-रिवाजों में जाटों के समान हैं। किन्तु जाटों से कुछ उन्नीस हैं। दोनों जातियां बिना किसी परहेज के परस्पर खान-पान करती हैं।
इस प्रकार इनके क्षत्रिय होने में कोई सन्देह नहीं। (गुर्जर वीरगाथा, पृ० 1 पर लेखक रतनालाल वर्मा ने भी यही बातें लिखी हैं)।
जो लोग नाक आदि की बनावट, सिर की बनावट या शरीर के डीलडौल आदि की बनावट के आधार पर जातियों का निर्धारण करते हैं, वे सृष्टि नियमों के विरुद्ध ऐसा कार्य करते हैं। क्योंकि यदि नाक, कान सिर आदि की आकृति के आधार पर जातियों का निर्धारण किया जा सकता है तो इसका अभिप्राय है कि ईश्वर ने ही मनुष्य की अलग-अलग जातियां बना-बना कर भेजी हैं, जबकि ऐसा नहीं है। ईश्वर ने केवल एक मनुष्य जाति बनाकर भेजी है। फिर भी हम जाटों, गुर्जरों के बारे में दिए गए उपरोक्त निष्कर्ष से इसलिए सहमत हैं कि एक ही वंश-परंपरा और एक ही परिवार के लोग बहुत दूर तक और बहुत देर तक एक जैसे कुछ संस्कारों से शासित अनुशासित होते रहते हैं और वे संस्कार उनके भीतर झलकते रहते हैं।
गुर्जरों के लिए भारत सबसे पहले रहा है
ऐतिहासिक प्रमाणों से यह भी सिद्ध है कि यवन भी ययाति राजा के पुत्र तुर्वसु की संतानें थीं। जिन्होंने अपने भारत विरोधी आचरण से जब भारत पर आक्रमण करने आरम्भ किए तो उन्हें भी युद्ध के मैदान में धराशायी करने का काम आर्यों की क्षत्रिय परम्परा के प्रतिनिधि गुर्जरों ने सफलतापूर्वक करके दिखाया। उन्होंने अपने इस आचरण से भी यह स्पष्ट कर दिया कि उनके लिए भारत पहले है।भारत से ही गए हुए भारत द्रोही यवनों को भी वह अपनी वीरता और शौर्य से परास्त करने का साहस रखते हैं। जब विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत में कहीं पर भी छोटे-मोटे राज्य स्थापित करने में क्षणिक सफलता प्राप्त की तो उनसे भी भारत के प्रति अटूट आस्थावान रहे गुर्जर जाति के शासकों, सरदारों, योद्धाओं और यहाँ तक कि जनसाधारण का भी निरन्तर विरोध जारी रहा।
कई स्थानों पर इन विदेशी आक्रमणकारियों के राज्यों को भारत के लोगों ने गुर्जरों के नेतृत्व में उखाड़ फेंकने में सफलता प्राप्त की।
श्री के० एम० मुन्शी ने लिखा है कि छठी शताब्दी के प्रारम्भ से पहले अर्थात् शक राजा रुद्रदामा आदि के समय गुर्जर प्रदेश, गुर्जरात्रा अर्थात् गुजरात नाम का कोई प्रदेश नहीं था। उन्होंने भी स्पष्ट किया है कि सन् 500 ई० के तुरन्त पश्चात् ही आबू पर्वत के चारों ओर का विस्तृत क्षेत्र ‘गुर्जर प्रदेश’ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हो गया। उस समय आबू के चारों ओर ऐसे कुलों का समूह बसता था, जिनका रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, भाषा एवं रीति-रिवाज एक थे, और वह शुद्ध आर्य संस्कृति से ओत-प्रोत थे। उनके प्रतिहार, परमार, चालुक्य (सोलंकी) व चौहान आदि वंशों के शासक, वीर विजेता अपनी विजयों के साथ अपनी मातृभूमि गुर्जर देश या गुर्जरात्रा आदि का नाम (गुर्जर) चारों ओर के भूखण्डों में ले गये। गुर्जर देश गुर्जरात्रा या गुजरात की सीमाएं स्थायी नहीं थीं, बल्कि वे गुर्जर राजाओं के राज्य विस्तार के साथ घटती व बढ़ती रहती थीं। उससे भी गुर्जर जाति ही सिद्ध होती है और देश (गुर्जर देश) की सीमाएं उक्त जाति के राज्य विस्तार के साथ ही घटती व बढ़ती रहती थीं।
विद्वानों का मानना है कि गूजर शब्द पहली बार सन् 585 ई० में सुना गया, जब हर्षवर्धन के पिता प्रभाकरवर्धन ने इनको पराजित किया। उससे पहले गूजर नाम प्रकाशित नहीं था। गुजरात प्रान्त का नाम भी दसवीं शताब्दी के बाद पड़ा, इससे पहले इस प्रान्त का नाम लॉट था। हमारा मानना है कि यदि गुर्जर शब्द 585 ई० के लगभग भी सुनने में आया तो भी इसकी क्षत्रिय परम्परा अति प्राचीन है। हमें समझना चाहिए कि गुर्जर एक क्षत्रिय परम्परा का नाम है। जो कि उतनी ही प्राचीन है जितना इस देश का राजनीतिक इतिहास प्राचीन है। यही कारण है कि गुर्जर लोगों ने अपने आपको प्रतिहार या किसी अन्य ऐसे ही वंश से संबंध इसलिए किया कि वह क्षत्रिय परम्पराओं से जुड़े हुए थे और देश की प्राचीन क्षत्रिय शाखाओं को या क्षत्रिय शाखाओं के वीर पुरुषों को अपना पूर्वज मानते थे। यदि यह विदेशी होते तो किसी भी भारतीय वीर पुरुष को या क्षत्रिय शाखा को अपने लिए आदर्श मानकर उसके साथ अपना संबंध स्थापित नहीं करते।
है गुर्जर एक परम्परा प्रिय! बहुत रही प्राचीन।
वीरोचित किए काम सब नहीं किया कोई हीन॥
गुर्जरों के राज्य
गुर्जरों के प्राचीन और अर्वाचीन (आधुनिक) राज्य – गुर्जरों के प्राचीन एवं प्रभावशाली राज्यों में भीनमाल अग्रगण्य था। यह भीनमाल जोधपुर से लगभग 70 मील दक्षिण में आबू पर्वत व लोनी नदी के मध्य स्थित था। यहां 450 से 550 ई० के मध्य किसी समय यह राज्य चाप-चापोत्कट वंशी गुर्जरों ने स्थापित किया। कल्चुरि नाग लाट जीतकर ताप्ती और नर्मदा के मध्य के प्रदेशों से लेकर विन्ध्य पर्वतमाला तक भीनमाल के चाप गुर्जर क्षत्रियों का राज्य विस्तृत हो गया। इनकी राजधानी भीनमाल थी। परन्तु उसी समय सम्राट हर्षवर्धन के पिता प्रभाकरवर्धन ने जब विजय यात्रा आरम्भ की तो उसने गुर्जर शक्ति पर भी आघात किया। जबकि अभी गुर्जर जाति के योद्धाओं ने भारत के राजनीतिक मंच पर अपना पहला कदम ही रखा था। यह भीनमाल राज्य इस आक्रमण से भी सुरक्षित रहा और बढ़ता ही रहा। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भीनमाल का बड़े अच्छे रूप में वर्णन किया है। उसने लिखा है कि भीनमाल का 20 वर्षीय नवयुवक क्षत्रिय राजा अपने साहस और बुद्धि के लिए प्रसिद्ध है और वह बौद्ध-धर्म का अनुयायी है। यहाँ के चापवंशी गुर्जर बड़े शक्तिशाली और धनधान्यपूर्ण देश के स्वामी हैं।
उसने इस राज्य को 900 मील के विस्तार में बताया है।
सन् 725 ई० में भीनमाल के गुर्जरों पर सिन्ध विजय के बाद अरबों ने आक्रमण किया। मारवाड़ पर आक्रमण करके भीनमाल को ध्वस्त कर दिया। 726 ई० में नागभट्ट नामी प्रतिहार गुर्जर ने भीनमाल को हस्तगत करके प्रतिहार साम्राज्य की आधारशिला रखी।
गुर्जरों ने भीनमाल, भड़ौंच, आबूचन्द्रावती, उज्जैन, कन्नौज आदि को अपनी राजधानी बनाया। गुर्जर प्रतिहार वंश के प्रमुख सम्राटों में नागभट्ट प्रथम, देवराज, वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, रामभद्र व मिहिर भोज, महेन्द्रपाल, महीपाल आदि शक्तिशाली सम्राट् थे और इन्होंने अरब आक्रमणकारियों से युद्ध किये। सोलंकी राजाओं में मूलराज सोलंकी, चामुण्डराज, दुर्लभराज, भीमदेव, कर्णदेव, जयसिंह, सिद्धराज, कुमारपाल, अजयपाल, बालमूलराज, भीमदेव द्वितीय, विशालदेव, सारदेव व कर्णदेव प्रसिद्ध हैं।
जाट इतिहास इंग्लिश पृ० 116 पर लेफ्टिनेन्ट रामसरूप जून ने लिखा है कि-बलहारा जाटों का 900 ई० में उत्तर पश्चिमी भारत की सीमाओं पर बड़ा शक्तिशाली राज्य था। इनकी अरब बादशाहों से मित्रता थी। गुर्जर लोग अरबों के शत्रु थे। उस समय गुर्जरों का शासन भारत के बहुत प्रान्तों पर फैल चुका था (सुलेमान नदवी का लेख तारीख-ए-तिवरी)।
क्या रामचंद्र जी गुर्जर थे?
कुछ लोग रामचंद्र जी और कृष्णजी जैसे लोगों को भी ‘गुर्जर’ कहने से नहीं चूकते। हमारा इस विषय में स्पष्ट मानना है कि गुर्जर भारत की सूर्यवंशी परम्परा के प्रतिनिधि हैं। वह क्षत्रिय हैं और क्षत्रिय परम्परा के कार्यों को ही करने में उन्होंने इतिहास रचा है। इसका अभिप्राय यह नहीं हो जाता कि श्रीराम भी गुर्जर थे। उस समय श्रीराम क्षत्रिय थे और अपने समय में जब क्षत्रियों को कहीं देश, काल व परिस्थिति के अनुसार गुर्जर कहा जाने लगा तो उस समय के गुर्जर रामवंशी हो सकते हैं। इसे इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है कि रामचंद्र जी का अपना वंश सूर्यवंश है। उनके पूर्वज इक्ष्वाकु एक प्रतापी शासक हुए तो उनके प्रतापी शासक होने से उनका वंश ‘इक्ष्वाकु वंश’ हो गया। इक्ष्वाकु के पश्चात इसी कुल में रघु भी एक प्रतापी शासक हुए तो फिर इसी वंश को ‘रघुवंश’ भी कहा जाने लगा। अब यदि कोई इक्ष्वाकु से पहले किसी राजा को इक्ष्वाकुवंशीय कहे तो यह उसकी मूर्खता है। वह सूर्यवंशी मनु की परम्परा का शासक तो हो सकता है, इक्ष्वाकुवंशीय नहीं। हाँ, वह इक्ष्वाकु का पूर्वज हो सकता है। उसी प्रकार रघु से पूर्व का कोई शासक रघुवंशी नहीं हो सकता। रघु के पश्चात का उसका वंशज ही रघुवंशी कहलाएगा। जहाँ तक श्रीराम की बात है तो वह सूर्यवंशी भी हैं, इक्ष्वाकु वंशी भी हैं और रघुवंशी भी हैं। क्योंकि वह इन सब से बाद में हुए हैं। बस, यही बात गुर्जर या किसी भी अन्य क्षत्रिय वंश परम्परा की जाति पर लागू होती है। गुर्जर जाति के लोग श्रीराम के वंशज हो सकते हैं,पर श्रीराम भी गुर्जर हों-यह नहीं मानना चाहिए। जब क्षत्रियों के लिए उस समय गुर्जर या किसी अन्य जाति का प्रयोग ही नहीं होता था तो फिर वेदविरुद्ध और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध क्षत्रिय परम्परा को किसी जाति से बांध कर देखना न्याय नहीं होगा।
इसका अभिप्राय है कि श्रीराम को भी गुर्जर सिद्ध करना हमारी दृष्टि में कतई भी उचित नहीं है।
श्रीराम को क्षत्रिय ही रहने दिया जाए और उनकी नीतियों व उनकी वंश परम्परा से अपने आपको जोड़ने वाले क्षत्रिय गुर्जरों को गुर्जर उस समय से माना जाए जिस समय से उनका गुर्जर के नाम से इतिहास में संबोधन आरम्भ हुआ। इसे वैसे ही किया जाए जैसे भगवान राम स्वयं सूर्यवंशी होकर भी रघुवंशी कहे जाते हैं, क्योंकि वह अपने कुल में राजा रघु के बाद पैदा हुए। ऐसा किया जाना इतिहास और गुर्जर समाज के साथ न्याय करना होगा।
यह सच है कि जिस समय गुर्जर लोगों को गुर्जर के नाम से जाना जाना आरंभ हुआ उस समय संपूर्ण क्षत्रिय जाति का प्रतिनिधि गुर्जर ही कर रहे थे। क्योंकि अन्य क्षत्रिय जातियों का नाम बहुत बाद में लिया जाना आरंभ हुआ। जैसे राजपूत जाति को 12 वीं शताब्दी से पहले इतिहास में कोई नहीं जानता था। ऐसे में यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जो जाति जहाँ से किसी जाति विशेष के नाम से उल्लेखित की जानी आरम्भ हुई, उसका इतिहास वहीं से माना जाएगा। उससे पहले जो भी लोग क्षत्रिय वर्ण का प्रतिनिधित्व कर रहे थे वही क्षत्रिय वर्ण के प्रतिनिधि माने जाएंगे। बात स्पष्ट है कि जहाँ से ‘राजपूत’ शब्द का प्रयोग हुआ, वहाँ से किसी शासक विशेष को क्षत्रिय होते हुए भी ‘राजपूत’ माना जा सकता है। उससे पहले जो भी क्षत्रिय शासन कर रहे थे वह ‘गुर्जर’ ही थे। ऐसा माना जाना न्याय संगत होगा। इसके उपरान्त भी हमारा मानना है कि जिस जाति के जो भी शासक जहाँ भी शासन करते रहे हैं, वे सब अपने आपको भारत की प्राचीन क्षत्रिय वर्ण परम्परा के प्रतिनिधि ही मानें। इससे अलग अपने आपको दिखाने का प्रयास करना सांस्कृतिक रूप से उचित नहीं कहा जा सकता।
अध्याय-2
क्या गुर्जर एक विदेशी जाति है?
भारत में एक भयानक षड्यंत्र के अन्तर्गत लेखकों का एक ऐसा वर्ग सक्रिय रहा है जो भारत की अनेकों जातियों को विदेशी सिद्ध करने का प्रयास करता रहता है। जबकि भारत की इतिहास परम्परा के ऐसे अनेकों स्पष्ट प्रमाण हैं कि भारत की लगभग सभी वे जातियां जो अपने आप को आर्यों की सन्तान कहती हैं या भारतीय इतिहास, धर्म और संस्कृति में अपना विश्वास व्यक्त करती हैं, मूल रूप से सभी भारतीय हैं। जो लोग आर्यों की सन्तानों के रूप में भारत में बस रही जातियों को विदेशी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, उनके ऐसा करने से उन्हें यह लाभ होता है कि ऐसी परिस्थितियों में भारत पर कोई भी एक जाति अपना दावा नहीं कर सकेगी और सब अपने आपको विदेशी मूल की होने के कारण अलग-अलग समझने की भूल करते रहेंगी। जिसका परिणाम यह होगा कि भारत की प्रत्येक जाति अपना मूल विदेशों में खोजेगी तो स्वाभाविक रूप से उसका लगाव भारत से ना होकर विदेशों के किसी विशिष्ट स्थान या भौगोलिक क्षेत्र से होगा। जहाँ से वह अपना निकास मान रही होगी। इसका अन्तिम परिणाम यह होगा कि भारत टूटेगा, बिखरेगा। क्योंकि जिस राष्ट्र में सांस्कृतिक एकता ना हो और जिसकी इतिहास की परम्पराएं एक न हों, जिसका धर्म एक न हो, जिसकी मान्यताएं एक न हों, उसमें बिखराव आता ही आता है। भारत के लोगों की और विशेष रूप से भारत में निवास कर रही जातियों की इन सारी चीजों को अलग-अलग सिद्ध करने के उद्देश्य से ही भारत की जातियों को विश्व के अन्य भौगोलिक क्षेत्रों से आई हुई दिखाने का षड्यंत्र किया जाता रहा है।
भारत की जिन जातियों को षड्यंत्रकारी लेखकों ने विदेशी सिद्ध करने का प्रयास किया है उनमें से एक गुर्जर जाति भी है। इसने भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मजबूत करने में तो महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ही है साथ ही इस जाति के शासकों ने दीर्घकाल तक शासन करके विदेशी मुस्लिम हमलावरों को भारत में प्रवेश करने से रोके रखने का प्रशंसनीय और देशभक्तिपूर्ण कार्य भी किया है। यदि यह जाति विदेशी होती तो विदेशी हमलावरों को माँ भारती पर हमला करने से रोकने का प्रशंसनीय कार्य कदापि न करती। इसके विपरीत इसके पूर्वज उन विदेशी हमलावरों के साथ मिलकर भारत को लूटने की योजना बनाते और यहाँ पर उन्हीं की तरह नरसंहार करने के कीर्तिमान स्थापित करते। गुर्जरों के बारे में हमें यह समझ लेना चाहिए कि इनकी सोच भारत के प्रति सदा कुछ इस प्रकार की रही है:-
आबोहवा में जिसके जीवन हमारा गुजरा।
बाजुओं को जिसकी हमने बनाया झूला॥
गोदी में लोट जिसकी हमने पिया है अमृत।
वह देश हमको प्यारा बतलाया नाम भारत॥
मेरा वतन है भारत
मेरा वतन है भारत-
इससे पहले कि हम गुर्जरों के विदेशी या भारतीय होने पर प्रकाश डालें, हम चाहेंगे कि पहले भारत के प्राचीन इतिहास की उस परम्परा पर थोड़ा प्रकाश डाला जाए जो हम सबको एक ही मूल का सिद्ध करने के लिए बहुत प्रमाणिक है। इसके लिए भारत के प्राचीन साहित्य की पड़ताल करना आवश्यक है। इतिहास की अनेकों घटनाओं का उल्लेख पुराणों में मिलता है। पुराण वास्तव में इतिहास की ही पुस्तकें हैं जो पौराणिक काल के इतिहासवृत्त को सुरक्षित रखने के लिए लिखी गयीं।
जम्बूद्वीप का ऐतिहासिक महत्त्व
‘शतायु’ पुराण के अनुसार धरती के सात द्वीपों का हमें पता चलता है। जिनके नाम जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक एवं पुष्कर थे। इनमें से जम्बूद्वीप सभी के मध्य स्थित है। इस जम्बूद्वीप को विद्वानों ने आज के यूरोप और एशिया से मिलकर बना हुआ माना है। पुराणों की उपरोक्त साक्षी से यह स्पष्ट है कि संपूर्ण भूमंडल के सातों द्वीपों पर आर्यों का ही शासन था और आर्य सम्पूर्ण भूमण्डल के प्रत्येक क्षेत्र से परिचित थे।पुराणों की साक्षी से यह भी सिद्ध है कि पहले सम्पूर्ण आर्य / हिन्दू जाति जम्बूद्वीप पर शासन करती थी। स्पष्ट है कि यूरोप और एशिया के जितने भर भी देश आज हमें विश्व मानचित्र पर दिखाई देते हैं वे सबके सब प्राचीन काल के वैदिकधर्मी आर्यों और कालान्तर में उनके स्थान पर हिन्दू के नाम से पुकारे गए हमारे पूर्वजों की ही सन्तानों के देश हैं।
इस जम्बू द्वीप के भी 9 खण्ड थे:- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भरत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इन 9 खण्डों में से भरत नाम के खण्ड को भरतखण्ड या भारतवर्ष के नाम से जाना गया। इस भरतखण्ड का उससे पूर्व का नाम अजनाभ था।
इस भरत खण्ड के भी नौ खण्ड थे- इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नौवां है। यह भारतवर्ष अफगानिस्तान के हिन्दुकुश पर्वतमाला से अरुणाचल की पर्वत माला और कश्मीर की हिमालय की चोटियों से कन्याकुमारी तक फैला हुआ था। दूसरी ओर यह हिन्दूकुश से अरब सागर तक और अरुणाचल से बर्मा तक फैला था। इसका अर्थ हुआ कि उस समय के भरतखण्ड के अन्तर्गत आज के अफगानिस्तान बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, बर्मा, श्रीलंका, थाईलैंड, इंडोनेशिया और मलेशिया आदि देश आते थे।
इस भरत खण्ड में कुरु, पांचाल, पुण्ड्र, कलिंग, मगध, दक्षिणात्य, अपरान्तदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर, अर्बुदगण, कारूष, मालव, पारियात्र, सौवीर, सन्धव, हूण, शाल्व, कोशल, मद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसी गण आदि रहते हैं। इसके पूर्वी भाग में किरात और पश्चिमी भाग में यवन बसे हुए थे।
भारतवर्ष नाम कब पड़ा?
‘वायु पुराण’ के अनुसार त्रेतायुग के हजारों वर्ष पूर्व प्रथम मनु स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भारतवर्ष को बसाया था। वायु पुराण के अनुसार महाराज प्रियव्रत को कोई अपना पुत्र नहीं था। ऐसे में उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था। जिसका लड़का नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम ऋषभ था। इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे तथा इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा।
प्राचीनकाल में जम्बू द्वीप ही एकमात्र ऐसा द्वीप था, जहां रहने के लिए उचित वातावरण था और उसमें भी भारतवर्ष की जलवायु सबसे उत्तम थी। यहीं विवस्ता नदी के पास स्वायम्भुव मनु और उनकी पत्नी शतरूपा निवास करते थे। राजा प्रियव्रत ने अपनी पुत्री के 10 पुत्रों में से 7 को संपूर्ण धरती के 7 महाद्वीपों का राजा बनाया दिया था और अग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप का राजा बना दिया था। इस प्रकार राजा भरत ने जो क्षेत्र अपने पुत्र सुमति को दिया वह भारतवर्ष कहलाया।
महाभारत के अनुसार भरत का साम्राज्य सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में व्याप्त था। जिसमें वर्तमान भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, तुर्कमेनिस्तान तथा फारस आदि क्षेत्र सम्मिलित थे। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि इन सारे देशों का अतीत भारत का अतीत है। भारत का सम्पूर्ण इतिहास यदि लिखा जाए तो इन देशों का इतिहास उसमें अपने आप सम्मिलित हो जाएगा। इसे हम ऐसे भी समझ सकते हैं कि जैसे कोई रेलगाड़ी जिस स्थान से चली वहाँ से लेकर उसके गन्तव्य स्थल तक बीच में कई स्टेशन आते हैं। जहाँ पर यात्री उतरते व चढ़ते रहते हैं। एक प्रकार से भारत की प्राचीन