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मैं हूँ एक भाग हिमालय का
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Ebook149 pages48 minutes

मैं हूँ एक भाग हिमालय का

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आप सबके समक्ष अपना पहला काव्य संग्रह रखते समय बहुत ख़ुश हूँ मगर असमंजस में हूँ। मैं जन्मना कवियत्री नहीं हूँ ना ही उन महान कवि-कवियत्रियों की श्रेणी में आने की कोशिश भी कर पाऊँगी जो बहुत छोटी उम्र से कवितायें लिखते हैं परिपक्व कवि हैं। मेरा काव्य लेखन बहुत देर से शुरू हुआ। मैं अपने बच्चों के (मॉंटेसॉरी) स्कूल में हिंदी पढ़ाती थी। मॉंटेसॉरी शिक्षा मेरे हिसाब से शिक्षा का एक बेहतरीन माध्यम है। हमारे गुरुकुल की नीव पर आधारित है वह। एक दिन ऐसे ही मेरे पुत्र ने पूरी-आलू माँगे तो मैंने उसकी इस फरमाईश को पहले कविता के रूप में लिख दिया और रख दिया कम्प्यूटर के पास। फिर मैं रसोई में पूरी-आलू बनाने चली गई। तभी पति देव आए और उन्होंने मेरा लिखा अपने किसी ज़रूरी काग़ज़ की खोज में पढ़ा और पूछा ये कि ये कविता कहाँ से आई ... ? मैंने कहा, ”यूँ ही मेरे मन में ये विचार आए और मैंने ये लिख कर रख दी इन्होंने मेरा उत्साहवर्धन किया और तब से आज तक कविता मेरे जीवन का अंग सा बन गई है।
आप सबके समक्ष अपना पहला काव्य संग्रह रखते समय बहुत ख़ुश हूँ मगर असमंजस में हूँ। मैं जन्मना कवियत्री नहीं हूँ ना ही उन महान कवि-कवियत्रियों की श्रेणी में आने की कोशिश भी कर पाऊँगी जो बहुत छोटी उम्र से कवितायें लिखते हैं परिपक्व कवि हैं। मेरा काव्य लेखन बहुत देर से शुरू हुआ। मैं अपने बच्चों के (मॉंटेसॉरी) स्कूल में हिंदी पढ़ाती थी। मॉंटेसॉरी शिक्षा मेरे हिसाब से शिक्षा का एक बेहतरीन माध्यम है। हमारे गुरुकुल की नीव पर आधारित है वह। एक दिन ऐसे ही मेरे पुत्र ने पूरी-आलू माँगे तो मैंने उसकी इस फरमाईश को पहले कविता के रूप में लिख दिया और रख दिया कम्प्यूटर के पास। फिर मैं रसोई में पूरी-आलू बनाने चली गई। तभी पति देव आए और उन्होंने मेरा लिखा अपने किसी ज़रूरी काग़ज़ की खोज में पढ़ा और पूछा ये कि ये कविता कहाँ से आई ... ? मैंने कहा, ”यूँ ही मेरे मन में ये विचार आए और मैंने ये लिख कर रख दी इन्होंने मेरा उत्साहवर्धन किया और तब से आज तक कविता मेरे जीवन का अंग सा बन गई है।

Languageहिन्दी
Release dateDec 9, 2018
ISBN9780463644966
मैं हूँ एक भाग हिमालय का
Author

वर्जिन साहित्यपीठ

सम्पादक के पद पर कार्यरत

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    मैं हूँ एक भाग हिमालय का - वर्जिन साहित्यपीठ

    मैं हूँ एक भाग

    हिमालय का

    ममता शर्मा

    वर्जिन साहित्यपीठ

    प्रकाशक

    वर्जिन साहित्यपीठ

    78ए, अजय पार्क, गली नंबर 7, नया बाजार,

    नजफगढ़, नयी दिल्ली 110043

    virginsahityapeeth@gmail.com; 9971275250

    सर्वाधिकार सुरक्षित

    प्रथम संस्करण - दिसंबर, 2018

    कॉपीराइट © 2018 वर्जिन साहित्यपीठ

    कॉपीराइट

    इस प्रकाशन में दी गई सामग्री कॉपीराइट के अधीन है। इस प्रकाशन के किसी भी भाग का, किसी भी रूप में, किसी भी माध्यम से - कागज या इलेक्ट्रॉनिक - पुनरुत्पादन, संग्रहण या वितरण तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक वर्जिन साहित्यपीठ द्वारा अधिकृत नहीं किया जाता। सामग्री के संदर्भ में किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में जिम्मेदारी लेखक की रहेगी।

    आमुख - 1

    ममता शर्मा

    आप सबके समक्ष अपना पहला काव्य संग्रह रखते समय बहुत ख़ुश हूँ मगर असमंजस में हूँ। मैं जन्मना कवियत्री नहीं हूँ ना ही उन महान कवि-कवियत्रियों की श्रेणी में आने की कोशिश भी कर पाऊँगी जो बहुत छोटी उम्र से कवितायें लिखते हैं परिपक्व कवि हैं। मेरा काव्य लेखन बहुत देर से शुरू हुआ। मैं अपने बच्चों के (मॉंटेसॉरी) स्कूल में हिंदी पढ़ाती थी। मॉंटेसॉरी शिक्षा मेरे हिसाब से शिक्षा का एक बेहतरीन माध्यम है। हमारे गुरुकुल की नीव पर आधारित है वह। एक दिन ऐसे ही मेरे पुत्र ने पूरी-आलू माँगे तो मैंने उसकी इस फरमाईश को पहले कविता के रूप में लिख दिया और रख दिया कम्प्यूटर के पास। फिर मैं रसोई में पूरी-आलू बनाने चली गई। तभी पति देव आए और उन्होंने मेरा लिखा अपने किसी ज़रूरी काग़ज़ की खोज में पढ़ा और पूछा ये कि ये कविता कहाँ से आई ... ? मैंने कहा, "यूँ ही मेरे मन में ये विचार आए और मैंने ये लिख कर रख दी इन्होंने मेरा उत्साहवर्धन किया और तब से आज तक कविता मेरे जीवन का अंग सा बन गई है।

    जब मैंने लिखना प्रारम्भ किया था तो कविता या शब्द कभी धुन के साथ कभी ऐसे ही मेरे मन में चलते रहते थे। उस समय मेरे सपने में भी यह प्रक्रिया चलती रहती थी और कहीं बाहर जाते समय में भी हरेक दृश्य एक अजीब सा भाव जागता था जो कुछ लिखने को प्रेरित करता था यह आज भी बरक़रार है परंतु पहले से कम है आजकल तो कई दिन ऐसे ही बीत जाते हैं एक भी कविता नहीं लिख पाती हूँ और ऐसे दिनों में सच कहूँ तो मुझे लगता है कि मैं निस्सार या सारहीन हो गई हूँ!

    इस काव्य के सफ़र में याहू के एक ई-कविता समूह के वरिष्ठ कवि वृंद का बहुत बड़ा सहयोग रहा हैं। मैंने जितनी भी कवितायें लिखीं सर्वप्रथम उन्हीं के समक्ष प्रस्तुत कीं। उस समूह की हमेशा ही ऋणी रहूँगी।

    बस अब आप सभी के सामने यह काव्य संकलन रखती हूँ इसे मैंने किसी विशेष क्रम में सजाने की कोशिश नहीं की है बस जस का तस आपको सौंपना चाहती हूँ। इसकी प्रथम कविता मैंने उस समय लिखी थी जब मॉंटेसॉरी कोर्स के लिए मेरे परिचय के लिए एक पृष्ठ लिखने को कहा गया था। मैंने उस परिचय के स्थान पर यह कविता लिख कर दी थी, मैं हूँ एक भाग हिमालय का

    आमुख - 2

    राकेश खंडेलवाल

    मूर्तिकार के लिये मूर्तियों को शिल्पित करना बहुत आसान काम है, ऐसा बचपन में सुना थाI कोई भी एक पत्थर का टुकड़ा लेकर, छैनी की सहायता से वे सब टुकड़े निकाल फ़ेंकना भर ही तो है जो उस मूर्ति को ढांपे हुये हैंI कविता करना भी वैसा ही आसान हैI इधर उधर बह रहे भावों को पकड़ कर शब्दों के सांचे में ढाल देना और उन्हें करीने से लगा कर प्रस्तुत कर देना ही तो कविता है और ममता शर्मा इस कला में पारंगत हैंI

    न केवल रोजाना के भाव समेट कर वे कविता लिखती है वरन सहज बातचीत के अंदाज़ में सहज रूप से अपनी बात

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