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ईद की रात
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ईद की रात

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कथा कहने-सुनने की प्रवृति आदिम है| यही कारण है कि कहानियाँ सर्वाधिक लोकप्रिय हैं| दर असल, अपनी परिभाषागत स्वरुप में कहानी वास्तविक जीवन की ऐसी काल्पनिक कथा है, जो गद्य में लिखी जाती है| जो स्वत: पूर्ण और सुसंगठित होती है| इसमें किसी एक घटना अथवा व्यक्तित्व के किसी एक का मनोरम चित्रण नहीं बल्कि जीवन और समाज को प्रभावित करने वाला दृश्य भी होता है| प्रकृति से व्याप्त विचित्र अनुभवों ने कहानी की मूल प्रवृति को जनम दिया| प्रत्येक देश में, प्रत्येक काल में, बच्चे बचपन से नानी-दादी से कहानियाँ सुनते आ रहे हैं| कहानियाँ, जब बड़ी रहती है, और खंड-खंड में, व्यक्ति विशेष के साथ बटी होती है, तब हम उसे कहानी नहीं, कहानी का विस्तार रूप, 'उपन्यास' कहते हैं|

कोई भी उपन्यास, जाती व लिंग पर आधारित नहीं होता, बल्कि इसका सम्बन्ध घटना से सम्बन्धित होता है| हम यह भी कह सकते हैं, कहानी या उपन्यास, एक लेखक की सुदृढ़ इच्छा और सक्रियता का सम्मलेन है, जिसमें सभी रसों का समिश्रण होता है| उपन्यास, एक ऐसा रमणीय उद्यान होता है, जिसमें भांति-भांति के फूल, बेलबूटे सजे होते हैं, और हर एक पौधे का माधुर्य समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है|

'ईद की रात' शीर्षक उपन्यास, समाज को एक नई रौशनी देनेवाला उपन्यास  है| ऐसा मैं दावे के साथ नहीं कह सकती, पर समाज की कुछ कुरीतियाँ, तथा रुढ़िवादियों पर चोट अवश्य है| हम जिसके साथ जिंदगी के सफ़र पर निकलने जा रहे हैं| उसे बिना देखे, आजमाए सफ़र का साथी चुन लेना, किसी भी तरह युक्तिसंगत नहीं होगा| माना कि पति-पत्नी, एक दूसरे का पूरक है| एक मस्तिष्क, तो दूसरा ह्रदय है| मस्तिष्क और ह्रदय एक दूसरे का पूरक होकर भी एक ही पथ से चलेंगे, ऐसा नहीं होता है|

माना कि जीवन के निश्चित बिन्दुओं को जोड़ने का कार्य हमारा मस्तिष्क करता है, पर इस क्रम से बनी परिधि में सजीवता के रंग भरने की क्षमता ह्रदय में ही संभव है|

'ईद की रात' मेरे उपन्यास के ग्यारहवें उत्थान का परिचायक है| इसमें उपन्यास का मुख्य नायक और नायिका, दोनों ही निम्न मध्यम श्रेणी परिवार से  हैं| पहली मुलाक़ात में ही दोनों मन ही मन एक दूसरे पर अपनी जान छिड़कते हैं| दोनों के ही अन्दर युवा उमंगों  और मचलते अरमानों के ढेव, सामान रूप से उठते हैं| पर हमारी पुरातन रूढ़ि-रीतियों  तथा मध्यकाल से ही चली आ रही हमारी सामाजिक व्यवस्थाएं, दोनों के रास्ते अलग कर देते हैं| जिससे मुझे बड़ी पीड़ा हुई| दोनों के व्यक्तिगत सुख-दुखों एवं मानसिक ऊहापोहों को नवीण बोध की धरातल पर उठाने के साथ ही, जग-जीवन से भी नवीण बोध के धरातल पर उठाने के साथ, ही जग-जीवन से भी नवीण रूप से सम्बन्ध स्थापित करने की आकांक्षा मुझे 'ईद की रात ' लिखने के लिए प्रेरित करने लगी थी| मैं अपने अनुभवों की आँच पर तपकर, अपने मन को नवीण रूप से, नवीण विश्वासों में ढालना चाहती थी| यह उपन्यास, 'ईद की रात', इसी का परिचायक है|

मैंने अपने स्वप्न और कल्पना को, मानवीय भावनाओं का वस्त्र पहनाकर एवं मानवीय रूप, आकार ग्रहण कराकर आपके समक्ष, 'ईद की रात ' के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है|

मैं न तो दार्शनिक हूँ, न ही दर्शनग्य, न ही मेरा अपना कोई दर्शन है,  और न ही मुझे लगता है, कि दर्शन द्वारा मनुष्य को सत्य की उपलब्धि हो सकती है| ये केवल मेरे मन के प्रकाश का स्फुरण अथवा प्ररोह है,  जिन्हें मैंने एक कहानी का रूप देने के लिए शब्द-मूर्त्त करने का प्रयास किया है| मैंने कल्पना के पंखों से उड़ने की मात्र कोशिश की है| पर कहाँ पहुँच पाई, ये तो आपलोग ही (जो प्रेरक के रूप में हर वक्त मेरे साथ हैं) बता सकते हैं|

अंत में, मैं इस भूमिका के रूप में, प्रस्तुत अपने विचारों, विश्वासों तथा जीवन मान्यताओं की त्रुटियों एवं कमियों के सम्बंध में अपने पाठकों से अग्रिम क्षमा माँगती हुई,

LanguageEnglish
Release dateAug 14, 2023
ISBN9788196249212
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    ईद की रात - डॉ. तारा सिंह

    लेखिका की कलम से..

    कथा कहने-सुनने की प्रवृति आदिम है| यही कारण है कि कहानियाँ सर्वाधिक लोकप्रिय हैं| दर असल, अपनी परिभाषागत स्वरुप में कहानी वास्तविक जीवन की ऐसी काल्पनिक कथा है, जो गद्य में लिखी जाती है| जो स्वत: पूर्ण और सुसंगठित होती है| इसमें किसी एक घटना अथवा व्यक्तित्व के किसी एक का मनोरम चित्रण नहीं बल्कि जीवन और समाज को प्रभावित करने वाला दृश्य भी होता है| प्रकृति से व्याप्त विचित्र अनुभवों ने कहानी की मूल प्रवृति को जनम दिया| प्रत्येक देश में, प्रत्येक काल में, बच्चे बचपन से नानी-दादी से कहानियाँ सुनते आ रहे हैं| कहानियाँ, जब बड़ी रहती है, और खंड-खंड में, व्यक्ति विशेष के साथ बटी होती है, तब हम उसे कहानी नहीं, कहानी का विस्तार रूप: ‘उपन्यास’ कहते है|

    कोई भी उपन्यास, जाति व लिंग पर आधारित नहीं होता, बल्कि इसका सम्बन्ध घटना से सम्बन्धित होता है| हम यह भी कह सकते हैं, कहानी या उपन्यास, एक लेखक की सुदृढ़ इच्छा और सक्रियता का सम्मलेन है, जिसमें सभी रसों का समिश्रण होता है| उपन्यास, एक ऐसा रमणीय उद्यान होता है, जिसमें भांति-भांति के फूल, बेलबूटे सजे होते हैं, और हर एक पौधे का माधुर्य समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है|

    ‘ईद की रात’ शीर्षक उपन्यास, समाज को एक नई रौशनी देनेवाला उपन्यास है| ऐसा मैं दावे के साथ नहीं कह सकती, पर समाज की कुछ कुरीतियाँ, तथा रुढ़िवादियों पर चोट अवश्य है| हम जिसके साथ जिंदगी के सफ़र पर निकलने जा रहे हैं| उसे बिना देखे, आजमाए सफ़र का साथी चुन लेना, किसी भी तरह युक्तिसंगत नहीं होगा| माना कि पति-पत्नी, एक दूसरे का पूरक है| एक मस्तिष्क, तो दूसरा ह्रदय है| मस्तिष्क और ह्रदय एक दूसरे का पूरक होकर भी एक ही पथ से चलेंगे, ऐसा नहीं होता है|

    माना कि जीवन के निश्चित बिन्दुओं को जोड़ने का कार्य हमारा मस्तिष्क करता है, पर इस क्रम से बनी परिधि में सजीवता के रंग भरने की क्षमता ह्रदय में ही संभव है|

    ‘ईद की रात’ मेरे उपन्यास के ग्यारहवें उत्थान का परिचायक है| इसमें उपन्यास का मुख्य नायक और नायिका, दोनों ही निम्न मध्यम श्रेणी परिवार से हैं| पहली मुलाक़ात में ही दोनों मन ही मन एक दूसरे पर अपनी जान छिड़कते हैं| दोनों के ही अन्दर युवा उमंगों और मचलते अरमानों के ढेव, सामान रूप से उठते हैं| पर हमारी पुरातन रूढ़ि-रीतियों तथा मध्यकाल से ही चली आ रही हमारी सामाजिक व्यवस्थायें, दोनों के रास्ते अलग कर देते हैं| जिससे मुझे बड़ी पीड़ा हुई| दोनों के व्यक्तिगत सुख-दुखों एवं मानसिक ऊहापोहों को नवीण बोध की धरातल पर उठाने के साथ ही, जग-जीवन से भी नवीण बोध के धरातल पर उठाने के साथ, ही जग-जीवन से भी नवीण रूप से सम्बन्ध स्थापित करने की आकांक्षा मुझे ‘ईद की रात‘ लिखने के लिए प्रेरित करने लगी थी| मैं अपने अनुभवों की आँच पर तपकर, अपने मन को नवीण रूप से, नवीण विश्वासों में ढालना चाहती थी| यह उपन्यास: ‘ईद की रात’, इसी का परिचायक है|

    मैंने अपने स्वप्न और कल्पना को, मानवीय भावनाओं का वस्त्र पहनाकर एवं मानवीय रूप, आकार ग्रहण कराकर: ‘ईद की रात‘ के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है|

    मैं न तो दार्शनिक हूँ, न ही दर्शनग्य, न ही मेरा अपना कोई दर्शन है, और न ही मुझे लगता है, कि दर्शन द्वारा मनुष्य को सत्य की उपलब्धि हो सकती है| ये केवल मेरे मन के प्रकाश का स्फुरण अथवा प्ररोह है, जिन्हें मैंने एक कहानी का रूप देने के लिए शब्द-मूर्त्त करने का प्रयास किया है| मैंने कल्पना के पंखों से उड़ने की मात्र कोशिश की है| पर कहाँ पहुँच पाई, ये तो आपलोग ही (जो प्रेरक के रूप में हर वक्त मेरे साथ हैं) बता सकते हैं|

    अंत में, मैं इस भूमिका के रूप में, प्रस्तुत अपने विचारों, विश्वासों तथा जीवन मान्यताओं की त्रुटियों एवं कमियों के सम्बंध में अपने पाठकों से अग्रिम क्षमा माँगती हुई,

    -तारा सिंह

    ईद की रात

    वाहिदा तालाब से कलशी में पानी भरकर घर की ओर लौट रही थी| तभी, किसी ने आवाज दी: ‘वाहिदा! रूको, मैं भी तुम्हारे पीछे हूँ|’ वाहिदा ने पीछे मुड़कर देखा, तो उसकी बचपन की सहेली फ़ातिमा थी| वह वहीं ठहर गई, और चिल्लाकर बोली: ‘जल्दी आओ| मुझे जल्दी है, घर में पानी की एक बूंद तक नहीं है, और अब्बू खेत से लौट ही रहे होंगे| आते ही उन्हें पीने का पानी चाहिये|’

    फ़ातिमा, सिर पर के घड़े को संभालती हुई बोली: ‘अरि! मेरे घर का भी वही हाल है, घर में एक ग्लास पानी नहीं है, और अम्मी की तबीयत कुछ ना-साज है| उसे दवा पीने के लिए पानी चाहिए| दोनों बातें करती हुई, घर की ओर तालाब से पानी लेकर जब घर लौट रही थीं, एक लम्बा, गठीला, रूपवान युवक, फ़ातिमा के पास आया, और उसके सिर पर से पानी का घड़ा, अपने हाथ में लेकर आगे निकल गया| यह सब देखकर वाहिदा ने, फ़ातिमा से पूछा: ‘फ़ातिमा! यह लड़का कौन है, बड़ा ही अभिमानी लगा|’

    फ़ातिमा, मुस्कुराकर बोली: ‘वो कैसे?’

    वाहिदा, फ़ातिमा की तरफ नजरें उठाकर बोली, एक बार भी वह मेरी तरफ नहीं देखा, न ही पूछा, आपका भी घड़ा, आपके घर तक पहुँचा दूँ| जब कि, हमारा इस्लाम कहता है, एक मजबूर, उस पर भी अगर वह औरत हो तो, उसकी सहायता करना, सारी उम्र के रोजे, नमाज़ और ज़कात से कहीं ज्यादा है| ऐसा करने से जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएँ लेंगी, और फ़रिश्ते, तुम्हारी क़दमों की ख़ाक माथे पर मलेंगे| खुदा तुम्हारी परेशानी पर बोसे देगा, और सारा समाज तुम्हारा इज्जत करेगा| पर लगता नहीं, उनको इन सब बातों से कुछ लेना-देना है!

    brown haired man lifting an earthen pot from black haired woman's head

    फ़ातिमा को वाहिदा के इस तरह के आरोप लगाना अच्छा नहीं लगा| उसने कल्पित स्वर में कहा: ‘वाहिदा, तुमको कलामे-शरीफ़ की कसम, गर तुम मेरे भैया के ईमान पर दाग लगाओ|’

    वाहिदा अचंभित हो बोली: ‘क्या वे तुम्हारे भैया हैं?’

    फ़ातिमा: ‘हाँ, वाहिदा, वह मेरा भैया है| बहुत दिनों बाद घर लौटे हैं| पर तुम उनकी मज़बूरी को नहीं समझ सकोगी|’

    वाहिदा: ‘कैसी मज़बूरी?’

    फ़ातिमा: ‘आज नहीं, फिर कभी बताऊँगी|’

    वाहिदा का मुखमंडल यह सुनकर कि वह लड़का, फ़ातिमा का बड़ा भाई है, विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा| उसकी दोनों आँखों में स्वर्गीय ज्योति चमक उठी| उसने दृढ़ता से कहा: ‘अलहमद व लिल्लाह’, और अपने घर चली गई|’

    वाहिदा घर पहुँचकर कुछ उचाट सी हो गई| यह सोचकर कि जो फ़ातिमा ने अपने बड़े भाई से, मेरी बेरुख़ी भरी बातें बतायेगी, तब वे क्या सोचेंगे? वह मन ही मन पछता रही थी, वैसा मैंने क्यों बोला? उन बातों से उनको कितनी तकलीफ हो रही होगी| मैंने थोड़ा सा सुख की चाह में,

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