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Baramde Ki Dhoop
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Ebook107 pages59 minutes

Baramde Ki Dhoop

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About this ebook

अनुक्रमणिका :

1.फांस

2.ईश्वर उनका भी है

3.उधार की कोख

4.कमला

5.ममता

6.काल

7.क्या सच में जमाना बदल गया?

8.माँ का सपना

9.वरदान

10.वारिस

LanguageEnglish
Release dateApr 1, 2022
ISBN9789393028396
Baramde Ki Dhoop

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    Baramde Ki Dhoop - INDIA NETBOOKS indianetbooks

    अनुक्रमणिका :

    1.फांस

    2.ईश्वर उनका भी है

    3.उधार की कोख

    4.कमला

    5.ममता

    6.काल

    7.क्या सच में जमाना बदल गया?

    8.माँ का सपना

    9.वरदान

    10.वारिस

    🖎🕮✍

    बरामदे की धूप

    राजेश्वरी जी से पहला परिचय सोशल मीडिया के माध्यम से हुआ और परिवार के साथ उनके खिलखिलाते तस्वीरों को देखकर मन में एक संतुष्ट, स्नेहिल गृह निर्मात्री की छवि बनी। फिर उनके छोटे छोटे पोस्ट ने ध्यान आकृष्ट किया, जहाँ गृहिणी के अतिरिक्त एक स्वतंत्र सोच रखने वाले व्यक्तित्व के रूप में वह अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही थीं। उनका पहला कहानी संग्रह पढ़ते हुए एक अलग ही व्यक्ति से हमारा परिचय होता है, जो हर सामान्य सी दिखती स्त्री के जिजीविषा, हिम्मत की कहानी बिना लाग लपेट के कहती है। गृह निर्माण अपने आप में एक श्रमसाध्य कार्य है। कितनी स्त्रियों की प्रतिभा दैनिक जीवन के छोटे बड़े कामों मे उलझ कर खत्म हो जाती है। अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करते हुए जीवन के कुछ दशक बिताने के बाद सामान्य रूप से बहुत सी महिलाएं उस सुविधाजनक दिनचर्या की अभ्यस्त हो जाती हैं और महत्वाकांक्षाओं को परे रख देती हैं। राजेश्वरी जी के कहानियों को पढ़ते समय दिखता है वर्षों से दबी चिंगारी मौका मिलते ही धीमे धीमे अग्नि का रूप धारण कर रही हो और एक सुंदर भविष्य की तरफ इशारा कर रही हो। किस्सागोई विशेषता रही है हमारे संयुक्त घर परिवारों की, जहां काम निपटा कर औरतें साथ बैठती और बातें करती थी अगल बगल की, किस्से सुनाती थी किसी के घर में घटित घटनाओं की और बीच बीच में अपनी टिप्पणी देती चलती थी, इन कहानियों को पढ़ते हुए कुछ वैसा ही महसूस होता है। लगभग हर कहानी की मुख्य पात्र कोई औरत है, जिनके सामान्य से दिखते जीवन के अपने संघर्ष रहे हैं और उन संघर्षों को पार कर हंसती- मुस्कुराती वह आम औरत अचानक ही हमें विशिष्ट दिखने लगती है। पहली कहानी 'फांस ' पढ़ते हुए ही अंदाज हो जाता है कि लेखिका ने जो देखा है, वही लिखा है। हमारे अगल- बगल हंसती कितनी अनितायें इस फांस के साथ जी रहीं हैं। अंतिम पंक्ति लगता है दुःख की अनंत कथा हो - वह अब भी जी रही है। मानो जीना, मृत्यु से बड़ी त्रासदी हो उसके लिए। दूसरी कहानी ' ईश्वर उनका भी है ' ज़मीन से जुड़े लोगों की हालत और संघर्ष बयान करता है। जीवन के बड़े सुख दुःख के बाद पुनः सही दिन आते हैं और मानव का यह विश्वास अडिग रहता है कि ईश्वर उनका भी है। कुछ दशक पूर्व तक धोबी, दूधवाले और अन्य दैनिक सहायक हमारे जीवन के अभिन्न अंग होते थे। उनके सुख दुःख में हमारी माँ, भाभी, दादी शामिल रहती थीं। कहानी को पढ़ते समय पाठक को दिखने लगेगा एल्यूमिनियम के बड़े बड़े डब्बों से दूध निकालता दूधवाला, जिसका हाथ और मुंह दोनों लगातार चल रहे हैं। सहज भाव से बताता जा रहा है जो अपने घर और गांव की कहानी और स्टील के बर्तन में दूध लेती स्नेहिल गृहिणी उसकी बात उतने ही ध्यान से सुनते हुए उसके घरवालों का हाल चाल पूछ रही है। अचानक महसूस करते हैं हम कि प्लास्टिक की थैलियों में आने वाले दूध ने हमारे सहज सामान्य रिश्तों के ऊपर भी कृत्रिमता डाल दी है। अब ना हमें थोड़ा अतिरिक्त दूध मिलता है और ना ही उसे किसी तीज त्योहार की मिठाई। सभी कहानियों में सहजता है, प्रेम है, जीवन का संगीत है जो कभी आह्लाद से बंशी बजाता है, तो कभी मजबूर करता है रोने को। घर- आंगन में स्वत: खिल आए फूलों जैसी नैसर्गिक सुंदरता है इनमें, जिसमें सौंदर्य वृद्धि के नाम पर काट - छांट नहीं की गई है। कथा शैली में सर्वत्र एक देशीपन दिखता है। 'काल' कहानी में दिखती है एक गृहिणी में निहित दैवीय पक्ष, जो जरुरत पड़ने पर किसी भी हद तक जा सकती है और एक सीधी सादी पत्नी और पुत्रवधू का चोला उतार कर परिवार की रक्षा को कृतसंकल्पित सशक्त आत्मनिर्भर स्त्री का रूप धारण करती है, मृत्यु से टक्कर लेती है और काल को चुनौती देती है। कोरोना काल की त्रासदी का वर्णन करती ये कथा कइयों को अपनी कहानी लगेगी। राजेश्वरी जी की कहानियों को पढ़ते समय अगल बगल के कई घर आँखों के समक्ष आ जाते हैं। 'वारिस' कहानी पढ़ते समय याद आता है हिंदी के स्वनामधन्य मुंशी प्रेमचन्द की कहानी ' बेटों वाली विधवा'। युग बीत गए लेकिन स्थिति आज भी वही है। ना लोगों की मन:स्थिति बदली है, ना स्थिति। पहली ही पंक्ति में लेखिका कहते नज़र आती है भारतीय समाज में व्याप्त बेटे पाने की अदम्य चाह और फिर उनकी कहानी सुनाती है अपेक्षा और यथार्थ का अंतर। भौतिकतावादी संबंधों की पोल खोलता यह कहानी सोचने को बाध्य करता है। 'कब बदलेगा जमाना, कब बदलेंगे हम ' कहानी एक मजबूत बात उठाती है - लड़कियों के श्याम रंग से उपजी हीनभावना को। यहाँ समाधान ना देकर लेखिका ने वस्तुस्थिति का चित्रण ही किया है। क्षोभ होता है पढ़ते हुए कि पढ़ने लिखने के बावजूद अभी भी समाज में मानसिकता बदलती नहीं दिख रही। समकालीन हिंदी कथाकारों में कई उभरते नाम

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