Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

Bikhre Sur
Bikhre Sur
Bikhre Sur
Ebook516 pages5 hours

Bikhre Sur

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook


Niyati's world is clouded by parental conflict, the hypocrisies of a philandering musician father, the impassioned strains of his ragas and the seething silences of her mother. Her only solace, Niyati's touchstone for everything in life, is elder sister Nisha. Nisha remains the only constant in Niyati's life until a revelation sends her beliefs into a spin... Broken Melodies is as much about a troubled child in a broken household as it is about chasing happiness and restoring beauty to one's life.
LanguageEnglish
PublisherHarperHindi
Release dateAug 4, 2015
ISBN9789351367161
Bikhre Sur
Author

Gajra Kottary

Gajra Kottary is the award-winning story writer of serials like Astitva, Jyoti, Veera, Buddha and Balika Vadhu, among many others. She has published two collections of women-centric stories. This is her third novel after Broken Melodies and Once Upon a Star, both published by HarperCollins India.

Read more from Gajra Kottary

Related to Bikhre Sur

Related ebooks

General Fiction For You

View More

Related articles

Reviews for Bikhre Sur

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    Bikhre Sur - Gajra Kottary

    पहला अध्याय

    नियति जानती थी कि रोज़ की तरह आज दोपहर को भी उसे अपने घर में चोरों की तरह घुसना पड़ेगा। वह आशा कर रही थी कि चन्दन ने उसकी स्कूल बस की आवाज़ न सुनी हो जो उसे गली के नुक्कड़ पर छोड़ कर घड़घड़ाती हुई चली गयी थी।

    दिल्ली की इस गर्म दोपहर में कलाधाम एकदम सुनसान था। गली के दोनों ओर कहीं कोई हलचल दिखाई न दे रही थी। गली के सिरे पर आती नियति को रेडियोग्राम से दीदी के पसन्दीदा गाने ‘दम मारो दम’ की कानफाड़ू आवाज़ सुनाई दे रही थी। मदहोश कर देने वाले इस गाने की धुन पास के महत्ता अंकल के बंगले तक सुनाई दे रही थी। गाना १९७१ की मशहूर फ़िल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ का था—जो दो साल बाद भी अपने मूड की तरह मदमाता हर जगह बड़ी पसन्द से बजाया जा रहा था। दीदी का इस गाने पर नाचना तुरन्त नियति की आँखों के सामने आ गया और इसके साथ ही उसके होठों पर मुस्कान छा गयी।

    ‘बचाव में ही भलाई है’ ऐसा सोचते हुए नियति शंकर चाँद निवास के गेट की ओर चुपके-चुपके कदम रखती हुई बढ़ी। अब भी उसे चन्दन के यहाँ न होने का ख़ास भरोसा नहीं था क्योंकि वह अचानक कहीं से भी टपक पड़ता था।

    अपने घर में कदम रखते हुए नियति को पलभर के लिए अपनी जीत महसूस हुई और वह खुशी से कूदना-फाँदना चाहती थी पर वह यह सोच कर रुक गयी कि कहीं चालू चन्दन (चटख चन्दन) को भनक न लग जाये।

    नियति ने सबसे पहले दीवान पर अपना स्कूल बैग (बस्ता) फेंका और फिर वहीं लेट गयी, सफ़ेद और नीली चैक स्कर्ट से बाहर निकली उसकी टांगें दीवान से नीचे लटक रही थीं। नियति के कैंथराडीन तेल से हल्के चुपड़े, दो चोटियों में गूँथे बालों में सफ़ेद रिबन बँधे हुए थे। उसके गोल-मटोल चेहरे के बाँये गाल पर लगी थोड़ी-सी मिट्टी, और सूँघने के लिए स्कर्ट की जेब में इकट्ठा की गयी ख़ूश्बूदार रबड़ की कतरनें, जे.एम.एस. स्कूल की दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली सात साल की नियति के एक और दिन के खत्म हो जाने की कहानी कह रही थीं।

    ऐसे मजेदार पलों में नियति घर में कुछ देर अकेला रहना चाहती, पर ऐसा कभी ही होता। उसे हैरानी होती कि क्यों वे पल इतनी जल्दी बीत जाते और उसके जानने से पहले ही पड़ोसियों के यहाँ खाना खाने की मुसीबत उसके सिर पर आ पड़ती।

    नियति ने थकान भरी आँखों से खाली घर में इधर-उधर नज़र दौड़ाई। मम्मी ने गर्मी के सूरज की तपती धूप से बचाव के लिए बदरंग लाल पर्दे खींच दिये थे। इससे घर के कोनों में अँधेरा और सूनापन लगने लगा था। आयताकार खिड़की में फिट किया गया एक बड़ा-सा डेज़र्ट कूलर चुपचाप पहरेदार की तरह खड़ा था। बीच-बीच में बाहर की लू इसकी ख़स में घुस इसके ब्लेडों से खेलती और इसके भारी से पंखे को एक दिशा में घुमा देती। ख़स की सुगन्ध बैठक की हवा को महका रही थी। सब कुछ वैसा ही था जैसा वह सुबह छोड़कर गयी थी। यह सब उस सात साल की बच्ची के भोलेपन को विश्वास दिलाने के साथ थका रहा था।

    उसकी खोजती आँखें बीच में रखी मेज़ पर आ कर रुक गयीं जहाँ एक पज़ल के कई टुकड़े रखे हुए थे। पुराने रंगीन कार्डबोर्ड के हरे टुकड़े, जिनसे आज नियति ऐसे खेलती थी जैसे दस साल पहले दीदी खेला करती थी। नियति सुबह पज़ल को हल करने लगी थी कि उसकी स्कूल बस आ गयी और उसे पज़ल बीच में छोड़ कर भागना पड़ा। मम्मी को मालूम था कि नियति के पज़ल कोई छेड़े तो उसे अच्छा नहीं लगता था, अत: उन्होंने उसके पज़ल को बिना छेड़े उसी तरह मेज़ पर रहने दिया था।

    नियति दीवान से नीचे उतर घुटने के बल मेज़ के नीचे रखी दरी पर बैठ गयी। यह सादी-सी दरी थी जो पाजी पिछले साल कनाट प्लेस के ‘द खादी ग्रामोद्योग भवन’ से खरीद कर लाये थे। इसके मोटे रेशों की रगड़ नियति के कोमल घुटनों को चुभ रही थी, पर वह इस परेशानी से बेख़बर थी। अधूरे पज़ल पर झुकी नियति की गर्दन पर ज़ोर पड़ रहा था।

    ‘ओए खोती,’ ठीक अपने समय पर वह जानी पहचानी आवाज़ जो उसे अच्छी नहीं लगती थी, सुनाई दी।

    यह निम्मी आँटी के चौदह साल के बेटे चन्दन की आवाज़ थी। चन्दन चोपड़ा या सीसी, सभी उसे यही कह कर बुलाते। इस समय वह कमर पर हाथ रखे, ढीठ बना दरवाज़े पर खड़ा था। नियति को हमेशा से यह लगता था कि उसके छोटे नाम के पहले अक्षरों सीसी को अगर बड़ा किया जाए तो ‘चटख चन्दन’ ज़्यादा ठीक रहेगा।

    ‘क्या तुझे अभी तक भूख नहीं लगी? चल! मम्मी तुझे बुला रही हैं।’

    नियति ने कोई उत्तर न दिया। वह उठी और देहरी पार करने लगी, चन्दन एक तरफ़ हट गया, नियति की चुप्पी पर उसकी तिरस्कार से भरी आँखें नियति को देख रही थीं। नियति ने कुँडी लगाई और उसकी बगल से गुज़र कर, घर के गेट की तरफ़ जाते कच्चे रास्ते पर आगे बढ़ गयी। अब वह पड़ोस के गेट के सामने पहुँची और उसने खुद को आखिरी बार तैयार किया। कुछ पल बाद तीन सीढ़ीयाँ चढ़ वह चोपड़ा निवास के मुख्य दरवाज़े के सामने खड़ी थी।

    चन्दन ने उसका पीछा करने की ज़रूरत न समझी। वह दोनों घरों के बीच की सांझी नीची दीवार पर चढ़ गया जो दोनों घरों के सामने का छोटा-सा वेहड़ा अलग करती थी। अत: जब तक नियति दरवाज़े तक जाती सीढ़ियाँ चढ़ी, वह पहले ही वहाँ पहुँच गया।

    निम्मी आँटी ने दरवाज़े से लगी हुई खिड़की से झाँका।

    ‘की होया पुत्तर? आज फेर लेट हो गयी?’ उन्होंने नियति से पूछा और कुछ ही पलों में वह खिड़की से हट वह तुरन्त दरवाज़े पर दिखाई दीं। ‘चलो, चलो, छेती आओ! आपां (हम) मिल कर लंच करिये।’ उन्होंने हमेशा की तरह एकदम खुश हो कर, आगे-आगे चलते हुए कहा।

    निम्मी आँटी का लाल गोल-मटोल चेहरा मुस्कान से खिल उठा। उनका ‘‘फ्रोज़ी ’’ (जैसा वह बोलती थीं) गुलाबी सलवार-कुर्ता उनकी चिट्टी रंगत को और भी चिट्टा कर रहा था बेशक वह उनकी लाल लिपस्टिक से मैच नहीं कर रहा था। निम्मी आँटी का ‘जोरजैट’ का दुपट्टा उनके गले में फन्दे की तरह पड़ा हुआ था, जिस भद्दी-सी दिखती छाती को ढकने के लिए यह ओढ़ा गया था वह इस दुपट्टे से रत्ती भर भी ढँकी नहीं गयी थी। उनके माथे पर लिपस्टिक से लगाया हुआ लाल टिक्का था, बिंदी बनाने का ‘इक्नोमिकल और बैस्ट’ तरीका, जैसा कि निम्मी आँटी अक्सर अपनी प्रशंसा में कहा करतीं।

    निम्मी आँटी ने उसे बाजू से पकड़ा और खाने की मेज़ पर ले आयीं। उनके मेहनत करने वाले सख़्त हाथों की त्वचा नियति के मुलायम हाथों को ख़ुरदरी महसूस हो रही थी, घर वाली खादी की दरी की तरह।

    चन्दन उनके पीछे-पीछे आ नियति के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। निम्मी आँटी ने नियति का डिब्बा खोला और उसकी मम्मी का सुबह का पैक किया हुआ खाना बड़े प्यार से गर्म करके स्टील के बड़े से थाल में परोस दिया। दो रोटियाँ, भरवाँ मसाले वाली भिण्डी, पीली दाल और चावल। नियति ने जल्दी-जल्दी खाना शुरू कर दिया। मेज़ पर रखे गये डोंगों में से निम्मी आँटी चन्दन को खाना परोसने लगी।

    ‘नियति पुत्तर, थोड़ा पालक पनीर डालूँ?’ उन्होंने पूछा। पर नियति के उत्तर देने से पहले ही चन्दन आकर उसके खाने को नापसन्दगी से देखने लगा।

    ‘रोज़-रोज़ वही खाना खा कर तुम तंग नहीं आ जाती?’ उसने बेशरमी से पूछा।

    नियति चौकन्नी हो गयी। सुबह-सुबह कमर में पल्लू खोंसे, जल्दी-जल्दी खाना बनाती, भाग-दौड़ करती, उसका और दीदी का टिफिन तैयार करती मम्मी की तस्वीर उसकी आँखों के सामने आ गयी जिनके पास खाने को बेहतर और स्वादिष्ट बनाने का वक़्त ही नहीं था।

    ‘नहीं,’ उसने अकड़कर कहा। ‘मम्मी का बनाया खाना मुझे बहुत अच्छा लगता है।’ चन्दन के थाल में परोसे गये स्वादिष्ट पनीर पर नज़रें गढ़ाये उसने उत्तर दिया।

    निम्मी आँटी चन्दन की ओर आँखें तरेरने का दिखावा कर बोलीं—

    ‘ओए चन्दन, तुम तो बहुत ही बुरे मुँडे हो! क्या तुम्हें पता नहीं सुमिरन आँटी पूरा दिन दफ़्तर में काम करती हैं? बेचारी सवेरे खाना बनाकर दफ़्तर जाती हैं। तुम्हारी माँ की तरह वह स्वाद वाला खाना कैसे बना सकती हैं?’

    ये कहते हुए निम्मी आँटी नियति के पास कुर्सी पर धम्म से बैठ गर्इं। नियति खाना खाती रही, इसके बाद होने वाली बातों का अनुमान लगाते हुए उसका गला कड़ा होने लगा। चन्दन ढिठाई से मुस्कुराता रहा। निम्मी आँटी ने पास ही रखी एक पंखी उठाई और चेहरे के पास लाकर झलने लगी।

    ‘ओफ हो! मार दिया इस गर्मी ने!’ कहकर वह थोड़ा-सा रुकीं। नियति को मालूम था वह आगे क्या कहने वाली थी।

    ‘मेरी गल अलग है। मैंने कभी बाहर काम नहीं किया। मुझे पता था मेरे बच्चों को मेरी ज़्यादा ज़रूरत है। निम्मी आँटी बोलीं। इन जाने-पहचाने शब्दों का दम्भ नियति का दम घोंटने लगा।’

    निम्मी आँटी ने आगे फिर वही सब बोलना जारी रखा, काम करने वाली औरतों के लिए बड़ा मुश्कल हो जाता है (मुश्कल पंजाबी लहज़े में)। बेचारी सुमिरन, उसे भी तो बुरा लगता होगा, पर मजबूर इन्सान क्या करे। कौन-सी माँ अपने बच्चों को यूँ ही छोड़ रोज़-रोज़ दफ़्तर जाना पसन्द करेगी? मुझे तो बेचारी को देख कर तरस आता है, उसका रोज दुपहर को लंच के वक़्त भागे-भागे घर आना ताकि नियति बिटिया को गर्म-गर्म लंच खिला सके, मुझे बहुत बुरा लगता था देख कर। मैंने तो कहा था मैं मदद कर देती हूँ, मैं नियति को गर्म खाना खिला देती हूँ, बेचारी नियति इतनी छोटी है कि वह खुद गैस तक भी पहुँच नहीं सकती। सुमिरन को तो बड़ा बुरा लग रहा था पर मैंने कहा कि अच्छे पड़ोसी किसलिए होते हैं?’ निम्मी आँटी बस यूँ ही अपने आप में बोलती रहीं।

    अचानक जैसे भावनाओं से भर गयी हों, निम्मी आँटी उठीं और पनीर का डोंगा उठा उसमें से गाढ़ी हरी तरी वाले सफ़ेद मलाई पनीर को नियति के थाल में डालती हुई आनन्द भरे दिल से बाली, ‘ले पुत्तर! फिकर न कर, मम्मी कुछ नहीं कहेगी! मैं यह पनीर बहुत अच्छा बनाती हूँ ......है न चन्दन?’

    खाना मुँह में भरे चन्दन अपनी माँ की आत्मप्रशंसा पर केवल मुस्कुरा भर सका। नियति ने अपने थाल में परोसे गये पनीर से चम्मच भर खाया। मज़ा आ गया ऐसा लज़ीज पनीर खा कर, पर उसी समय उसका मन कचोटने लगा और मम्मी की ‘साड़ी’ वाली छवि उसकी आँखों के सामने आ गयी।

    ‘अरे नियति तू ठीक तो है न?’, उसके चेहरे पर दुखी भाव देख निम्मी आँटी ने पूछा।’ वैसे ......तुम्हारी मम्मी कैसी हैं? कल रात शायद उनके चीख़ने की आवाज़ आ रही थी और रोने की भी। वो ठीक तो हैं न?’ नियति को लगा जैसे उसने निम्मी आँटी के गले से खींसे निपोरने की अदृश्य आवाज़ सुनी, पर फिर उसे लगा कि हो सकता है यह उसकी सोच भर हो।

    ‘या हो सकता है वो आवाज़ किसी और की हो...’ निम्मी आँटी ने अविश्वास से कहा।

    ‘नहीं आँटी, मम्मी किसी पर नहीं चिल्लाई...’ नियति ने विनीत स्वर में आखिरी कौर चबाते-चबाते उत्तर दिया।

    शुक्र है, चन्दन का ध्यान उनकी बातचीत पर नहीं था। अगर था भी तो नियति इसे समझ नहीं पायी। अक्सर वह इस परिवार की कई बातें समझ नहीं पाती थी।

    निम्मी आँटी ने पनीर का डोंगा रखा और फिर पंखी झलने लगीं।

    अचानक नियति को अपना पेट भरा हुआ महसूस हुआ। आखिरी कौर तो गले से नीचे ही नहीं उतर रहे थे। भिण्डी और पनीर के कौर गले में अटके पड़े थे और उसकी साँसें रोके हुए थे। नियति ने अचानक खाना बन्द कर दिया।

    शुक्र है उसी वक़्त पिंकी पहुँच गयी। मौत समान चुप्पी का माहौल टूटा और हर किसी का ध्यान बँट गया। पिंकी यानि की रोशनी चोपड़ा— निम्मी आँटी और प्रकाश अंकल की बेटी और चन्दन की बहन।

    वह उमंग भरे कदमों से हवा के झोंके की तरह अन्दर दाखिल हुई। उसका आसमानी नीले रंग का स्टाईलिश सलवार कमीज जिसकी छोटी बाहों पर लेस लगी हुई थी, हवा से सरसराता हुआ उसके सरापे की ख़ूबसूरती बढ़ा रहा था। उसकी ज्योरजट की चुन्नी उसकी सांसों के साथ ऊपर नीचे उठती उसकी छाती पर बेपरवाही से चिपकी हुई थी और उसके दोनों कन्धों से गिरती हुई उसके नितम्बों पर आ अपनी मुक्ति पर उल्लासित हो रही थी। सीधे सोफ़े पर जा, उसने अपने पैरों से ‘क्रोल बाग’ की ऊँची एड़ी की सैंडिल को सरका कर निकाल दिया और सोफ़े पर अपना सर टिकाये, बड़ी अनुभवी अदा से अपनी चुन्नी से ख़ुद को हवा करने लगी।

    ‘हेलो नियति। कैसे हो डियरी?’

    नियति उत्तर देने लगी पर पिंकी को तो उसके उत्तर का इन्तज़ार ही नहीं था। वह तो नियति की ओर देख भी नहीं रही थी और उसकी आँखें नीचे को झुकी अपनी उभरी क्लीवेज (छातियों के बीच की लाइन) को चुपके से निहार रही थीं।

    ‘ठीक हूँ पिंकी दीदी।’ पर पिंकी की बेपरवाही में नियति की आवाज़ खो गयी। मेज़ पर रखी बोतल उठाकर अपने मुँह से लगा पिंकी इसमें से पानी पीने लगी। तुरन्त निम्मी आँटी खड़ी हो गयीं और अपनी बेटी के हाथ से बोतल छीन बड़े नाटकीय अन्दाज़ में कहने लगीं।

    ‘हाए ओए रब्बा पिंकी! मैंने तुझे कितनी बार कहा है, जब तू बाहर से आती है तो पाँच मिनट रुक कर पानी पीया कर। इन्नी छेती क्या है?’

    ‘ओह मम्मी, मुझे कुछ नहीं होगा। आप यू हीं फ़िक्र करती हैं। झुँझलाहट में अपनी तीखी नाक चढ़ाते हुए पिंकी ने जवाब दिया। पिंकी की नाक परिवार का मान थी, इसके अलावा, कॉलोनी के सूत्रों के अनुसार पिंकी बहुत ख़ूबसूरत थी क्योंकि वह बहुत ज़्यादा चिट्टी थी— अपनी माँ की तरह।’

    ‘पुत्तर अपना ख़्याल रखिया कर। जल्दी ही तेरा ब्याह भी करना है।’ निम्मी आँटी ने सूचना दी।

    पिंकी शर्मा के मुस्कुराई। यह उसकी पसन्द का टॉपिक था।

    ‘ओए होए मम्मी! पहले मुझे इन दो सालों में अपनी होमसाईन्स पूरी करनी है। उसके बाद ही मैं शादी ब्याह का सोचूँगी! अभी बहुत वक़्त है। हुने तों अपना सिर न खपाओ।’

    इस जवाब के बावजूद निम्मी आँटी अपनी बेटी से खुश थीं। वह ही-ही करके हँसने लगीं।

    ‘हाए, मेरी पिंकी कितनी सयानी है। हाँ भई! पहले ब्याह की तैयारी—ये होम साईन्स वगैरा के बाद ही शादी करेंगे—है न एकदम ठीक?’ नियति की तरफ़ मुड़ते हुए उन्होंने गर्व से कहा।

    चुपचाप सुनती हुई नियति एकदम से चौंक उठी और जल्दी से उसने हाँ में सर हिलाया। वह कुर्सी से नीचे उतर निम्मी आँटी के पास आ खड़ी हो गयी।

    ‘आँटी, क्या मैं अब घर जाऊँ?’ अपने सामने बैठी निम्मी आँटी के बाहर निकले गोल मटोल पेट को देखते हुए उसने पूछा।

    ‘अरे, तुमने खाना खा लिया? पुत्तर तुमने तो कुछ खाया ही नहीं।’

    नियति ने फिर सिर हिलाया।

    ‘आँटी पेट भर गया। और मुझे जोरों की नींद भी आ रही है।’

    निम्मी आँटी को उस पर प्यार आ रहा था।

    ‘ओए पुत्तर... तू चल... मैं शाम को टिफिन धुलवा के भेज दवांगी।’

    नियति ने शक्की नज़रों से चन्दन की ओर देखा। वह उसे ही घूर रहा था, उसकी नज़रें वही देख परख रही थीं जो वह नहीं चाहती थी। तीन आँखों की जोड़ियाँ अपनी पीठ पर गड़ी महसूस करती नियति सीढ़ियों से नीचे भागते हुए बाहर गली की चिलचिलाती धूप में पहुँची। तपतपाता सूरज उसका तब तक पीछा करता रहा जब तक कि वह बाहर का गेट खोल अन्दर के दरवाज़े में नहीं घुस गयी। उसने दरवाज़ा बन्द किया और दीवान की ओर भागी। फिर हाँपती हुई नियति दीवान पर लेट गयी और आँखें बन्द कर लीं।

    flower.jpg

    नियति को लगा जैसे दीदी उसे जगाने के लिए टहोका दे रही हों। उसे दीदी हमेशा की तरह ख़ूबसूरत दिखीं। उसे हैरानी होती थी कि निशा अपने लगभग सारे नयन ऩख़्शों के बारे में उससे शिकायत क्यों करती थी। निशा की आँखें—काली और बड़ी, बाल-लम्बे, चमकीले और घने काले थे और वह गोरी थी, बेशक नियति जितनी नहीं। उसका चौकोर जबड़ा उसके आत्मविश्वास को और अधिक बढ़ा कर दिखाता। उसे यह शिकायत भी थी कि जब वह खुल कर हँसती तो उसके मसूढ़े दिखने लगते और वह हँसते हुए सचेत हो जाती। पर नियति के लिए तो दीदी सुन्दरता की मूरत थी—स्त्रीयोचित सुन्दरता ही नहीं बल्कि मज़बूत इरादों वाली अलग ही तरह की सुन्दरता।

    ज़िंदगी के इस मोड़ पर, सिर्फ़ उसकी सुतवाँ नाक और भरे हुए ओंठ एक-दूसरे से पूरी तरह मिलते थे। पर नियति चाहती थी कि बड़े होने पर वो दीदी जैसी दिखे।

    ‘नियति! नियति! उठ गुड़िया। कितनी देर और सोवोगी?’

    नियति ने एक आँख बन्द करके, पर्दों की खुली झिरी में से आती और अपने चेहरे पर पड़ती डूबते सूरज की रोशनी की पट्टी को देखा। वह उठकर बैठी तो निशा दीदी उसके पास दीवान पर बैठी थीं।

    ‘आज उठना नहीं क्या?’ उन्होंने पूछा। ‘ स्कूल कैसा रहा? थक गयी क्या?’ दीदी के प्रश्नों की रफ़्तार ने नियति की दोपहर की नींद में अब पूरी तरह से खलल डाल दी थी।

    उनींदी नियति ने हाँ में सिर हिलाया और दीदी की गोद में अपना सर रख दिया। कुछ सेकण्ड के लिए, निशा ने अपनी उँगलियों से नियति के माथे को सहलाया और फिर बालों की बिखरी लटें एक-एक करके नियति के कानों के पीछे कीं।

    ‘गुड़िया उठो भी। मैं तुम्हारे लिए दूध गर्म कर देती हूँ।’

    नियति नहीं हिली। कुछ देर बाद निशा ने उसका सर धीरे से उठाया और फिर से तकिये पर रख दिया, साथ ही सचेत भी कर दिया कि वह अपनी आँखें खोल दे। फिर वह रसोई में चली गयी। नियति को उसका जीनत अमान का नया हिट गाना ‘यादों की बारात निकली है आज...’ गुनगुनाना सुनाई दे रहा था और साथ ही भगौने को गैस स्टोव पर रखने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। मुस्कुराकर नियति ने अपनी आँखें बन्द कर लीं, दीदी की आवाज़ सुन उसे चैन मिल रहा था।

    ‘उफ! फिर सो गयी! उठ नियति! गुड्डो रानी, तुमने खेलने का वक़्त तो सोने में निकाल दिया। चुनमुन आयी थी, तुम्हें पूछ रही थी। घण्टा पहले ही मैंने उसे वापस भेजा है। सच में देर हो गयी गुडिया।’ निशा ने धीरे से उसकी बाजू हिलाते और उसे बिठाते हुए कहा। फिर वह रसोई से गर्म किये हुए दूध का गिलास लेने चली गयी।

    नियति उठ कर बैठ गयी और अपनी आँखें मलने लगी। उसने देखा कि बाहर अँधेरा होने लगा था। चुनमुन कल उससे नाराज़ होगी क्योंकि आज शाम वह फिर से खेलने नहीं गयी। पर नियति सच में खुश थी कि आज वह ख़ूब सोई। वह जानती थी कि अगर वह आज बाहर खेलने जाती तो खन्ना आँटी और वन्दना चाची अपनी शाम की सैर का रुख़ उसकी ओर मोड़ देतीं और रोज़ की तरह सवाल पूछने लगतीं। ‘घर में सब ठीक है न...बड़ी आवाज़ें आ रही थीं। हमें फ़िक्र लगी हुई थी इसलिए पूछा है।’

    नियति उनकी आँखों में झलकती उत्कण्ठा साफ़ देख सकती थी। ना समझी में वह कभी हाँ तो कभी न में सर हिलाती और इतने में इस सबसे उसे बचाने चुनमुन आ जाती। भला हो चुनमुन का जिसने बाकियों की तरह उसके परिवार के बारे में कभी उससे कुछ नहीं पूछा।

    आज नियति इन सब प्रश्नों से बच गयी थी। वह चुनमुन के साथ अपना पसन्दीदा खेल ‘छुपन-छुपाई’ न खेल पायी, पर उसे इस बात का कोई दुख न था। पज़ल्स भी चुनमुन की तरह ही मज़ेदार दोस्त थे।

    निशा उसके लिए गर्म दूध का गिलास ले वापस आयी। नियति अलसाई-सी बैठ गयी और अधमुँदी आँखों से दोनों हाथ बढ़ा निशा से गिलास ले लिया। निशा ने, अब अपनी ड्यूटी से छुट्टी पा रेडियो पर युववाणी स्टेशन लगा लिया जो थोड़ा-सा गड़गड़ाकर चलने लगा।

    अचानक ‘दम मारो दम’ गीत की धुनें सुनाई देने लगीं। जैसे ही नियति ने दूध पिया, निशा गीत की धुन पर अपने पैर से थाप देने लगी। कसी हुई डैनिम में उसके सुधड़ नितम्ब हिलने लगे और बाहें व टांगें आगे-पीछे लहराने लगीं। इस गाने की धुन पर उसका पूरा शरीर हिलने लगा जैसे कि कोई नशे में झूम रहा हो।

    नियति अपनी दीदी की उन्मुक्तता पर मुस्करायी—उसे महसूस हुआ कि दीदी पिछले ‘स्वीट सिक्स्टीन’ साल से अब सत्रहवें साल में कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत लग रही थी। पर नियति को गर्व था कि उसकी दीदी का दिमाग़ पिंकी की तरह हवाओं में नहीं उड़ता था। पिंकी की तरह झल्ले सलवार कमीज़ या टाइट चूड़ीदार न पहन, दीदी चुस्त फीटिंग वाली डेनिम या वैलबॉटम में हमेशा स्मार्ट दिखतीं।

    फिर अचानक ज़ोर से दरवाज़े पर दस्तक हुई। निशा डांस करती हुई दरवाज़े तक गयी और सपाट दरवाज़ा खोल दिया जैसे कि जानती हो वहाँ कौन होगा। दीदी के इन फ़िल्मी गानों पर नाचने की रोज़ की आदत को ले कुछ मुस्कराती और कुछ झुँझलाती हुई मम्मी अन्दर दाखिल हुईं।

    कमरे में उसी वक़्त मम्मी की महक आने लगी... अलग सी, पसीने और अचार की और ख़ूश्बूदार साबुन से धुले उनके कपड़ों की मिली-जुली महक।

    मम्मी ने दीदी को सख़्त नज़रों से देखा। ‘निशा! रब्ब दे वास्ते, रेडियो की आवाज़ तो कम कर दे। क्या तुम्हें अच्छा लगेगा अगर कोई तुम्हारे पाजी के कान भर देगा?’

    रेडियो के पास की खुली ताक पर अपना पर्स रख मम्मी ने खुद ही आवाज़ कम कर दी। निशा मुस्कुरायी।

    ‘थोड़ी देर और मम्मी...पाजी के आने में अभी आधा घण्टा है।’ वह मम्मी की मिन्नतें करने लगी और फिर नियति की ओर मुड बोली।

    मम्मी ने कही, ‘कितनी अजीब बात है, फ़िल्म का नाम ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ और इसमें भगवान का नाम तक नहीं।

    मम्मी को फ़िल्मी संगीत से कोई चिढ़ नहीं थी। सच तो ये था कि गुड़िया ने कई बार मम्मी को १९५०-६० की फ़िल्मों के लता मंगेश्कर के गाने गुनगुनाते सुना था। उनका पन्सदीदा गाना था ‘नैना बरसे रिमझिम रिमझिम...पिया तोसे मिलन की आस’। मम्मी के गुनगुनाने के बारे में शायद किसी को नहीं मालूम था क्योंकि वह इतना धीमा गाती थीं कि वह खुद के कानों तक भी न पहुँचता होगा।

    दूध का आखिरी घूँट खत्म कर नियति उठी और दरवाज़े के पास की खिड़की की ओर मुस्कुराती हुई बढ़ गयी। वह पर्दों के पीछे पहरा देने लगी और निशा आज़ादी के आखिरी बचे पलों का लुत्फ़ उठाती, फिर नयी भावनाओं से भर नाचने लगती। मम्मी पहले ही रसोई में घुस गयी थीं। आठ बजे से पहले रात के भोजन की तैयारी में बर्तनों की उठा-पटक को नियति सुन सकती थी। ‘दम मारो दम’ अब दूसरे अन्तरे तक पहुँच चुका था, और आशा भोंसले की आवाज़ के आरोह व अवरोह में डूबता उतरता जा रहा था।

    तभी नियति फुसफुसाई, ‘दीदी!...पाजी!’

    निशा ने अपना डांस बीच में ही रोक दिया। इस बार ‘दम मारो दम’ अपनी आखिरी लाइन तक नहीं पहुँच सका। निशा ने रेडियो बन्द किया और जल्दी से सीढ़ियाँ चढ़ गयी। नियति ने दरवाज़ा थोड़ा-सा खोला और जल्दी से मेज़ की ओर जा खादी की दरी पर बैठ अपना पज़ल हल करने लगी।

    देहरी पर पाजी के चरमराती कोल्हापुरी चप्पल की आवाज़ स्पष्ट सुनाई देने लगी।

    ‘नियति बेटा। मम्मी को बता दो मैं आ गया हूँ,’ उन्होंने कहा।

    अचानक कमरा भरा हुआ-सा लगने लगा। पहले के तीन लोगों की मौज़ूदगी से कहीं ज़्यादा भरपूर। नियति रसोई की ओर भागी। जब वह वापस आयी तो उसके हाथ में मटके के पानी से भरा स्टील का गिलास था। पाजी दरवाज़े के बाहर अपनी जूती उतार, हाल के पास सोने के कमरे में रखी हत्थों वाली बड़ी कुर्सी पर बैठ गये। वह पानी पी रहे थे, नियति की नज़रें उन्हें, उनके नरम बालों, सफ़ेद होती कनपटियों, ख़ूबसूरत नखशिख, लम्बी सुतवाँ नाक, उनके बढ़िया सूती धोती-कुर्ता को देख रही थीं। जब उन्होंने खाली गिलास उसे वापस किया, वह उनकी ओर कृतार्थभाव से और कुछ कौतुहल से देख रहे थे।

    उन्होंने पूछा, ‘मम्मी कहाँ हैं?’

    ‘वह आपके लिए चाय बना रही हैं।’

    ‘और निशा?’

    ‘मैं यहाँ हूँ पाजी,’ कमरे के दरवाज़े पर खड़ी निशा मुस्कुरा रही थी। अन्दर पाकर पाजी के पास जमीन पर बैठती निशा पर नियति की प्यार भरी नज़रें घूमती रहीं। उसके जीन्स और टीशर्ट गायब थे और अब वह सूती सलवार कमीज़ में थी, और उसके बाल चोटी में बँधे हुए थे। उसकी नज़रें नियति की नज़रों से मिलीं और शरारत से उसने एक आँख दबाई। अपनी मुस्कुराहट रोकती नियति, पज़ल हल करने हॉल कमरे की ओर चली गयी।

    दूसरा अध्याय

    मम्मी चाय ले कमरे में दाखिल हुईं और पाजी के आगे ट्रे कर दी। नियति अपनी जगह से केवल पाजी की पीठ देख सकती थी। उन्होंने गर्म-गर्म चाय का कप अपने हाथ में लिया और मम्मी की ओर एक नज़र देखा, पर एक शब्द भी नहीं बोले।

    नियति अपनी पज़ल के साथ खादी की दरी पर बैठी थी, जानी पहचानी आवाज़ें उसका ध्यान बटाँ रही थीं, रसोई में प्रेशर-कूकर की बजती सीटी, पाजी के बाथरूम में उनके हाथ पैर धोते वक़्त गिरते पानी और दीदी द्वारा बैठक में पढ़े जा रहे अख़बार के खड़खड़ाने की आवाज़ें।

    मम्मी रसोई से निकली व पाजी की अलमारी से एक धुला कुर्ता और उनकी पसन्दीदा पीली व नीले चैक के छापे की लुँगी निकाल, बिस्तर पर रख फिर से रसोई में घुस गईं।

    आठ बजने में पाँच मिनट पर मम्मी ने आवाज़ लगाई।

    ‘निशा, नियति, चलो। पाजी के लिए खाना परोसने में मेरी मदद करो। नियति ने अपना पज़ल और निशा ने अख़बार छोड़ दिया।’

    पाजी भोजन के लिए खाने की मेज़ पर आ गये। निशा ने उनकी थाल में चिकन और कुछ सलाद परोसा और मम्मी गर्म-गर्म फुल्के एक-एक कर देने लगीं। नियति पाजी के पास वाली कुर्सी पर बैठ गयी।

    ‘आज स्कूल में क्या सीखा, बेटा?’ रोटी का कौर तोड़, उसे तरी में डूबोते और नियति के उत्तर का इन्तज़ार करते, उन्होंने प्यार से पूछा।

    ‘इंग्लिश में दूसरा लैसन और मैथ में १०० तक अंकों की गुणा।’

    पाजी ने सिर हाँ में हिलाते हुए वही कौर नियति को खिला दिया।

    ‘बच्चा, कभी-कभी मेरे साथ गाना भी गाया करो। तुम इतना अच्छा गाती हो गुड़िया। मैं किसी पर कोई ज़ोर जबरदस्ती नहीं करता,

    अपने बच्चों पर भी नहीं।’

    ‘जी पाजी’, नियति ने उत्तर दिया।

    खाना खाते वक़्त पाजी हमेशा उसे अपनी थाल में से कौर खिलाते थे और नियति इससे बड़ी खुश हो जाया करती थी।

    नियति ने मुस्कुराते हुए कनखियों से पाजी को देखा जो चुपचाप बहुत सलीके

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1