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Badli Hui Duniya
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Ebook346 pages3 hours

Badli Hui Duniya

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About this ebook


A motley collection of modern stories about the temperaments, jargons and manners of parlance of a society caught in a cross of changes. They echo the restive questions and confusions of our times. While Club, Dashte-e-tanhai and Tehree transport us to the wilderness of psychological and social isolation, Chabi, Gussa and Kursi are a perfect blend of the fantastic and the real. Governess, Salesman, and Car draw on the thought that life is lived not only by temporal riches but by empathy and compassion... More well crafted stories about the void created in absence of a father, a farewell to a dog and the sad life of a bandmaster.
LanguageEnglish
PublisherHarperHindi
Release dateJul 31, 2015
ISBN9789351367246
Badli Hui Duniya
Author

Gyanprakash Vivek

Gyanprakash Vivek has ten collections of short stories to his credit.  His novels, Gali Number Terah, Astitva, Dilli Darwaza and Akhet, have  been widely acclaimed. He lives in Haryana.

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    Badli Hui Duniya - Gyanprakash Vivek

    cover.jpg

    बदली हुई दुनिया

    ज्ञानप्रकाश विवेक

    badlihuiduniya.tif

    हार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया

    अनुक्रम

    क्लब

    कार

    सेल्समैन

    गवर्नेस

    कुर्सी

    पिता का घर

    बदली हुई दुनिया

    मोड़

    बेदख़ल

    दश्त-ए-तन्हाई में

    बैण्ड मास्टर

    आपका होन

    गु़स्सा

    अलविदा, सेंट बर्नार्ड

    जुआरी

    तहरीर

    किसी अनुभव की तरह

    चाबी

    क्लब

    क्लब की चारदीवारी अब भी पुख़्ता है। लेकिन क्लब की इमारत शिकस्ताहाल! जर्जर और पस्त।

    क्लब की इमारत पहाड़ के कॉटेज जैसी थी। क्लब का भवन जब बन कर तैयार हुआ तो लोग चकित रह गये। जैसे कोई सपना हो और वो अपनी जागती हुई आँखों से देख रहे हों। क्लब फ़ैक्ट्री परिसर में था। दिल्ली-रोहतक रोड से निकलती सड़क सीधा क्लब पहुँचती। फिर सड़क मुड़ती और दो फ़र्लांग आगे जा कर फ़ैक्ट्री का दफ़्तर आता।

    हम सब इस रोड को क्लब रोड कहते थे। क्लब सिर्फ़ फ़ैक्ट्री में काम करने वाले लोगों के लिये था। क्लब का भवन शानदार था। एक बहुत बड़ा हॉल, स्टेज और ग्रीन रूम। दूसरी तरफ़ दो-दो कमरे, बीच में बरामदा। बरामदे में खड़े हो कर देखते तो दूर तक घास का मैदान नज़र आता। किनारों पर क्यारियाँ और चारदीवारी के साथ-साथ बगनबेलिया। चारदीवारी के साथ एक बड़ा-सा फाटक था। फाटक के पास एक सन्तरी की ड्यूटी होती कि वो आउटसाइडर को क्लब में न आने दे।

    हॉल में टेबल टेनिस थी। कमरों में मेज़ कुर्सियाँ, कैरम, चैस, ताश और बरामदे में टीवी। बरामदे के बाहर लॉन में कुर्सियाँ बिछी होतीं। कुर्सियाँ भर जातीं तो लोग खड़े-खड़े पिक्चर देखते।

    स्त्रियों-पुरुषों के लिए यह ख़ूबसूरत मिलन स्थल था। तब इस क्लब में आना गर्व की बात समझी जाती। फ़िल्म छ: बजे शुरू होती लेकिन कॉलोनी की औरतें, मर्द, बच्चे सवा पाँच, साढ़े पाँच तक पहुँच जाते। घास के मैदान में मण्डलियाँ बैठ जातीं। गप्पबाज़ी और हास-परिहास। तब लगता था लोगों के पास दोस्ती करने के लिए व़क्त है। तब लगता था लोग टीवी देखने के बहाने अपने दुख-सुख बाँटने भी आये हैं। बाद में माहौल बदल गया था। लोगों के पास व़क्त नहीं बचा था या फिर लोगों के पास बातें नहीं थीं या फिर शब्दों का अकाल पड़ गया था या फिर लोग चिढ़ने लगे थे। यह छोटा-सा शहर था। छोटा-सा यह शहर ग़रीब-सा शहर था। ग़रीब-सा यह शहर महत्वाकांक्षाविहीन शहर था। पूरे शहर में कुल जमा दस टीवी थे। बीस टेलीफ़ोन और शायद पन्द्रह कारें।

    क्लब में टीवी था। टीवी में कई सारे प्रोग्राम होते। कृषि दर्शन, चित्रहार और इतवार की फ़िल्म। इतवार को सबसे ज़्यादा भीड़ होती। जैसे मेला लगा हो। सब उत्सव के मूड में होते। एक-दूसरे से मिलते व़क्त लोगों के चेहरों पर चमक होती। क्लब की इमारत अगर बोल सकती तो फिर मुस्करा कर कहती, ‘‘मैं इसलिए तो बनी हूँ कि मनुष्य यहाँ आ कर एक दूसरे से मिलें।’’

    कब माहौल अच्छा था। जीवन-शैली भी अद्भुत थी। सादगी किसी लिबास की तरह थी, सब्र किसी दोस्त की तरह। संघर्ष किसी हमसफ़र की तरह और दिक्कतें जैसे जूते में चुभता हुआ कोई कील। तब लोगों ने पैसे के पीछे दौड़ लगानी शुरू नहीं की थी। तब लोग, लोग थे। वो बवण्डर नहीं बने थे। तब लोगों ने महत्वाकांक्षाओं के अँधे कुएँ में गिरना भी शुरू नहीं किया था। तब लोग दूसरे घरों के टीवी और सड़क पर दौड़ती कारों को देख कर ख़ुश तो होते थे, ईर्ष्या नहीं करते थे। पता नहीं जीवन में कैसी विचित्रता थी। लोग सुविधाओं से ज़्यादा संघर्ष में विश्वास करते थे। बीस साल पहले का जमाना ऐसा जमाना था। बीस साल या कुछ ज़्यादा ... या कुछ कम। ठीक-ठीक याद नहीं। क्योंकि मेरे पास उस ख़ूबसूरत व़क्त का न कोई सिक्का बचा है न कैलेण्डर। मैंने पुराने व़क्त के सारे सकि्के खर्च कर डाले।

    क्लब सचमुच एक उत्सव का नाम था। गरमियों की शामें मुझे याद हैं। मुझे सर्दियों की शामें भी याद हैं जब लोग कम होते। लेकिन कमरे में हीटर चलते और कमरे में लोग भरे रहते। एक कमरे में लेडीज होतीं। इतवार की दोपहर शानदार होती। कुनकुनी धूप में स्त्रियाँ तम्बोला खेलतीं और पुरुष रम्मी, पपलू, स्वीप, ब्रिज, ट्वनटी ऐट या फिर फ़्लैश!

    क्लब का हर मौसम जश्न का मौसम होता। औरतें, मर्द, बच्चे और ख़ूबसूरत जवान लड़कियाँ। जवान लड़कियों को कनखियों से देखना भी उत्सव जैसा होता। मैं आउटसाइडर था। मेरे मित्र फ़ैक्ट्री में काम करते थे। वो शाम को क्लब में होते और मैं भी घर से डेढ़ किलोमीटर पैदल चल कर क्लब पहुँचता। सन्तरी ने शुरू-शुरू में मुझे रोका। फिर वो गेट को थोड़ा-सा खोलता, मुझे प्रविष्ट होने देता।

    मैं अपने दोस्तों के साथ घास के मैदान में टहलता। गप्पबाजी करता या फिर कभी-कभी किसी नौजवान लड़की को भी देख लेता।

    सब ख़ुश नज़र आते। ताज़ादम। बेफ़िक्र। ऐसा लगता पिक्चर का अपना सुख है तो गेट-टू-गैदर का अपना। हम चारों दोस्त, जिनमें क्लब का सचिव भौमकि भी था, कमरे में आ बैठते। ताश खेलते। कभी-कभी हम बहुत ‘लो-स्टेक’ पर फ़्लैश भी खेलते। जीते हुए पैसों की कोल्ड ड्रिंक्स और साथ में जिन या ह्विस्की का हाफ़ भी मँगवाते।

    क्लब में पीना र्विजत था। हम गिलास मेज़ के नीचे रखते। किसी किसी व़क्त घूँट भरते। गिलास फिर नीचे टेबल के पाये के साथ रख देते। ताश खेलते रहते। बाहर टीवी, पिक्चर, स्त्रियाँ, युवतियाँ, बच्चे, स्टाफ़ के लोग। भीतर हम। वो ख़ूबसूरत दिन थे। रोमांचक। दोस्ती के दिन। तब क्लब में आना मेरी दिनचर्या का ज़रूरी हिस्सा होता था। मैं दिनभर का तनाव यहाँ आ कर भूल जाता। सब लोग यही बात कहते कि हम यहाँ आ कर ‘टेंशन फ्री’ हो जाते हैं।

    तब मुझे लगता लोगों के पास शब्द हैं और वो शब्दों को खर्च करने आये हैं। मुझे लगता लोगों के पास संवाद की डोर है और वो अपने संवाद की डोर किसी दूसरे की डोर से बाँधने आये हैं। मुझे लगता लोग कुछ नहीं करने आये ... सम्बन्धों के दीये जलाने आये हैं।

    मैं क्लब के फाटक के पास खड़ा हूँ। फाटक एक तरफ़ थोड़ा झुक गया है। व़क्त कितनी सारी चीज़ों को भुला कर चला जाता है। छत पर घास उग आई है। खिड़कियों के शीशे टूट चुके हैं। कर्निंग गिर गई है और बारिश को रोकने वाले लैंटर भुरभुरा गये हैं। दरवाज़े उखड़े-उखड़े से और हैण्डिल टूटे हुए। एक अजीब-सी वीरानी ... अजीब-सी चुप! देर तक देखते रहो तो वो उदासी आँखों में चुभने लगती है और वीरानी अजीब-सा सवाल करती है — कहाँ गये वो लोग ?

    एक शाम हम चारों दोस्त सकपका गये। हम ताश खेल रहे थे। हमारे गिलास मेज़ के पायों के पास पड़े थे। उनमें थम्सअप थी और जिन।

    हमने नज़रें उठा कर देखा मिसेज़ मित्रा खड़ी थीं। मिसेज़ मित्रा ? यंग ... करीब पैंतीस साल की ख़ूबसूरत नहीं, बेहद ख़ूबसूरत स्त्री। अहंकारी, बिंदास, बेजरर, भय पैदा करने वाली। किसी को एक मिनट में उसकी औकात बता देने वाली ... कम्पनी के एजीएम साहब मिस्टर राजन मित्रा की पत्नी। राजन मित्रा करीब पचास के तो मिसेज़ मित्रा पैंतीस या अड़तीस की। मिसेज़ मित्रा, लम्बी छरहरी ख़ूबसूरत तो मिस्टर मित्रा की कमर में कोई ऐसी बीमारी लगी कि वो थोड़ा कुबड़े हो कर चलते। मिस्टर मित्रा सीए, ख़ूब पढ़े-लिखे, जीनियस और संजीदा। मिसेज़ मित्रा एलएसआर से बीएससी और फिर एमए इंगलिश अधूरी ...

    हम सकपकाये, हम घबराये, डर गये, उठने लगे। ताश का डर नहीं था। डर था उन गिलासों का जो हमने छुपा रखे थे।

    ‘प्लीज़ कैरी ऑन’ वो बोली। जैसे आदेश दिया हो।

    हम चाहते थे वो चली जायें। वो हमारे पास आ गई थीं। हम ज़्यादा डर गये थे। अभी पोल खुल जायेगी। मेरा तो क्या होगा। बाकी तीनों दोस्त मारे जायेंगे। मारवाड़ियों के क्लब में दारू ? ... अनर्थ।

    मैं आउटसाइडर था, मैंने कुर्सी छोड़ दी। एक बार मैंने बड़ी बेचैनी से मेज़ के नीचे पड़ा गिलास देखा। जिसे अभी-अभी भरा था।

    ‘प्लीज बैठे रहिये। मैं दूसरी चेयर ले लूँगी।’

    उन्होंने एक ख़ाली कुर्सी को पकड़ा, सरकाते हुए हमारे पास ले आईं। टेबल के पास जगह बना कर बैठ गयीं।

    वो हमें देख कर मुस्कराई। हम हैरान रह गये। हमने उन्हें कभी मुस्कराते हुए नहीं देखा था। और तो और हमने कभी उन्हें किसी से बात करते भी नहीं देखा था। हम देखते, वो लॉन में कुर्सी बिछा कर अकेली बैठी होतीं या फिर टहल रही होतीं। उसके आसपास जाने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता था — उसके पति राजन मित्रा भी। हमने ताश खेलना बन्द कर दिया था। हम बहुत नर्वस थे। असुविधाजनक स्थिति में।

    ‘कुछ स्मैल आ रही है’ उन्होंने कहा। इधर-उधर देखा। अचानक उन्होंने मेज़ के नीचे देखा। गिलास पड़े थे। उन्होंने एक गिलास उठाया। मुस्करा कर बोली, ‘लगता है कोई ‘एसिड’ मिला रखा है।’

    हम चुप रहे।

    ‘जिन मिलाई है न! ह्विस्की तो नहीं है इसमें।’ हम चारों ने हाँ में सिर हिलाया।

    वो फिर मुस्कराई। ‘थम्सअप में जिन। ... गुड।’ उन्होंने कहा और एक ही घूँट में गिलास ख़ाली कर दिया। हम चकित रह गये। आँखें फाड़ कर देखते रहे उन्हें। उन्होंने बालों को झटका। थोड़ा हँसी। फिर बोली, ‘कभी ब्लडी मैरी पी है।’

    ‘नहीं’। हम चारों ने अलग-अलग समय पर नहीं का उच्चारण किया।

    ‘अच्छा टेस्ट होता है।’ वो बोलीं। फिर पर्स में से सौ का नोट निकाल कर मेज़ पर रखते हुए कहा, `ओके जो चल रहा था वही चलेगा। थम्सअप विद जिन।’ फिर उन्होंने पर्स में से नये ताश के पत्ते निकाले, इतनी महँगे ताश। ताश के पत्तों के दूसरी तरफ़ हॉफ़ न्यूड तस्वीरें थीं।

    ‘इससे खेलिये। ... क्या खेलेंगे ? ... चलो फ़्लैश खेलते हैं ... ओपन फ़्लैश। वन रूपी ऑन एवरी डील। जिसके बिगेस्ट कार्ड होंगे वो जीतेगा।’

    उन्होंने पाँच बार ताश बाँटे। पाँचों बार उनके पत्ते बड़े होते थे। कभी सीक्वेंस, कभी कलर, कभी पेयर तो कभी ट्रेल।

    हम हर बार हारे। फिर उन्होंने कहा, ‘‘आप लोग अब इस नई ताश से खेलना। इसे यहीं छोड़ जाऊँगी। एक और बात कहूँ। यू ऑल आर फ़ूल्स! ... मैं सौ बार ताश बाटूँ तो मैं ही जीतूँगी। हमेशा कार्ड बाँटने वाले को वाच करना चाहिए। ऐनी हाऊ। ...मजा आ गया। फिर उन्होंने सिगरेट का पैकेट निकाला-डनहिल।

    हम सबने एक-एक सिगरेट ली। मैं सिगरेट नहीं पीता था। लेकिन एक तो सिगरेट इम्पोर्टेड दूसरा सिगरेट पेश करने वाली ख़ूबसूरत स्त्री।

    धुएँ से कमरा भर गया। जिसमें हम चारों के अतिरिक्त उस स्त्री की सिगरेट का भी धुआँ था। मैंने अपने जीवन में पहली बार किसी स्त्री को शराब पीते देखा था और सिगरेट का धुआँ छोड़ते।

    पीने के बाद वो और ज़्यादा ख़ूबसूरत नज़र आने लगी थी। वो उठ खड़ी हुई थी। ज़रा-सा लड़खड़ाई। फिर सँभली। मुस्कराई। सिगरेट का कश लिया। फिर बोली, ‘‘कुछ चीज़ों का इस संसार में होना बहुत बुरा होता है — ज़िन्दगी का होना ... औरत का होना ...तर्कशील होना ...लोनलीनेस ...आई मीन अकेला होना और ...’’ वो कहते-कहते रुक गईं। वो एक बहुत बड़े ऑफ़ीसर की पत्नी थीं। उन्होंने पी रखी थी। वो तत्काल सतर्क हो गयीं। हो सकता है वो अपने मन का कोई दुख व्यक्त कर देतीं। दुख तो उन्होंने ताश खेलने से ले कर सिगरेट, शराब पीने तक ... किसी न किसी रूप में व्यक्त कर ही दिया था। वो चली गई थीं। हम उनके जाने के बाद भी ठगे-से बैठे रहे।

    मैं क्लब की चारदीवारी के पास खड़ा हूँ। बहुत पुराने दिनों को याद करता ... क्लब की जर्जर इमारत को देखता। कुछ साल बाद अचानक समय बदलता चला गया। अचानक बहुत सारे लोगों के घरों में टीवी, फ़ोन, कारें आदि आ गईं। उपभोक्तावाद जिस रास्ते से आया लोगों ने उसी रास्ते से रिश्तों को नंगे पाँव जाते देखा। ये बुरे दिनों की शुरुआत थी। लोगों के सिमटने, रिश्तों के ख़त्म होने और संवादहीनता से पैदा हुई बेचैनी के न महसूस होने की शुरुआत।

    नौजवान नौकरी कि तलाश में जुट गये। युवा लड़कियों के विवाह होते चले गये। बाकी सब अपने-अपने ड्राइंग रूम में। ...क्लब जो कभी जश्न मनाने की जगह लगता था ...अब लोग वहाँ जाने से कतराते। क्लब कॉलोनी से सिर्फ़ एक फ़र्लांग दूर था। लेकिन यह एक फ़र्लांग भी जैसे कोई तय न करना चाहता हो।

    कुछ ऐसा भी हुआ कि क्लब में लोग लड़ पड़े। स्त्रियों ने एक दूसरे के डेज़ीगनेशन की औकात बता दी। कुछ और बातें भी हुईं। फ़ासले बढ़ते गये, दूरियाँ फैलती चली गयीं।

    क्लब में आने वाले हम सिर्फ़ चार रह गये थे। रोज़ाना शाम को मिलते, ताश खेलते। लेकिन हममें भी अब पहले जैसा उत्साह नहीं होता था। कोई उजाड़ था जो हमारे अन्दर भी चुपचाप चला आया था। सबसे पहले केतन ने आना बन्द किया फिर दीपक सिन्हा ने।

    अब मैं होता और मेरे इन्तज़ार में बैठा क्लब का सचिव भौमकि। हम दोनों कभी बोलते तो कभी चुपचाप बैठे रहते। कभी ताश खेलते तो कभी बोर हो कर ताश पटक देते। ...हमने दो बार शराब भी पी। पता नहीं क्यों, हम नशे में तो आ गये। लेकिन हमें आनन्द का अनुभव नहीं हुआ। पहले पीते तो मस्ती होती और ठाठ भी होता।

    एक दिन मैं शाम को क्लब जाने लगा तो पता नहीं मुझे किस चीज़ ने रोक लिया, मालूम नहीं किस चीज़ ने, क्लब की वीरानी ने या वहाँ के परिवेश में समाई ऊब ने ? या फिर मुझे अपने घर के दायित्व नज़र आने लगे थे ?

    करीब एक महीने बाद एक शाम मैं यूँ ही क्लब चला आया। बाहर की तरफ़ खड़े हो कर मैंने एक खिड़की से कमरे में झाँक कर देखा — भौमकि ताश खेल रहा था — अकेला भौमकि-ताश की गेम ब्रिज खेलता हुआ। क्लब की वीरानियों को ढोता। क्लब के अन्दर रेंगती उदासियों से उलझता। क्लब के अकेलेपन से टकराता ... ब्रिज खेलता और किसी के आने के इन्तज़ार में। भौमकि को पता नहीं था शायद मेले जब उजड़ते हैं तो सिर्फ़ तम्बुओं के निशान और टीन-टप्पर रह जाते हैं।

    क्लब की जर्जर ...शिकस्ता इमारत और उसके बन्द कमरे पता नहीं कैसे हों ? हो सकता है पुराने व़क्त का कोई भौमकि अब भी बैठा हो लोगों का इन्तज़ार करता।

    कार

    गली को सब लोग अब लेन कहने लगे हैं। गली में अपनेपन का अहसास था। लेन कहते हुए अजीब-सा लगता है। यह लफ़्ज किसी बड़े लेकिन अजनबी शहर की पैदावार हो जैसे।

    इस लेन में सबके पास कारे हैं — स्कार्पियो, वेरना, लोगान, पियागो, सकोडा, होंडा सिटी, ओपल, मारूति एस्टीम ...। लेन के एक किनारे से खड़े हो कर देखो तो कोठियों के गेट के पास कारों की कतार नज़र आती है, गोया कि आप लेन में न हों, कारों के बड़े शो-रूम में चले आये हों।

    लक्ज़री कारों की अपनी दुनिया है। जो जितनी बड़ी कार रखता है, वो उतना बड़ा आदमी समझा जाता है। इधर, इनसानों का छवि निखारने में, कारों की अहम भूमकिा रही है। बेशक, ‘अरमानी’ का सूट, मोंट ब्लॉक का पेन, वसार्चे की वॉच, क्रॉस की शर्ट, क्रिश्चियन डायर का फ़ायर क्लब चश्मा और फेंडी का परफ़्यूम भी इनसानी शख्सियत और रुतबे में इजाफ़ा करते हैं।

    बड़े लोगों के बड़े सपने हैं। उनके पास बड़े पर्स हैं, बड़ी जेबें हैं। बड़ी कारें हैं। ... मेरे पास मारुति आठ सौ है ... यानी, मारुति एट हण्ड्रेड। इन लक्ज़री कारों के बीच मारुति एट हण्ड्रेड, संकोच में डूबी नज़र आती है। लेकिन मेरे पास यही मारुति कार है। दो साल पुरानी। लेकिन रख-रखाव ऐसा कि नयी नकोर नज़र आती है। दो-तीन खरोचें हैं ... बोनेट पर ... पेनल पर। एक ज़र्ब भी है मारुति के जिस्म पर। ...मैं इस कार को देखता रहूँ तो एक ज़र्ब दिल में भी उभर आती है।

    यादों के अज़ायबघर में जाते दफ़ा हम मुकम्मल होते हैं, लौटते दफ़ा-आधे-अधूरे ... कुछ ख़रोचों के साथ! आँखें में ज़रा-सी नमीं के साथ!

    मैं इस कार को देखता हूँ तो साबिर साहब बेसाख़्ता याद आने लगते हैं।

    साबिर साहब अब यहाँ नहीं रहते। पहले इस लेन में रहा करते थे। सामने वाली कोठी में — अकेले साबिर साहब। पन्द्रह साल तक रहे। मकान मालिक को बोलने का मौ़का ही कहाँ देते थे वो। ख़ुद-ब-ख़ुद पाँच-दस फ़ीसदी किराया बढ़ा देते। मकान मालिक बेसाख़्ता उन्हें देखता रह जाता। साबिर साहब मुस्कुराते रहते — मन्द-मन्द।

    इस कोठी में वो तब से थे, जब उनका भरापूरा ख़ानदान था। बच्चे लायक थे। पढ़-लिख कर अच्छी तालीम हासिल की। अच्छी नौकरी और अच्छे मुस्तकबिल के लिए अमेरिका और कनेडा में जा बसे। वो अपने माँ-बाप को भी साथ ले जाना चाहते थे, लेकिन साबिर साहब फ़रमाते, ‘‘ज़मीन का क़र्ज तो चुका लेने दो बरख़ुरदारो।’’

    ह़कीकत यह थी कि हिन्दुस्तानी आबोहवा उन्हें इतनी पसन्द थी कि वो इससे अलग होने का सोचते ही नहीं थे।

    उनके साथ बुरा ये हुआ कि उनकी बीवी की मौत हो गयी। अचानक दिल का दौरा पड़ा और कुछ ही देर में परिन्दा परवाज़ कर गया। साबिर साहब, ख़ुशतबीयत, ख़ुशबाश और अलमस्त इनसान टूट से गये। अपनी पत्नी को वो हमनफ़स और हमसफ़र कहा करते थे। वही पत्नी, बीच रास्ते उन्हें अकेला छोड़ महाप्रस्थान कर गयी।

    साबिर साहब एकदम ख़ामोश हो गये। मैं उनके

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