Nai Sadi Ki Kahaniyan: Fasaanon Ka Safar
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About this ebook
6 January 1938, Lahore. Khushtar Girami alias Ram Rakha Mal Chadda published the first issue of Beeswin Sadi on his son Krishan Chadda's birthday. The Urdu journal soon became one of the most widely read ones in the country. After Partition, the Chaddas moved to Delhi. By then Chadda was selling 40, 000 copies of every issue, publishing writers like Balwant Singh, Raja Mehndi Ali Khan, Amrita Pritam, Krishan Chander, Khushwant Singh and Sahir Ludhianvi. In the 1960s, Krishan Chadda suggested to his father that to widen the journal's circle of influence it was imperative that they publish it in Hindi and Nai Sadi came into beingand immediately captured the imagination of writers and readers alike. This anthology is a selection of stories published in Nai Sadi over decades. Replete with artwork picked up from old issues, it is also Krishan Chadda's daughter's tribute to her father and fans of the magazine.
Suparna Chadda
Suparna Chadda is a media consultant who has worked with radio, TV and print media. She is the founder of Woman Endangered, which is an initiative on gender sensitivity. Suparna is the granddaughter of Ram Rakha Mal Chadda, who started the Urdu literary magazine, Biswin Sadi. Krishan Kumar Chadda was the founding editor of the popular literary journal Nai Sadi that gave many young and upcoming Hindi and language writers their first break. He was also a writer of short stories himself.
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Nai Sadi Ki Kahaniyan - Suparna Chadda
आपके लिए, पापा
पापा ने मुझे बताया था कि जब वे १९४७ में डलहौज़ी से लम्बी छुट्टियाँ बिताकर दिल्ली पहुँचे तो वे नौ साल के थे। कुछ दिनों के लिए वे लोग फ़तहपुरी के कॉरोनेशन होटल में रुके, और फिर पुरानी दिल्ली के चरखेवाल्लां में मेरे दादाजी के एक दोस्त अनवर देहलवी के घर चले गये। बँटवारे के बाद बाकी रिश्तेदार भी वहीं रहने आ गये। घर बड़ा और आरामदायक था, लेकिन मेरे दादाजी ने ये सुनिश्चित किया कि ये घर असली मुसलमान मालिक को ही सौंपा जाये। बाद में मेरे दादाजी ने निज़ामुद्दीन ईस्ट में एक आलीशान बंगला बनवाया।
नि़जामुद्दीन के उस घर से पापा की बहुत ख़ूबसूरत यादें जुड़ी थीं। वे घर का निचला हिस्सा किराए पर देते थे और वहाँ कई मज़ेदार किराएदार रहने आया करते थे। पहले किराएदार मिस्टर क्रो थे जो मूलत: ब्रिटिश थे और ब्रिटिश राज का असर उन पर तब भी था। वे थे तो यूके उच्चायोग के सचिव, लेकिन फिर भी किराया देने में अक्सर घालमेल करते। जब मेरे दादाजी ने उनसे घर खाली करने को कहा तो उन्होंने रिवॉल्वर निकाल कर उन्हें गोली मार देने की धमकी दे डाली! एक और किराएदार इंडोनेशिया के दूतावास में सांस्कृतिक सहचारी थे। पापा को पालतू कुत्ते बहुत पसन्द थे और उस इंडोनेशियाई किराएदार के पालतू कुत्ते हमेशा पापा को उनकी अनुशासित ज़िन्दगी से परे मनबहलाव का एक ज़रिया बनते। उस किराएदार ने भी किराया देने में गड़बड़ की और इसका बदला दादाजी ने उसके केन के फर्नीचर और पुरानी इंडोनेशियाई पेंटिंग्स को अपने कब्ज़े में लेकर निकाला। उनमें से एक बर्मा टीक के फ्रेम में सजी पेंटिंग अभी भी मेरे माता-पिता के घर की दीवार पर टंगी है।
पापा का दाख़िला नई दिल्ली के बारहखम्भा रोड के मशहूर मॉडर्न स्कूल में कराया गया। ग़ज़ब की शख़्सियत वाले एम.एन. कपूर स्कूल के प्रिंसिपल थे, जो मॉरिस माइनर कार में दो एल्सेशियन कुत्तों के साथ आया करते थे। डिमेंशिया की हालत में भी ये एक ऐसी याद थी जो पापा के ज़ेहन से कभी नहीं गई। कुत्ते मिस्टर कपूर के ऑफिस में उनके कुर्सी के पास बैठे रहते। मिस्टर कपूर कड़े अनुशासन में यकीन करते थे, और उस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के चरित्र को उन्होंने बहुत प्रभावित किया। लाला रघुबीर सिंह इस स्कूल के फाउण्डर थे, और खुशवंत सिंह के पिता स्कूल के ट्रेज़रर। मिस्टर कपूर बच्चों को म्यूजिक, पेंटिंग और घुड़सवारी सिखाने पर ज़ोर देते। पापा ने बॉक्सिंग शुरू कर दी और जनपथ के आउटडोर रिंग में होने वाले कई मैच जीते। बाद में इसी रिंग में कॉटेज इण्डस्ट्रीज़ खुल गया। अपने दोस्तों के बीच ‘बॉक्सर’ के नाम से मशहूर पापा के इस नाम के पीछे कई किस्से हैं। एक कहानी में तो पापा के मैच हार जाने का व्यंग्य भी छुपा है। हालाँकि पापा ख़ुद ही कहते थे कि उनको मिलने वाली शोहरत उनकी कुशल बॉक्सिंग तकनीक का नतीजा है। लेकिन कुछ राज़ आज भी अनसुलझे हैं।
हर बच्चे और उनके माता-पिता के बीच के हर रिश्ते की तरह मेरा भी उनसे प्यार और नफ़रत दोनों का रिश्ता रहा। ‘नई सदी की कहानियाँ’ के ज़रिए मुझे अपने पिता को बेहतर समझने और उन जज्बातों को मुकम्मल शक्ल देने का मौका मिला जिन्हें खुला छोड़ दिया गया था। अपने आख़िर के सालों में पापा के लिए ये याद रखना भी मुश्किल था कि उन्होंने नाश्ते में क्या खाया है, लेकिन गुज़रे ज़माने की सारी बातें उन्हें अच्छी तरह याद रहती थीं। इन यादों से गूँथकर कहानियाँ निकालना पापा को बहुत खुशी देता। मैं हार्पर कॉलिन्स की, और मीनाक्षी ठाकुर की तहेदिल से शुक्रगुज़ार रहूँगी।
ये आपके लिए है, पापा।
सुपर्णा चड्डा
भूमिका
बीती हुई सदी तो बस वक़्त के बदलते पैमाने का उदाहरण देने के लिए रह जाती है। लेकिन मेरे लिए यह सदी कभी बीती नहीं। मैं हमेशा उसी में जिया क्योंकि मेरे जन्म के साथ ही एक ‘नई सदी’ की शुरुआत हो रही थी। लाहौर। जनवरी ६, सन् १९३८। मेरा जन्मदिवस। इसी दिन मेरे पिता श्री ख़ुश्तर गिरामी उर्फ राम रक्खा मल चड्डा ने ‘बीसवीं सदी’ का पहला अंक प्रकाशित किया। ‘बीसवीं सदी’ का वह पहला अंक मेरे पहले जन्मदिन का तोहफ़ा था और मैंने हमेशा उस तोहफ़े की हिफ़ाजत बड़ी ही शिद्दत के साथ की। मेरे पिताजी बताते थे कि उस दौर में अंग्रेज़ी राज हमें किसी भी तौर पर मुँह खोलने की इजाजत नहीं देता था और जब बीसवीं सदी का प्रकाशन हुआ तो ‘डी’ (किसी भी प्रकाशन के लिए बरतानिया सरकार के पास रजिस्ट्रेशन) नम्बर न लेने के कारण सरकार ने उन पर मुकदमा कर दिया। पिताजी के पास इतने पैसे न थे। मेरी माता के गहने गिरवी रखकर १०,००० रुपयों का इन्तजाम हुआ और पिताजी जमानत पर रिहा हुए।
लाहौर में ‘बीसवीं सदी’ का दफ़्तर शालमी दरवाज़े के पास था। दफ़्तर के बाहर एक बहुत बड़े बोर्ड पर उर्दू में बीसवीं सदी लिखा था। जब मैं पिताजी के साथ दफ़्तर जाता, तो एक बात पर ग़ौर करता कि पिताजी दफ़्तर आते-जाते थोड़ी देर रुककर उस बोर्ड की ओर ज़रूर देखते। दफ़्तर के एक तरफ मन्दिर था और दूसरी तरफ मस्जिद। विभाजन के समय मन्दिर और मस्जिद दोनों जला दिये गये पर ‘बीसवीं सदी’ का दफ़्तर बचा रहा। हमने बीसवीं सदी के दफ़्तर के बाहर फैली हुई आग का वह मंज़र कभी नहीं देखा, लेकिन उस दौर की तल़्खी मैंने हमेशा पिताजी की आखों और बातों में महसूस की।
विभाजन के समय हम सब लोग गर्मियों की छुट्टियाँ मनाने डलहौजी गये हुए थे और फिर वापस लाहौर न जा सके। शायद नियति को यही मंजूर था। मुझे याद है कि शहीद भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह काले पानी की सजा काटकर १४ अगस्त १९४७ को डलहौजी आये और हमारे घर ठहरे। यहीं पर उनका निधन हुआ। उनकी समाधि आज भी डलहौजी में है।
भारत और पाकिस्तान, अब दो मुल्क हो चुके थे और दोनों ही विभाजन की आग में जल रहे थे। नफ़रत की यह आग इस तरह फैल चुकी थी कि अब पाकिस्तान से हिन्दुओं को रुपया ले जाने की सख़्त मनाही थी। इसलिए हमारे पास सरहद के उस पार से पैसे नहीं आ सकते थे। लेकिन नफ़रत की यह आग दोनों मुल्कों की सियासत के बीच में थी, आवाम के बीच में नहीं। पाकिस्तान में पिताजी के एक दोस्त थे शालिक मोहम्मद, वो उस दौर में पाकिस्तान में मन्त्री थे, उन्होंने एक-एक रुपया करके चालीस हज़ार की रकम डलहौजी भेजी। इसी रकम से बीसवीं सदी दिल्ली में दोबारा प्रकाशित की जाने लगी।
विभाजन के बाद कई तरह की मुश्किलें आने लगीं। पिताजी किसी रास्ते की तलाश में थे और इसी सन्दर्भ में वे इलाहाबाद में मित्रा साहब से मिले। मित्रा साहब उस समय इलाहाबाद से ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियाँ’ प्रकाशित कर रहे थे। मित्रा साहब ने पिताजी को अपना प्रेस और रहने के लिए कोठी देने का प्रस्ताव रखा। पिताजी ने इस प्रस्ताव को काफ़ी विमर्श के बाद अस्वीकार किया क्योंकि दिल्ली अब तक हिन्दुस्तान की राजधानी बन चुकी थी और वे वहीं से ‘बीसवीं सदी’ का प्रकाशन करना चाह रहे थे।
दिल्ली में उस दौर में ज़्यादा लेखक न थे। एक भद्र पुरुष, भूषण बनमाली नाम बदल-बदलकर विभिन्न अनुच्छेद लिखा करते थे। बाद में ये महाशय हिन्दी फिल्म इण्डस्ट्री से जुड़ गये और गुलज़ार साहब के लिए इन्होंने कई गाने भी लिखे।
बीसवीं सदी के कुछ अंकों में एक कहानीकार ‘आसी रामनगरी’ ने कई कहानियाँ छद्म नामों से लिखी थीं। बाद में उनके एक छद्म नाम ‘कृष्णा कुमारी’ के नाम से लिखी कहानियों को ‘मेरे सपने’ शीर्षक देकर एक किताब के तौर पर प्रकाशित किया गया। यह किताब काफ़ी चर्चित रही और ख़ूब बिकी भी।
प्रसिद्ध कहानीकार कृष्ण चन्दर को ‘बीसवीं सदी’ ने पहली बार प्रकाशित किया था। उनकी कहानी ‘अन्नदाता’ का रूसी संस्करण बहुत बाद में रूसी जुबान में प्रकाशित हुआ था।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि दिल्ली के प्रसिद्ध कहानीकार श्री कमलेश्वर की एक कहानी पहली बार उर्दू में ‘बीसवीं सदी’ में ही छपी थी। ‘बीसवीं सदी’ उर्दू का पहला रिसाला था जो ए.एच. ह्वीलर में रेलवे बुक स्टॉलों पर बिकना शुरू हुआ था।
अब तक ‘बीसवीं सदी’ दिल्ली में स्थापित हो गया था और धीरे-धीरे उर्दू के तक़रीबन सभी कहानीकार ‘बीसवीं सदी’ में छपने लगे थे। इनमें से कृष्ण चन्दर, बलवन्त सिंह और अमृता प्रीतम प्रमुख थे। उस समय ‘बीसवीं सदी’ की ४०,००० प्रतियाँ हर महीने छप रही थीं, जो किसी भी अख़बार के लिए प्रशंसनीय था। बलवन्त सिंह हमारे निजामुद्दीन वाले घर के ‘आउट हाउस’ में रहते और मेरे पिता श्री ख़ुश्तर गिरामी जी रोज एक बॉटल स्कॉच की बलवन्त सिंह को देते थे। मुझे वो शाम याद आती है, जब अमृता प्रीतम हमारे निजामुद्दीन वाले घर खाने पर आयी थीं और मेरी माताजी के बनाये हुए चिकन की बहुत तारीफ़ की थी। बाद में मैं अमृता जी को कार से उनके घर हौज ख़ास छोड़ने गया।
यादों की यह डोर बड़ी लम्बी है, इसी कड़ी में एक और नाम याद आता है साहिर लुधियानवी का। साहिर लुधियानवी की मशहूर नज़्म चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों पहली बार ‘बीसवीं सदी’ में ही छपी और बाद में उसे फ़िल्माया भी गया।
राजा मेहदी अली ख़ान जिन्होंने फ़िल्मों में कई मशहूर गीत लिखे ‘बीसवीं सदी’ में अपनी ताजा ग़जल हमेशा छपने के लिए देते थे।
एक बड़ा ही मजेदार वाकया जो मजेदार के साथ-साथ अबूझ भी रहा। उर्दू के प्रसिद्ध शायर नरेश कुमार ‘शाद’ एक बार नशे की हालत में ‘बीसवीं सदी’ के दफ़्तर आये और मेरी मेज़ पर पेशाब करके बिना कुछ बोले चले गये।
१९६० के दशक तक हिन्दी भारत में सबसे पसंदीदा जुबान बन चुकी थी। देश के संविधान ने भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के तौर पर स्वीकार कर लिया था। अब तक मेरी उम्र तकरीबन २२ वर्ष हो चली थी और मैं सक्रियता के साथ ‘बीसवीं सदी’ के प्रकाशन में पिताजी का सहयोग करने लगा था। एक दिन मैंने पिताजी के सामने प्रस्ताव रखा कि ‘बीसवीं सदी’ को और लोगों तक पहुँचाने के लिए अब ज़रूरी हो चला है कि इसका प्रकाशन हिन्दी ज़ुबान में भी किया जाये। पिताजी को यह प्रस्ताव पसन्द आया। इस तरह एक नये सफ़र की शुरुआत हुई और ‘बीसवीं सदी’ का हिन्दी में प्रकाशन ‘नई सदी’ नाम से शुरू हुआ। वे सभी लेखक जो ‘बीसवीं सदी’ के साथ जुड़े थे मसलन बलवन्त सिंह, कृष्ण चन्दर, अमृता प्रीतम, खुशवंत सिंह। उनका सहयोग तो ‘नई सदी’ के लिए बना ही रहा साथ ही कुछ लेखक जैसे फ़िक्र तौसवीन, ज़फर पयामी, कन्हैया लाल कपूर, हाज़रा मज़रू़फ, मनमथ गुप्ता, डॉ० गोविन्द चातक व अन्य भी हमारे साथ जुड़े। हमारी इन कोशिशों को बल देने के लिए मैं इन सभी का तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
लम्हे-लम्हे जुड़कर ही सदियाँ बनाते हैं। ऐसी ही छोटे-बड़े लम्हे मिलकर एक सफ़र को बीसवीं सदी से नई सदी तक लेकर आये। वह दौर और उससे जुड़े हर वाकये मेरी रूह में बसें हैं, जो मेरे साथ ही रहेंगे। हमेशा। हर घड़ी...
कृष्ण कुमार चड्डा
ढक्की के नीचे
कृश्न चन्दर
ढक्की के नीचे पुलिस की गढ़ी थी और गढ़ी के नीचे लगभग एक मील लम्बा समतल भूमि का टुकड़ा था। उस इलाक़े के बच्चों के विचारानुसार इससे लम्बा मैदान संसार में कहीं न होगा। इस मैदान में जो बाज़ार था, उसमें सौ के लगभग दुकानें थीं और बाज़ार के पीछे दोनों ओर इलाक़े अत्यन्त ग़रीब और अत्यन्त सम्पन्न लोगों के घरों के थे। दो मंजिल-तीन मंजिल के घर, पक्के घर, पत्थर की दीवारों के घर, टीन की छतों के घर, घरों के बीच गलियाँ, गलियों में नुक्कड़ और नाके, जहाँ गन्दे लड़के शोर मचाते हुए ‘कबड्डी’ ‘काजी-को-लड़ा’ या ‘शाह-चोर’ डाकू खेलते थे। ढक्की के ऊपरी पठार पर अधिकारी वर्ग के बंगले थे और ढक्की के नीचे मैदानी हिस्से में स्थानीय लोगों के घर थे। विशेष अवसरों को छोड़कर स्थानीय लोगों के बच्चों और घरवालों को इस ओर आने की मनाही थी। यद्यपि कानून की दृष्टि से कोई लिखित मनाही न थी, तो भी एक अलिखित-सा करार अवश्य था, जिसका पालन दोनों संसारों में होता था। हमारी दुनिया अलग थी, उनकी अलग! दोनों के बीच ऊपरी प्रकार की सुलह-सफ़ाई थी; परन्तु इस ऊपरी तल के नीचे विरोध की एक ते़ज धारा भी चलती थी, जिसके कारण न अफसर लोग स्थानीय लोगों पर विश्वास कर सकते थे और न स्थानीय लोगों को अधिकारियों पर पूरा भरोसा था। यों भी ऊँच-नीच में परस्पर-विरोध तो हो सकता है, विश्वास कैसे हो सकता है? एक आदेश देता है, दूसरा उस आदेश की पूर्ति करता है। इस सम्बन्ध में आपस की प्रीत कैसे हो सकती है?
ढक्की के ऊपर रहने वाले नीचे रहने वालों को घृणा की दृष्टि से इसीलिए भी देखते थे कि नीचे वाले इलाक़े में दिन रात मारपीट और सिर-फटौल होती! प्रति दिन दो एक केस पुलिस के पास आ जाते और फिर घायल खाटों पर लदे हुए अस्पताल पहुँचा दिये जाते। स्थानीय लोगों के लड़ाई-झगड़ों से अधिकारी लोग बहुत तंग थे। लेकिन यह भी सही था कि इन्हीं लड़ाइयों के कारण उनका राज चलता था। ऊँची और नीची जगहों के बीच का अन्तर बनाये रखना कितना कठिन है, इसका अनुमान केवल वही लोग कर सकते हैं जो स्वयं ऊँची जगहों पर रहते हों।
किन्तु यह भी सच है कि ढक्की के नीचे रहने वाले लोगों के बिना ढक्की के ऊपर रहने वालों का जीवन-यापन नहीं हो सकता था। हमारे कर्मचारी वहीं से आते थे—अर्दली, रसोइये, माली, सेवक, अण्डे वाले, दूध-डबल रोटी-बिस्कुट वाले, कपड़े बेचने वाले, कपड़े धोने वाले, नाई, मोची, सुनार, लुहार, लकड़हारे! यह तो सच है कि अगर ढक्की के नीचे रहने वाले लोग न हों तो हमारे घर में चूल्हा तक न जले; लेकिन यह एक ऐसी भयानक सच्चाई थी, जिसे सारे इलाक़े में कोई मानने को तैयार न था। हम समझते थे और हमें समझाया जाता था कि संसार ऊँचाई पर क़ायम है।
बचपन में मुझे इन सारी बातों का इतना तीव्र और स्पष्ट अनुभव न था। बहुत-सी बातें गडमड थीं, जिन्हें ढक्की के ऊपर के निवासी अपनी बातों से और गडमड कर देते थे। मुझे बार-बार बताया जाता था कि ढक्की के नीचे के लोगों से अधिक बातें नहीं करनी चाहिए, उनसे परे रहना चाहिए, उनकी बस्ती में नहीं जाना चाहिए। वे लोग चोर और दुराचारी हैं, फ़रेबी और बेईमान हैं, लड़ाके और घृणा करने वाले हैं! वे लोग जीना नहीं जानते। सभ्यता उन्हें छू नहीं गई। ऐसे लोगों से हमारा क्या नाता?
एक दिन सारा अस्पताल घायलों से भर गया। दस-बारह खाटें घायलों से लदी हुर्इं पुलिस वालों की देख-रेख में पहुँचीं और यह भी सुना, दो चार और आ रही हैं। ढक्की के नीचे रहने वालों में बड़ी भयानक लड़ाई हुई थी। पन्द्रह बीस व्यक्ति घायल हुए थे, जिनमें से दो तो दम तोड़ने की दशा में थे।
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मेरी माँ यह सुनकर रंगीन कहानियों वाली एक किताब लेकर मेरे पास बैठ गई और मुझे राक्षसों और परियों की कहानी सुनाने लगीं। पर मेरा दिल चाहता था कि ऊपर अस्पताल में जा कर घायलों को देखूँ। लड़ाई कैसे हुई? क्यों हुई? कैसे-कैसे वे लड़ाकू लोग होंगे। पन्द्रह-बीस घायल, साथ में पच्चास-साठ अन्य व्यक्ति भी आये होंगे! सम्भवत: ढक्की के नीचे के कुछ बच्चे भी वहाँ हों! ऊपर अस्पताल में इतना कोलाहल है और मैं यहाँ कहानी सुन रहा हूँ—राजा के बेटे को एक परी ने जादू के बल से मेढ़क बना दिया—किस कमबख़्त को मेंढ़कों में दिलचस्पी है। माँ जी किसी प्रकार मेरे पास से हटें तो मैं ऊपर अस्पताल की ओर दौड़ूँ। किन्तु जब पन्द्रह मिनट बीत गये और माँ जी न हटीं और कहानी लम्बी होती गई तो सहसा मेरे पेट में शूल उठने लगा और जब सोडामन्ट खाने पर भी दूर न हुआ तो माँ जी ने