Mahila Kathakaar - 1965 Se Aadhyatan
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About this ebook
The history of the Hindi short story is over 112 years old now. Veteran critic and writer Dr. Pushppal Singh has made a selection of stories representative of the historical context that informed the themes and styles of the noteworthy writers of the time. The series is divided into six volumes, with stories starting as early as 1900. An entire volume is dedicated to the star women writers such as Mrinal Pande, Indu Bali, Kavita, Pratyaksha, Maitrayi Pushpa and Sudha Arora of the last fifty years. So while you begin with stalwarts like Madhav Rao Sapre, Nizam Shah and Acharya Ramchandra Shukla in the first volume, you go on to Jayshankar Prasad and Premchand, Yashpal, Bhagwaticharan Verma, Nirala, Amritlal Nagar, Agyeya and Ashk in the second. The third volume presents you with the 'Nayi Kahani' writers like Kamleshwar, Renu, Nirmal Verma, Krishna Sobti, Bharati, Rajendra Yadav, even Doodhnath Singh. The fourth volume brings us to the 'Samkaleen Kahani' with stories by Giriraj Kishore, Uday Prakash, Kashinath Singh, Govind Mishra, Gyanranjan and Hridayesh. The last volume acknowledges young talents such as Ajay Navaria, Kunal Singh, Prabhat Ranjan and Tejendra Sharma. This is a very important series of anthologies for anyone who wants to say he's read all Hindi short story writers worth their salt.
Pushpal Editor Singh
Dr Pushppal Singh is a renowned Hindi critic, and has been researching the Hindi short story and its trends for the last thirty-five years. He has published many books on Hindi literary criticism. The important ones are Samkaleen Kahani: Naya Paripekshya, Samkaleen Kahani: Rachna Mudra, Samkaleen Hindi Kahani: Soch Aur Samajh, Bhoomandlikaran Aur Hindi Upanyas. His collection of Hindi short stories is called Taarekh Ka Intezar from which some of the stories have been translated into many Indian languages.
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Mahila Kathakaar - 1965 Se Aadhyatan - Pushpal Editor Singh
यह कथा-संकलन
इस कथा-संकलन में हिन्दी कहानी के दूसरे दौर की कहानियाँ हैं जब हिन्दी कहानी पूरी तरह अपना महत्त्व स्थापित कर प्रेमचन्द-प्रसाद द्वारा निर्दिष्ट राजमार्ग पर तेज़ी से आगे बढ़ती है। मुख्यत: यह काल-खण्ड प्रेमचन्द और प्रसाद संस्थानों (स्कूल्स) की कहानी का है, यद्यपि इसमें प्रेमचन्दोत्तर समय की स्वतन्त्रता प्राप्ति तक या कहें बीसवीं शती की अर्द्धशती तक की महत्त्वपूर्ण कहानियों का चयन किया गया है।
कहानी अपने देशकाल में गहराई से झाँकती हुई न केवल उन स्थितियों का चित्रण-भर करती है अपितु लेखकीय सोच के रूप में समय की विसंगतियों पर करारी चोट करती है। इन कहानियों में देश की समाजार्थिक स्थितियों का परिचय बहुत जीवन्त रूप में मिलता है जिससे हमें तत्कालीन लोक-जीवन, विश्वासों और सामाजिक संरचना में हो रही उथल-पुथल का निकट का परिचय प्राप्त होता है। स्वतन्त्रता के लिए चल रहे देश-व्यापी आन्दोलन की धमक जगह-जगह इन कहानियों में है, साथ ही उस सामान्य-जन की मनोस्थिति का चित्रण है जिसका ज़िक्र इतिहास की किताबों में प्राय: नहीं होता है। आर्य समाज तथा अन्य धार्मिक आन्दोलनों ने समाज में जागृति, नारी-शिक्षा और दलितोद्धार का जो बीड़ा उठाया था, उसका परिचय यहाँ कथात्मक संवेदन के रूप में मिलता है। आज दलित साहित्य और स्त्री-विमर्श की बात जिस आन्दोलनधर्मी लहज़े में की जा रही है, उससे अलग हट कर बिना किसी मुखरता के यहाँ कहानी दलित और स्त्री-पक्ष में बहुत मज़बूती से खड़ी होती है।
इस श्रृंखला के पहले खण्ड में यदि मुंशी प्रेमचन्द की पहले दौर की कहानी ‘सवा सेर गेहूँ’ संकलित है तो यहाँ उनके उत्कर्ष काल की श्रेष्ठ, ‘मास्टरपीस’, बहुचर्चित कहानी ‘कफ़न’ दी गयी है। ‘कफ़न’ समाज के उस वर्ग की पीड़ा का महाआख्यान रचती है जो सदियों से समाज में दबे-कुचले, राजनीतिक शब्दावली में शोषित हैं। इस कहानी के तरह-तरह के पाठ आलोचकों ने समय-समय पर प्रस्तुत किए हैं जिनमें से कुछ में बहुत दूर की कौड़ी भी लायी गयी है। वस्तुत: प्रेमचन्द इस कहानी में समाजार्थिक स्थितियों का चित्रण इस निस्संगता से करते हैं कि मानो किसी सर्जन द्वारा पूरी निस्संगता में लाश का पोस्ट-मार्टम किया जा रहा हो। भयानक सच जो मानवीय चेतना को सुन्न ही नहीं करता अपितु संवेदन-तन्त्र को एकबारगी पूरे जोर से झनझना देता है। कहानी बहुत देर तक मनोमस्तिष्क पर दस्तक देती रहती है। इस युग के दूसरे महत्त्वपूर्ण कथाकार जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘आकाशदीप’ उनके उत्कर्ष काल की कहानी है जिसमें प्रेम के शाश्वत विषय को बड़े कौशल से काव्य के मधुबेष्ठन तथा नाटकीयता के साथ बुना गया है। उनकी कहानियों की नारी प्राय: ही विरोधी पक्ष के युवक से प्रेम कर बैठती है और ये प्रेमी प्रबल प्रेम के उद्दाम क्षणों के बाद भी कभी न मिलने के लिए अभिशप्त रहे आते हैं। ‘आकाशदीप’ आज भी अपने आकर्षण में बाँधती है। जैनेन्द्र प्रेमचन्द से अलग कहानी को एक नया संस्कार देते हैं — कथ्य और भाषा दोनों स्तरों पर जिसे सहज ही नागरी संस्कार कहा जा सकता है, ग्रामीण कथा-संवेदन से बिलकुल अलग। शहर के ‘एक ओर तिरस्कृत मकान’ में रहती ‘पत्नी’ का त्रास उनकी इसी शीर्षक की कहानी में बड़ी गहरी सहानुभूति से उकेरा गया है। सुनन्दा अपनी प्रदत्त सामाजिक स्थितियों में जिस रूप में कसमसाती है लेखक उसके अन्तर्मन में झाँकता हुआ उसकी मुक्ति-कामना को भी अभिव्यक्ति देता हुआ नारी-स्वातन्त्र्य की सुगबुगाहट का परिचय देता है। सुदर्शन प्रेमचन्द परम्परा के महत्त्वपूर्ण लेखक हैं और उनकी ‘हार की जीत’ डाकू के हृदय-परिवर्तन की एक बेहतरीन कहानी है। ग़रीबी के माध्यम से जो जीवन-मूल्य कहानी स्थापित करना चाहती है, आज भी वह हृदय पर अमिट प्रभाव छोड़ता है। बहुत सरल-सहज भाषा में किस्साग़ोई का कौशल यहाँ देखते ही बनता है।
यशपाल और उपेन्द्रनाथ कहानी के क्षितिज का और भी विस्तार करते हैं। ‘फूलो का कुरता’ कहानी में यशपाल बाल-विवाह जैसी कुप्रथा पर बड़ी करारी चोट करते हैं, केवल पहाड़ी अंचल में ही नहीं, पूरे देश में उस समय बाल-विवाह हो रहे थे। पाँच बरस की बालिका फूलो, जिसको नंगे-उघाड़े का भी बोध नहीं है जब अपने सात वर्षीय दूल्हे सन्तू से मुँह छिपाने के लिए शरीर पर धारण किए हुए एकमात्र कुरते को आगे से उठा कर अपना मुँह ढँक लेती है तो यशपाल समाज के मुँह पर एक ज़बरदस्त तमाचा जड़ते हैं। यह यथास्थिति का तीव्र विरोध करती अत्यन्त सशक्त कहानी है। उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ की ‘काकड़ाँ का तेली’ सामान्य मनुष्य की ग़रीबी और उसकी विवशताओं का चित्रण करने वाली अपनी तरह की बेजोड़ कहानी है। आज के पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्र, लाहौर के आसपास के अंचल का और उसके जनसामान्य की ग़रीबी और ग़रीब की विवशताओं, निरुपायताओं, का चित्रण मौलू और उसके परिवार की लाहौर यात्रा के माध्यम से हृदय-द्रावक रूप में किया गया है। प्रसिद्ध छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘चतुरी चमार’ का चरित्र रेखाचित्रात्मक है, लेखक का ‘स्व’ और तत्कालीन साहित्यकारों बनारसीदास चतुर्वेदी, महावीरप्रसाद द्विवेदी, आदि का उल्लेख तथा अपनी माँसाहारी वृत्ति, आदि का उल्लेख कहानी की नयी शैल्पिक युक्तियों से परिचित कराती एक पठनीय रचना बन जाती है। जी.पी. श्रीवास्तव की ‘जवानी के दिन’ शुद्ध हास्य, कहें उत्फुल्ल हास्य की यादगार कहानी है, हिन्दी में फिर ऐसी कहानियाँ लिखी ही नहीं गयीं, अब बाद में आ कर रवीन्द्रनाथ त्यागी के यहाँ अवश्य कुछ ऐसी कहानियाँ मिल जाती हैं।
‘अज्ञेय’ की ‘गैंग्रीन’ (बाद में शीर्षक ‘रोज़’) हिन्दी कहानी के शैल्पिक ढाँचे में नये प्रयोग की दिशा खोलती है, यहाँ कथानक अत्यन्त संक्षिप्त या गौड़ है, केवल वातावरण चित्रण से मालती के जीवन में फैली एकरसता (‘मॉनोटोनी’), उदासीनता, ऊब को साक्षात् कर स्त्री की परवशता, दाम्पत्य की लगभग दासता का प्रभावी अंकन यहाँ हुआ है। इलाचन्द्र जोशी की ‘चौथे विवाह की पत्नी’ पूरी कहानी पत्र रूप में प्रस्तुत है, जैनेन्द्र जिस मनोवैज्ञानिकता का समारम्भ अपनी कहानियों में कर चुके थे, इलाचन्द्र जोशी में आ कर उसका पूर्ण विकास देखा जा सकता है। यद्यपि कहानी की बहुत-सी स्थितियाँ यथार्थ से दूर, परिकल्पनात्मक है किन्तु फिर भी तत्कालीन समाज में नारी की नियति, उसमें धीरे-धीरे आ रही जागृति, आदि को कुशलता से चित्रित किया गया है। भगवतीप्रसाद वाजपेयी की ‘निंदिया लागी’ में मज़दूर स्त्री का संघर्ष और उसकी दयनीय दशा पर संवेदनात्मक रूप से विचार किया गया है। राहुल सांकृत्यायन अपनी ही तरह के शोधक कहानीकार हैं जिन्होंने भारतीय इतिहास के अन्धकार युग पर गम्भीर कार्य कर कहानियों की रचना की। ‘निशा’ कहानी हमें इतिहास के प्रागैतिहासिक काल में 6000 ई.पू. के समय में ले चलती है जब मातृसत्तात्मक कबीलों का अस्तित्व था, विवाह-संस्था अस्तित्व में नहीं आयी थी, अपने कामोपभोग के लिए परिवार की मुखिया नारी अपनी सन्तान तक से सन्तुष्टि प्राप्त कर रही थी, अपनी पुत्री तक से सौतिया डाह का अनुभव कर रही थी। इसे लेखक ने ‘आज से 361 पीढ़ी पहले की कथा’ कहा है। चतुरसेन शास्त्री ने अपनी ऐतिहासिक कहानियों के लिए प्रसिद्धि पायी थी, राजपूताने के शौर्य, उत्सर्ग, बलिदान की बड़ी प्रेरणादायक कथाएँ उन्होंने लिखीं, ‘हल्दी घाटी में’ महाराजा प्रताप के ऐसे ही शौर्य और राष्ट्र-प्रेम की रोचक गाथा है। भगवतीचरण वर्मा और अमृतलाल नागर ने लखनऊ के नवाबी जीवन पर अनेक रोचक कहानियाँ लिखी हैं। भगवतीचरण वर्मा की ‘मुग़लों ने सल्तनत बख़्श दी’ में लखनऊ की नवाबी के विगत-वैभव का ऐसा ही शानदार किस्सा, किस्साग़ोई के सहज अन्दाज़ में प्रस्तुत हुआ है। मन्मथनाथ गुप्त राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में तो सक्रिय थे ही, उन्होंने कुछ बहुत ही सशक्त कहानियाँ लिखी हैं, ‘न्याय’ में अदालतों में न्याय का मज़ाक उड़ाने, न्याय को खरीदने की कथा सहजता से कही गई है। दुर्गादत्त त्रिपाठी की ‘तीन भिखारी’ जीवन के एक सत्य से साक्षात्कार कराती उपदेशपरक कहानी है। आज हिन्दी कहानी में दलित-विरोधी का बड़ा शोर-शराबा है किन्तु स्वतन्त्रता से पहले के वर्षों में ज़हूरबख़्श ने अपनी कहानी ‘हम भंगी हैं’ में जातिगत संकीर्ण मानसिकता और दलितों के साथ क्षुद्र व्यवहार पर कठोर प्रहार किया है। ‘शकीला की माँ’ कहानी में वेश्या-जीवन की त्रासदियों का बड़ा यथार्थ चित्रण अमृतलाल नागर ने किया है, ढलती उम्र में आर्थिक कष्टों के बीच उसका जीवन कितना दुष्वार और दयनीय हो जाता है, इसकी प्रतीति कहानी देती है। रामप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ की ‘अवरोध और गति’ उस समय की नारी में विकसित हो रही आर्थिक स्वातन्त्र्य की भावना और अपने वज़ूद की सार्थकता की तलाश की कहानी है। ‘चन्द्रकिरण सौनरेक्सा’ की ‘ए क्लास का कैदी’ की वीणा पारिवारिक रूढ़ियों, रीति-रिवाज़ों के प्रति विद्रोह करती हुई उस नारी की तस्वीर उकेरती है जो धीरे-धीरे इन स्थितियों के प्रतिरोध का स्वर उपस्थित कर रही थी। पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की कहानियाँ अपने तीवरों के लिए जानी जाती हैं, ‘दोजख़! नरक!!’ कहानी में वे हिन्दू-मुस्लिम की दूषित साम्प्रदायिक मनोवृत्ति पर बहुत करारी चोट करते हैं, कहानी आज भी प्रासंगिक है। रांगेय राघव की ‘गूँगे’ गूँगे के माध्यम से सामान्य व्यक्ति के उस गूँगेपन की बात करती है जो अत्याचार-अनाचार को चुनौती देने में अक्षम रह कर गूँगे बने रहते हैं। चन्द्रगुप्त विद्यालंकार की ‘मास्टर साहब’ कहानी भारत-पाक-विभाजन के समय की मार-काट का प्रत्यक्षदर्शी चित्र प्रस्तुत करती बहुत सशक्त कहानी है। रजनी पणिक्कर की ‘पेपरवेट’ प्रेम और दाम्पत्य के बीच बँटी नारी की विशताओं पर केन्द्रित कहानी है। होमवती देवी ‘माँ’ कहानी में सौतेली माँ द्वारा पहली पत्नी की सन्तान के प्रति हो रहे अनाचार की तत्कालीन साामजिक विसंगति पर चोट करती है। विष्णु प्रभाकर स्वातन्त्र्यपूर्व समय से ही कहानियाँ निरन्तरता में लिखते रहे हैं, इसलिए यहाँ उनकी वर्तमान दौर की ‘कर्फ़्यू और आदमी’ कहानी को संकलित किया गया है जिसमें देश में आतंकवादी स्थितियों के चलते जब चाहे कर्फ़्यू लग जाता है, किन्तु इस सबमें सामान्य आदमी को कितना-कुछ भोगना पड़ता है जैसी स्थितियों का चित्रण किया गया है। इस प्रकार संग्रह की सभी कहानियाँ अपनी-अपनी तरह से अपने देश-काल, समाज का, बड़ा गम्भीर और संवेदनात्मक चित्रण करती हुई अपने समय की कहानी के विराट फलक का परिचय देती हैं। सभी कहानियाँ निश्चय ही पाठक को पाठ-सुख प्रदान करेंगी, ऐसी आश्वस्ति है !!
प्रेमचन्द
कफ़न
झोंपड़ी के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए थे और अन्दर बेटे की जवान बीवी बुधिया प्रसव वेदना से पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।
घीसू ने कहा, ‘‘मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।’’
माधव चिढ़कर बोला, ‘‘मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?’’
‘‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफ़ाई।’’
‘‘तो मुझसे उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’’
चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम। माधव इतना कामचोर था कि आध घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मज़दूरी नहीं मिलती। घर में मुट्ठी भर भी अनाज मौजूद हो तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियाँ तोड़ लाता और माधव बाज़ार में बेच लाता। और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। जब फाके की नौबत आ जाती तो फिर लकड़ियाँ तोड़ते या मज़दूरी की तलाश करते। गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को लोग उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता। अगर दोनों साधु होते तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए संयम और नियम की बिलकुल ज़रूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका। घर में मिट्टी के दो-चार बर्तनों के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जिए जाते थे। संसार की चिन्ताओं से मुक्त। क़र्ज से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई भी ग़म नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ क़र्ज दे देते थे। मटर या आलू उखाड़ लाते और भूनभान कर खा लेते या दस-पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप के ही पदचिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी के खेत से खोद लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी। पिसाई करके या घास छीलकर वह सेर-भर आटे का इन्तज़ाम कर लेती थी और इन दोनों बेग़ैरतों का दोज़ख भरती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनों और भी आलसी और आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता तो निर्व्याज भाव दुगुनी मजदूरी माँगते। यही औरत आज प्रसव वेदना से मर रही थी। और यह दोनों शायद इसी इन्तज़ार में थे कि वह मर जाय, तो आराम से सोयें।
घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा—‘‘जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है।’’
माधव को भय था कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। ‘‘मुझे वहाँ जाते डर लगता है।’’
‘‘डर किस बात का है। मैं तो यहाँ हूँ ही।’’
‘‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?’’
‘‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं, और फिर मुझसे लजायेगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ। उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी।’’
‘‘मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हो गया तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में।’’
‘‘सब कुछ आ जायेगा। भगवान दें तो। जो लोग अभी तक एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था। मगर भगवान ने किसी न किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’’
जिस समाज में दिन-रात मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं-कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज़्यादा विचारवान था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी कि नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती। और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते।
दोनों आलू निकाल-निकाल कर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि उन्हें ठण्डा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गयीं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा तो बहुत ज़्यादा गर्म न मालूम होता; लेकिन दाँतों के तले पड़ते ही अन्दर का हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अँगारे को मुँह में रखने से ज़्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाय। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफ़ी सामान थे। इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते।
घीसू को उस वक्त ठाकुर की बारात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताज़ी थी। बोला—‘‘वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लड़की वालों ने सबको भरपेट पूड़ियाँ खिलाई थीं, सबको। छोटे-बड़े सबने पूरियाँ खाईं और असली घी की। चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई—अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला। कोई रोक-टोक नहीं थी। जो चीज़ चाहो माँगो और जितना चाहो खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, किसी से पानी न पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म गोल-गोल सुवासित कचौड़ियाँ डाले देते हैं। मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ से रोके हुए हैं, मगर यह हैं कि दिये जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा न हुआ जाता था। चटपट आकर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर।’’
माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मज़ा लेते हुए कहा—‘‘अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।’’
‘‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह ज़माना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। शादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो, पूछो, ग़रीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे! बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ खर्च में किफायत सूझती है।’’
‘‘तुमने एक बीस पूरियाँ खायीं होगी?’’
‘‘बीस से ज़्यादा खायीं थीं।’’
‘‘मैं पचास खा जाता।’’
‘‘पचास से कम मैंने न खायी होंगी। अच्छा पट्ठा था। तू तो मेरा आधा भी नहीं।’’
आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़ कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर कुंडलियाँ मारे पड़े हों।
और बुधिया अभी तक कराह रही थी।
२
सवेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रहीं थीं। पथरायी हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।
माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों ज़ोर-ज़ोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।
मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फ़िक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह ग़ायब था जैसे चील के झोंसले से माँस।
बाप-बेटे रोते हुए गाँव के ज़मींदार के पास गये। वह दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों पीट चुके थे—चोरी करने के लिए, वादे पर काम न आने के लिए। पूछा—‘‘क्या है बे घिसुआ। रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखाई भी नहीं देता। मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।’’
घीसू ने ज़मीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा—‘‘सरकार बड़ी विपत्ति में हूँ। माघव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक। तबाह हो गये। घर उजड़ गया। आपका गुलाम हूँ, आपके सिवा अब कौन मिट्टी पार लगायेगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार की ही दया होगी तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ?’’
ज़मींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिये। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ़ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।
जब ज़मींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये महाजनों को इन्कार का साहस कैसे होता। घीसू ज़मींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिए, किसी ने चार आने। एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से नाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहार को घीसू और माघव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।
गाँव की नर्मदिल स्त्रियाँ आ-आ कर लाश को देखती थीं, और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।
बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला, ‘‘लकड़ी तो उसे जलाने भर को मिल गयी हैं, क्यों माधव।’’
माधव बोला, ‘‘हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।’’
‘‘तो चलो, कोई हलका-सा कफ़न ले लें।’’
‘‘हाँ, और क्या। लाश उठते-उठते रात हो जायेगी। रात को कफ़न कौन देखता है?’’
‘‘कैसा बुरा रिवाज़ है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।’’
‘‘कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।’’
‘‘और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो दवा-दारू कर लेते।’’
दोनों एक दूसरे के मन की बात को ताड़ रहे थे। बाज़ार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दुकान पर गये, कभी उसकी दुकान पर। तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने आ पहुँचे और जैसे कि किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ ज़रा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा—‘‘साहू जी, एक बोतल हमें भी देना।’’
इसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछलियाँ आयीं और दोनों बरामदे में बैठ कर शान्तिपूर्वक पीने लगे।
कई कुज्जियाँ ताबड़-तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये।
घीसू बोला, ‘‘कफ़न लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता।’’
माधव आसपास की तरफ देख कर बोला, मानो देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो—‘‘दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाँभनों को हज़ारों रुपये क्यों दे देते हैं। कौन देखता, परलोक में मिलता है या नहीं।’’