Dilli-O-Dilli
By Navin Pant
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About this ebook
Delhi was made and razed several times. It was plundered by Timur Lang,Nadir Shah and Ahmedshah Abdali. But it resurrected itself each time, and with redoubled vigour. Then came the Sultans, followed by the Mughals who gave it stunning mosques, aweinspiring monuments and gardens. The British arrived soon after and Delhi remained their capital for thirtysix years, until India became independent. Dilli O Dilli takes you on a walk through the many Delhis of the past to the Delhi that we know today.
Navin Pant
Navin Pant has been writing for Hindi newspapers and journals for over sixty years now. He retired from the Indian Information Service as news editor of AIR in 1985. He has translated several books into Hindi and English.
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Dilli-O-Dilli - Navin Pant
अध्याय एक
दिल्ली का इतिहास
दिल्ली का इतिहास कब शुरू होता है, इसकी स्थापना कब हुई, इस विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार दिल्ली का इतिहास तीन हज़ार वर्ष पुराना है। कुछ लोग इसे और पहले ले जाते हैं। दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पुरा पाषाण युग के चिह्न, औ़जार और हथियार पाये गये हैं। हड़प्पा सभ्यता सिन्धु घाटी तक सीमित नहीं थी। वह दिल्ली के नज़दीक तक फैली थी। दिल्ली के कुछ क्षेत्रों में उत्तर हड़प्पा काल के मिट्टी के बर्तन मिले हैं। दिल्ली ने अनेक साम्राज्यों की स्थापना और अन्त देखा है। उसने अनेक आक्रमणकारियों के हमले झेले हैं। दिल्ली अनेक बार बसी और उजड़ी है। स्वतन्त्रता के समय पुरानी और नयी दिल्ली की कुल आबादी लगभग आठ लाख थी जो अब लगभग एक करोड़ ५० लाख है। दिल्ली में हर रोज़ सौ-दो सौ लोग रोज़गार और बेहतर अवसरों की तलाश में आते हैं। इस सम्बन्ध में भी विवाद है कि दिल्ली कितनी बार बसी है। कुछ लोगों का कहना है कि दिल्ली आठ बार बसी है, जबकि दूसरों का मानना है कि यह सोलह बार बसी है।
दिल्ली के बसने के बारे में ये दोनों बातें सच हो सकती हैं। हमारे देश में हर राजा को अपने नाम पर एक नया नगर बसाने का शौक़ था। उनके बसाये कुछ शहर फले-फूले और कुछ शहर समय के साथ विलीन हो गये। स्वतन्त्रता के बाद दिल्ली का इतना विस्तार हुआ है कि पहले बसी सभी बस्तियाँ वर्तमान दिल्ली में समा गयी हैं।
कालिका पुराण के अनुसार इन्द्रप्रस्थ नगर बसने से पहले यहाँ एक घना जंगल था जो खाण्डव वन कहलाता था। चन्द्रवंशी राजा सुदर्शन ने वन को साफ़ कर वहाँ खाण्डवपुरी बसायी। बाद में इन्द्र के अनुरोध पर काशी नरेश विजय ने खाण्डवपुरी पर हमला किया और सुदर्शन का वध करके खाण्डवपुरी अपने अधिकार में ले लिया। कालान्तर में विजय को यह नगरी ख़ाली करनी पड़ी और वह फिर वन क्षेत्र में बदल गयी।
यह वन क्षेत्र ऋषि-मुनियों का तपस्या-स्थल बन गया। खाण्डव वन के कुछ क्षेत्र पवित्र तीर्थ बन गये जैसे निगम (वेद) बोध (ज्ञान) घाट। शाहजहाँ ने जब पुरानी दिल्ली (शाहजहानाबाद) बसायी तो शहर की दीवार में एक दरवाज़ा निगम बोध घाट रखा। दारा शिकोह ने इसी स्थान पर काशी के पण्डितों की सहायता से उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया था।
पाण्डवों की नगरी इन्द्रप्रस्थ वर्तमान ओखला से बुराड़ी गाँव तक फैली थी। उन्होंने निगम बोध घाट पर ही अश्वमेध यज्ञ किया था। पाण्डवों के समय में यमुना चाँदनी चौक से हो कर बहती थी। चाँदनी चौक में एक प्राचीन मन्दिर घण्टेश्वर है जो पहले विश्वेश्वर कहलाता था। यह स्थान कभी विद्यापुरा कहलाता था। इसके समीप राजघाट है जहाँ ३१ जनवरी १९४८ को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का अन्तिम संस्कार हुआ था।
दिल्ली में ओखला के समीप पहाड़ी पर कालिका देवी का एक प्राचीन मन्दिर है। पुराने क़िले की दीवार के पास भैरों का मन्दिर है। पाण्डव भैरव यानी शिव के भक्त थे। दिल्ली में दो शक्तिपीठ भी हैं। योग माया का मन्दिर महरौली में लोहे की लाट से कुछ दूरी पर है। कालिका भवानी का मन्दिर बुराड़ी गाँव में है। ये प्राचीन तीर्थ महाभारत काल में भी थे, लेकिन वर्तमान घाट और मन्दिर महाभारत कालीन नहीं हैं। ये सौ वर्ष से अधिक पुराने नहीं हैं।
महाभारत के अनुसार युधिष्ठिर ने ईसा पूर्व १४५० में खाण्डवप्रस्थ में अपनी राजधानी बनायी थी। कुछ अन्य विद्वान इसे एक हज़ार वर्ष और पीछे ले जाते हैं। बाद में युधिष्ठिर अपनी राजधानी दिल्ली से ८० किलोमीटर दूर हस्तिनापुर ले गये। लेकिन महाभारत काव्य-ग्रन्थ है अथवा ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन करने वाली रचना, इस विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं। तो भी, दिल्ली के समीप इन्द्रप्रस्थ, वृकप्रस्थ (बागपत), तिलप्रस्थ (तिलपत), सोनप्रस्थ (सोनीपत), पानीप्रस्थ (पानीपत) का होना और महाभारत में उनका उल्लेख होना इन नगरों के ऐतिहासिक स्वरूप को प्रकट करता है।
अकबर के दरबारी अबुल फ़ज़ल के अनुसार लाक्षागृह से पाण्डवों के सुरक्षित बच निकलने के बाद उनसे मैत्री करने के लिए दुर्योधन ने उन्हें इन्द्रप्रस्थ प्रदान किया। बाद में हुमायूँ ने इन्द्रप्रस्थ को दीन पनाह नाम दिया और वहाँ एक क़िले का निर्माण कराया। क़िले का निर्माण कार्य पूरा होने से पहले उसे शेरशाह के हाथों पराजित होने के बाद भारत से भागना पड़ा। शेरशाह ने क़िले को मज़बूत करवाया और क़िले का नाम शेरगढ़ रखा। उसने क़िले के भीतर शेर मण्डल का निर्माण भी कराया। हुमायूँ के दीन पनाह और शेरशाह के शेरगढ़ नाम को आम जनता ने कभी स्वीकार नहीं किया। वह उसे पाण्डवों का क़िला कहती रही। पुराने क़िले के नज़दीक इन्द्रप्रस्थ गाँव बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक था। जब १९११ में दिल्ली को देश की राजधानी बनाने का निर्णय किया गया तो इस गाँव के निवासियों को दूसरी जगहों पर बसा दिया गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इस स्थान से प्राप्त कुछ सामग्री ईसा से एक हज़ार वर्ष पुरानी है।
पुराने क़िले में पिछले चार दशकों से खुदाई हो रही है। इस खुदाई के दौरान मिट्टी के अनेक पात्र, मूर्तियाँ और अन्य वस्तुएँ मिली हैं। इनसे प्रमाणित होता है कि इस स्थान ने मौर्य काल, शुंग काल, कुशाण काल, गुप्त काल और राजपूतों, मध्यकालीन बादशाहों और मुग़लों के दौरान अनेक सभ्यताओं का उत्थान और पतन देखा है। इस स्थान से प्राप्त सामग्री से यह भी पता लगता है कि दिल्ली क्षेत्र में मौर्य काल के दौरान, अर्थात ईसा पूर्व २७३-२३६ में अच्छी बसावट थी। १९६६ में श्रीनिवासपुरी में मौर्य काल का अशोक का शिलालेख मिला। इससे सिद्ध होता है कि मौर्य काल में भी दिल्ली क्षेत्र व्यापारियों के आवागमन और लोगों के निवास का महत्वपूर्ण केन्द्र था। अशोक के शिलालेख मुख्य रूप से प्रमुख बस्तियों और व्यापारिक मार्गों में लगाये जाते थे। अबुल फ़ज़ल सहित अनेक मुसलमान इतिहासकारों ने अपनी रचनाओं में इन्द्रप्रस्थ को मान्यता प्रदान की है। भगवत पुराण के अनुसार अर्जुन के वंशजों ने कई पीढ़ियों तक इस क्षेत्र में राज किया था।
दिल्ली की स्थापना के सम्बन्ध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। एक किंवदन्ती के अनुसार कन्नौज के राजा देलू के एक सरदार स्वरूप दत्त ने पाण्डवों के वंशजों से यह क्षेत्र छीन कर वर्तमान क़ुतुब और तुग़लक़ाबाद के मध्य के क्षेत्र का नाम अपने राजा के नाम पर देलू रखा। फिरिश्ता के अनुसार दिल्ली की स्थापना ईसा से ४०० वर्ष पूर्व इन्द्रप्रस्थ नामक स्थान पर की गयी। यह भी कहा जाता है कि मौर्य राजा धिल्लू के नाम पर इस क्षेत्र का नाम धिल्लू रखा गया जो बाद में दिल्लू और फिर दिल्ली हो गया, कुछ लोगों का कहना है कि फ़ारसी शब्द दहलीज़ के नाम पर देहली नाम रखा गया जो आगे चल कर दिल्ली हो गया। दहलीज़ का अर्थ सीमा होता है। मुसलमानों के लिए दिल्ली सीमान्त क्षेत्र था।
कनिंघम के अनुसार इस क्षेत्र के लिए दिल्ली नाम पहली बार विक्रमादित्य के ज़माने में इस्तेमाल किया गया। विक्रमादित्य ईसा से ५७ वर्ष पूर्व कन्नौज के राजा थे। दिल्ली की स्थापना तोमर नरेशों ने सन ७३६ में की। उन्होंने इसका नाम दिल्ली रखा, क्योंकि इस क्षेत्र की ज़मीन पोली थी और यहाँ सरदारों के तम्बुओं की कीलें ज़मीन के मुलायम और पोली होने के कारण निकल जाती थीं। इस सम्बन्ध में एक लोकोक्ति प्रचलित है :
कीली तो ढीली भई
तोमर भया मतिहीन
क्या कीली से तात्पर्य क़ुतुब के समीप स्थित लौह स्तम्भ से है? कहा जाता है कि यह लौह स्तम्भ पहले इन्द्रप्रस्थ में था। इसे तोमरों ने प्राचीन विष्णु मन्दिर के समीप लगवाया। पण्डितों की सलाह के अनुसार इसे इस प्रकार लगवाया गया कि इसका निचला हिस्सा वासुकी नाग के ऊपर स्थित रहे। पण्डितों का कहना था कि जब तक लौह स्तम्भ वासुकी नाग के ऊपर रहेगा तोमर राजवंश का शासन स्थायी रहेगा। लेकिन राजा को विश्वास नहीं हुआ। उसने लौह स्तम्भ खुदवा कर देखना चाहा। जब लौह स्तम्भ खोद कर देखा गया तो उसके निचले हिस्से पर रक्त लगा था। लौह स्तम्भ पुन: वासुकी नाग के ऊपर बिठाने की चेष्टा की गयी। इस बीच वासुकी नाग आगे बढ़ गया और तोमर राजवंश अस्थिर हो गया। अधिकांश विद्वान इस गाथा को कपोल कल्पित मानते हैं।
लौह स्तम्भ कब लगाया गया इस विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं। अधिकांश का मत है कि इसे चौथी-पाँचवीं शताब्दी में लगाया गया। इसके सिर पर गरुड़ की आकृति बनी हुई थी। गरुड़ भगवान विष्णु का वाहन है। स्तम्भ में उत्कीर्ण लेख के अनुसार चन्द्र नरेश ने अनेक स्थानों पर विजय प्राप्त करने के बाद विष्णु भगवान के ध्वज दण्ड के रूप में सन ३१७-४१७ के दौरान इसकी स्थापना की। इसकी लम्बाई आधार पर २३ फ़ुट ८ इंच और शिखर पर १२ इंच है। इसके शिखर पर एक उल्टा कमल बना हुआ है। इसका व़जन छह टन से अधिक होगा। कुछ लोगों का मत है कि यह स्तम्भ बिहार में बनाया गया और वहाँ से यहाँ लाया गया। यह ढलवाँ लोहे का नहीं, पिटवाँ लोहे का है। पिटवाँ लोहे के कई खण्ड तैयार करके उन्हें जोड़ दिया गया।
यह स्तम्भ तत्कालीन भारतीयों के धातुओं के ज्ञान और वैज्ञानिक उपलब्धियों का परिचायक है। यूरोप के देश दो-ढाई सौ वर्ष पूर्व तक इस तरह का लोहा तैयार नहीं कर सकते थे। लगभग १६०० वर्षों से यह स्तम्भ गर्मी, बारिश, तूफ़ानी हवाओं और सर्दी का सामना करता रहा है और इस पर मौसम का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है, कोई ज़ंग नहीं लगा है। नादिर शाह ने तोप के गोले छोड़ कर इसे ध्वस्त करना चाहा लेकिन उन गोलों का इस पर कोई असर नहीं हुआ।
ऐतिहासिक दृष्टि से दिल्ली का इतिहास अनंगपाल द्वारा इस क्षेत्र पर अधिकार करने से शुरू होता है। उसने गुड़गाँव जिले में अरावली की पहाड़ियों पर अपनी राजधानी अनंगपुर बनायी। पर्सिवल स्पियर के अनुसार उसने १०२० में तुग़लक़ाबाद से तीन मील दूर सूरज कुण्ड का निर्माण कराया। सूरज कुण्ड एक घाटी के सिरे पर है। अनंगपाल ने सम्भवत: इस स्थान का चुनाव मुसलमानों के आक्रमण से रक्षा के लिए किया था। सूरज कुण्ड में अब प्रतिवर्ष फ़रवरी में हस्तशिल्प मेला लगता है। इसमें सभी राज्यों के हस्तशिल्पी और कुछ विदेशी भी भाग लेते हैं।
एक अन्य वर्णन के अनुसार मुहम्मद शहाबुद्दीन ग़ोरी ने ११९१ में पृथ्वीराज चौहान को पराजित कर दिल्ली पर अधिकार किया। कुछ हिन्दू इतिहासकारों के अनुसार पृथ्वीराज ने इससे पहले मुहम्मद ग़ोरी को सात बार पराजित किया था और आठवीं बार पराजित हो कर बन्दी बना कर उसे ग़ोर ले जाया गया। पृथ्वीराज के साथ उसके राजकवि चन्द बरदाई को भी ग़ोर ले जाया गया। ग़ोर पहुँच कर चन्द बरदाई ने सुल्तान मुहम्मद ग़ोरी को अपनी कविताओं और लतीफ़ों से प्रसन्न कर दिया।
चन्द बरदाई ने सुल्तान से पृथ्वीराज के शब्दभेदी बाण चलाने की चर्चा की। जब सुल्तान ने इस पर विश्वास करने से इनकार किया तो चन्द बरदाई ने सुल्तान से कहा कि पृथ्वीराज को ऐसा बाण चलाने का आदेश दिया जाये जिससे सत्य-असत्य का पता चल जायेगा। सुल्तान ने पृथ्वीराज से अपने शब्दभेदी बाण का करतब दिखाने को कहा। जब सभी तैयारियाँ हो गयीं और पृथ्वीराज ने धनुष पर बाण चढ़ा लिया, सुल्तान ने उसे बाण चलाने का हुक्म दिया। चन्द बरदाई ने कहा,
‘‘चार बाँस चौबीस गज़ अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चौहान।।’’
यह सुन कर पृथ्वीराज ने निशाना साधा और बाण छोड़ा। बाण जा कर मुहम्मद ग़ोरी को लगा और वह कटे पेड़ की तरह गिर पड़ा। इसके बाद सुल्तान के सैनिकों ने पृथ्वीराज और चन्द बरदाई की हत्या कर दी। पृथ्वीराज ने पराजय का बदला ले लिया।
अकबर के दरबारी इतिहास लेखक अबुल फ़ज़ल ने हिन्दू इतिहासकारों के हवाले से इस घटना का वर्णन किया है। अनेक इतिहासकारों के अनुसार इस कथा में कोई सच्चाई नहीं है। पृथ्वीराज तरायन के युद्ध (११९२) में बन्दी बनाया गया और मुहम्मद ग़ोरी के हाथों मारा गया। दिल्ली पर अधिकार करने के बाद मुहम्मद ग़ोरी ने राय पिथौरा के क़िले में स्थित मन्दिर को तोड़ कर वहाँ मस्जिद बनवायी। इसी के साथ देश में मन्दिरों को तोड़ने और देव मूर्तियों को मस्जिदों के रास्तों और सीढ़ियों में दबाने का सिलसिला शुरू हुआ।
दिल्ली पर अधिकार करने के बाद इसे आक्रमणकारी सेना का मुख्यालय बना दिया गया। पृथ्वीराज को हटा कर ग़ोरी ने कन्नौज पर हमला किया। इटावा के पास चाँदवाड़ की लड़ाई में जयचन्द मारा गया। कन्नौज और बनारस पूरी तरह लूटे गये। लूट-पाट, आगज़नी, औरतों का अपहरण और लोगों को ग़ुलाम बनाने का कार्यक्रम अबाध गति से चलता रहा। नि:सन्देह इस दौरान एक-दो उदार शासक भी हुए, जिन्होंने हिन्दू प्रजा के साथ मानवता का व्यवहार किया, लेकिन अधिकांश शासक कट्टरपन्थी, उग्र और जिहादी विचारों के थे। लगभग समूचा देश मुसलमान सेना के क़ब्ज़े में था और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सभी स्थानों पर सैनिक छावनियाँ थीं।
मुहम्मद शहाबुद्दीन ग़ोरी अपने ग़ुलाम प्रतिनिधि क़ुतुबुद्दीन को शासन सौंप कर ग़ोर लौट गया। क़ुतुबुद्दीन ने १२०६ में स्वयं को दिल्ली का सुल्तान घोषित किया। वह भारत में तुर्क इस्लामी राज्य का संस्थापक था। उसने दिल्ली में अनेक इमारतें बनवायीं। उसने महरौली क्षेत्र में २७ हिन्दू, जैन मन्दिरों को गिरा कर उनके मलबे से क़ुतुब मीनार और क़ुव्वत-उल-इस्लाम (इस्लाम की शक्ति) मस्जिद बनवायी। यह बात मस्जिद में लगी पट्टिका में स्पष्ट रूप से कही गयी है। इस मस्जिद का निर्माण इस क्षेत्र में स्थित एक प्रमुख मन्दिर को गिरा कर किया गया। मन्दिर को गिराने के बाद पश्चिम दिशा में मेहराबयुक्त एक दीवार बना दी गयी। मन्दिरों के मलबे का उपयोग मस्जिद और क़ुतुब मीनार के निर्माण में उदारता से किया गया।
क़ुतुबुद्दीन और उसके बाद के सुल्तानों ने दिल्ली को सल्तनत की राजधानी बनाया। उसे क़िले, महलों, मस्जिदों और बाज़ारों से सजाया। दिल्ली के सुल्तानों ने धीरे-धीरे दक्षिण भारत के कुछ भाग को छोड़ शेष सम्पूर्ण भारत पर अधिकार कर लिया। उनका साम्राज्य गुप्त और हर्ष की तरह विशाल था। इस कारण राजधानी दिल्ली का तेज़ी से विकास हुआ। इन सुल्तानों ने ३२० वर्षों के भीतर दिल्ली क्षेत्र में सात नगरों की स्थापना की।
उस काल के सुल्तानों का मानना था कि दिल्ली की सल्तनत इस्लामी राज्य है। उनका मानना था कि सभी ग़ैर-मुसलमान राज्य के दुश्मन हैं, इसलिए राज्य के हित में है कि उन्हें नियन्त्रण में रखा जाये। हनफ़ी विचारधारा के अनुसार राज्य को ग़ैर-मुसलमानों की संख्या और शक्ति को कम करने के उपाय करने चाहिए। उनको सुरक्षा प्रदान करने के एवज़ में उन पर जज़िया लगाया जाना चाहिए। इस्लाम ने सामाजिक क्षेत्र में समानता का जो बेहतरीन सिद्धान्त प्रतिपादित किया था उससे हिन्दुओं को अलग रखा गया।
ज़ख़ीरात-उल-मुल्क के लेखक शेख़ हमदानी के अनुसार किसी मुसलमान शासक के संरक्षण में रहने वाले ग़ैर-मुसलमानों के लिए निम्नलिखित नियमों का पालन करना ज़रूरी था : वे नये मन्दिर नहीं बना सकते थे। वे पुराने मन्दिरों की मरम्मत नहीं कर सकते थे। वे मुसलमान यात्रियों को मन्दिर में विश्राम करने से नहीं रोक सकते थे। हिन्दू न तो जासूस बन सकते थे और न जासूसों की सहायता कर सकते थे। अगर कोई मुसलमान बनना चाहता तो उसे ज़िम्मी (हिन्दू) नहीं रोकेंगे। अगर ज़िम्मियों की कोई बैठक हो रही है और कोई मुसलमान उसमें भाग लेना चाहता है तो उसे रोका नहीं जायेगा। ज़िम्मी मुसलमानों जैसे कपड़े नहीं पहनेंगे। ज़िम्मी घोड़े पर नहीं चढ़ेंगे और तीर-कमान ले कर नहीं चलेंगे। वे मुहर वाली अँगूठी नहीं पहनेंगे और अपनी पहचान प्रकट करने वाला कपड़ा पहनेंगे। ज़िम्मी मुसलमानों के पड़ोस में मकान नहीं बनायेंगे और मुसलमान ग़ुलाम नहीं ख़रीदेंगे।
मुहम्मद तुग़लक़ और फ़ीरोज़ तुग़लक़ अपेक्षाकृत उदार शासक समझे जाते थे। लेकिन जब चीन के सम्राट ने मुहम्मद