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Daan Dene Ki Kala
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Ebook164 pages1 hour

Daan Dene Ki Kala

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About this ebook


A book about how to donate money or fund causes and people in need In The Art of Effective Giving, R.M. Lala, director of the Sir Dorabji Tata Trust for eighteen years, shows how the choice  to give enriched the lives of leading businessmen who practised philanthropy with the same passion that they showed as entrepreneurs. These pacesetters can serve as examples for us to follow in our own small ways, for compassion is greater than wealth and learning to care is all that is necessary to making a difference. The Art of Effective Giving is about spreading the circle of people willing to reach out to others - for the sheer joy of giving.
LanguageEnglish
PublisherHarperHindi
Release dateDec 1, 2013
ISBN9789350298749
Daan Dene Ki Kala
Author

R. M. Lala

R.M. Lala is the author of eleven books, including the bestselling The Creation of Wealth, a book on the Tatas, and the Beyond the Last Blue Mountain, his biography of J.R.D. Tata. He became a journalist at the age of nineteen and entered book publishing in 1951, establishing and managing the UK division of Asia Publishing House, the first Indian publisher to be established in London. In 1964 he became co-founder of the newsmagazine Himmat Weekly, which he edited for the next decade. He was director of the Sir Dorabji Tata Trust, Tata's premier charitable foundation, for eighteen years. He is also co-founder of the centre for the Advancement of Philanthropy and was its chairman from 1993 to 2008. His books have been translated into various languages, including the Japanese.

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    Daan Dene Ki Kala - R. M. Lala

    आभार

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    मेरे दोस्तों ने बड़ी और छोटी चीज़ें भेजीं जिनका मैंने इस किताब में उपयोग किया है। उनमें से शामिल हैं—डॉ० एम०एस० स्वामीनाथन, डॉ० आर०के० आनन्द, मि० रौनक सुतारिया और मि० नौशिर दादरावाला।

    मैं मिसेज़ विल्लु करकेरिया का बहुत आभारी हूँ जिन्होंने मेरे साथ पच्चिस वर्षों से भी अधिक समय तक काम किया। उनकी इस किताब में रुचि और विश्वास ने मुझे इस किताब को पूरा करने के लिए बहुत प्रोत्साहित किया।

    भूमिका

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    भारतीय व्यापार में लोकोपकार की परम्परा काफ़ी बहुमूल्य है किन्तु इस किताब का विषय ‘सफल दान’ आजकल की उन्नति है। लोकोपकार का यह रूप 19वीं सदी के उत्तरार्ध में आया जब एन्ड्रयू कारनेगी और जमशेदजी टाटा जैसे व्यापरियों ने अपनी विशाल सम्पत्ति को ट्रस्ट में डालने का निर्णय लिया। ये आधुनिक उद्योग द्वारा उत्पादित पैसे थे। इन ट्रस्ट और संस्था का मकसद समाज के चुनौतीपूर्ण समस्याओं का समाधान करना था जिसके बारे में छोटे स्तर के संस्थान सोच भी नहीं सकते।

    रुस्सी लाला की पुस्तकें छोटी होती हैं लेकिन इनकी हर किताब की तरह ये भी बहुत दिलचस्प है। वे दान देने के उद्भव और विकास को लेकर लिखते हुए उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ सर दोराबजी ट्रस्ट के प्रमुख के रूप में अपने अनुभवों को भी आधार बनाते हैं। विशेषकर तब जब वे जे०आर०डी० टाटा और अज़ीम प्रेमजी जैसे सहिष्णु व्यावसायिक व्यक्तित्वों के बारे में लिखते हैं जिनको वे व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं।

    उचित ही है कि इस किताब के व्यक्तित्व वाले खण्ड की शुरुआत एक समकालीन संस्था ‘द बिल एण्ड मेलिण्डा गेट्स फाउण्डेशन’ की कहानी से हुई है। बिल गेट्स और वॉरेन बफ़ेट द्वारा शुरू की गई यह संस्था विश्व की सबसे धनी निजी संस्था है। जिसका मकसद है सुविधाहीन लोगों में फैले बीमारियों जैसे मलेरिया, टी०बी० को विश्वव्यापी रूप से हटाने की कोशिश करना, क्योंकि ‘हर जीवन की कीमत समान है।’

    रुस्सी ने इस बात को सामने लाने का काम किया है कि उन सभी व्यवसायिक व्यक्तित्वों ने उसी ऊर्जा और सोच के साथ रचनात्मक फ़िलॉसफी का अभ्यास किया है जैसा कि उन्होंने अपने व्यापार में किया था। इनका मकसद केवल अपार सम्पत्ति जमा करना नहीं बल्कि उनका उपयोग समाज के लिए करना है। इस सन्देश को दुनिया के सारे धनवानों में फैलाना ज़रूरी है। ताकि वो इसे अपनायें। ख़ासकर इस समय सारी दुनिया में असमानता के बढ़ने के कारण पूँजीपति और पूँजीवाद निम्न स्तर पर है।

    रुस्सी कहते हैं इस किताब का उद्देश्य उन लोगों को प्रेरित करना है जो कारनेगी, जमशेदजी टाटा और उनके पुत्र की तरह धनवान हैं।

    मुझे आशा है कि इस पुस्तक को बहुत सारे पाठक मिलेंगे।

    अक्टूबर, 2011

    रतन० एन० टाटा

    आमुख

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    इन्सान की सम्पत्ति का कोई मतलब नहीं

    अगर उसे बाँटा और उपयोग में नहीं

    लाया जाय।

    —ऋग्वेद

    जीवन में किसी-न-किसी चरण पर लगभग सभी ने दान करके खुशी का अनुभव किया है। पैसे देकर या किसी और तरीके से मदद करके या अपने आप को ज़रूरतमन्द को सौंपकर, उनकी बातें सुनना या उनके समस्या के समाधान में उनकी मदद करना। इसकी उत्पत्ति ग्रीक शब्द फिल-एन्थ्रा-पी से हुई जिसका मतलब है ‘सभी का प्यार’। यह फिलॉनथ्रापी (लोकोपकार) का मूल है। लोकोपकार की मौलिक परिभाषा में सम्पत्ति का कोई ज़िक्र नहीं था। लेकिन कुछ समय बाद लोगों ने इन दो शब्दों (लोकोपकार और सम्पत्ति) को एक दूसरे से जोड़ दिया। लोगों को अहसास हुआ कि जहाँ प्यार प्रबल होता है वहाँ सम्पत्ति महान उद्देश्य को ग्रहण करता है।

    कुछ राष्ट्रों में लोकोपकार की भावना जन्म से ही होती है। जैसे—भारत। यहाँ यह हमारी सभ्यता का हिस्सा है। यहाँ के हर धर्म में यह किसी-न-किसी रूप में मौजूद है। हिन्दू धर्म में यह दान के रूप में है। जैसे—मन्दिर में दान देना, ब्राह्मणों को खिलाना, अनाथ को दान देना, इत्यादि। पारसियों में भी दान अनिवार्य है। लोग जगह-जगह मुसाफ़िरों के लिए कुएँ खुदवाते हैं, ठहरने की जगह बनवाते हैं, प्यासे जानवरों को पानी देते हैं। बिना फल की चिन्ता किए दान करना बौद्ध धर्म का सिद्धान्त है। मुसलमानों में यह ज़कात के रूप में है अपनी कमाई का कुछ हिस्सा परोपकार में दे देना। इसी तरह यहूदी और ईसाइयों में तर्थिे की धारणा है—अपनी कमाई का दसवाँ भाग परोपकार में दे देना। सिक्खों में सीधे सेवा की रीति है। गुरुद्वारे में लंगर इसका एक उदाहरण है। जैन परोपकार के लिए काफ़ी प्रसिद्ध हैं जिसमें जानवरों की देखभाल भी शामिल है। जैन गुरुओं ने दान देने वालों के लिए प्रमुख बातें बनाई हैं :

    1. चाह की कमी

    2. गुस्से की कमी

    3. चाल की कमी

    4. जलन की कमी

    5. पछतावा की कमी या अफसोस की कमी

    6. प्रसन्नता की कमी

    7. अंहकार की कमी

    ये 7 बातें दान करने को प्रेरित करती हैं।

    अपने जापान दौरे में एक जापानी महिला से मैं यह सुनकर चकित रह गया कि उनमें लोकोपकार की कोई भावना नहीं थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीकियों से उन्हें यह धारणा मिली। मैं फोर्ड फाउण्डेशन का शुक्रगुज़ार हूँ जिसने मुझे और कुछ औरों को लोकोपकार पर अध्ययन के लिए दक्षिण पूर्वी एशिया और जापान भेजा।

    आधुनिक लोकोपकारिक संस्था का प्रारम्भ अमेरिका के शक्तिशाली उद्योगपतियों की सम्पत्ति से हुआ। जैसे एन्ड्रयू कारनेगी और जॉन डी० रॉकेफेलर, एक स्टील उद्योग के सम्राट और दूसरे तेल के।

    जब ब्रिटेन के पास दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक शक्ति थी उस समय एन्ड्रयू कारनेगी का साम्राज्य, ग्रेट ब्रिटेन से ज़्यादा स्टील उत्पादन कर रहा था। जब जे०पी० मॉरगेन ने कारनेगी के साम्राज्य को ख़रीदने का प्रस्ताव स्वीकार किया, मॉरगन ने लिखा—बधाई हो मिस्टर कारनेगी, अब आप दुनिया के सबसे बड़े आदमी है। यह समय संयुक्त राज्य अमेरिका की उन्नति का था। सारे महाद्वीपों में स्टील रेल लगाये जा रहे थे और पुल और जहाज लकड़ी से स्टील में बदले जा रहे थे।

    भारत में एन्ड्रयू कारनेगी के समकालीन व्यक्ति थे जमशेदजी टाटा। हालाँकि उनकी सम्पत्ति का कारनेगी की सम्पत्ति से कोई मुकाबला नहीं था, लेकिन दूरदर्शिता और परोपकारिता में उनका स्थान दूसरा था। 50 साल की उम्र में, दो सफल कपड़ा मिलों के मालिक ने निर्णय लिया कि

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