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ओमंगायाम: The Ultimate Law of Abundance, #1
ओमंगायाम: The Ultimate Law of Abundance, #1
ओमंगायाम: The Ultimate Law of Abundance, #1
Ebook226 pages2 hours

ओमंगायाम: The Ultimate Law of Abundance, #1

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About this ebook

हम सबका जीवन स्वस्थ हो, संम्पन्न हो, समृद्ध हो, सुखी हो, इसी उद्देश्य के साथ इस लेख की रचना की गयी है; जो न तो मन की धारणाओं पर आधारित है, ना ही इसे मोटिवेशन कि मान्यताओं पर संयोजित किया है।  इसे अस्तित्त्व के नियमों को जानकार, अभ्यास करके और अपने अनुभवों को आधारित करते हुए शुद्धतम रूप से रचा गया है। इसकी भूमिका को जानने के लिए ब्रह्माण्ड के इस एक सूत्र को समझना होगा जो हर वस्तु, विषय और तत्त्वों को एक दुसरे से संयुक्त करता है - चेतन तरंगों के आयाम. इन आयामों का आपके जीवन पर गहन प्रभाव पड़ता है क्यूंकि आपकी चेतन तरंगें ही हैं जो तय करतीं हैं कि आपके जीवन की वास्तविकता और आपके भविष्य की संभावनाएं क्या होंगी। इस विधि में तीन मुख्य भावों के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे कि कैसे हमारा ऊर्जा क्षेत्र आंदोलित होता है जो प्रगतिशील भी होता है और दुर्गतिशील भी। बहुत कम लोग हैं जो अपनी शक्तियों का दोहन करने में सक्षम हैं क्यूंकि हमारी शिक्षा का बहुत बड़ा हिस्सा मन आधारित है और मन इतना गतिमान रहता है कि इसके नियंत्रण के सभी उपाय असफल होने तय होते हैं। मन एकदम अधूरी बात है और मन ही है समस्त समस्याओं की जड़ । तो हमने मन के पार भीतरी अस्तित्त्वगत आयामों की चर्चा की है जिनको आसानी से समझकर और अभ्यास करके आप स्वयं अपने ऊर्जा क्षेत्र को अपने उद्देश्य के अनुरूप निर्मित करके एक सफल, स्वस्थ और संम्पन्न जीवन जी सकते हैं। 

LanguageEnglish
Release dateJul 29, 2021
ISBN9789391078522
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    ओमंगायाम - Shankar Sikhar

    Authors Tree Publishing

    KBT MIG -321, Bilaspur, Chhattisgarh 495001

    Published By Authors Tree Publishing 2021

    Copyright © Shankar Sikhar 2021

    All Rights Reserved.

    ISBN: 978-93-91078-52-2

    MRP: Rs. 399/-

    This book has been published with all reasonable efforts taken to make the material error-free after the consent of the author. No part of this book shall be used, reproduced in any manner whatsoever without written permission from the author, except in the case of brief quotations embodied in critical articles and reviews. The author of this book is solely responsible and liable for its content including but not limited to the views, representations, descriptions, state-ments, information, opinions and references [content]. The content of this book shall not constitute or be construed or deemed to reflect the opinion or expression of the publisher or editor. Neither the publisher nor editor endorse or approve the content of this book or guarantee the reliability, accuracy or completeness of the content published herein and do not make any representations or warranties of any kind, express or implied, including but not limited to the implied warranties of merchantability, fitness for a particular purpose. the publisher and editor shall not be liable whatsoever for any errors, omissions, whether such errors or omissions result from negligence, accident, or any other cause or claims for loss or damages of any kind, including without limitation, indirect or consequential loss or damage arising out of use, inability to use, or about the reliability, accuracy or sufficiency of the information contained in this book.

    ओमंगायाम

    ((सर्व-संम्पन्नता का आयाम) की रचना के लिए प्रेम व अहोभाव)

    (The Ultimate Law of Abundance)

    ––––––––

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    शंकर शिखर

    (अ)

    ओमंगायाम

    (सर्व-संम्पन्नता का आयाम

    की रचना के लिए प्रेम व अहोभाव) 

    (The Ultimate Law of Abundance):

    इस किताब की रचना अचानक से तब हुई; जब मेरी निजी जिंदगी में समस्याओं का अंबार लगा हुआ था, सब कुछ बिखरा हुआ था और हर पल चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ। आर्थिक समस्या हो या अध्यात्मिक, स्वास्थ्य की हो या रिश्तों की; सब कुछ बिखरा-बिखरा लगने लगा । मन बहुत परेशान हो गया । सारे के सारे रास्ते बंद, मानो बाधाओं ने संकल्प कर लिया हो कि इसे छोड़ेंगे नहीं। अजीब सी उलझन और वर्षों का योगाभ्यास और सकारात्मक बने रहने का अभ्यास, ऐसा लगा जैसे इस छोटे से तूफ़ान में धराशायी हो गया। एकदम अकेला रह गया। हालाँकि मैं तब भी लोगों की मदद कर रहा था और लोगों को बहुत फायदा भी हो रहा था; मगर मैं टूटा हुआ, बिखरा हुआ महसूस कर रहा था। यहाँ पर एक बात साफ़ कर दूँ कि मैं कुछ नहीं कर रहा था, मेरे द्वारा हो रहा था, जो भी होना था। मैं तो समस्याओं से घिरा था तो कैसे किसी को संभाल सकता था ? मगर किसी शक्ति ने मुझे संभाला था; जो मुझे आज समझ आता है कि एकदम निम्न स्वास्थ्य के स्तर में भी कैसे मैं, स्थित हो पाया! मैंने इस दौरान अपनी समस्याओं से भागने के वजाय इसे ध्यान से देखने का अभ्यास किया । मैं बस, देखता रहा और देखता ही रहा । मैंने भीतर से उठती पीड़ा को देखा, भावनाओं को देखा, बदलती मनस्थिति को देखा; जो एक पल में एक तो अगले ही पल में दूसरी और फिर तीसरी...चौथी.....और अनन्त विचारों की भीड़ । इसे देखने के अभ्यास से मैं देख पाया कि समस्या की जड़ें हैं कहाँ! ये पनपती कैसे हैं! इनको अंकुरित होने के लिए शक्ति आती कहाँ से है!

    मेरे पास अब तक हज़ारों लोगों के रेफरेन्सेस हैं, जिनको मैं हील होने में, समस्याओं को सुलझाने में मदद कर पाया हूँ । और सबसे बड़ी बात कि मैं खुद भी बहुत सी समस्याओं से गुजरा हूँ । मैं खुद के लिए सबसे बड़ा रिफरेन्स हूँ । मैं इसीलिये परमायाम का अहोभागी हूँ कि मुझे इतने अनुभव दिए । एक-एक अनुभव मेरे लिए आज बेशकीमती है । हालाँकि जब यह समस्या आती है तो मनस्थिति और परिस्थिति दोनों असहनीय लगतीं हैं, मगर वक़्त की गहराई में देखने के बाद लगता है कि इन्हीं की वजह से मैं सक्षम हो पाता हूँ;- किसी की समस्याओं को समझने में और सुलझाने की कला सीखने में । ये चुनौतियाँ मेरे लिए असेस्ट्स हैं, मेरे लिए बैंक बैलेंस की तरह हैं । इस रचना में आप समझ पाएंगे कि आधुनिकता के विकास में कैसी-कैसी चुनौतियां आती हैं और इनको पनपने के मुख्य वजह क्या हैं । तनाव को, स्वास्थ्य को, समृद्धि को, सुख को, शांति को आसानी से कैसे मैनेज किया जा सकता है ! 

    इस रचना को एक वाक्य में समझना हो तो, इसे सत्यम, शिवम और सुंदरम की परिभाषा से समझना होगा । सत्यम का सबसे मौलिक सार है; अस्तित्व या परमायाम के नियम को अंगीकार करना और उसी नियम के अनुरूप जीवन जीना । यह नियम है कि परमायाम, प्राणमय है और मंगलकारी है । इस एक ही नियम को साध लिया तो फिर ( शिवम् ) और तीसरे ( सुंदरम ) गुण अपने आप सध जाते हैं । यानि कि एक तिहाई आपके प्रयास और दो तिहाई परमायाम का प्रसाद । अगर आपकी जीवन दृष्टि और उद्देश्य मंगलमय हो जाये तो फिर आप अनुभव कर पाएंगे कि आपके दुख और पीड़ाएं कैसे विदा हो गए ! आप कैसे प्राणों से परिपूर्ण हो गए । कैसे आपकी बाधाएं दूर हो गयीं और उस परमायाम का सहयोग मिलने लगा । आप अपनी क्षमता के अनुरूप कैसे संम्पन्न हो गए! अगर आप स्वयं के अस्तित्व का सम्यक उपयोग और परमायाम के सहयोग की कला सीख गए तो फिर आप सफल हैं, संम्पन्न हैं, स्वस्थ हैं और स्वतंत्र हैं ।   

    यही संम्पन्नता का सबसे अचूक और कारगर सिद्धांत है। 

    मेरे समस्त सहयोगिओं को मेरा हार्दिक अभिनन्दन और अहोभाव जिन्होंने इस रचना को सफलता पूर्वक रचित करने में अपना अमोल योगदान दिया । विरोधियों के प्रति कहीं ज्यादा कृतज्ञता का भाव और अहोभाव । मेरे माता पिता, मेरे परिवार का सहयोग और मेरे परम प्यारे ओशो, सद्गुरु सिद्धार्थ औलिया जी, स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती जी, माँ प्रिया, आदियोगी भगवान शिव और समस्त सम्बुद्धुओं को कोटि कोटि चरण वंदन।       

    "आप सभी को मैं, अपना जीवन और इसके अनुभव समर्पित करता हूँ, इसे स्वीकार करें।             

    "चित्त हो जाए अगर बागी,

    तो समझो चेतना जागी"

    जागरण ही एकमात्र उपाय है;- अपनी दिशा व दशा को रूपांतरित करने का।

    (ब)

    ओमंगायाम की विधि में!

    प्राणाकर्षण, द लॉ ऑफ चीट्रैक्शन  एक ऐसा सिद्धांत है, जो जीवन रूपांतरण की विधियों में जीवन रूपांतरण की, महा क्रांतिकारी चिंगारी प्रज्वलित कर सकता है । प्राणाकर्षण आपको, आपके स्रोत से जोड़ता है । और यह श्रोत अस्तित्व की विराटता में निहित है । आप प्राणाकर्षण की सक्रियता में, अस्तित्व की हारमनी से संयुक्त हो जाते है । प्राणाकर्षण की स्थिति सक्रिय होते ही, हम अस्तित्व के ममत्व से जुड़ जाते हैं । फिर एक माँ की तरह अस्तित्व की ममता, हमारी परवाह करती है । इस स्थिति में सब कुछ स्वतः घटने लगता है; बिना हमारे सक्रिय प्रयास के ही ।   

    यह वैसा नहीं है जैसा कि हम व्यापार की भाषा में सोचते हैं कि, हमें मिलेगा, हम आकर्षित करेंगे, हमारी झोली भरेगी और हमारे अभाव छटेंगे । यह पाने की जो हमारी भाव दशा है; वही एक मायने में सबसे बड़ी बाधा है । अस्तित्व का एक नियम है कि; जब भी खालीपन हो, शून्य की स्थिति हो तो, उसे अस्तित्व अपनी विराट मौजूदगी से भर देता है । अस्तित्व का भराव, गणित का भराव नहीं। यह तो दिव्यता का भराव है । और जो इस भराव का स्वाद जानते हैं, वे फिर कभी असंतोष में नहीं जीते और असंतोष ही एक ऐसा तत्व है; जो भीतर तनाव व चालाकी के आयामों को जन्म देता है । असन्तोष एक ऐसा तत्व है जो, भीतर एक हलचल बनाये रखता है। भीतर की इसी उथल-पुथल से एक खिंचाव, एक तनाव का जन्म होता है । यह तनाव फिर और नकरात्मक तत्वों की वजह बनता है; जो मिलकर एक जाल बना देते हैं, जिनका परिणाम भी नकारात्मक ही होता है ।     

    हमारी संभावना एक उस तालाब की तरह है; जो खुला है भरने के लिए । एक मनुष्य होने के नाते हमारी चेतना उस तालाब से कहीं श्रेष्ठ है; जो किसी भी गुणवत्ता के पानी को भराव दे देता है । मनुष्य का जन्म, श्रेष्ठतम जीवन के पहलुओं को चुनने के लिये बना है । यह सौभाग्य है मनुष्य का, कि वह श्रेष्ठ को उपलब्ध हो सके । लेकिन दुर्भाग्य भी है साथ में कि, मनुष्य मन के तल से इतना गहरा तादात्म बैठा सकता है कि, वह भूल ही जाए- अपनी क्षमताओं को, अपनी अपार संभावनाओ को । बदकिस्मती से ज्यादातर लोग दुर्भाग्य की तपिश में ही, पूरा जीवन व्यर्थ कर देते हैं; औऱ ऐसी ही अवस्था मे विदा भी हो जाते हैं । 

    बहुत कम लोग जन्मते हैं इस पृथ्वी पर; जो अपने जीवन को सौभाग्यशाली स्थिति दे पाते हैं । कृष्ण, महावीर, बुद्ध, पतंजलि, गोरख, कबीर, नानक, मीरा,ओशो जैसे कुछ नाम हैं, जो गौरवमय ढंग से जीवन को सौभाग्यशाली रंगों से भर सके । आज हम एक ऐसे दौर में हैं, जहां एक बेहतरीन संगम है; आध्यात्म के आयामों की अनगिनत झरने और विज्ञान के तल की गहरी समझ । यह एक मौका बन सकता है, अगर हम अपने भीतर प्रज्ञा का दिया जला सकें; और थोड़े से प्रयास से ही, इस जीवन को बेहतरीन आयाम दे सकते हैं । दोनों के सन्तुलन; यानि कि बाहर के फैलाव को और भीतर की गहराई को अगर, साध लिया जाए समझदारी से तो, फिर आज अध्यात्म जितना सरल और सुगम है; उतना पहले कभी नहीं रहा, तो इस मौके को चूकना नहीं। इसे अपना मकसद बना लेना कि, जीवन को सौभाग्यशाली आयाम देकर ही रहेंगे । ऐसी समग्र संकल्पना से, थोड़े से ही प्रयास से, आप प्राणाकर्षण की स्थिति को उपलब्ध हो जाएंगे और फिर प्राणाकर्षण आपके लिए सौभाग्य के सभी द्वार खोल देगा । प्राणाकर्षण की विधि जड़ों से जुड़ने की कला है । जहां से जुड़ने भर से ही आप स्वत:, प्राणों को ग्रहण करने लगते हैं । प्राणों को खींचा नहीं जा सकता- जोर जबरदस्ती । प्राणों को सहजता व सम्यकता से, अपने से जोड़ा जा सकता है । प्राणों के प्रति हमारी मूर्छा और हमारा अज्ञान , एक इंसुलेटेड कवरिंग का काम करता है, जो विधुत की तरह ही प्राणों के प्रवाह में बाधा बनता है । यह अज्ञानता बेहोशी में, विचारों में खोये- खोये जीने की अज्ञानता है ।

    बेहोशी का मतलब है- यंत्रवत जीने की प्रवृत्ति, आदतों के वशीभूत जीने की प्रवृत्ति । होश की अवस्था में हम सदैव प्राणों से संयुक्त रहते हैं । और यही संयुक्त स्थिति, योग की स्थिति है । ऐसी स्थिति में जितनी भी दिव्य अनुभूतियां हैं; उन सब अनुभूतियों के द्वार खुल जाते हैं । यानि कि, आपको दिव्यता का अनुभव लेना हो तो; नक्शा एकदम साफ और सटीक है कि, आप अपने चित्त को ऐसे संयोजित करें कि, उसकी विकृतियां क्षीण होकर, वर्तमान के क्षण में स्थित होने के लिए, सहयोग करे । और जैसे ही आप वर्तमान में स्थित हो पाते है, परम स्थिति के सहयोग से, आपकी स्थिति; प्राणाकर्षण की विराटता से परिपूर्ण हो जाती है । ऐसे प्राणाकर्षण से, चित्त स्वयं में स्थित हो जाता है- सहजता से । स्वयं में स्थित चित्त, अस्तित्व के बहाव से, संयोजित हो जाता है और इस अस्तित्वगत हारमनी से; तनाव, अवसाद, भ्रमित अवस्था, बेचैनी और अशांति जैसे, मायावी अनुभव कपूर की तरह वाष्पित होकर, विलीन हो जाते हैं । योग से, प्राणों से योग नहीं

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