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Atank Se Samjhauta
Atank Se Samjhauta
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Ebook789 pages7 hours

Atank Se Samjhauta

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About this ebook

Saffron terrorism.

Is it a fact? Or, is this a myth? After all, do we know enough?

The shocking blasts of Malegaon and Samjhauta were projected as 'saffron terrorism'. A new theory, terrorist attacks were tainted as such till a few years later, Kasab's confession offered solid proof of Pakistan's role in the 26/11 attacks. Though the police had concluded a Pakistani hand for the earlier blasts, it was saffron terrorism which prevented the perpetrators of these attacks from being brought to justice.

As a theory, saffron terrorism is not just hurting Hindus sentiments but is also an obstacle to fight real terrorism sponsored by Pakistan and Islamic states. The term was coined by the erstwhile UPA government to garner minority votes and manipulate the vote bank. After all, why were the Malegaon-accused SIMI activists let off? Why did certain politicians declare not to oppose their bail? What was truly behind Aseemanand's confession? The reliability of these confessions was questionable given the police brutality that the National Investigative Agency exposed.

Journalist Praveen Tiwari explores saffron terrorism and reveals through exclusive interviews of senior National Investigative Agency officials, undercover agents and politicians how vote bank politics can compromise ethics and national security. Should the real masterminds behind the blasts be allowed to go scot-free? Should the manipulators of the Samjhauta Express bombings not be held accountable? Should we not investigate those who had exonerated Pakistan of its guilt? An extensive research on communal politics, the book offers indisputable evidence of the 'saffron terrorism' theory as the Great Indian Conspiracy.
LanguageEnglish
Release dateJul 8, 2019
ISBN9789386643674
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    Atank Se Samjhauta - Dr. Praveen Tiwari

    हैं।

    1. वह शख्स जो सब जानता था

    जासूसों की जासूसी से मुश्किल कोई काम नहीं हो सकता। वह हमेशा संदेह में रहते हैं और उनका विश्वास जीतना एक बहुत ही मुश्किल चुनौती होती है। संदेह आम तौर पर नकारात्मक शब्द के तौर पर इस्तेमाल होता है लेकिन जासूसी की दुनिया में यही सबसे बड़ी ताकत होती है। इसके बाद यदि देश के सबसे बेहतरीन एजेंट्स में से किसी एक खास व्यक्ति तक पहुंचना हो तो चुनौती और बढ़ जाती है। समझौता एक्सप्रेस पर अमेरीकी खुफिया एजेंसियों से हटकर और यूएन की रिपोर्ट से जुदा, भारतीय जांच एजेसियों की रिपोर्ट कुछ और ही कह रही थी। जहां अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां लश्कर और जैश जैसे पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों के बारे में सबूत दे रही थीं वहीं हमारी जांच एजेंसियों की जांच साध्वियों, स्वामियों, हिंदू संगठनों और आश्रमों के इर्द गिर्द घूम रही थी। इस मामले की हकीकत उनसे पता नहीं चल सकती थी जो अपने राजनैतिक फायदे के लिए जांच एजेंसियों का इस्तेमाल कर रहे थे। इसकी तह तक जाने के लिए किसी ऐसे शख्स की जरूरत थी जो न सिर्फ इस मामले को पूरी तरह से जानता हो बल्कि जो इसकी जांच से जमीनी तौर पर जुड़ा भी रहा हो। यह तो साफ था कि एनआईए का कोई तेज तर्रार एजेंट ही इस काम के लिए लगाया गया होगा। एक पत्रकार होने के नाते यह जानकारियां जुटाना बहुत मुश्किल नहीं था तो बहुत आसान भी नहीं था। इस पर कई खोजी पत्रकारों से मिलता रहा और जानकारी जुटाने की कोशिश करता रहा। एनआईए के अपने सूत्रों को खंगालने की कोशिश करता रहा। कुछ लोग मिल भी रहे थे जिन्हें केस की जानकारी तो थी, लेकिन वह उस केस से खुद जुड़े हुए नहीं थे। मैं एक ऐसे शख्स की तलाश में था जो खुद इसकी जांच के दौरान एक एजेंट के तौर पर जुड़ा रहा हो। अपनी इसी तलाश के दौरान मुझे जानकारी मिली एक ऐसे अधिकारी के बारे में जो असीमानंद के आश्रम में साधू बनकर रहा, जो विश्व हिंदू परिषद और बीजेपी के दफ्तर में भी भेष बदलकर रहा था। एक ऐसा अधिकारी जिसे जांच के दौरान किए गए सभी फोन टैपिंग की पूरी पूरी जानकारी थी। एक ऐसा अधिकारी जो साध्वी प्रज्ञा और सुनील जोशी के संबंधों के बारे में खुद जांच पड़ताल कर रहा था। सिर्फ समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट मामला ही नहीं, इससे पहले नॉर्थ ईस्ट, बंगाल और जम्मू कश्मीर में भी वह एनआईए के कई खुफिया मिशन्स को अंजाम दे चुका था। इस सुपर एजेंट ने एक मिशन के दौरान 4 गोलियां लगने के बाद भी खुद को जिंदा बचाए रखा था क्योंकि उसे बहुत ही खुफिया जानकारी अपने अधिकारियों तक पहुंचानी थी। देश की सबसे खुफिया और तैयार जांच एजेंसी के ऐसे सबसे काबिल अफसर तक पहुंचना आसान काम नहीं था। मैंने देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित खोजी पत्रकारों से मेल मुलाकातें की। कुछ मेरे बहुत अच्छे मित्र भी रहे। इन मुलाकातों के दौरान समझौता एक्सप्रेस और उससे जुड़ने वाले हिंदू आतंकवाद के तार सीधे एनआईए की जांच तक ही पहुंचते थे। हांलाकि एनआईए का गठन आतंकी गतिविधियों की जांच के लिए किया गया था और इस एजेंसी ने ऐसी कई बड़ी साजिशों को नाकाम करने में कामयाबी हासिल की है जो हमारे देश को और बुरी तरह दहला सकती थीं। हमें जानकारी सिर्फ उन हमलों की होती है जो हमें जख्म दे जाते हैं लेकिन जो हमले नाकाम कर दिए जाते हैं उनके बारे में हमें जानकारी तक नहीं मिल पाती। एनआईए एक ऐसी एजेंसी है जो इस तरह के हमलों को न सिर्फ नाकाम करती है बल्कि आने वाले समय के लिए ऐसे किसी हमले से निपटने की रणनीति भी तैयार करके देती है। एनआईए में एजेंट्स को बहुत कड़े परीक्षण के बाद रखा जाता है। इनमें भी अंडर कवर एजेंट्स को विशेष योग्यता के बाद ही चयनित किया जाता है। मुझे एक ऐसे अधिकारी की जानकारी मिल चुकी थी जो समझौता एक्सप्रेस धमाकों की जांच अंडर कवर एजेंट के तौर पर कर चुका था। वह इस कहानी के हर किरदार को बहुत नजदीक से जानता था। खुफिया एजेंसी का एक एजेंट वह भी अंडर कवर एजेंट मुझसे इस मसले पर क्यों बात करेगा? यह एक ऐसा सवाल था जो इस मामले की तह तक जाने के लिए सुलझाना बहुत जरूरी था। अंडर कवर एजेंट का संदेह उसके काम की ताकत है और ऐसे में उसका विश्वास हासिल करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। मेरे पास इस पूरे मामले की पड़ताल के लिए पुरानी रिपोर्ट्स और उस दौर के पत्रकारों के अलावा ज्यादा कुछ नहीं था। एक एंकर के तौर पर इस मामले को देखता रहा था। बहुत से डिबेट शोज भी इस पर किए थे लेकिन जमीनी हकीकत किसी को नहीं पता थी। फील्ड पत्रकारों के लिए भी सबसे बड़े सूत्र के तौर पर जांच एजेंसियों में उनकी जान पहचान ही काम आती है। यह संबंध ही उन्हें ब्रेकिंग न्यूज देने में सक्षम बनाते हैं। अंदर की खबर कोई ऐसा ही एजेंट जानता होगा जिसने इस मामले के हर पहलू को बड़े ही नजदीक से देखा हो। इस मामले पर बहुत कुछ मौजूद था लेकिन अंडर कवर एजेंट्स ने कोई कहानी किसी को नहीं सुनाई थी। इस मामले के अहम किरदार राजनैतिक ही थे लेकिन उनकी भूमिकाएं या तो आज तक किसी को पता नहीं या बयानों तक ही सीमित थी। इस जांच के शुरूआती दिनों में ही काफी हद तक तस्वीर साफ हो गई थी लेकिन फिर भी ऐसा लगा कि जांच को जबरदस्ती एक दिशा देने की कोशिश की गई है। क्या यह मामला हिंदू आतंकवाद का प्रोपेगेंडा खड़ा करने की गरज से उठाया गया या फिर इस मामले की वजह से राजनैतिक दलों को भगवा या हिंदू आतंकवाद कहने का मौका मिल गया? यह ऐसे प्रश्न हैं जिन पर बहस बहुत होती है कयास भी जमकर लगाए जाते हैं लेकिन हासिल कुछ नहीं आता। सूत्रों के हवाले से बहुत कुछ कहा और सुना जा चुका था लेकिन मेरे लिए हकीकत जानने की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी एनआईए का यही अंडर कवर एजेंट था। जाहिर सी बात है मेरी उस शख्स से मुलाकात भी हुई और कई अहम जानकारियां भी मिली, यही वजह है कि समझौता ब्लास्ट और हिंदू आतंकवाद के मसले पर यह पुस्तक लिख पाया, लेकिन इन जानकारियों के महत्व को समझने के लिए इन्हें निकलवाने की पूरी प्रक्रिया पर ध्यान देना जरूरी है। अंडर कवर एजेंट अपनी निजी जिंदगी में भी बहुत छिप कर रहते हैं जाहिर सी बात है ऐसे में यहां उनकी पहचान का खुलासा नहीं किया जा सकता। हां इतना जरूर बताना चाहूंगा कि वह एनआईए के एक वरिष्ठ अधिकारी भी हैं और आज भी आतंकी वारदातों को नाकाम करने में जुटे हुए हैं। उनके नाम की जानकारी मुझे मिल गई थी। ऐसे किसी भी अंडर कवर एजेंट तक पहुंचने के लिए सबसे पहले उस पत्रकार तक पहुंचना जरूरी था जो सबसे सटीक और सबसे पहले इस तरह की जानकारियां दर्शकों तक पहुंचाने के लिए अपनी पहचान रखता हो। मैं ऐसे कुछ पत्रकारों को जानता था। एक एक कर इन पत्रकारों से मुलाकात की शरुआत की। इस घटना को काफी समय हो गया था लेकिन सरकार बदलने के बाद इस मामले की कई परतें अब एक एक कर सामने आ रही थीं। यूपीए सरकार के दौरान इस मामले पर कोई खुलकर नहीं बोल पा रहा था लेकिन अब जांच में कुछ नए आयाम भी सामने आ रहे थे। हेडली की गवाही में हुए खुलासों ने इशरत जहां एनकाउंटर की जांच को भी कटघरे में खड़ा कर दिया था। इसे फर्जी एनकांउटर का नाम देकर वर्तमान बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को इसमें गंभीर सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया गया था। जांच की आंच तत्कालीन गुजरात मुख्यमंत्री और वर्तमान पीएम नरेंद्र मोदी तक पहुंच रही थी। हेडली ने अपनी गवाही में यह साफ कर दिया कि इशरत जहां और उसके अन्य साथी कितनी बड़ी साजिश का हिस्सा थे। इस सबके बीच समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट की भी नए सिरे से जांच शुरू हो गई। एनआईए प्रमुख शरद कुमार अमरीका गए और वहां की जांच एजेंसियों से यह जानने की कोशिश की कि उन्होंने किस आधार पर जैश और लश्कर जैसे आतंकियों को इस साजिश के लिए जिम्मेदार पाया था। इससे जुड़ी सारी जानकारियां अब सामने आ रही थीं लेकिन सबसे अहम था उस दौरान जांच के दायरे में आए लोगों और जांच करने वाले लोगों की जानकारियां। जांच की दिशा हिंदू संगठनों की ओर कैसे मुड़ी और किन किन लोगों को जांच के दायरे मे रखा गया यह बात सिर्फ वही बता सकता था जो खुद इस जांच को कर रहा हो। जांच करवाने वाले बड़े अधिकारी सरकार के प्रभाव में थे या नहीं यह बात भी तभी सिद्ध हो सकती थी जब जांच करने वाला कोई एजेंट इस जांच के कुछ अनजाने पहलुओं को सामने रखता। तमाम पत्रकारों से बातचीत के बीच एक पुराने खोजी पत्रकार ने कुछ दिलचस्प जानकारियां मेरे सामने रखीं। इनमें सबसे अहम जानकारी थी उस अंडर कवर एजेंट्स की आप बीती जो उसने जांच के दौरान की कहानियों के तौर पर अपने इस पत्रकार मित्र को सुनाईं थी। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी तलाश खत्म हो गई हो। एक ऐसा शख्स जो अंडर कवर एजेंट के तौर पर इस पूरे केस के किसी एक पहलू से नहीं बल्कि लगभग हर पहलू से जुड़ा रहा हो। तमाम महत्वपूर्ण गिरफ्तारियां भी इसी शख्स के नेतृत्व में हुई। मैंने अपने पत्रकार मित्र से गुजारिश की कि क्या इनसे मुलाकात हो सकती है। जाहिर तौर पर मुझे कोई सीधा जवाब मिला नहीं। इसकी कई वजहें थीं। एक तो वह अधिकारी अनौपचारिक रुप से हुई मुलाकातों में अपने मित्रों से जो बातें साझा कर रहा था, वह किसी खोजी मिशन के लिए कभी नहीं कहता। दूसरी अहम बात यह कि पत्रकार मित्र खुद के इस सूत्र को यूं ही मेरे सामने रखने में भी हिचक महसूस कर रहा था। मुझे यह समझ आ गया था कि अब मेहनत किस दिशा में करनी है। मेरे पत्रकार मित्र खुद भी इस मामले को नजदीक से जानते थे और उनका कहना था कि जितनी बातें वह एजेंट मुझे बता सकता था उतनी तो वह भी मुझे बता देंगे। मेरे जेहन में सवाल सिर्फ इस जांच को लेकर ही नहीं थे। मुझे यह भी जानना था कि इस मामले में सामने आए किरदारों के असल जीवन में क्या चल रहा था और वे किन हालात में इस मामले से जुड़े थे। किसी और के मुंह से अंडर कवर एजेंट के ऑपरेशन की कहानी में मजा नहीं आएगा। हांलाकि इस बातचीत के दौरान पत्रकार मित्र ने कई तरह की बातें साझा की। इस पूरे मामले को कैसे राजनैतिक रंग दिया गया से लेकर कैसे एक निजी झगड़े को बड़ी शक्ल मिल गई जैसी कई बातें सामने आ रही थीं। हांलाकि ऐसे कई किस्से और थ्योरीज पहले से भी चली आ रही थीं। उस दौर की जांच के दौरान किसी किस्म का दबाव था या नहीं यह जानना बहुत अहम था। मैं लगातार मिन्नतें करता रहा लेकिन पत्रकार भाई नहीं पसीजा। मैंने दरख्वास्त की कि मुझे एक बार उनसे फोन पर बात करने का मौका दिलवा दो। इस पर बात जम गई और मेरे मित्र ने उस एनआईए अंडर कवर एजेंट को फोन लगाया। लगातार रिंग जाती रही लेकिन फोन नहीं उठा। मेरे मित्र ने कहा शायद व्यस्त होंगे। मेरी उत्सुकुता बढ़ती जा रही थी इस पूरे मामले पर सबसे सटीक जानकारी के लिए इस एजेंट से मेरी बात होना बहुत जरूरी था। मैं कुछ देर ही सोच पाया था कि मित्र का फोन बज उठा और यह फोन एक लैंडलाइन नंबर से था। फोन उठाते है पत्रकार मित्र मुस्कुराए दूसरी तरफ वहीं शख्स था जिससे बात करने की बेताबी मेरे मन में बढ़ रही थी। दुआ-सलाम और कुछ औपचारिक बातचीत के बाद मुद्दे की बात शुरू हुई। पत्रकार मित्र ने कहा मेरे एक मित्र आपसे बात करने को लेकर उत्सुक हैं जरा बात कर लीजिए आपने इन्हें टीवी पर देखा होगा बड़े पुराने एंकर हैं। मैंने तुरंत फोन लपका और भारी सी आवाज बनाकर कहा नमस्कार सर, कैसे हैं आप। उन्होंने भी कुछ औपचारिक बातचीत के बाद कहा मैं आपको टीवी पर देखता रहता हूं। इस बात को सुनने पर मुझे उतनी ही खुशी हुई जितनी भगवान श्रीरामचंद्र जी को वीर हनुमान ने उस वक्त दी थी जब वह संजीवनी बूटी का पर्वत ही उनके सामने लेकर उपस्थित हो गए थे। यह संजीवनी इसीलिए जरूरी थी क्योंकि मुझे उनसे सिर्फ अनौपचारिक बातें ही नहीं करनी थीं बल्कि समझौता ब्लास्ट, इशरत जहां केस और भगवा आतंकवाद से जुड़े मसलों पर कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां भी जुटानी थीं। मैंने कुछ देर के बातचीत में ही सीधा सवाल दागा, शरद जी तो अमेरिका गए हैं आपकी जांच पर सवाल खड़े हो रहे हैं। उन्होंने कहा कौन सी जांच? मैं भी चौंका और सवाल स्पष्ट किया कि मैं समझौता ब्लास्ट की बात कर रहा हूं।ˮ वह अनजान बने रहे और इससे मेरा क्या लेना देना?ˮ मैं तो इसके बारे में कुछ भी नहीं जानता। मुझे सारी मेहनत पर पानी फिरता नजर आया और लगा शायद मैं गलत व्यक्ति से बात कर रहा हूं। मैंने पूछा आप इस पूरे मामले में अंडर कवर एजेंट नहीं रहे हैं क्या?ˮ वहां से सीधा जवाब आया नहीं? फिर क्या था मैंने यूं हीं जानकारियां मांगनी चाही लेकिन उन्होंने कोई सकारात्मक जवाब नहीं दिया। बातचीत खत्म करते हुए उन्होंने कहा चलिए मुलाकात करते हैं। मैंने भी औपचारिकतावश कहा कभी भी। मुझे बहुत खुशी होगी, और फोन अपने पत्रकार मित्र को पकड़ा दिया। वहां से कुछ कहा गया और यहां मित्र हंसता रहा बोला कुछ नहीं। फोन रखने के बाद उसने मुझे कुछ देर घूरा और बोला भाई यह एनआईए का अंडर कवर एजेंट है, एसपी रैंक का अधिकारी है कोई पुरानी दिल्ली का जासूसी करने वाला नहीं जिससे तपाक से समझौता एक्सप्रेस पर सवाल जवाब करने शुरू कर दिए। मैंने बात कराने को कहा था सो करा दी लेकिन वह बात नहीं करेंगे यह भी मैंने पहले ही साफ कर दिया था। सरकारी मामला होता है और फिर तुम्हें जानते पहचानते भी नहीं, ऐसे कैसे फोन पर कुछ भी बात कर लेंगे।ˮ मैंने सोचा अभी तो कह रहे थे कि आपको देखते रहते हैं पहचानते हैं।

    इसके बाद मेरे पत्रकार मित्र ने बहुत ज्यादा इस विषय पर बातचीत करने के बजाए अपनी स्क्रिप्ट लिखनी शुरू कर दी। मुझे भी अपने कार्यक्रम के लिए स्टूडियो में जाना था, विषय भी कर्नल पुरोहित के खिलाफ सबूत न होने की बात ही थी। इस पर कांग्रेस जहां बैकफुट पर थी वहीं बीजेपी को यह एक बड़ा मुद्दा हाथ लग गया था। कांग्रेस ने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि जांच को गलत दिशा दी जा रही है और एनआईए अब सरकार के इशारों पर काम कर रही है। इस बहस में यह बात तो कांग्रेस खुद ही साफ कर रही थी कि एनआईए सरकार के इशारे पर काम कर सकती है। अब बड़ा सवाल यह था कि क्या जांच एजेंसियां पहले दबाव में थीं या अब दबाव में हैं? इस सवाल का सीधा जबाव उस वक्त के हालात बयां कर रहे थे जब अमेरीकी जांच एजेंसी, यूएन की रिपोर्ट और एटीएस की मालेगांव धमाकों के बाद दायर की गई चार्ज शीट, समझौता धमाकों में भी पाकिस्तानी मदद से स्लीपर माड्यूल्स का हाथ होने का इशारा कर रही थी, लेकिन हमारी जांच एजेंसियों का पूरा ध्यान इस ओर था कि भगवा आतंकवाद का इन धमाकों से क्या लेना देना है? एक एंकर के तौर पर मैं जानता हूं कि राजनैतिक बहस जब तथ्यात्मक नहीं होती है तो उसमें तू-तू मैं-मैं आ जाती है और यह दर्शकों को तो बेशक रोचक लग सकती है लेकिन ऐसी चर्चाओं से कुछ ठोस हासिल नहीं हो पाता है। जब इस विषय पर बहस शुरू होने वाली थी तो लगा था कि अपनी पुस्तक के लिए कुछ अच्छा मिल पाएगा लेकिन राजनैतिक अखाड़े के बड़े बड़े पहलवान भी इस मामले पर ज्यादा कुछ नहीं जानते थे उन्हें तो बस यह पता था कि कैसे पार्टी लाइन को पकड़ के इस मुद्दे पर अपने पक्ष को मजबूत किया जाए। बेशक इस तरह की बहस से कुछ निकलकर नहीं आता है लेकिन इसका दर्शकों पर और नेताओं की भाषा में कहें तो वोटर और समर्थक पर बहुत असर पड़ता हैं। जाहिर तौर पर कई मेहमान अच्छी तैयारी के साथ आते हैं और कोशिश करते हैं कि अपनी पार्टी का पक्ष पुरजोर तरीके से रखा जाए। जहां तक भगवा आतंकवाद का मुद्दा था इस पर कोई ठोस बात किसी भी दल के पास नहीं थी क्योंकि उनकी जानकारियां सिर्फ मीडिया रिपोर्ट्स, प्रेस काँफ्रेंस और राजनैतिक बयानों के जरिए आई जानकारियों तक सीमित थी। ऐसे में एनआईए के अंडर कवर एजेंट से मिलने और इस मामले की जांच से जुड़े कुछ अहम किरदारों तक पहुंचने की जरूरत और ज्यादा महसूस होने लगी थी। एक घंटे की बहस खत्म हुई, जो नेता कुछ देर पहले एक दूसरे पर चीख चिल्ला रहे थे वह हंसते हुए हाथ मिलाते हुए अपनी चर्चा के दौरान किए गए वार पलटवार पर चुटकियां लेते हुए स्टूडियो से बाहर आ गए। मैं भी हमेशा की तरह उन्हें कुछ दूर तक छोड़ने आया, हाथ मिलाया और सभी को विदा किया। अगले शूट में कुछ समय था और इससे पहले कि मैं चाय की दुकान पर जाने के लिए बाहर का रुख करता मेरे उन्हीं पत्रकार मित्र ने मुझे आवाज देकर पास बुलाया जो एनआइए के उस अंडर कवर एजेंट के मित्र थे। मित्र तो सभी को अच्छे लगते हैं लेकिन जब मित्र आपके किसी काम में सहयोगी भी हो तो उसकी हर बात और अच्छी लगने लगती है। मुझे लगा कि जरूर समझौता ब्लास्ट पर मेरे लेखन से जुड़ी कोई बात होगी। मैं मित्र के पास गया तो उसने और नजदीक आकर लगभग कान में फुसफुसाते हुए कहा, एसपी साब आए थे, रिसेप्शन पर कुछ देर इंतजार करते चले गए? मेरे मुंह से अवाक ही निकल गया, क्या? और जाहिर तौर पर यह प्रश्न नहीं था कि मैं बात नहीं सुन बल्कि यह आश्चर्य मिश्रित खुशी थी। आश्चर्य इस बात का कि जो शख्स कुछ देर पहले बात भी नहीं करना चाह रहा था वह खुद यहां मिलने आ गया और खुशी इस बात की कि अब मुझे इस मुद्दे पर सचमुच कुछ ठोस जानकारियां मिल पाएंगी। मैंने अपने मित्र से पूछा अभी कहां हैं? उसने निराश करते हुए कहा कुछ देर बैठे फिर चले गए, तुम से ही मिलने आए थे, कह रहे थे यह सब बातें फोन पर नहीं की जाती और तुमसे बाहर मिलेंगे तो तुम्हारी जान को खतरा हो जाएगा इसीलिए खुद ही यहां मिलने चले आए। जान को खतरा आम तौर पर लोगों को चौंकाने वाली बात लग सकती है लेकिन अंडर कवर एजेंट वह भी आतंकियों के खिलाफ जासूसी करने वाला, जाहिर तौर पर कई बार खुद भी दुश्मनों के निशाने पर रहता है। जाहिर तौर पर उससे मिलने जुलने वाले भी हमेशा शक के घेरे में रहते हैं। एजेंट्स तो हथियारों से लैस होते हैं लेकिन उनसे मिलने वाले लोगों को इस बारे में बहुत जानकारियां नहीं होती जाहिर तौर पर ऐसे में अंडर कवर एजेंट्स अपनी पहचान को पूरी तरह छिपा कर रखते हैं यहां तक कि उनके जानने पहचानने वाले कई लोग तक उनके असली काम के बारे में नहीं जानते हैं। फिर भी इस एजेंट के यहां तक आने की दो वजहें तो मेरे दिमाग में साफ हो चुकी थी। एक बात यह कि वह सचमुच मुझे देखते हैं और उनका मुझ पर विश्वास है। दूसरा वह कुछ जानकारियां समझौता ब्लास्ट के बारे में साझा करना चाहते हैं। अब मेरी उस एजेंट से मुलाकात की संभावनाएं भी बढ़ चुकी थी और उत्सुकता भी। मैंने मित्र से पूछा अब कैसे मुलाकात हो सकती है और कब। उसने कहा मैंने तुम्हारा नंबर दे दिया है वह खुद तुम्हे कॉल करेंगे। कहां मिलना है और कैसे मिलना है अब तुम खुद देख लेना। मैं बहुत खुश था क्योंकि मेरी इस किताब को लिखने की शुरुआत एक ऐसे शख्स से मुलाकात से हो रही थी जो वाकई में इस जांच को करीब से जानता था।

    2. जवाब से पहले सवालों की तलाश

    असीमानंद का आश्रम, वीएचपी कार्यालय, बीजेपी दफ्तर और न जाने कितनी अहम जगहों पर यह शख्स रूप बदलकर रहा था। अपने पत्रकार साथी से मैंने उसकी बहादुरी के किस्से भी सुने थे। मैं उसकी रोमांचक कहानियों से प्रभावित था और जानना चाहता था कि भगवा आतंक के मुद्दे पर जांच के दौरान किस तरह के रोमांच इस शख्स के सामने आए। मुलाकात कब होगी यह तो उस एजेंट को ही तय करना था लेकिन मुलाकात के वक्त बात क्या करनी है, किन सवालों के जवाब तलाशना है? इसकी तैयारी मुझे ही करनी थी। सबसे बड़ा सवाल तो यही था कि आखिर इस पूरे मामले में भगवा आतंक कब शामिल हुआ? एक और अहम सवाल खबरों के साथ गहराता जा रहा था कि क्या अमेरिकी जांच एजेंसियों की रिपोर्ट को पूरी तरह से खारिज कर दिया गया था और एकदम नई थ्योरी सामने रखी गई थी? अमेरिकी जांच एजेंसियों ने धमाकों के कुछ समय बाद ही इसके बारे में अपनी थ्योरी सामने रख दी थी। इस के उलट अपने ही देश में आतंक की साजिश की नई थ्योरी ने अंतर्राष्ट्रीय पटल पर पाकिस्तान को बोलने का मौका दे दिया था।

    जाहिर तौर पर यह आतंक के खिलाफ चलाई जा रही भारत की मुहिम की किरकिरी करने वाला मामला था। पाकिस्तान ने तो इसके बाद हुए सारे ही आतंकी हमलों में भारत में ही आतंकी साजिशों का आरोप लगाया। लश्कर और जैश के आतंकी कैंपो में आतंक की फैक्ट्री चलाने के भारत के आरोप भी इस नई थ्योरी ने कमजोर किए। अब बड़ा सवाल यह भी उठ रहा था कि इस मामले में जांच तो अपनी गति से चल रही थी लेकिन इसका प्रचार भी क्या किसी तय रणनीति के तहत किया जा रहा था? आमतौर पर ऐसे संवेदनशील मसलों पर जांच एजेंसियों की पड़ताल पूरी तरह से गोपनीय होती है और इन मामलों को पब्लिक डोमेन में कम ही लाया जाता है। समझौता ब्लास्ट, मालेगांव धमाके, जयपुर धमाके और हैदराबाद मक्का मस्जिद धमाकों की जांच के दौरान आए नतीजों पर राजनैतिक बयान लगातार आते रहे। इस मामले में राजनीति की बू पहले भी आती रही लेकिन देश की सुरक्षा और अंतर्राष्ट्रीय छवि से समझौता कोई भी राजनैतिक दल नहीं कर सकता था। ऐसे में भगवा आतंकवाद की थ्योरी को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता था। हां यह प्रश्न तो खड़ा हो ही रहा था कि आतंकवाद को सींचने वाले पाकिस्तान की जमीन पर बनी साजिशों पर इस नई राजनैतिक बयानबाजी का क्या असर पड़ रहा था?

    जिस अंडर कवर एजेंट से मुलाकात को लेकर मैं उत्साहित था उससे सबसे बड़ा सवाल तो यही पूछना था कि क्या आपकी जांच सबूतों के आधार पर आगे बढ़ रही थी या जांच को इस तरह आगे बढ़ाने के लिए यह सबूत तलाशे जा रहे थे? हांलाकि मुझे शक ही नहीं यकीन भी था कि जो व्यक्ति मुझसे मिलने में इतनी सतर्कता बरत रहा है वह मुझसे बात करने में और वह भी इतने संवेदनशील मसले पर बात करने में शायद ही कोई सहयोग दिखाएगा। फिर भी मुझे कुछ सवाल तो तय करने थे जिनसे मैं इस मामले से जुड़ी सच्ची बातों को सामने ला पाऊं। अभी तक जो सवाल सामने आए थे वह बहुत सतही थे और इन पर तो राजनैतिक बहस चल ही रही थी। इस मंथन के दौर में ही एक और अहम खबर आई। मीडिया में तो यह खबर सिर्फ एक दिन चलने की अहमियत रखती थी लेकिन मेरे लिए यह सवालों का एक पूरा अंबार सामने लेकर आ गई।

    25 अप्रैल 2016 को आई यह खबर थी कि एनआईए की स्पेशल कोर्ट ने 2006 में हुए मालेगांव ब्लास्ट के आठ आरोपियों को रिहा कर दिया। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक कोर्ट ने रिहाई के आधार में एक बात यह भी कही कि आरोपी खुद मुस्लिम हैं और वह अपने ही लोगों को मारकर दो गुटों में सांप्रदायिक सौहार्द कैसे बिगाड़ सकते हैं? वह भी एक ऐसे दिन जब शब ए बारात जैसा समय चल रहा हो। कोर्ट की यह बात बहुत लाजिमी भी दिखाई पड़ रही थी, लेकिन इस बात ने एक सवाल भी पैदा कर दिया। इस मामले का पेंच यह था कि इसमें दो अलग थ्योरीज़ काम कर रही थी एक थ्योरी जो 2006 के धमाकों की जांच के बाद एटीएस महाराष्ट्र ने सामने रखी थी। दूसरी थ्योरी वह जो 2008 की जांच के बाद पहले एटीएस और फिर एनआईए ने रखी। एनआईए ने बाद में 2006 की थ्योरी को भी अलग दिशा दे दी थी। एनआईए कोर्ट के फैसले के बाद सवाल यह पैदा हुआ था कि क्या इन लोगों के खिलाफ जांच करने वाली महाराष्ट्र एटीएस बहुत बड़ी चूक कर रही थी? सिमी से जुड़े रहे इन लोगों के खिलाफ जो करीब 10 हजार पन्नों की चार्जशीट एटीएस ने दाखिल की थी वह एक झूठ का पुलिंदा थी। अभी तक किसी के खिलाफ भी धमाकों की साजिश के पुख्ता सबूत नहीं मिले, ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर इन धमाकों को किसने अंजाम दिया? पहले महाराष्ट्र एटीएस की चार्ज शीट में सिमी के इन लोगों के द्वारा धमाकों को अंजाम देने की बात सामने आई थी फिर सीबीआई ने भी इन आरोपों की पुष्टि कर दी थी। कहां बम बनाए गए थे, कैसे बम प्लांट किए गए थे, इसमें एक पाकिस्तानी नागरिक की भूमिका भी सामने आई थी, लेकिन इन तमाम तथ्यों के बाद जब केस एनआईए के पास गया तो इसकी पूरी की पूरी दशा और दिशा ही बदल गई।

    एनआईए ने इन तथ्यों पर गौर किया या नहीं और एनआईए का इनके बारे में क्या कहना है यह एक बहुत अहम सवाल था जो मैं अंडर कवर एजेंट से होने वाली मुलाकात में पूछ सकता था। दरअसल भगवा आतंकवाद का हौवा इतना बड़ा हो चुका था कि लोग भूल ही गए थे कि मालेगांव धमाकों में सिमी के हाथ की एक पूरी थ्योरी पहले ही सामने रखी गई थी। पाकिस्तान का हाथ होने की बात अमेरिका हमें बताता उससे पहले खुद हमारी ही जांच एजेंसियों ने एक पाकिस्तानी का हाथ होने की बात कह दी थी। यह खबर समझौता ब्लास्ट पर खोज बीन के लिए भी बहुत अहम थी। दरअसल इसके तार जोड़ने की शुरुआत मालेगांव ब्लास्ट से ही हुई थी। मालेगांव धमाकों में ही भगवा आतंकवाद के मुद्दे को गरमाया गया और फिर इसकी आंच समझौता तक पहुंची। हांलाकि कर्नल पुरोहित, असीमानंद और अन्य के खिलाफ भी अब कोई सबूत नहीं होने की बात सामने आ रही थी। जब सबूत और मॉडस ऑपरेंडी सामने रखने के बाद सिमी के कार्यकर्ताओं को रिहा कर दिया गया तो बिना सबूतों और बिना पुख्ता भूमिका जाने कथित भगवा आतंकवाद को जन्म देने का मकसद भी कुछ कुछ सामने आने लगा।

    यूं तो अपने बयानों से सुशील कुमार शिंदे, दिग्विजय सिंह और पी. ­चिदंबरम पहले ही यूपीए सरकार की मंशा को कटघरे में खड़ा कर चुके थे लेकिन एनआईए कोर्ट के मालेगांव के आरोपियों को बरी करने के बाद इस मंशा के कई खतरनाक पहलू भी सामने आ रहे थे। सबसे अहम बात यह कि क्या धमाकों के असली गुनहगारों के बारे में अब कभी पता ही नहीं चल पाएगा? यह भी लग रहा था कि एनआईए की स्थिति यूपीए ने न घर की न घाट की करके रख दी। क्या अपनी कठपुतली बनाकर एनआईए से जांच करवाई गई? एक और अहम सवाल जो एटीएस महाराष्ट्र के अपनी पुरानी जांच से पलटने से पैदा हुआ वह यह कि क्या इसे नए सिरे से जांच कहें या नई स्क्रिप्ट कहना सही होगा? दरअसल एनआईए की पूरी कहानी गवाहों के आधार पर बुनी गई स्क्रिप्ट जैसी दिखाई पड़ रही थी। इसके कई किरदार यह साफ करते जा रहे थे कि कैसे जबरदस्ती उनसे वह बुलवाया गया जो उस वक्त जांच एजेंसियां सुनना चाहती थी। एनआईए की जांच ने एटीएस पर भी सवाल खड़े कर दिए। एटीएस की पूरी थ्योरी ही पलट दी गई और इसीलिए सिमी के इन कार्यकर्ताओं को रिहा करते हुए कोर्ट ने एटीएस की जांच पर सवाल उठाते हुए कहा कि एटीएस ने अपनी जिम्मेदारियों को गलत तरीके से पूरा किया। यह भी कहा गया कि बिना मोटिव के इस घटना को कैसे अंजाम दिया जा सकता है।

    मुस्लिम बहुल इलाके में मुस्लिमों का ज्यादा तादाद में मारा जाना आतंकियों के लिए कोई मोटिव नहीं हो सकता था। हांलाकि इस मुद्दे पर कई विशेषज्ञों ने यह भी साफ कहा कि आतंकियों का कोई मजहब नहीं होता। सिमी एक ऐसा संगठन है जो देश में रहकर ही यहां के हालात को समझते हुए अपनी रणनीति बनाता है। मुस्लिमों को मारना भी देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने वाला ही कदम दिखाई पड़ता है। सवाल यह उठ रहा था कि क्या मुस्लिम बहुल इलाके में धमाके करना भी एक रणनीति का ही हिस्सा था? और क्या एनआईए कि जांच के दायरे में भगवा संगठन इसीलिए आए क्योंकि धमाके मुस्लिम बहुल इलाकों में हुए थे? मालेगांव, अजमेर शरीफ, हैदराबाद और समझौता यह ऐसे धमाके थे जो एक के बाद एक होते गए और इनमें ज्यादातर मारे गए मासूम मुस्लिम ही थे। इसने देश के सांप्रदायिक माहौल को ज्यादा खराब किया। दरअसल यह जहां आतंकियों की मंशा पर सवाल खड़े हो रहे थे वहीं यह भी सवाल उठ रहे थे कि क्या कुछ हिंदू अतिवादियों ने यह काम किया है क्योंकि ऐसे अति उत्साही हिंदू नेता सामने आते रहे जो कई बार अपनी जुबान पर सार्वजनिक जगहों तक पर काबू नहीं कर पाए और बम का जवाब बम से देने की बात कहते रहे। गुस्सा होना और गुस्से में बेतुकी बातें कहना यह बहुत सामान्य बात है। रेप की घटनाओं के बाद जिंदा जला देना चाहिए, सरेआम काट देना चाहिए, मुझे मिले तो मैं हत्या कर दूं जैसी बेतुकी बातें सहज ही कई लोगों के मनोभाव से होते हुए जुबान पर आ जाती है।

    ऐसे ही हिंदू संगठनों के नाम पर अपने संगठन चला रहे कुछ लोगों के मीटिंग्स में दिए गए बयानों को भी एनआईए ने अपने केस को मजबूत करने के लिए शामिल किया था। एक अहम सवाल यह भी खड़ा हो रहा था कि क्या एनआईए इन बयानों को दर्ज कर सच्चाई जान रही थी या इन बयानों के आधार पर अपनी भगवा आतंकवाद की थ्योरी को और मजबूत कर रही थी? मेरे जेहन में यही आया कि बस एक बार मुलाकात हो जाए तो मैं एनआईए के इस अंडर कवर एजेंट से यह सारे सवाल पूछ लूंगा फिर इनमें से वह किसी बात का जवाब दे या न दे उसकी मर्जी। दरअसल यह सवाल इसीलिए गहरा रहे थे क्योंकि एटीएस ने खुद भी अपनी पहले दी गई चार्जशीट में कहा थी कि सिमी के लोग चाहते थे कि मालेगांव में दंगा हो और इसी मकसद से यह धमाके किए गए थे। कोर्ट ने इस पर कहा कि सामान्य विवेक का इंसान भी इस तर्क को नहीं मानेगा क्योंकि ठीक पहले गणेश उत्सव के पंडाल लगे थे। गणेश विसर्जन की शोभायात्राएं निकली थीं यह लोग उस वक्त भी धमाकों को अंजाम दे सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा हिंदुओं को मारकर दंगों को अंजाम दिया जा सकता था।

    एटीएस ने जो केस रखा उसमें इनके खिलाफ पर्याप्त ग्राउंड दिखाई नहीं पड़ता है। कोर्ट के मुताबिक इनके क्रिमिनल रिकॉर्ड को आधार बनाया गया जिसकी वजह से यह बलि के बकरे बन गए। क्रिमिनल रिकॉर्ड को आधार बनाना यह तो साफ करता ही था कि जो लोग बरी किए गए वह एटीएस को क्यों खतरनाक लगे थे? इनके सिमी से संबंधों को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। वहीं एनआईए की थ्योरी के जो किरदार थे उनमें एक ही शख्स पर क्रिमिनल केस था, उस शख्स की भी हत्या हो चुकी थी। एटीएस की थ्योरी के मुताबिक मालेगांव के आरोपियों के बरी होने के बाद अब सवाल यह भी उठ रहा था कि क्या जांच का जो भटकाव यूपीए के समय शुरू हुआ था वह जारी रहेगा और दूसरा अहम सवाल यह कि यदि एनआईए की जांच के मुकाबले एटीएस की पुरानी थ्योरी सही साबित हुई तो फिर किसे आरोपी बनाया जाएगा? इस बीच दो दिन पहले ही कर्नल पुरोहित के खिलाफ सबूत नहीं होने की बात कहकर एनआईए प्रमुख पहले ही इशारा कर चुके थे कि इस मामले की जांच में बहुत सी कमजोर कड़ियां हैं लेकिन वह कमजोर कड़ियां क्या हैं इस पर अंदाजा लगाकर जवाब निकालने से बेहतर था एनआईए के उस अधिकारी के सामने सवाल रखना जो मामले की जांच पड़ताल के एक एक पहलू से वाकिफ था। मुझे नहीं पता था कि इस मसले को लेकर राजनेता, जांच एजेंसियां या दूसरे लोग क्या सोच रहे थे लेकिन मेरे लिए यह एक शोध का विषय बन गया था। एक शोधार्थी के तौर पर जब भी मैंने किसी विषय पर शोध किया तो पूरी तरह से उसके हर पहलू को खंगालने की कोशिश की। पत्रकारिता का साथ मिलने से सूत्रों तक पहुंचने में बहुत मदद मिलती है, लिहाजा मैंने अपने तमाम साथियों से संपर्क कर इस पूरे मामले के हर पहलू को जानने की कोशिश शुरू कर दी। कागजों पर तो मेरे पास उन तमाम लोगों के नाम थे जिनसे मुझे इस मामले में बात करनी थी लेकिन इतने संवेदनशील मसले पर इन लोगों से कुछ बुलवाना एक टेढ़ी खीर था। इस चुनौती को मैं अपने शुरुआती सूत्र के साथ ही महसूस कर रहा था। मैं इंतजार में था कि पहले तो एनआईए का यह एजेंट मिलने का तो समय दे ही और उसके साथ वह मेरे सवालों पर एजेंट मिलने का समय दे और उसके बाद वह मेरे सवालों पर सहयोगात्मक रवैया भी दिखाए।

    इसी सिलसिले में मेरी मुलाकात अपने एक अन्य पत्रकार साथी शिवेंद्र श्रीवास्तव से हुई। शिवेंद्र लंबे समय से क्राइम रिपोर्टिंग कर रहे थे और एनआईए उनकी बीट भी थी। लिहाजा उनसे मिलकर इस केस के बारे में कई जानकारियां मिल सकती थीं। उनसे मुलाकात के दौरान मैंने अपने प्रोजेक्ट के बारे में उन्हें बताया। उन्होंने कहा थोड़ा समय दीजिए इस पर इत्मीनान से कुछ सोचकर आपको बताता हूं। किन लोगों से बात की जा सकती है और कौन लोग इस मामले की हकीकत को सामने रख सकते हैं अब यही सबसे बड़ा सवाल सामने खड़ा था। शिवेंद्र से मुलाकात कर मैं दफ्तर की तरफ ही लौट रहा था। डीएनडी फ्लाईओवर की शुरुआत हुई थी कि मेरा फोन बज उठा। आम तौर पर ड्राइव करते हुए मैं फोन पर बात नहीं करता हूं और खास तौर पर डीएनडी पर तो इसीलिए भी संभव नहीं क्योंकि आप वहां गाड़ी रोक नहीं सकते हैं लेकिन स्क्रीन पर कोई नंबर नहीं आ रहा था। उसकी जगह तीन डिजिट का कुछ अजीब नंबर था। दिमाग में सिर्फ एक ही बात चल रही थी कि कहीं उस शख्स का फोन कॉल मिस न हो जाए जिससे मिलने के लिए मैं इतना उत्सुक हूं। जिस दिन से टेलीविजन पत्रकार साथी ने मेरा नंबर उस एजेंट को देने की बात कही थी तबसे अपने बुलेटिन के दौरान भी फोन को साइलेंट मोड पर रख कर हर एंकर लिंक के बाद फोन को देखता था कि कहीं उसका कॉल मिस न हो जाए। ऐसी मनःस्थिति में मैंने फौरन कार कुछ दूरी पर ले जाकर किनारे किया और फोन पिक कर लिया। दूसरी तरफ से भारी सी लेकिन थोड़ी अस्पष्ट आवाज आई, कैसे हैं डॉक्टर साब?ˮ आमतौर पर मुझे जानने वाले मीडिया के साथी इसी तरह से पुकारते हैं। मुझे लग रहा था कि यह कॉल वही है जिसका मुझे इंतजार था। मैंने तपाक से पूछा क्या आप *** साब बोल रहे हैं?ˮ उनका जवाब अपेक्षित था, हां। मैं इस जवाब से बहुत खुश हुआ क्योंकि यह मेरे लिए एक बहुत अहम किरदार था जो समझौता ब्लास्ट ही नहीं बल्कि भगवा आतंकवाद से जुड़े कई अन्य पहलुओं पर बहुत सटीक जानकारी दे सकता था। फोन के उस ओर से आवाज आई आप इस वक्त कहां हैं और कहां जा रहे हैं?ˮ मैंने जवाब दिया मैं फ्लाईओवर पर हूं और फिल्म सिटी जा रहा हूंˮ उन्होंने कहा "आप मयूर विहार मेट्रो स्टेशन पर आ जाइए हम यहीं मुलाकात करेंगे।ˮ मैंने बि ना देर किए हां में जवाब दिया। बमुश्किल 5 से 10 मिनिट का रास्ता था मैं इस टाइमिंग और अपनी लोकेशन को लेकर भी बेहद उत्साहित था, कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी लोकेशन की जानकारी भी इस अंडर कवर एजेंट को कहीं से मिल रही हो। यह बात दिमाग में आई लेकिन फिर खुद पर ही हंसा की एजेंट के चक्कर मे खुद भी जासूसों की तरह ही सोचने लगा हूं। फौरन गाड़ी को आगे बढ़ाया और मयूर विहार मेट्रो स्टेशन का रुख कर दिया। इस बीच यह तो भूल ही गया कि पहुंच कर किस नंबर पर कॉल करूंगा। मेरे पास तो कोई नंबर आया ही नहीं। मैं कुछ ही देर में मेट्रो स्टेशन के नजदीक पहुंच गया। आसपास कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा था और गाड़ी को कहां पार्क करूं की चुनौती सामने आ गई। इस बीच पहुंच तो गए लेकिन सूचना कैसे दें की चिंता भी सताने लगी। मैंने भी एग्जिट गेट की सीढ़ियों के नजदीक ही गाड़ी लगा दी। इस बीच इधर उधर आते जाते लोगों को देखता रहा। जो भी शख्स गेट से बाहर निकल रहा था उसे इसी उम्मीद से देखता रहा कि कहीं यही तो वह एजेंट नहीं।

    15 मिनट के इंतजार के बाद फिर फोन बजा और आवाज आई पीले रंग की कार में आप ही आए हैं। मैंने हां में जवाब दिया। इस बीच ड्राइविंग सीट के बाईं ओर वाले ग्लास पर किसी ने ठक ठक की। मैंने फोन कान पर लगाए लगाए देखने की कोशिश की तो बाहर वाले शख्स ने एक बार फिर ठक ठक की आवाज की और दरवाजा खोलने को कहा। मैंने जैसे ही दरवाजा खोला वह भीतर बैठ गया और दरवाजा बंद करते हुए आगे चलने के लिए कहा। मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह वही शख्स है जिससे मिलने के लिए मैं यहां इंतजार कर रहा हूं। थोड़ी ही दूर आगे चलने पर उस शख्स ने गाड़ी साइड में पार्क करने को कहा। बिना कोई औपचारिक अभिवादन के उन्होंने सीधे ही कहा पूछिए क्या पूछना चाहते हैं। जवाब देता उससे पहले मैंने इस अंडर कवर एजेंट को ऊपर से नीचे तक निहारने की कोशिश की। हॉफ बाजू की शर्ट, चेहरे पर मोटा सा चश्मा, बाल बिखरे हुए, पैरों में चप्पल पहने यह शख्स बहुत ही सामान्य लग रहा था। मुझे यह जानकारी पहले ही थी कि यह शख्स एनआईए में एक सीनियर लेवल का अधिकारी भी है और कई महत्वपूर्ण मामलों की जांच से जुड़ा रहा है। मैंने बड़ी तेजी से हुए इस घटनाक्रम में खुद को सहज करने का प्रयास किया और पूछा "क्या मैं आपके साथ बातचीत को रिकॉर्ड कर सकता हूं? बहुत गंभीर होते हुए एनआईए के इस सर्विंग ऑफिसर और अंडर कवर एजेंट ने मुझसे मेरा फोन स्विच ऑफ करने के लिए कहा। साथ ही उनका नाम किसी भी तरह से कहीं भी उल्लेख करने से साफ मना कर दिया। ऐसी किसी परिस्थिति के लिए मैं पहले से तैयार था मैंने फौरन ही अपना फोन स्विच ऑफ कर दिया और अपना पेन और पैड निकालकर लिखने की मुद्रा में आ गया। बातचीत आगे बढ़ाता उससे पहले मेरी उत्सुकुता यह जानने की भी थी कि हम इस जगह पर मुलाकात क्यों कर रहे हैं और एनआईए का इतना बड़ा अधिकारी इस तरह के कपड़ों और ऐसी स्थिति में क्यों है?

    3. सवालों का जवाब सवालों से

    क्या जांच किसी दबाव में चल रही थी? क्या भगवा आतंकवाद के मुद्दे को जानबूझकर हवा दी गई? असीमानंद, साध्वी प्रज्ञा, सुनील जोशी, कर्नल पुरोहित जैसे किरदार आखिर जांच के दायरे में कब और क्यों आए? सवाल तो मेरे दिमाग में गूंज रहे थे लेकिन सवालों को दागने से पहले मैं खुद सहज होना चाहता था और एनआईए की उस अहम कड़ी (जिस तक पहुंचने का मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था) को भी अपने बारे में बताना चाह रहा था। मेरा सवाल बहुत स्पष्ट था और उनका जवाब आने से पहले कुछ सेकेंड की एक खामोशी रही। इसी दौरान मुझे एक बार फिर अपने सवाल दिमाग में दोहरा लेने का

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