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Ritu Nanda: Fir Bhi Rahenge Nishaniyan
Ritu Nanda: Fir Bhi Rahenge Nishaniyan
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Ebook428 pages3 hours

Ritu Nanda: Fir Bhi Rahenge Nishaniyan

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About this ebook

Meet Ritu Nanda. As Raj Kapoor's daughter, she was part of the first family of Bollywood. Her marriage to Rajan Nanda of the Escorts Group led to her joining another illustrious family. Yet, she went on to carve her own identity as an insurance advisor and even got her name into the Guinness Book of World Records.

Ritu Nanda: Fir Bhi Rahenge Nishaniyan is the story of a woman who shed her shyness and stepped into the limelight, taking on a variety of roles - entrepreneur, insurance advisor, author, negotiator and pioneer. It's about her quiet determination, grace and courage as she lived every moment to its fullest, even while battling a dreaded disease, and touched the lives of everyone around her. It's also about those who added colour to the kaleidoscope of her life - her family, friends, colleagues and well-wishers.

With tributes from her sambandhi Amitabh Bachchan, family members Randhir Kapoor, Rima Jain, Kareena Kapoor and Ranbir Kapoor, as well as friends such as Karan Johar, Sonali Bendre, Kiran Mazumdar-Shaw, Gauri Khan and many others, this is the story of a woman like no other. Meet Ritu Nanda. You will be happy you did.


LanguageEnglish
Release dateJun 21, 2022
ISBN9789354894527
Ritu Nanda: Fir Bhi Rahenge Nishaniyan
Author

Sathya Saran

Best known for her long association with Femina, which she edited for twelve years, Sathya Saran is the author of a book of short stories - The Dark Side - apart from the critically acclaimed biographies, Years with Guru Dutt: Abrar Alvi's Journey, Baat Niklegi toh Phir: The Life and Music of Jagjit Singh and Hariprasad Chaurasia: Breath of Gold. Passionate about writing, Sathya conceptualised and curates an offbeat writers' conclave titled 'The Spaces between Words: The Unfestival', held in Vijaynagar (Karnataka) and Ratnagiri (Maharashtra), India.

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    Ritu Nanda - Sathya Saran

    प्राक्कथन

    शायद इस तथ्य ने कि हमारी उम्रों में मात्र डेढ़ साल का अंतर था हमें इतना क़रीबी बहन-भाई बना दिया था, लेकिन मैं रितु से ही सबसे ज़्यादा नज़दीकी महसूस करता था। और ज़िंदगी भर वो अपने जोश से मुझे हैरान करती रहीं।

    हालांकि उनकी शादी एक कामयाब बिज़नेस परिवार में हुई थी, मगर वो उन महिलाओं के लिए एक प्रतीक बन गई थीं जो अपना ख़ुद का वजूद बनाना चाहती हैं। उनका एक गुण जिसे मैं बहुत ज़्यादा सराहता हूं, वो काम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी, जो शायद उन्होंने अपने पति से सीखी थी। मैं तो हैरान रह जाता था कि जहां उनके काम की बात आती वहां वो सीधी-सरल बहन जिसके साथ मैं बड़ा हुआ था कैसे शेरनी बन जाती थी। मैंने उनकी उद्यमशीलता को धीरे-धीरे उभरते, आगे बढ़ने के साथ उन्हें सीखते देखा था। मैंने उनके साथ बहुत वक़्त बिताया था, और विभिन्न चरणों में कायापलट होते देखा। और एलआईसी के साथ, पहले एक एजेंट के रूप में और उसके बाद भी, या रीमारी में अपने काम से उन्होंने जो हासिल किया, वह अद्भुत था।

    आयोजनों में हम अपनी ‘स्टार’ मौजूदगी के साथ उन्हें समर्थन देने के लिए जाते तो थे, मगर हक़ीक़त में, वो लोगों को खींचती थीं। वो जिसके भी संपर्क में आती थीं उस पर उनका जादू छा जाता था, और वो वास्तविक था। उनमें कुछ भी बनावटी नहीं था।

    मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा था; और वो जानती थीं कि हम सबमें सर्वश्रेष्ठ गुण किस तरह रोपें।

    मैं ये सब इसलिए नहीं कह रहा हूं कि वो मेरी बहन थीं। बल्कि इसलिए कि मैं उन्हें बहुत सराहता था। और मुझे लगता है कि यह पुस्तक उन गुणों को सामने लाएगी जो केवल उनमें थे और, साथ ही, ऐसी बहुत-सी दूसरी महिलाओं को प्रेरित करेगी जो अपने पूरे सामर्थ्य में जीना चाहती हैं।

    मेरी बहन के पास बांटने के लिए ढेर सारा प्यार था, और मुझे नहीं लगता कि मैं उन्हें पर्याप्त प्यार दे सका था। उन्होंने मुझे बहुत कुछ दिया। मुझे नहीं लगता मैं उतना ही उन्हें लौटा सका।

    उनका जीवन और जिस तरह वो जीं, वो एक मिसाल था। जो भी इसके बारे में पढ़ेगा, वो उनके स्नेह से अछूता नहीं रह पाएगा।

    रणधीर कपूर

    मैं जानती हूं कि इस किताब को लिखा जाना ही था। मेरी बहन की जीवनगाथा को बताया जाना ज़रूरी था। जिस तरह उन्होंने अपनी ज़िंदगी जी, उसमें ऐसा बहुत कुछ था जो किसी को भी, उम्र और जीवन में उनके मुक़ाम के बावजूद, प्रेरणा दे सकता है। सच कहूं, तो वो आज भी मुझे प्रेरणा देती हैं।

    सारी ज़िंदगी मैं शक्ति, प्रोत्साहन और सहारे के लिए उन पर निर्भर रही। हालांकि आख़री कुछ सालों में हालात बदल गए थे, और मुझे उन्हें वो सहारा देना पड़ा था। मुझे यह जानकर सुकून मिला था कि मैं जो भी थोड़ी-बहुत मदद कर सकती थी, वो कर पाई।

    मगर अपनी मुश्किल से मुश्किल घड़ी में भी, उन्होंने हमें ताक़त दी... वो कष्ट में हैं यह जानने के बावजूद साहस से काम लेने की ताक़त। हम दोनों ही एक-दूसरे से ताक़त पाते थे। मैं हमेशा सोचती थी कि मुझे उनकी ज़रूरत है, लेकिन मैं जानती हूं मन में गहरे कहीं उन्हें भी मेरी ज़रूरत थी। बदक़िस्मती से, उनके आख़री दिनों से पहले मैं यह न समझ सकी कि उन्हें मेरी कितनी ज़रूरत थी।

    यह किताब उनकी ताक़त, हर उस व्यक्ति की मदद करने की उनकी क़ाबिलियत के बारे में है, जिसे उनकी मदद चाहिए होती थी। उनके अंदर लोगों का हौसला बढ़ाने और उन्हें सहारा देने, उन्हें तब तक अपने लिए सोचने को मजबूर करने का ग़ज़ब का माद्दा था जब तक कि वो अपने लिए सटीक राह नहीं पा लेते थे।

    मेरे अपने मामले में ही, रीमारी की बुनियाद इसलिए डाली गई थी कि मुझे कुछ करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए, और मैं ज़िंदगी में जो कर रही थी, उसमें कोई मक़सद जुड़े। कंपनी को थोड़ा मेरा और अपना नाम देने जैसी साधारण-सी बात ने मुझे एक ऐसी चीज़ के लिए उत्तरदायी महसूस करवाया जो मुझसे कहीं बड़ी थी। कितने लोग एक अनिच्छुक, आलसी बहन को अपने साये में लेने के लिए इतना सीधा-सरल रास्ता चुनने के बारे में सोचते हैं?

    पिछले आठ साल में, मैंने उनके साथ बहुत समय बिताया और उनसे बहुत कुछ सीखा क्योंकि अपने घोर मुश्किल वक़्त में भी वो मेरे लिए ताक़त और ज्ञान का स्रोत रहीं।

    उन्होंने बिना जताए मुझे बहुत कुछ सिखाया था; कभी डांटा नहीं, न यह कहा कि मैं ग़लत हूं। उन्हें अपने परिवार के साथ देखकर, उनके धीरज, संतुलन की भावना देखकर मैंने बहुत कुछ हासिल किया था। अपने ज़्यादा तेज़ मिज़ाज के बावजूद इससे मुझे अपने रिश्तों को संभालने में बहुत मदद मिलती थी।

    रितु वो गोलपोस्ट थीं जो मैं बनना चाहती थी। उनका स्वभाव, उनका गहन शांत भाव, सबके लिए उनका प्यार और हर अड़चन को पार कर लेने की उनकी क़ाबिलियत, उनके जीवन के ऐसे पहलू हैं जो इस किताब को पढ़ने वाले हर व्यक्ति को प्रेरित करेंगे।

    रीमा जैन

    प्रस्तावना

    वर्ष 1948। विविध परिणामों के साथ भारत अपनी आज़ादी को आज़मा रहा है। वर्ष के शुरू में, 30 जनवरी को, स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने और भारत को स्वतंत्रता दिलाने वाले व्यक्ति की गोली मारकर हत्या कर दी गई है। जब राष्ट्र गांधी की मृत्यु के शोक में डूबा था, तब भी सियासी पैंतरों ने देश को मज़बूत किया, इसे एक सूत्र में पिरोया जब राजाओं और नवाबों ने अपनी सत्ता छोड़कर अपने राज्यों को गणतंत्र में विलीन कर लिया था।

    वर्ष 1948। हिंदी सिनेमा भविष्य में बड़ी छलांग लगाता है। यही वो साल है जब मुहम्मद रफ़ी, जिन्हें गायक के रूप में अभी अपनी पहचान बनानी है, ‘इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए’ गाते हैं, वो गाना जिसने हिंदी फ़िल्म संगीत निर्देशक नौशाद का ध्यान उनकी ओर खींचा जिनके लिए जल्दी ही वो अनेक शानदार सदाबहार गाने गाएंगे। यही वो साल है जब इस्मत चुग़ताई की एक कहानी पर आधारित फ़िल्म ज़िद्दी देव आनंद को हीरो के रूप में पेश करती है, और साथ ही कामिनी कौशल और प्राण को स्टार स्टेटस दिलवाती है। किशोर कुमार और लता मंगेशकर अपना पहला युगल गीत ‘ये कौन आया’ रिकॉर्ड करते हैं। दो हिट फ़िल्में शहीद और मेला हीरो दिलीप कुमार को हिंदी फ़िल्मों के नए सितारों की अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा करती हैं।

    और राज कपूर के लिए यह साल अपना ही ख़ज़ाना लेकर आता है। वो तय करते हैं कि निर्देशक बनेंगे, और चौबीस साल के इस नौजवान ने इस मक़सद को लेकर आरके फ़िल्म्स की नींव रखी और आग पेश की, जिसे उन्होंने ख़ुद ही निर्देशित और अभिनीत किया है।

    और वो फिर से पिता बनने वाले हैं!

    30 अक्टूबर को जब वो अपनी नवजात बेटी की अपनी आंखों जैसी हल्की हरी आंखों को देखते हैं, तो चित्तचोर की ख्याति अर्जित करने वाला वो व्यक्ति, हमेशा के लिए अपना दिल हार जाता है। रितु हमेशा उनकी पसंदीदा शहज़ादी रहेंगी।

    और भी कई मायनों में 1948 अहम् था। उसी साल जन्म हुआ जयललिता का जिन्होंने दक्षिण के सिनेमा पर राज किया और फिर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं; हेमा मालिनी का जिन्होंने अद्वितीय ड्रीम गर्ल के रूप में नृत्य करते हुए अनेक दर्शकों के सपनों में जगह बनाई। और एक सामान्य-सी लड़की का जिसने जया भादुड़ी के रूप में अपना ख़ूबसूरत अवतार पाया।

    दिलचस्प बात है कि एक पत्रकार परिवार में जन्मीं जया भादुड़ी जिन्होंने ख़ुद को एक उत्कृष्ट, बेहद प्रिय अभिनेत्री साबित किया और रितु कपूर, जो हालांकि मशहूर कपूर ख़ानदान में जन्मी थीं मगर उन्हें फ़िल्मी दुनिया से दूर रखा गया, अपनी नियतियों को आपस में जोड़ पाएंगी। लेकिन इस बारे में बाद में।

    फ़िलहाल, शुरू से शुरू करते हैं: रितु नंदा जो विवाह से पहले कपूर थीं। एक कहानी जो इंसानी दिल के उन सारे गुणों से लबरेज़ है जिन्हें सबसे ज़्यादा पसंद किया जाता है: करुणा, प्रेम, ज़िंदादिली, उदारता, साहस और दृढ़ता। कहानी एक ऐसी शख़्सियत की जो जिससे भी मिलीं, उसकी ज़िंदगी को उन्होंने बेशुमार तरीक़ों से छू लिया। उन तरीक़ों से जिन्हें वो कभी भूल नहीं सकेंगे।

    1

    प्यारी बहना

    ‘यूं तो आपस में बिगड़ते हैं, ख़फ़ा होते हैं’

    (अंदाज़)

    राज कपूर की नन्ही बेटी जिस घर में रहती थी, वो निश्चय ही एक शहज़ादी के क़ाबिल था। मुंबई के सबर्ब चेम्बूर के बाहरी क्षेत्र में 3000 वर्ग फ़ुट में फैला, 1946 में निर्मित बंगला देवनार के हरे-भरे इलाक़े में स्थित था। यह बंगला बड़े भाई रणधीर, जिन्हें प्यार से सब डब्बू कहते हैं, के जन्म से एक साल पहले बना था। यह इतना अलग-थलग था कि बड़े होते बच्चों वाले परिवार को निजता प्रदान करता था, मगर साथ ही एकड़ों में फैले उस स्टूडियो स्थल के भी बहुत क़रीब था जिसे राज कपूर ने अपनी फ़िल्में बनाने के लिए हासिल किया था। वर्ष बीतने के साथ, यह स्टूडियो देश के सबसे ज़्यादा प्रतिष्ठित स्थानों में से एक, नई राह बनाने वाले मनोरंजन-प्रदाताओं के संरक्षक के रूप में विकसित हुआ, इसका आइकोनिक लोगो एक रूमानी व्यक्ति के दिल की धड़कन है।

    मगर घर निजी ही रहा। दिन भर के काम के बाद शोमैन की आश्रयस्थली, जहां वो घर के बने खाने और बचपन की मासूम किलकारियों का आनंद ले सकते थे।

    हमेशा व्यस्त और काम में डूबे मशहूर पिताओं की आदी बेटियों की तरह, रितु भी अपनी मां कृष्णा के दुपट्टे के साये में बड़ी हुई थीं। आने वाले वर्षों में, अपने भाई-बहनों से नज़दीकी के बावजूद, मां ही रितु की सबसे अच्छी दोस्त, राज़दार और वो व्यक्ति रहीं जिनके साथ वो अपने सुख-दुख सबसे पहले बांटती थीं।

    वो अपने बड़े भाई—शरारती, हुल्लड़बाज़, मौज-मस्ती से भरपूर—रणधीर (डब्बू) को बहुत पसंद करती थीं। और जब छोटे बच्चे आए, तो उन्होंने अपने स्नेह की छांव में उन्हें भी समेट लिया। ‘हम बाक़ी लोगों के उलट, वो शांत थीं,’ डब्बू याद करते हैं, ‘वो पढ़ाकू थीं और परिवार में सबसे शांत स्वभाव की थीं।’

    ‘जब मेरा जन्म हुआ तो मेरी बहन बहुत ख़ुश थीं,’ रितु की छोटी बहन रीमा याद करती हैं। ’उन्हें हमेशा एक छोटी बहन चाहिए थी, वो मां से यह कहा करती थीं, और अब उनकी इच्छा पूरी हो गई थी।’

    ‘वो मुझे मां की तरह प्यार करती थीं, हमारे बीच आठ साल का फ़ासला था। मैं उनकी बच्ची थी, मां से ज़्यादा मैं उनके क़रीब थी। और वो मेरी गार्जियन एंजेल थीं।’

    ऐसे कई मौक़े आए होंगे जब गार्जियन एंजेल को मैदान में उतरना पड़ा होगा क्योंकि बहन रीमा, उनके अपने शब्दों में, ‘बहुत शरारती बच्ची थी, हमारे स्वभावों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ था। मेरे अपने भाइयों, ख़ासकर चिंटू, के साथ बेशुमार लड़ाई-झगड़े होते थे। रितु से कोई नहीं लड़ता था। वो उन्हें मौक़ा ही नहीं देती थीं।’

    रितु को ग़ुस्सा करते देखना इतना दुर्लभ था कि रीमा को एक बार की घटना इतनी साफ़-साफ़ याद है जैसे वो कल की ही बात हो। ‘एक दिन, मैं चिंटू से लड़ रही थी, और वो मेरी ओर से उनसे लड़ने लगीं। चिंटू का पारा हाई हो गया और उन्होंने उन्हें मार दिया। रितु को यक़ीन ही नहीं हो रहा था, अपना गाल पकड़े वो हैरान आंखों से उन्हें देखती रहीं और बस इतना कहा, तुमने मुझे मारा! बस। न बदला, न बड़ी बहन की फटकार। फिर, वो दोनों ही रोने लगे। वो इतनी अलग तरह की थीं। मैं तो पलटकर थप्पड़ मारती।’

    जिस वक़्त तक पांचों बच्चे स्कूल में आए, रितु उन सबके साथ एक ख़ास रिश्ता क़ायम कर चुकी थीं। वास्तव में, अपनी ज़िंदगी में काफ़ी जल्दी ही उन्होंने अपने सान्निध्य में आए सब लोगों को ख़ास महसूस करवाने का गुर सीख लिया था; और लगभग हर व्यक्ति को पूरा यक़ीन होता था कि रितु उनकी सबसे क़रीबी हैं।

    कल्पना करें, नीले, मैटेलिक रंग की शैवर्ले इम्पाला में स्कूल जाते हुए एक गंभीर स्कूली लड़की चुपचाप बैठी है। लड़के शब्दों या और ज़्यादा से एक-दूसरे पर निशाना साधते हुए घनघोर लड़ाई में लगे हैं, रीमा अपना योगदान दे रही हैं, और इस सबके दौरान, अपना आपा बनाए हुए, न बीच-बचाव करती, न किसी का पक्ष लेती या कमेंट करती रितु ख़ामोश हैं। ऐसी विशेषता जो बाद में उनके बहुत काम आने वाली थी, जब उन्हें दो भिन्न दुनियाओं की विविधता को अपने जीवन में आत्मसात करना था।

    स्कूल तक की ड्राइव का अपना तयशुदा रास्ता और तयशुदा टाइमटेबल था। लड़के कैंपियन में पढ़ते थे जो बंबई शहर के दक्षिणी छोर पर था; दोनों लड़कियां नेपियन-सी रोड (अब लेडी जगमोहनदास रोड) पर स्थित कहीं अधिक संभ्रांत वाल्सिंघम हाउस स्कूल में पढ़ती थीं। लड़कियां पहले उतरती थीं, और फिर कार लड़कों को छोड़ने के लिए आगे बढ़ जाती थी। और वापसी में, लड़कों को, जिनकी कक्षाएं बाद में ख़त्म होती थीं, पहले और फिर लड़कियों को लिया जाता था।

    ‘रितु और मेरी बहन रीता एक ही कक्षा में थीं, और दोनों बहुत अच्छी दोस्त थीं,’ राज कपूर की आवाज़ के तौर पर मशहूर गायक मुकेश के बेटे नितिन मुकेश याद करते हैं। ‘मेरे और उनके पिता अपने कुंआरेपन के दिनों से एक दूसरे को जानते थे, और साथ काम करने ने उनकी दोस्ती को गहरा कर दिया था। मुझे अक्सर महसूस होता था जैसे हम एक ही परिवार हों। वास्तव में,’ नितिन आगे कहते हैं, ‘मैं तो यह कहकर कृष्णा आंटी को चिढ़ाता था, आपने मुझे किसी मेले में खो दिया होगा, मैं तो पक्का आपके परिवार का ही हिस्सा हूं। मैंने रितु को तब से देखा है जब वो नन्ही-सी बच्ची थीं, मैं उनसे दो साल बड़ा हूं और जब से मुझे याद है तभी से मैं उनके घर आता-जाता रहा हूं।’

    इस तरह यह स्वाभाविक ही था कि कार के उन्हें लेने आने तक इंतज़ार करने के लिए मुकेश का घर लड़कियों के लिए सुरक्षित जगह था। ‘स्कूल साढ़े तीन तक ख़त्म हो जाता था और कार कम से कम 90 मिनट और नहीं आती थी, तो लड़कियां मेरी बहन के साथ हमारे घर आ जाती थीं।’

    स्कूल और उस बिल्डिंग के बीच बस एक दीवार थी जहां गायक अपने परिवार के साथ रहते थे। संयोग से दीवार में बने एक छेद ने तीनों लड़कियों के लिए यह आसान कर दिया था कि अपनी हरे और सफ़ेद चैक की यूनिफ़ार्म को समेटें और कूदकर बिल्डिंग में दौड़ जाएं।

    ‘हम एक साधारण से दो बेडरूम के फ़्लैट में रहते थे; उस महलनुमा घर के सामने वो कुछ नहीं था जिसमें वो रहती थीं, जिसमें हर जगह कोई ख़ूबसूरत, महंगी या दुर्लभ चीज़ सजी थी। मगर फिर भी, रितु ने न तो कभी ख़ुद महसूस किया न हमारी ज़िंदगी की सादगी पर असहजता दर्शाई,’ नितिन कहते हैं।

    ‘वो कभी हमें यह महसूस नहीं होने देती थीं कि वो किसी फ़िल्म स्टार की बेटी हैं। वो यह कहते हुए किचन में चली जातीं, आंटी, मैं सबके लिए दूध बना दूंगी; वो फ़्रिज खोलतीं और एकदम घर की तरह खातीं-पीतीं। और मांस-मछली की शौक़ीन होने के बावजूद वो ख़ामोशी से गुजराती फरसाण या भेल खा लेतीं जो मेरी कट्टर शाकाहारी मां हम सबके लिए बनाती थीं। दूसरी ओर रीमा,’ नितिन हंसते हुए कहते हैं, ‘फैल जाती थीं। वो कहतीं, जब तुम हमारे घर आते हो तो ख़ूब चिकन उड़ाते हो, तो मुझे क्यों देते हो यह...

    कपूर आवास यक़ीनन उस दो बेडरूम के फ़्लैट से बहुत भिन्न था जहां रितु और रीमा अपनी दोपहर बिताती थीं। एक तो, बंगला दोमंज़िला था। लड़कियों का कमरा ऊपर था, लड़कों का नीचे। ‘हमारा कमरा कोमल और हल्के पेस्टल रंगों से सजा था,’ रीमा याद करती हैं। ‘वहां हमारे बेड, एक ड्रेसिंग टेबल और स्टूल और एक कबर्ड थी। हम शायद ही कोई मेकअप करते थे, मेरी मां को हमारा मेकअप करना पसंद नहीं था, लेकिन हम टेबल पर बैठकर तैयार होते थे।

    ‘मैं बहुत फैलावा करती थी; दूसरी ओर, रितु सफ़ाईपसंद थीं और उनकी ओर का बेड हमेशा दुरुस्त होता था। कमरे की एक साइड प्राइवेसी के लिए पर्दे से ढकी थी। यह लड़कियों का आम-सा कमरा था। और हम बेड पर लेटे बातें करते, कहानियां सुनते-सुनाते, या मैं अपने शिकवे-शिकायतें करती और मां के साथ अपने झगड़ों के बारे में बताती, और रितु मुझे दिलासा देतीं, वो हमेशा ही मां का पक्ष लेती थीं मगर वो मुझे उनका नज़रिया समझातीं और आख़िरकार मुझे शांत कर देतीं।’

    2

    बचपन के बंधन

    ‘चंचल, शीतल, निर्मल, कोमल’

    (सत्यम् शिवम् सुंदरम्)

    शायद किसी व्यक्ति के स्वभाव को बचपन के दोस्तों को बनाए रखने की क़ाबिलियत से ज़्यादा खुलकर और कोई चीज़ बयान नहीं कर सकती। रितु के स्कूल के दिनों की सहेलियों का गुट जीवन भर उनके संपर्क में रहा। उनमें से ज़्यादातर की समान पृष्ठभूमि थी, उन सबके पिता किसी न किसी रूप में फ़िल्मों से जुड़े थे। और, बेशक, सब अपनी रगों में फ़िल्मों के लिए दौड़ता प्यार लिए बड़ी हुई थीं।

    शीतल खन्ना जो दिल्ली में रहती हैं रितु की सबसे क़रीबी दोस्तों में से हैं। ‘मुझे शीतल नाम से कोई नहीं जानता, अपने सभी दोस्तों के लिए मैं कप्पी हूं,’ इस तरह से वो अपना परिचय देती हैं। उनकी यादें एक तरह से उस दिन पर वापस जा पहुंचती हैं जब उनका जन्म हुआ था, ‘क्योंकि एक ही डॉक्टर, डॉ. करुणा करण, ने हम दोनों का जन्म करवाया था।’

    रितु और कप्पी, जो एक साल और कुछ महीने बड़ी थीं, पक्की सहेलियां बन गईं, और हाथों में हाथ या एक दूसरे के कंधों पर बांहें डाले वो माटुंगा की ‘हॉलीवुड लेन’ में घूमती थीं जहां रितु के दादा-दादी और कप्पी के माता-पिता रहते थे। ‘कृष्णा आंटी अपने सारे बच्चों को लेकर रोज़ाना अपनी सास के साथ दिन बिताने के लिए आती थीं जिन्हें वो बहुत प्यार करती थीं,’ कप्पी कहती हैं, ‘और इसलिए रितु स्कूल से वहां आ जाती।’

    अधिकांश दोपहरें हॉपस्कॉच (इकड़ी-दुकड़ी) खेलने या परिवार के साथ एक दूसरे के घरों में आने-जाने में बीतती थीं।

    शाम आती और लेन लोकल खोमचेवालों से भर जाती और ढेरों चीज़ों में फ़ैसला करने की कोशिश करती लड़कियों के लिए चुनना मुश्किल हो जाता था। ‘हम लगभग रोज़ाना ही बेहतरीन भेलपूरी, पानी-पूरी खाते और गोला शर्बत पीते थे। ताज़े बेक किए कुकीज़ और घर की बनी कुल्फ़ी दूसरी मज़ेदार चीज़ें थीं,’ कप्पी याद करती हैं।

    दोनों लड़कियों में से कोई भी इस बात पर ध्यान भी नहीं देती थी कि अपनी बड़ी-बड़ी कारों में उनकी लेन से आ-जा रहे लोग हिंदी सिनेमा के बेहतरीन लोगों में से थे—अभिनेता अमरीश पुरी, के.एल. सहगल, मनमोहन कृष्ण और मदन पुरी समेत। उनके अपने परिवारों में उनके अपने स्टार थे। अगर कप्पी अपने कथा-लेखक पिता जे.पी. नंदा की शेख़ी मार सकती थीं जिन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब के स्क्रीनप्ले के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार पाया था, तो रितु के सितारों की आकाशगंगा उनके दादा पृथ्वीराज कपूर से नीचे बहती उनके अपने पिता तक आई और समय के साथ उसने उनके चाचाओं शम्मी और शशि को भी शामिल कर लिया था। बाहरी दुनिया की प्रशंसाओं से बेख़बर जिन्होंने उनके परिवार के सदस्यों को घेरा हुआ था, रितु उस दुनिया से अपने पसंदीदा फ़िल्म सितारों को चुनते हुए बड़ी हुई थीं जो उनकी अपनी दुनिया से बहुत दूर थी।

    उनकी ज़िंदगी में जन्मदिन बहुत बड़ी घटना होते थे, और इस तरह मनाए जाते थे जैसे किसी शहज़ादी का जन्मदिन मनाया जाना चाहिए। ‘हम हमेशा अपने और अपने भाई-बहनों के जन्मदिन एक साथ मनाते थे,’ कप्पी याद करती हैं। यह जोड़ते हुए कि उनके बेहद सामान्य से बचपन में लेन में आई स्पाई और एल-ओ-एन-डी-ओ-एन खेलना शामिल थे और जब घर के अंदर होते तो ‘हाउस हाउस’ और शायद फ़िल्मों से प्रेरित एक गेम खेलते थे जिसका नाम था ‘बहन-बहन’ (जिसमें दो बहनें छुटपन में बिछुड़ जाती हैं और बहुत साल बाद फिर से मिलती हैं)। यक़ीनन,

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