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Nar Nareeshwar
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Nar Nareeshwar

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About this ebook


All of Kali and Ponna's efforts to conceive a child have been in vain, subjecting them to taunts and insinuations by others in their community. Their only hope lies in the one night during the chariot festival in the temple of Ardhanareeswara, the half-female god, when rules are relaxed and consensual union between any man and woman is sanctioned. While this night could end the couple's suffering and humiliation, it will also put their marriage to the ultimate test.
Languageहिन्दी
PublisherHarperHindi
Release dateDec 25, 2017
ISBN9789352774586
Nar Nareeshwar
Author

Perumal Murugan

Perumal Murugan is an author, scholar and literary chronicler who writes in Tamil. He has written ten novels, five collections of short stories and five poetry anthologies. Apart from these he has published six compilations of essays on language and literature. Four of his books have been translated into English - Seasons of the Palm, One Part Woman, Current Shows and Pyre. The poetry he wrote during his exile from writing has also been translated in English and published as Songs of a Coward. He was honoured at the Indian Language Festival 2015 for his contributions to Indian writing. Murugan is a professor of Tamil at the Government Arts College.

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    Nar Nareeshwar - Perumal Murugan

    दो

    खाट पर लेट कर काली ने आँखें मूँद लीं। शरीर को जब पता चल जाये, करने के लिए कुछ विशेष काम नहीं है, तब शिथिलता आ कर घर कर लेती है। पोन्ना प्रसन्न थी काली अपने दिये हुए वचन के अनुसार आ गया था। जिस जगह काली लेटा था, वहाँ से वह पोन्ना को सारे घर में उछल-कूद मचाते हुए देख सकता था, जैसे कि उसका विवाह अभी-अभी हुआ हो। पोन्ना घर में कहीं भी हो, वह जानता था कि वह क्या कर रही होगी। वह उसकी कल्पनाओं में कुछ इस प्रकार बस गयी थी कि काली उसका प्रत्येक हाव-भाव ही नहीं, यह भी बता सकता था—वह कब, कहाँ, क्या कर रही होगी। नाक से गहरी साँस खींच कर वह जान गया कि पोन्ना उसके लिए नाश्ता बना रही थी और यह ही नहीं उसे यह भी पता था कि नाश्ते में क्या आने वाला था।

    थोड़ी देर में पोन्ना ने आ कर उसे झकझोर दिया, मामा, मामा!, वह प्यार से उसे इसी नाम से पुकारती थी। वह हाथ में नाश्ता लिए खड़ी थी—गरमा-गरम पकौड़े और कच्चायम**। जैसे गहरी नींद से जागा हो, काली आँखें मलता हुआ उठ बैठा। मुस्कान से पोन्ना का चेहरा खिल उठा, जो आँखों से निकल कर नाक, गाल और ललाट तक फैल गयी। काली के लिए यह सदैव ही आश्चर्य की बात रही थी कि पोन्ना किस तरह अपने चेहरे के हर अंग को मुस्कराहट में बदल सकती थी। उसकी गोद में प्लेट रख कर पोन्ना ज़मीन पर बैठ गयी।

    पोन्ना, क्या तूने इस पेड़ को देखा! चुरमुरा कर पकौड़ा मुँह में घुल गया। क्यों नहीं, जब भी आती हूँ इसे देखती हूँ।, पोन्ना ने उदासीनता से उत्तर दिया। नहीं, प्यारी पोन्ना नहीं, ज़रा सर तो उठा, देख तो यह कितना विशाल हो गया है। कितने सारे फूल लगे हैं, क्या कोई इन फूलों को गिन भी सकता है और वे लट्टू जैसे फल। काली कुछ अधिक भावुक हो गया था।

    पोन्ना, इधर तो आ घर के अन्दर से उसकी माँ ने पुकारा इस गुड़ के ज़रा टुकड़े तो कर दे। आती हूँ वह चिल्लाई और फिर काली की ओर मुड़ कर गहरी साँस लेते हुए बोली हमारी शादी पर तुमने इसे रोपा था। पूरे बारह बरस हो गये।

    पोन्ना का चेहरा मुरझा गया। सम्भवतः वह सोच रही थी—कैसे इन बारह साल में वह पेड़ कितना हरा-भरा और सघन हो गया था और एक वह थी, एक केंचुआ भी उसकी कोख़ में नहीं रेंग पाया। हर एक निरर्थक वस्तु पोन्ना को उसकी इस कमी का बोध कराती थी।

    विवाह के बाद पिता से झगड़ कर वह यहाँ से एक गाय ले गयी थी, जो अब तक सात-आठ बछड़े दे चुकी थी और अपनी सन्तानों से काली का खलिहान भर चुकी थी। उस गाय को देख कर न जाने कितनी बार उसकी आँखें भर आयी थीं। एक बार तो वह बहुत ज़ोर से चीखी भी थी मुझे कहाँ मिला है वह वरदान जो इस भाग्यवान मूक पशु तक को प्राप्त है। पोन्ना के आँसू देख कर काली उस गाय और उसके बछड़ों के प्रति रोष से भर उठता था। उसका दिल करता कि मार डाले उन सभी को। पर जब उनके भोले चेहरों की ओर देखता तब कहता हमारे इस दुर्भाग्य के लिए इन बेचारों का क्या दोष?

    ताड़ के गुड़ के साथ पके कच्चायम का कुछ और ही आनन्द है। काली ने पोन्ना का ध्यान बँटाने की चेष्टा की और एक डली उठा कर उसके होंठो के बीच रख दी। ऐसे ही अवसर पर तुम्हारा सारा प्यार उमड़ता है। एक बनावटी गुस्सा दिखाती हुई पोन्ना बोली और उसने डली को गले में नीचे उतार लिया।

    घर के भीतर से पोन्ना की माँ ने फिर पुकारा अरे ओ लड़की! जल्दी आ, तेल गरम हो चुका है।

    इसे थोड़ी देर के लिए भी सबर नहीं होता। बड़ी मक्कार है माँ। लोग ऐसे ही तो नहीं कहते इसे ज़रा-सा भी शऊर नहीं है, कब और कहाँ क्या बोलना है? देखो न, बग़ैर बात कितना चीख रही है। पोन्ना उठ खड़ी हुई और भीतर चली गयी।

    काली की आँखें जाती हुई पोन्ना पर टिकी थीं। कितना सटीक और सुदृढ़ शरीर था उसका? उसके मन में पोन्ना को पाने की लालसा उमड़ पडी। परन्तु काली करे भी तो क्या करे, एकान्त का एक कोना तक नहीं था उस घर में। जब उनका विवाह हुआ था, तब अनाज के बोरों को इधर-उधर खिसका कर उन दोनों के लिए थोड़ी-सी जगह बना दी गयी थी। अब वह कोई नया जमाई तो था नहीं, अतः ओसारे या फिर घर के सामने उसके लिए एक खटिया डाल दी जाती थी। काली का मन मचल उठा—काश! पोन्ना को खींच कर उसी क्षण अपने घर ले जाये।

    दोपहर की तेज़ धूप ने उसके शरीर को झुलसा कर रख दिया था। उसे याद आया मानसून के दिनों में वह कैसे पोन्ना से लिपटता-चिपटता घर के भीतर ही बना रहता था। न जाने कितनी बार उसने यह सोचा था—यदि पोन्ना माँ बन गयी होती, तो अन्य स्त्रियों की तरह वह भी थकी हारी मरियल-सी लगती। जब-जब उसने एक स्त्री की कल्पना की थी, तब-तब वह पोन्ना का मांसल शरीर ही था, जिसने उसे विचलित किया था और तड़पाया था। उस यन्त्रणा से बचने के लिए उसने पोन्ना की ओर देखना ही बन्द कर दिया था। परन्तु उसके मानस पटल पर वह सदैव उभर कर आती रही और जो अब भी वैसा ही बना हुआ था। लेकिन अब वह जब भी पोन्ना को बाँहों में जकड़ने की कोशिश करता, तो उसे ऐसा महसूस होता था—जैसे वह पहले जैसा आलिंगन नहीं था। पहले एक जुनून हुआ करता था, पोन्ना को हर बार नये ढंग से जानने की हड़बड़ी हुआ करती थी। अब वह सब जैसे शुष्क हो गया था। अब यदि वह अपना चेहरा पोन्ना के चेहरे के पास ला कर सटाता भी, तो मस्तिष्क में एक खलबली-सी मचती—‘क्या इस बार मनोकामना पूरी हो सकेगी?’ और वह विचार प्रज्ज्वलित ज्वाला को अनायास ही बुझा देता। आवेग के अँगारों पर बस राख बिखर कर रह जाती। काली की प्रतिक्रिया अब यन्त्रवत् हो चली थी। अब वह सम्भोग में रत बस यही दोहराता जाता ‘हे भगवान! दया करो, वर दो किसी तरह इस बार तो हम सफल हों।’ पर कहाँ कुछ होना था?

    पिछले सात-आठ साल से लोग उसके दूसरे विवाह की बात गुपचुप ढंग से या फिर खुल कर भी करने लगे थे। परिणामस्वरूप न जाने कितने लोग पोन्ना की घृणा का पात्र बन गये थे। एक दिन चेल्लप्पन जो मवेशियों का धन्धा करता था, बाड़े में आ पहुँचा। काली की एक गाय साँड के साथ प्रजनन की कितनी ही कोशिशें करने के बाद भी बच्चा नहीं दे पायी थी। वह उस गाय को चेल्लप्पन के हाथ बेच कर उससे छुटकारा पाना चाहता था। वे दोनों जब धन्धे की बात कर रहे थे, तब पोन्ना गोबर समेट कर फ़र्श साफ़ करने में लगी थी। वह जब भी बाड़े में आती, तब कुछ न कुछ काम करती रहती थी। भले ही काली ने गोबर अभी-अभी ही क्यों न उठाया हो, वह पशुशाला की ज़मीन दोबारा साफ़ करती, बछड़ों को नहलाती और उनकी रस्सी इधर से खोल कर दूसरी जगह बाँध देती थी। अधिकतर बकरियों की मेंगनियाँ भी वही उठाती थी। जब काली चेल्लप्पन के साथ बातों में लगा था, तब वह अपने काम में तल्लीन थी पर चेल्लप्पन की निग़ाह उसी पर ही टिकी थी। वह अपने लम्बे बालों में गाँठ लगाता हुआ बोला, "इसको भाग्य कहते हैं मप्पिल्लै***। कुछ गायें होती ही ऐसी हैं, चाहे कुछ भी कर लो गर्भिणी हो कर देती ही नहीं। अजी, चुपचाप गाय बदल लो। बस ‘हाँ’ तो कहो, तुरन्त एक नयी ला कर देता हूँ।" यह सब उसने कहा तो था हँस कर, परन्तु पोन्ना उसका अर्थ भलीभाँति समझती थी। उसने महसूस किया जैसे किसी ने एक भारी चट्टान उसके सीने पर ला कर रख दी हो। उसका दिल चाहा, चेल्लप्पन को झोंटो से पकड़ घसीट कर बाहर ले जाये और कोड़े से मार-मार कर उसका कचूमर निकाल दे। लेकिन उसने वह सब कुछ नहीं किया बस कोने में पड़ी लकड़ी उठा कर गाय पर बरस पड़ी। उसकी पीठ और टाँगें धुनती रही। और बेचारी गाय, इस आकस्मिक आक्रमण से बचने के लिए आँखों में दहशत भरे हुए बाड़े में इधर से उधर दौड़ती रही और पोन्ना की ज़बान भी उतनी ही तेज़ गति से चलती रही।

    क्या तुझे जगह और वख़त का लिहाज है? जानती नहीं थी, मैं तेरा गोबर उठा रही हूँ? और तू है खुर से मेरा ही पैर कुचलती है। तू तो मुझे गुस्सा दिलाने के लिए ही पैदा हुई है। बोल! मेरे साथ करेगी चालाकी? काट डालूँगी तेरी पूँछ, बदज़ात कहीं की।

    अच्छा मप्पिल्लै, फिर कभी आऊँगा। चेल्लप्पन दुम दबा कर भाग लिया।

    इस घटना के बाद चेल्लप्पन फिर कभी नहीं लौटा। काली को एक दिन कहीं मिल गया था, कहने लगा हज़ूर कुछ गायें ऐसी ही होती हैं। अगर कहीं उनके सामने पड़ जाओ, तो सींग से वार करें और अगर उनके पीछे जाओ, तो दुलत्ती मारें। आपकी दशा बड़ी जटिल है। दूसरी बार मिला तो बोला मप्पिल्लै, आपके लिए एक नयी गाय तलाश दूँ? और काली का जवाब था बाड़े पर आ जाना चाचा, वहीं बात करेंगे।

    न बाबा न! तुम सोचते हो आग में घी डाल तमाशा देखो? तुम्हारी गाय तुम्हारा मामला है, मुझे बख़्शो। और उस दिन के बाद चेल्लप्पन ने इस किस्से को वहीं पर समाप्त कर दिया था।

    काली मसख़रा बनने की कोशिश करता था, परन्तु इस प्रकार की बातें उसे बहुत दुःखी कर जाती थीं। वह जानता था कि पूरे गाँव में वह उपहास का पात्र बन गया था। लेकिन पोन्ना उन लोगों को, जो बाड़े में आ कर इस प्रकार की बातें करते थे, फटकारने से पीछे नहीं हटती थी। झाड़ू से पीटने के अलावा वह उनकी अच्छी तरह ख़बर लेती थी। पोन्ना की उपस्थिति में कोई भी इस विषय में कुछ कहने-सुनने का साहस नहीं करता था। परन्तु काली को वे जब भी अकेला पाते, तब यह चर्चा किये बग़ैर नहीं रहते थे।

    ** चावल के चूरे और ताड़ के गुड़ से बना पकवान

    *** ‘मप्पिल्लै’ माप्पिल्लै का अपभ्रंश है जिसका प्रयोग ‘जमाई’ के लिए या फिर दो पुरुषों के बीच आत्मीय सम्बोधन के लिए किया जाता है।

    तीन

    पोन्ना जब सहज क्षणों में काली के आलिंगन में होती, तब पूछती—मामा, क्या तुम दूसरी शादी करने की तो नहीं सोच रहे? बताओ न!

    काली उसे मीठी-मीठी बातों में उलझाने की कोशिश करता तू तो मेरी आँखों का तारा है, मेरा हीरा है, मोती है, मेरा ख़ज़ाना है, मैं तुझे कैसे छोड़ सकता हूँ? बस यही तो सुनना चाहती थी। और पोन्ना उसकी बाहों में पिघल जाती।

    काली उसे छेड़ता मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूँगा। यदि एक और शादी कर भी लूँ, तो भी तुझे नहीं छोड़ूँगा।

    छी: … छी: पोन्ना उसे धक्का दे कर रोने लग जाती। उसे झूठमूठ का गुस्सा करना नहीं आता था।

    जब कभी लोगों को आते-जाते देखती, तब पूछती क्या यह लोग शादी का रिश्ता ले कर आये थे?

    हूँ वह सहमति में सिर हिलाता।

    क्या शादी पक्की हो गयी?

    लगभग।

    तब फिर मेरा क्या होगा?

    मिल जायेगा एक कोना रहने को।

    जब तक थक कर चूर नहीं हो जाती थी, तब तक पोन्ना बड़बड़ाती रहती—मेरे भाग्य में यही तो लिखा है किसी दूसरी औरत से रोटी माँगूँ। मैं अभी यह घर छोड़ कर, अपने अप्पा के घर चली जाऊँगी। वे लोग मुझे कम से कम एक वक़्त का खाना तो देंगे, आख़िर उन्होंने मुझे जनम जो दिया है। और फिर मेरा भाई भी तो है। उसके पॉंवों में जा पड़ूँगी। सारी उमर और कुछ नहीं सत्तू तो खिला ही देगा। यदि कुछ भी नहीं हो पाया, तो क्या एक छोटी-सी रस्सी भी नहीं मिलेगी? पूवरशु के पेड़ की शाखाएँ चारों ओर फैली हैं, बस उन्हीं में से किसी एक में फँदा डाल कर लटक जाऊँगी।

    उसकी वह भोली बातें सुन कर काली मन ही मन मुस्कराता। पोन्ना ऐसे बर्ताव करती थी, जैसे उसके लिए सब कुछ समाप्त हो गया हो और काली सचमुच ही एक अन्य औरत को घर में ले आया हो। कभी-कभी काली को महसूस होता था, कहीं पोन्ना ऐसे ही किसी क्षण का रिहर्सल तो नहीं कर रही थी और फिर पोन्ना को मनाने में उसे कई दिन लग जाते।

    यह उन दोनों के लिए एक खेल बन गया था। यदि घर में ऊधम मचाते बच्चे होते, तो उन्हें यह सब करने की आवश्यकता ही क्या थी? यह खेल भी बस एक चाल थी, कहीं वे एक-दूसरे के चेहरे देखते-देखते ऊब न जायें। और जो बात रही दूसरे विवाह की, तो काली के मन में ऐसा विचार कभी आया ही नहीं था।

    कभी जब काली हास-परिहास में उसे छेड़ता—इस जीवन के लिए तो एक ही कष्ट बहुत है। तब पोन्ना भी उस क्षण वैसे ही ठिठोली करती और आगबबूला हो कर कहती—अच्छा! तो मैं तुम्हें बहुत दुःख दे रही हूँ। परन्तु दूसरे ही क्षण जब वह गम्भीर हो कर पूछती—मामा, क्या मैं कभी भी पेट से नहीं हो पाऊँगी? तब काली का दिल पिघलने लगता—क्यों नहीं! क्यों नहीं मेरी लाडली! अभी तो तू बस अट्ठाईस बरस की है और जब हमारी शादी हुई थी, तब तू सोलह साल की थी। लेकिन देख आज भी तू ठीक वैसी ही लगती है। अरे! औरतें तो चालीस-पैंतालीस की उमर तक बच्चे जनती हैं। अभी तेरी उमर ही क्या है? उनका हृदय आस्था और समर्पण के बीच इसी प्रकार हिचकोले खाता रहता था।

    दोनों में से किसी की भी जन्मकुण्डली नहीं बनी थी। यदि कभी माँ से पूछा, तो वह बस शुरू हो जाती थैली फटने के दो दिन बाद तक मैं दर्द से तड़पती रही। कौन था जो मेरी परवाह करता? किसी तरह से दाई ने हम दोनों की जान बचा ली। मैं तो बस भद्रकाली से मन्नत माँगती रही। तभी तो तेरा नाम कालियण्णा धरा। मुझे तो अब याद भी नहीं माघ का महीना था या फाल्गुन का। तुझे क्या लगता है, हम लोग कोई राजे-महाराजे हैं, जो हमारे जनम की तारीख और बखत कोई कहीं दरज करेगा। जिसका जीवन मिट्टी में ठोकर खाने के लिए हुआ हो, क्या करेगा वह जनम कुण्डली का और जो माटी में लोटने से पहले तेल की परत भी चढ़ा लो तब भी मिलेगा वही, जो चिपक कर रह जायेगा।

    पोन्ना के जन्म की भी कहीं कोई लिखा पढ़ी नहीं थी। न जाने कहाँ-कहाँ जा कर कितने ही पण्डितों को हाथ दिखाये और जो कुछ उन्होंने बताया उससे सन्तुष्ट हो कर लौटे। पोन्ना जब भी हाट जाती, तब तोते से अपना कार्ड अवश्य पढ़वाती। अपने क्षेत्र के उन सब ज्योतिषियों के पास, जो तोतों से कार्ड पढ़वाते थे, वह जा चुकी थी और उन सभी ने उसकी इच्छानुसार ही भविष्यवाणी भी की थी। एक बार भी कोई अशगुन वाला कार्ड नहीं निकला था। जब मेला लगता, तब कुछ ऐसे लोग भी आते थे, जो लकीरें खींच कर भविष्यवाणी किया करते थे। कुछ के पास बड़े-बड़े मोती होते, तो कुछ के पास गुटके और पत्थर। पैसे भी कोई अधिक नहीं लगते थे—यही कोई एक या दो रुपये। उन सबने भी अच्छा ही बताया। जब वह उन्हें यह बताती कि उसके विवाह को दस वर्ष से अधिक समय हो गया था, तब वे कहते—देर से होगी, परन्तु सन्तान होगी अवश्य।

    संकट के समय में श्रद्धा के समस्त धागे मिल कर एक हो जाते हैं।

    चार

    काली अभी गरमा-गरम पकौड़े और चावल की मीठी टिक्कियाँ खा कर हाथ पोंछ ही रहा था, पोन्ना एक प्लेट पकौड़े और ले कर आ गयी और साथ में पानी का गिलास भी। वे दोनों जब भी उत्सव पर यहाँ आते, तब इस पेड़ के नीचे ही अपना डेरा जमा लेते थे। चाहे दिन हो या रात एक दूसरे में मगन बस यहीं बैठे रहते। यह मकान खेतों के बीच एक दम अकेला था, अतः किसी के अचानक आ जाने की कोई सम्भावना नहीं थी। जो कभी बूँदा-बाँदी शुरू हो जाती, तो वे उठ कर ओसारे में चले जाते। परन्तु काली घर के अन्दर कभी नहीं गया। घर के नाम पर एक बड़ा कमरा ही तो था, जिसमें मुत्तु, उसकी घरवाली और बच्चा, साथ में उनके अलावा उसके सास-ससुर भी तो थे। ससुर तो ओसारे या फिर जानवरों के बाड़े में पड़े रहते और मुत्तु भी घर के भीतर बस सोने के समय ही जाता था।

    चढ़ावे के वास्ते पैसे ले लिये? काली ने पोन्ना से पूछा।

    लगता है सिर्फ़ यही एक कमी रह गयी है मेरी ज़िन्दगी में। अगर दोनों बाँहों में बच्चे थामें होती, एक पीछे कमर पर और एक पेट में, तब न माँगती अपना हक़ अप्पा और भय्या से? अब अगर वे दे देंगे, तो ले लूँगी और अगर न दें तो मैं माँगने वाली तो हूँ नहीं।

    पिछले दो वर्ष से वे मन्दिर की रथयात्रा के उत्सव में नहीं आ सके थे। इससे पहले जब भी वे आते थे, तब उन्हें नयी साड़ी, नयी धोती, तौलिया और न जाने क्या-क्या बड़े प्रेम से दिया जाता था। यही नहीं देवता पर चढ़ाने के लिए उन्हें दस-बीस रुपये भी मिलते थे। यह बात नहीं थी कि रस्मो-रिवाज के अनुसार काली को उस सबकी अपेक्षा थी, वह तो बस यों ही संवाद बनाने के लिए पूछ बैठा था और वह यह भी जानना चाहता था कि पोन्ना क्या सोच रही थी।

    काली ने प्यार से हाथ पकड़ कर पोन्ना को पलंग पर बिठा लिया। बैठते समय पोन्ना का पल्लू वक्ष पर कुछ नीचे खिसक गया। काली की नज़र झीने वस्त्र के पार जा पहुँची। पल्लू सँभालते हुए वह बोली—देखो न! दिन-दहाड़े तुम्हारी निग़ाहें न जाने कहाँ-कहाँ दौड़ती फिरती हैं।

    अगर मैं इन्हें देख नहीं सकता, तो फिर यह हैं किसलिये? बनावटी खीज भरे स्वर में काली बोला।

    अरी ओ पोन्ना माँ चीखी—इधर तो आ, ज़रा यह दाल तो देख, कहीं जल न गयी हो। एक अकेली मैं क्या-क्या सँभालूँ?

    यह बुढ़िया चुड़ैल अपने आप कुछ भी तो नहीं कर सकती। कहते हुए पोन्ना उठ खड़ी हुई। काली के चेहरे पर एक अजीब चमक देख कर वह हँस दी और उसके बालों में लगी गाँठ खोल कर मुस्कराती हुई घर के अन्दर भाग गयी।

    काली के बालों में लगी इस गाँठ से उसे बहुत लगाव था। अक्सर ही वह यह गाँठ खोल कर उसके बालों से खेला करती थी और कभी-कभी उन्हें वेणी में गूँथ कर कहती—मामा तुम्हारे बाल मेरे केशों से कहीं ज़्यादा घने हैं, लेकिन कोई नन्ही हथेली नहीं है जो इन्हें पकड़ कर तुम्हारे कन्धों पर जा चढ़े।

    पोन्ना हर किसी बात को बच्चे के न होने से जोड़ लेती थी। इस चिन्ता को वह अपने अन्दर छिपा कर रख सके, उसके लिए यह सम्भव नहीं था और यदि वह ऐसा कर भी ले, तो लोग किसी न किसी तरह ताड़ जाते थे। पोन्ना को यही विचार हर समय विचलित रखता—कब कौन इस सम्बन्ध में क्या कहने वाला था?

    पिछले वर्ष गाँव के उत्सव में न जा कर, काली पोन्ना को रथयात्रा दिखाने ले गया था। उस दिन सबसे बड़ा रथ चारों ओर घुमाया जाता था। आसपास के गाँवों से आये लोग गलियों और कूँचों में टूटे पड़ रहे थे। यदि एकबार हम भीड़ का अंग बन जायें, तो पता नहीं क्यों हमारी आत्मा भी अभिभूत हो उठती है। जब वे दोनों दुकानों को परख रहे थे, तब किसी ने काली को आवाज़ दी हे काली, तू ठीक तो है?

    भीड़ के उस पार बोम्मिडि मणि खड़ा मुस्करा रहा था। उसे गाँव छोड़ कर गये हुए कई बरस बीत चुके थे। बोम्मिडि में उसकी अपनी ज़मीन थी इसी कारण वह वहीं जा कर बस गया था। मणि जहाँ खड़ा था वहीं से चिल्लाया—कितने बच्चे हैं तेरे? काली के चेहरे का रंग एकदम उतर गया। यों तो भीड़ जैसे चल रही थी, चलती रही, लेकिन काली को महसूस हुआ जैसे हर कोई मुड़ कर उसको ही घूर रहा था। यह तो भला हुआ, जो उस समय पोन्ना चूड़ियों की दुकान के अन्दर थी।

    लज्जित हो कर काली ने बस ‘ना’ में सिर हिला दिया। मणि ने अपने माथे पर हाथ मार कर काली के भाग्य पर सहानुभूति दिखाई और बोला दूसरी शादी कर ले। काली उस उपदेश को मुस्कराहट में उड़ा कर भीड़ में विलीन हो गया। काली इस बात से चिढ़ गया कि लोगों के अपने जीवन में चाहे जितनी भी परेशानियाँ हों, लेकिन वो दूसरों की मुसीबतों को उकसाने और कुरेदने में कितना आनन्द लेते हैं। क्या उन्हें यह भी याद नहीं रहता कि वे घर से बाहर लोगों के बीच हैं? यह सोचना—जो उनके पास है, वह दूसरे के पास नहीं है, इसमें घमण्ड कैसा? क्या हर किसी को सभी कुछ प्राप्त है? क्या ऐसा नहीं है कि हर एक के जीवन में कोई न कोई अभाव हो?

    यह नहीं तो वह, कोई न कोई आ ही जाता काली को इस अभाव की याद दिलाने। उसका दिल करता था, वह ज़ोर से चिल्लाये और कहे—मेरे बच्चे हैं या नहीं, तुम्हें क्या? मुहँ बन्द करो और हो जाओ रफ़ूचक्कर। परन्तु वह ऐसा कभी नहीं कर पाया। कुछ था जो उसे इस अशिष्टता भरे उत्तर को देने से रोकता था। पोन्ना दे देती थी मुँहफट्ट जवाब, लेकिन काली नहीं दे पाता था।

    काली की माँ को पूरा विश्वास था कि कलियूर के पास जाने से सब दुःख दूर हो जायेंगे। कलियूर सप्ताह में केवल एक दिन भविष्यवाणी करता था। उस दिन वह ताड़ के पेड़ों पर चढ़ने का अपना प्रतिदिन का धन्धा समाप्त करके सुबह कोई दस बजे के आसपास छोटे मन्दिर के निकट पेड़ के नीचे आ कर बैठ जाया करता था। पूजा पाठ एकदम सरल थी। एक नींबू को काट, उसे खोल कर रख दिया जाता, जो बलि देने का प्रतीक था। वह रंग-बिरंगे पत्थरों के टुकड़े दो भाग में बाँटता, दायीं

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