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Nandini
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Ebook644 pages6 hours

Nandini

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About this ebook

यह कहानी नन्दिनी के जीवन पर आधारित है। नन्दिनी का जीवन समाज में फैले कुचरित्र को दर्शाता है। अंत में नन्दिनी का पति अपनी राजनैतिक इच्छाओ की पूर्ति के लिए नन्दिनी की हत्या करवा देता है। उपन्यास में इन्सान के सुख और दुख की वजह उसका स्वभाव बताया गया है, मोहब्बत इंसान के जीवन में उम्मीद को जिंदा रखती है। सार रुप में कहा जा सकता है, कि यह कहानी समाज में फैली कुरीतियों को ध्यान में रखकर लिखी गई है।

Languageहिन्दी
Release dateJul 5, 2023
ISBN9798223077916
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    Nandini - Kuldeep S

    ISBN: 978-81hj19251025

    Published by:

    Rajmangal Publishers

    Rajmangal Prakashan Building,

    1st Street, Sangwan, Quarsi, Ramghat Road

    Aligarh-202001, (UP) INDIA

    Cont. No. +91- 7017993445

    www.rajmangalpublishers.com

    rajmangalpublishers@gmail.com

    sampadak@rajmangalpublishers.in

    ——————————————————————-

    प्रथम संस्करण: मई 2023 – पेपरबैक

    प्रकाशक: राजमंगल प्रकाशन

    राजमंगल प्रकाशन बिल्डिंग, न. 121,

    ओजोन, क्वार्सी, रामघाट रोड,

    अलीगढ़, उप्र. – 202001, भारत

    फ़ोन : +91 - 7017993445

    ——————————————————————-

    First Published: May 2023 - Paperback

    eBook by: Rajmangal ePublishers (Digital Publishing Division)

    Copyright © कुलदीप

    यह एक काल्पनिक कृति है। नाम, पात्र, व्यवसाय, स्थान और घटनाएँ या तो लेखक की कल्पना के उत्पाद हैं या काल्पनिक तरीके से उपयोग किए जाते हैं। वास्तविक व्यक्तियों, जीवित या मृत, या वास्तविक घटनाओं से कोई भी समानता विशुद्ध रूप से संयोग है। यह पुस्तक इस शर्त के अधीन बेची जाती है कि इसे प्रकाशक की पूर्व अनुमति के बिना किसी भी रूप में मुद्रित, प्रसारित-प्रचारित या विक्रय नहीं किया जा सकेगा। किसी भी परिस्थिति में इस पुस्तक के किसी भी भाग को पुनर्विक्रय के लिए फोटोकॉपी नहीं किया जा सकता है। इस पुस्तक में लेखक द्वारा व्यक्त किए गए विचार के लिए इस पुस्तक के मुद्रक/प्रकाशक/वितरक किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं। सभी विवाद मध्यस्थता के अधीन हैं, किसी भी तरह के कानूनी वाद-विवाद की स्थिति में न्यायालय क्षेत्र अलीगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत ही होगा।

    प्रस्तावना

    अजय दमदम पहलवान के इकलौते पुत्र हैं। फिलहाल एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं, जमीन जायदाद भी खूब है। अजय अपनी माँ और पत्नी के साथ गांव से आधा मील दूर खेतों में अपने पूर्वजों की हवेली में रहता है। दया, धर्म, मान-सम्मान किसी चीज की कोई कमी नहीं है। भाग्य की देवी का ऐसा आशीर्वाद है कि दुख और अनहोनी हमेशा दहलीज से बाहर ही रहे, सुख इन्ही के कसीदे पढ़ता रहता है। घर के हर कोने में खुशबू महकती रहती है, खुशियों की किलकारियां गूंजती रहती हैं। इनकी दो संतान हैं ‘नन्दिनी’ (8 वर्ष) और ‘कर्ण’(6 वर्ष)।  

    ‘नन्दिनी’ मुस्कान और मासूमियत इन्ही के चेहरे पर अपना वास्तविक रंग दिखाती है। इनका अपने छोटे भाई के प्रति प्रेम किसी से छुपा नहीं है। कर्ण, इन्हें जीवन का वही पहलू मालूम है, जो माता-पिता ने बताया है। इसके लिए ये दुनिया हर पल अचरज से भरी है। इसे जब भी कोई नई चीज दिखती है तो तुरंत अचंभित हो जाता है। अचरज भरी निगाहों से उसे देखता है, कहता है- ओहो! इस दुनिया में ये चीज भी है। आईने से ज्यादा स्पष्ट है, काल्पनिक दुनिया से बहुत लगाव है। अजय और बिन्दु कर्ण के इस भोलेपन से अक्सर परेशान रहते हैं।

    इस कहानी के कथाकार है ‘शास्त्री’। मां-बाप गरीब हैं, इसलिए शास्त्री के पालन-पोषण और पढ़ाई पर उतना ध्यान नहीं दे सके, जितना सामान्तय: माता-पिता देते हैं। हर रोज की पीड़ा से बचने के लिए उन्होंने ये मान लिया था कि शास्त्री मानसिक तौर पर विकलांग है, पर वास्तविकता कुछ और थी।

    जब समाज और माता-पिता ने ही नजर फेर ली, तो शास्त्री को आवारा राहों ने गोद ले लिया। इनके पास लोगों को जानने परखने की अद्भुत क्षमता है, जिस वजह से लोग इन्हे ‘शास्त्री’ कहकर बुलाते हैं।

    कर्ण और शास्त्री दोनों एक ही गांव में पैदा हुए हैं। दोनों की समझ अमुमन एक जैसी, कभी-कभार अच्छे से अच्छे विद्वान और बुद्धिमान को शर्मिंदा कर दें। दोनों का ही लोक व्यवहार और छल-कपट से कोई नाता नहीं है। दोनों में एक मुख्य अन्तर है कि कर्ण का लगाव काल्पनिक दुनिया से बहुत ज्यादा है और शास्त्री का वास्तविक दुनिया से।

    नन्दिनी

    अध्याय-1

    आज सुबह-सुबह शास्त्री सड़क किनारे सरपट दौड़ा चला जा रहा था। बहुत परेशान था, मानो दुनिया भर की उलझनें इसके पीछे पड़ी हो। शास्त्री को बहते पानी की कल-कल की आवाज बहुत भाती थी, इसलिए आधा मील सफर तय करने के बाद शास्त्री एक नाले के किनारे खड़ा हो गया। चारों तरफ हरे-भरे खेत थे, ठण्डी पुरवाई चल रही थी, दूर पूर्व में सूर्य उदय हो रहा था। थोड़ी देर शास्त्री नाले के किनारे खड़ा रहा, फिर पुलिया पर आराम करने के लिए लेट गया। अचानक बच्चों की चीख और हंसी ने शास्त्री की नींद को छिन्न-भिन्न कर दिया। शास्त्री ने आंखें खोली तो सामने सफेद चोले में एक साधु खड़ा था। हाथों में कमंड़ल था, माथे पर चंदन का लेप था, शास्त्री ने पुलिया से उठकर साधु को प्रणाम किया।

    शास्त्री- प्रणाम बाबा, आप यहां? साधु- हाँ बेटा, जो लोग दान-पुण्य में विश्वास रखते है, मैं उनके घर आता-जाता रहता हूँ, पर तुम ? शास्त्री ने बड़े ही दुखी मन से कहा- मेरा गांव में मन नहीं लगता, गांव में जाता हूँ तो लोग पागल-पागल कहकर चिढ़ाते हैं, मेरे पीछे दौड़ते हैं, मुझे डर लगता है इस तंग विचार दुनिया से।

    साधु छोटे बच्चे का दुखी हृदय देख चिंता में पड़ गया। एक लम्बी सांस ली और फिर शास्त्री के पास पुलिया पर बैठ गया। साधु- ये दुनिया वाकई में बहुत विचित्र है बेटा। फिर नफरत इस दुनिया में कभी ना नकारे जाने वाला सत्य है, ऊपर से तुम दिखते भी अजीब हो। तुम्हें स्वीकारना इस दुनिया के लिए आसान नहीं है। थोड़ी देर बाद साधु मुस्कुराते हुए बोला- हां, पर मेरी समझ कहती है तुम एक उच्च कोटि के विद्वान बच्चे हो। शास्त्री जोर-जोर से हंसने लगा- विद्वान? आप मेरा मजाक उड़ा रहे हो। साधु मुस्कुराते हुए बोला- हां विद्वान, तुम्हें विद्वान का अर्थ मालूम है?

    शास्त्री गुमशुम कुछ सोचने लगा- ...हूँ; विद्वान क्यों नहीं। हाँ; कुछ लोग मुझे शास्त्री कहकर बुलाते हैं, ‘शास्त्री’ यानी जिसे संस्कृत भाषा की उच्चतम शिक्षा हासिल हो। ‘विद्वान’ यानिके जैसे रावण एक विद्वान था, उसे शास्त्रों का ज्ञान था, उसे शस्त्र का ज्ञान था, उसे हर दिशा का ज्ञान था। पर मैं ना शास्त्री हूँ और ना विद्वान। हाँ; मेरे पड़ोस में एक शास्त्री रहता है पर वो विद्वान नहीं है, वो पड़ोस की एक लड़की पर डोरे डालता रहता है, वो बाहर से खुद को बहुत अच्छा दिखाने की कोशिश करता है, पर अन्दर से वो कुछ अलग है, ‘इन्सान बहरूपिया होता है’। बाबा शास्त्री को बीच में ही टोकते हुए बोला- रुको-रुको बेटा कहां जा रहे हो? शास्त्री ने पलटकर तुरंत जवाब दिया- आपने शुरू किया, मैंने नहीं किया।

    बाबा शास्त्री को शांत करने लगा- ठीक है मेरे बच्चे, ठीक है। मुझसे गलती हो गई। साधु थोड़ा सोचने के बाद, तो लोग तुम्हें शास्त्री कहकर बुलाते हैं? शास्त्री- ऐसा लोग सोचते हैं कि मैं शास्त्री हूँ, पर मैं शास्त्री नहीं हूँ। साधु मुस्कुराकर बोला- बहुत अच्छे मेरे बच्चे, शास्त्री। अचानक शास्त्री पुलिया से खड़े होकर चिल्लाने लगा। दोनों हाथ से ताली बजाने लगा। सड़क के बीच में खड़े होकर उछलने लगा- वो पंछियों को ऐसे नहीं पकड़ सकते, वो इतना चिल्ला क्यों रहे हैं। शास्त्री की इस नादान हरकत पर साधु मुस्कुराने लगा- शांत हो जाओ मेरे बच्चे, शांत हो जाओ। पहले आप मेरे पास बैठो। शास्त्री वापिस पुलिया पर बैठ गया। अब मुझे ये बताओ तुम्हें पंछियों को पकड़ना अच्छा लगता है?

    शास्त्री- हाँ; मुझे पक्षियों के साथ खेलना अच्छा लगता है, शास्त्री अजय के घर की तरफ इशारा करते हुए बोला- मैं वहां जाऊँ। साधु सहम उठा- पागल हो मेरे बच्चे, अपना हुलिया देखो। वो लोग तुझे देखकर डर जांएगे। कुछ पल के लिए मानो सब कुछ थम सा गया। शास्त्री के हृदय में फिर से वही पीड़ा जाग उठी। दुखी मन से आसमान की तरफ देखने लगा- मैं ऊपर जाकर उस ईश्वर से जरुर पूछूंगा कि क्यों इतनी असामनता है तुम्हारी बनाई हुई दुनिया में, क्यों इतनी नफरत है लोगों के दिलो में।

    साधु समझ गया कि शास्त्री को ये बात अच्छी नहीं लगी। चिंतन करते हुए बोला- बेटा अनादर झेलने से अच्छा है, तुम इस नफरत के लिए अपने ईश्वर को दोष दो। फिर सच के साथ जीने से हृदय को पीड़ा हो सकती पर अनादर कभी नहीं। पर शास्त्री की नाराजगी टस से मस नहीं हुई। साधु फिर मुस्कुराते हुए बोला- चलो ठीक है, हम यहीं बैठकर उनके खेल का आनंद लेते हैं। अच्छा मुझे ये बताओ तुम्हें सामने क्या नजर आ रहा है? शास्त्री आड़ी-तिरछी निगाहों से घर की तरफ देखने लगा- घर के आंगन में दो बच्चे (कर्ण और नंदिनी) खेल रहे हैं। वो पंछियों को पकड़ने की एक नाकामयाब कोशिश कर रहे हैं, वो बहुत चिल्ला रहे हैं। शास्त्री आंगन की तरफ देखते हुए मुस्कुराने लगा।

    साधु मुस्कुराते हुए बोला-  ओहो! मेरे बच्चे मैं घर के आंगन की बात नहीं कर रहा, घर के ऊपर देखो।

    शास्त्री गोर से घर की छत पर देखने लगा। घर की छत पर एक श्रीमान (अजय) अपना आधा नंगा बदन लिए योग कर रहा है। वो कभी अपने पेट को अन्दर कर रहा है, कभी बाहर।

    साधु फिर मुस्कुराया, बोला- ओहो! मैं उस इन्सान की बात नहीं कर रहा। अपनी आंखें बंद करो और कुछ जानने की कोशिश करो। शास्त्री ने अपनी आंखे बंद कर ली। साधु शास्त्री के करीब आकर उसके कान में धीरे से फुसफुसाने लगा- कुछ सुनाई दे रहा है? शास्त्री- मुझे तो रसोई के अंदर बर्तनों के पटकने की आवाज सुनाई दे रही है। साधु- और कुछ ? शास्त्री- घर के अंदर एक औरत बेहद गुस्से में कह रही है। सुबह के आठ बजने वाले है। बच्चों के स्कूल जाने का टाइम हो गया और वो अपना आधा नंगा बदन लिए अभी तक छत पर बैठे हैं। बच्चों की तरफ तो कोई ध्यान ही नहीं। जब पैदा नहीं हुए थे तो हर दिन मेरे कान में गुनगुनाते थे। हम बच्चों के लिए ये करेंगे, हम बच्चों के लिए वो करेगें। अब सारा काम मुझे अकेले ही करना पड़ता है। शास्त्री की इतनी बात सुनते ही साधु ने एक लम्बी सांस ली। शास्त्री ने आंखें खोली तो साधु क्षुब्ध था, पूरी तरह से परेशान। साधु बेहद चिंता में बोला- मैं ही गलत हूँ। तुम हो एक नटखट, नादान बच्चे। तुम वही देखोगे जो तुम देखना चाहोगे, सौंदर्य, प्रेम, नफरत।

    साधु शास्त्री को कुछ समझाता, घर के अन्दर से बच्चों की माँ ‘बिन्दु’ बाहर आ गई। हाथ में एक लकड़ी की पतली सी छड़ी थी। मोरनी के जैसी लम्बी गर्दन, मृग के जैसी आंखें, गले में उनकी खूबसूरती को बढ़ाने वाले खूबसूरत आभूषण, दिमाग में फर्ज, चेहरे पर गुस्सा, हल्के काले कढ़ाई के सूट में उनका गोरा रंग ऐसा लग रहा था मानो बादलों की गहराई से पूर्णिमा का चांद निकल आया हो।

    बिन्दु बाहर आते ही बच्चों पर जोर से चिल्लाई- आज स्कूल नहीं जाना, स्कूल बस आने वाली है और तुम यहां खड़े होकर कबूतर उड़ा रहे हो। मां को गुस्से में देख दोनों बच्चे अपना खेल छोड़ घर के अन्दर भागे। भागते हुए जब दोनों मां के पास से गुजरे, तो ना चाहते हुए बेटे को मार पड़ गई। डर के मारे नादान नन्दिनी ने पीछे मुड़कर देखा तो समझ में आया कि अब उसे मार पड़ने वाली है। इससे पहले नन्दिनी को माँ की मार पड़ती, नन्दिनी जोर से चिल्लाई- माँ नहीं। बिन्दु का हाथ रुक गया, छड़ी की दिशा घुमकर बेटे की तरफ हो गई। परिणाम ये हुआ कि बेटी के हिस्से की मार भी बेटे को पड़ गई। बेटे के साथ खुला अन्याय हुआ तो बेटा भी चिल्लाया- दादी। अब एक कमरे के अन्दर से दादी भागती हुई बाहर आई। नाम ‘यशोदा’ उम्र तकरीबन सत्तर वर्ष, आंखो पे नजर का चश्मा, दादी अपने दोनों हाथ कर्ण की तरफ बढ़ाते हुए बोली- कर्णु क्या हुआ?

    कर्ण जोर से चिल्लाया- दादी, मम्मी मार रही है। जब घर के अन्दर शोरगुल हुआ तो घर की छत पर योग कर रहे श्रीमान अजय (बच्चों के पापा) अपनी कमीज उठाकर भागे, और ठीक सीढ़ियों के पास आकर खड़े हो गए। घर के आंगन में मां और पत्नी को आमने-सामने देखा तो सहसा आंखो की पुतली फैलकर दुगुनी हो गई। थोड़ी देर पहले मन जितना शांत था अब उतनी ही दुविधा में पड़ गया, क्या करें क्या ना करें। नन्दिनी भागती हुई सीधा अपने पापा के पास गई और कर्ण दादी के आंचल में जाकर छिप गया। यशोदा गुस्से में चिल्लाई- क्यों मार रही है इसे? बिन्दु- माँ स्कूल का टाइम हो गया, बस आने वाली है, और ये दोनों बाहर खड़े होकर कबूतर उड़ा रहे हैं। यशोदा- तो ?.....अगर बच्चे शरारत नहीं करेंगे तो कौन करेगा। सामने से बिन्दु भी चिल्लाई- माँ आपके लाड-प्यार ने ही बिगाड़ के रखा है इनको। अब नन्दिनी अपने पापा का आंचल छोड़कर चुपचाप घर की मुंडेर पर आकर बैठ गई, अपनी मम्मी और दादी का द्वंद्व युद्ध  देखने के लिए। सीढ़ियों के पास खड़े खुद में ही उलझे अजय को अब तक ये समझ में नहीं आया कि वो इस युद्ध में भाग ले या ना ले। अगर भाग ले तो फिर किसकी तरफ से हथियार उठाए। जब तक कुछ समझते बिन्दु उनकी तरफ इशारा करते हुए बोली- और वो सुबह-सुबह घर की छत पर बैठकर पेट को अन्दर-बाहर करते रहते हैं, बच्चों की तरफ तो कोई ध्यान ही नहीं। बताओ चालीस की उम्र में भी चौबीस के ख्याल देख रहे हैं। इतनी बात कहकर बिन्दु यहां से चल पड़ी। अजय सीढ़ियों से थोड़ा पीछे हट गया। यशोदा अपने चश्मे को सीधा करते हुए बड़े रोब से बोली- जा-जा अपना काम कर, ज्यादा चटर-पटर मत कर यहां खड़ी होकर, और दोबारा हाथ मत लगाना मेरे बेटे को। कर्ण अपनी दादी के आंचल के पीछे छिपकर अपनी मां की तरफ ऐसे देख रहा था जैसे सामने कोई अनहोनी खड़ी हो। आंखो से आंसू बह रहे थे, रुक-रुक कर सिसकियां आ रही थी। यशोदा ने कर्ण को अपनी गोद में उठा लिया। अपने बेटे का सिर सहलाती हुई बोली- चुप हो जाओ बेटा, कैसी भरपेट मां है। अपनी औलाद को मारकर इसे कैसे खुशी मिलती है। कर्ण अब दादी का नर्म आंचल पाकर और ज्यादा सिसकियां लेकर रोने लगा। कर्ण को इस तरह से रोता बिलखता देख नंदिनी का हृदय भी तड़प उठा। मुंडेर से खड़े होकर अपनी मां को आँख दिखाते हुई बोली- मम्मी; आप भाई को क्यों मारती रहती हो।

    बिन्दु ने पलटकर कहा- आऊं ? अजय भागकर नन्दिनी के पास आया। नन्दिनी को अपनी गोद में उठाकर बोला- चल बेटा, स्कूल जाने का टाइम हो गया। सड़क किनारे बैठा शास्त्री चिंता में डूबा था। शास्त्री- सम्भावनाएं तो बहुत सारी है, पर बिन्दु का इस तरह से अपने बच्चों को मारना ठीक नहीं है। एक मां को अपने बच्चों से मोहब्बत करनी चाहिए। ‘मोहब्बत’ परिवार को बनाए रखती है।

    पर साधु तो किसी और ही उलझन में पड़ा था। एक लम्बी सांस ली, पुलिया से खड़ा हो गया, कहने लगा- बेटा जब इन्सान पैदा होता है तो उसके साथ उसके सुख-दुख भी पैदा होते हैं।

    शास्त्री बड़े ही निराश भाव के साथ पुलिया से खड़ा हो गया- आप कहीं जा रहे हो?

    साधु- हां बेटा; जल और साधु अगर रुक जाए तो दूषित हो जाते हैं। हर किसी को अपने धर्म का पालन करना चाहिए, तुम अपने घर जाओ। शास्त्री को साधु का यूं उठकर चले जाना अच्छा नहीं लगा। गुस्से में बोला- नहीं, इंसान जब पैदा होता है तो उसके साथ उसका स्वभाव पैदा होता है। उसका स्वभाव ही उसके सुख और दुख की वजह बनता है। जैसे कि राम के स्वभाव में मर्यादा थी और रावण के स्वभाव में ज्ञान। वही उनकी पहचान थी और वही उनके सुख और दुख की वजह। साधु ने मुस्कुराते हुए शास्त्री के सर को सहलाया- समझ गया मेरे बच्चे, तुम एक विद्वान हो। आज जिस विचार को तुमने जाना है उसे संजोए रखना, अगर नियति में कोई बदलाव नहीं हुआ तो हम फिर मिलेंगे।

    शास्त्री ने दुखी मन से कहा- आप अंतर्यामी हो? आप जानते हो इस घर के साथ क्या होने वाला है, इसलिए आप इतने दुखी हो। साधु- नहीं मेरे बच्चे, उस ईश्वर के सिवा कोई अंतर्यामी नहीं है। पर हां कुछ ना कुछ बुरा तो जरुर होगा। इसके बाद साधु यहां से चला गया। शास्त्री फिर चिंतातुर होकर घर के आंगन की तरफ देखने लगा।

    दिन चढ़ने लगा था। सड़क पर वाहन चलने लगे थे। थोड़ी देर बाद अजय, ‘कर्ण और नन्दिनी’ को अपनी गोद में उठाकर घर से बाहर आ गया। तीनों सड़क किनारे खड़े होकर स्कूल बस का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद स्कूल बस आ गई। कर्ण और नंदिनी बस में बैठकर अपने स्कूल चले गए। शास्त्री इस घर के भविष्य की चिंता में खो गया, फिर दुखी मन से वापिस पुलिया पर बैठ गया। इसके बाद शास्त्री हर दिन यहां आने लगा। एक तो इस परिवार के भविष्य की चिंता में। दूसरा, सामाजिक तिरस्कार से बचने के लिए।

    सामान्यतः बच्चे अपने माँ-बाप की उंगली पकड़कर अपना बचपन जीते हैं। पर कर्ण ने अपना बचपन अपनी बहन की उंगली पकड़कर जीया। स्कूल से आने के बाद दोनों तुरंत खेतों में  भाग जाते, सरसों के खेत से फूल तोड़कर घर के आंगन में सजाते रहते। गेहूँ की बालियां तोड़ कर घर के आंगन में छोटी-छोटी क्यारियां बनाते। शाम होती तो दोनों तितलियों को पकड़ने लगते। अगर बिन्दु कभी कर्ण पर गुस्सा करती तो नन्दिनी तुरंत सामने आकर खड़ी हो जाती, अपनी माँ को आंख दिखाते हुए कहती- मम्मी आप भैया को मार नहीं सकती।

    इंसान जिससे मोहब्बत करता है उसके दुख से उसे पीड़ा होती है। नंदिनी, अपने भाई को अपने माँ-बाप से ज्यादा समझती थी और इसके सुख-दुख को भी। इसलिए नन्दिनी अपने भाई की हर छोटी-बड़ी गलती को अपने माता-पिता से छुपा लेती थी। बहन-भाई के प्रेम में बड़ी मधुरता थी, बस इस तरह नन्दिनी के सुरक्षा कवच में कर्ण का बचपन गुजर गया।

    अध्याय-2

    तकरीबन 14 साल बाद, ये मध्यम आषाढ़ था। शाम के तकरीबन पांच बजे थे। आसमान में सूरज धुएं के बादल के पीछे से ऐसे ताक रहा था, जैसे कोई शर्मीला बच्चा किसी दीवार के पीछे छुपकर कुछ देख रहा हो। अब घर पर वृक्षों की आड़ नहीं थी।  आस-पास की कुछ जमीन पर फसल लहलहा रही थी, और कुछ को जुताई का इंतजार था।

    अजय के घर की तरफ जाने वाले कच्चे रास्ते पर लोगों की चहल-पहल लगी थी। आज नंदिनी की शादी थी। घर के आंगन में शादी का पंडाल लगा था। नन्दिनी की शादी हो चुकी थी, फिलहाल नन्दिनी की घर से विदाई हो रही थी। मेहमान धीरे-धीरे शादी के पंडाल से बाहर निकल रहे थे। अजय शादी के पंडाल में खड़े होकर मेहमानों का शुक्रिया अदा कर रहा था। सर पर पगड़ी सजी थी, होंठो पर हल्की मुस्कान थी। छोटा हो या बड़ा हर किसी के सामने सर नतमस्तक था। सामने स्टेज पर दुल्हन के लिबास में नंदिनी और उसका मंगेतर चंद्रकांत खड़े थे। नीचे औरतों की भीड़ में दुल्हन बनी अपनी बेटी को देखकर, बिन्दु मंद-मंद मुस्कुरा रही थी। आंखो में एक चमक थी, चेहरा खिला हुआ था। फिर पास खड़ी अपनी बहन रेखा के करीब आकर उसके कान में फुसफुसाने लगी। नन्दिनी और चंद्रकांत स्टेज से उतरकर धीरे-धीरे दूल्हे की गाड़ी की ओर चल पड़े।

    थोङी देर बाद, नन्दिनी दुल्हे की गाड़ी में बैठी थी। महिलाएं गाड़ी के चारों ओर खड़े होकर विदाई के गीत गा रही थी। औरतों की भीड़ से अलग जय-नारायण घर के आंगन में बने चबूतरे पर खड़ा रो रहा था, (इस घर से जय-नारायण के रिश्ते का उल्लेख आपको अध्याय-3 में मिलेंगा)। जय-नारायण के अन्दर कोई बनावट नहीं थी। अगर नन्दिनी के जाने का दुख था, तो वो रोने लगा। आनंदी (जय-नारायण की पत्नी) चुपके से जय-नारायण के पीछे आकर खड़ी हो गई, और जय-नारायण को घूरने लगी- क्या है, रो क्यों रहे हो? वो अपने घर जा रही है। फिर कुछ पैसे जय-नारायण के हाथ में थमाते हुए बोली- चलो मेरे साथ। जय-नारायण आनंदी के पीछे-पीछे दुल्हे की गाड़ी की ओर चल पड़ा। नंदिनी की तरफ देखने की हिम्मत नहीं हुई इसलिए अपना चेहरा घुमाकर दूर से ही पैसे नन्दिनी के हाथ में थमा दिए और सर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया। इसके बाद चुपके से निकल लिए। नन्दिनी, आनंदी से बोली- ताऊ जी को क्या हुआ? आनन्दी ने अपनी शक्ल बनाते हुए कहा- तू जानती तो है, ये कैसे हैं। नन्दिनी अपने ताऊ की ओर देखकर मुस्कुराने लगी। इसके बाद आनंदी ने कुछ पैसे नंदिनी के हाथ में रखे, और सर पर आशीर्वाद का हाथ रखते हुए बोली- खुश रहना मेरी लाडो।

    थोड़ी देर बाद दूल्हे की गाड़ी धीरे-धीरे लोगों की भीड़ से आगे आ गई। अजय अपने घर की मुंडेर पर खड़ा अपनी बेटी की विदाई को बड़ी खामोशी से देख रहा था। दूर क्षैतिज पर सूर्य अस्त हो रहा था। अजय रास्ते से जाती दूल्हे की गाड़ी को तब तक देखता रहा, जब तक वो आंखों से ओझल नहीं हो गई। जैसे ही गाड़ी आंखो से ओझल हुई अजय की आंखों से आंसू बहने लगे। सूरत ऐसी हो गई मानो उसका सब कुछ कोई उससे छिन के ले गया हो। बेटी की विदाई के विलाप में आत्मा तड़पने लगी। बेहद उदास मन से धीरे-धीरे छत पर रखी चारपाई पर जाकर बैठ गया। नीचे जितने भी सगे-सम्बन्धी खड़े थे, वो धीरे-धीरे घर के अंदर आने लगे।

    थोड़ी देर बाद, दरभेष (बिन्दु का भाई) पंडित जी के साथ घर से बाहर आ गया। चेहरे पर खुशी की आभा बिखरी थी। रंग सांवला था, पर चमक रहा था। जालीदार नीले रंग का कुर्ता पहना था, सर पर पगड़ी सजी थी। दरभेष और पंडित जी घर के बाहर आंगन में खड़े होकर आपस में बातें करने लगे। पंडित- मानना पड़ेगा, जजमान ने पुत्री की शादी में दिल खोलकर पैसा खर्च किया है। एक भी मानुष से कुछ बुरा नहीं सुना, कीर्ती बनी रहे जजमान की। सब की खुशी-खुशी विदाई हो गई, मान-सम्मान बना रहे। सब कुछ जैसा सुना था, वैसा ही पाया।

    दरभेष फुले नहीं समाते, अपनी मूछों को ताव देते हुए बोलें- पंडित जी ये जीजा जी की करामात नहीं, मेरी बहन बिंदु की मेहरबानी है।

    पंडित जी मुस्कुराते हुए बोले– ये शब्द ना मन भावे दरभेष जी, एक औरत और शादी का ऐसा प्रबंध, सुनने में थोड़ा अजीब लगता है। पंडित जी जरा मुस्कुराने लगे, दुनिया हमने भी देखी है।

    दरभेष जी को ये बात तनिक चुभ गई। सीना तान कर बोले- क्या बात करते हो पंडित जी, बिन्दो 80 के दशक में एम.ए. कर चुकी है। एक गांव में शादी कर दी तो क्या हुआ, बिन्दो आजाद ख्यालों की औरत है। बाकी औरतों की तरह घर की चारदीवारी में दुबककर नहीं बैठती। ये आपके अजय जी तो मेरी बहन बिन्दो के सामने पानी भरते है, बेशक सरकारी अध्यापक हो।

    पंडित जी बनावटी हंसी हंसते हुए बोले- चलो ठीक है जजमान, आपसे क्या जिरह करना। जो बोल दियो वो ही सत्य वचन।

    दरभेष फिर अपना सीना चौड़ा करके बोला- आपको मानना ही पड़ेगा, मेरी बहन बाकि माताओं की तरह बेटी की विदाई पर विलाप नहीं करती, वो खुशी मनाती है। क्योंकि वो जानती है, बेटी का असली घर उसकी ससुराल है। पंडित जी माथे पर हाथ फेरते हुए सोचने लगा, अब इससे कैसे पीछा छुड़वाउ। पंडित जी फिर एक बनावटी हंसी हंसने लगा- जजमान दक्षिणा दें, तो मैं जाँऊ। दिन ढलने के बाद घर पहुंचने में बहुत मुश्किल होती है। दरभेष-  हां क्यों नहीं, पर आपने बात तनिक चुभने वाली कही। हम कुछ भी सहन कर सकते है पर अपनी बहन के आत्म-सम्मान पर आंच नहीं।

    दरभेष पैसे देकर पलटे ही थे कि घर के आंगन में देखते ही चेहरे की भाव भंगिमा बदल गई। दरभेष- पंडित जी जरा शंका है। पङितजी का रोम-रोम सचेत हो गया। पंडितजी- क्या शंका है जजमान ?

    दरभेष- मेरी पत्नी अक्सर कहती है कि बिन्दु की आत्मा उसकी बेटी नन्दिनी में रहती है। अब नन्दिनी तो इस घर से चली गई, इस घर का क्या होगा ?

    पंडितजी एक हाथ से ईशारा करते हुए बोला- आपने जरा पी रखी है। दरभेष- पी रखी है? दरभेष अपने गले पर हाथ रखकर बोला अपने बच्चों की कसम, मैंने आज तक शराब को हाथ नहीं लगाया। वो तो बस मेहमानों के आदर सम्मान में....., थोड़ा बहुत करना पड़ता है। शादी विवाह में अगर पिने-पिलाने का कार्यक्रम ना हो, तो लोग बुरा मान जाते हैं। बाहर निकलकर कहते हैं कोई खास कार्यक्रम नहीं था, वैसे ही पैसे की बर्बादी कर रखी थी।

    पंडित जी मुस्कुराने लगे- मैं समझ सकता हूँ, क्या है कि जजमान आपकी बहन ठहरी आजाद ख्यालों वाली औरत, पढ़ी-लिखी। खुशी के मौके पर खुशी ही मनाएगी।

    दरभेष हंसते हुए अपने माथे को पीटने लगे- पड़ित जी, आप सच में ज्ञानी ठहरे। इसके बाद पंडित जी अपने रास्ते हो लिए और दरभेष अपने दोनों हाथ जोड़कर मंद-मंद नशे में, मेहमानों का शुक्रिया अदा करने लगा।

    अन्दर बिन्दु औरतो की भीड़ में नाच रही थी। अपने पतले गुलाबी होठों पर मुस्कान लिए मानो कोई नृत्य की देवी झूम रही हो। आंखो में जीवन भर के सपने साकार होने की खुशी थी। बिन्दु जितनी खूबसूरत है उतना अच्छा नाचती भी है। दरभेष औरतों की भीड़ से आगे निकलकर घर के अन्दर चला गया, जहां घर के मेहमान बैठे थे। मद्ध प्यालों से बाहर छलक रहा था। मेहमानो के आदर-सम्मान के साथ अब दरभेष खुद का आदर-सम्मान भी करने लगा।

    शाम के 08:30 बजे थे। ठण्डी पुरवाई चल रही थी। घर की रोशनी और शोरगुल के अलावा खेतों में अब हर जगह अंधेरा और सन्नाटा पसरा था। अजय अपने घर की सबसे ऊपरी छत (दूसरी मंजिल) पर अकेला बैठा था। थोड़ी देर बाद अजय चारपाई से उठकर मुंडेर के पास खड़े होकर, सड़क की तरफ देखने लगा। हृदय के अन्दर नन्दिनी की यादों ने कोलाहल मचा रखा था। आंखे ऐसे रास्ते को निहार रही थी, मानो नन्दिनी अभी स्कूल बस से उतरकर अपने पापा के गले से लिपट जाएगी। पर अब सड़क पर अंधेरे के अलावा कुछ नहीं था। सगे-सम्बन्धी और गांव के लोग जरूर घर के रास्ते पर आते-जाते नजर आ रहे थे, पर इनमे नंदिनी नहीं थी। आंखों में फिर यादों के आंसू आए, आत्मा ऐसे तड़पने लगी मानो कोई वियोग का कैदी हो। बिन्दु अजय को ढूंढतेी हुई घर की छत पर पहुंच गई और चुपचाप अजय के पीछे आकर खड़ी हो गई।

    बिन्दु- लगाव इन्सानों को बिलक-बिलक कर रोने के लिए मजबूर कर देता है। मैं जानती थी कि आपको नन्दिनी की यादें कहीं अकेले में ले गई होंगी। पर मास्टर जी इतने कमजोर होंगे, ये मैंने नहीं सोचा था।

    अजय अपनी आंखो से आंसू पोंछते हुए बोला- नहीं-नहीं मैं बस वैसे ही खड़ा था।

    बिन्दु- आपको झूठ बोलना नहीं आता, आपको नंदिनी के जाने का दुख है, इसे स्वीकार करने में क्यों एतराज है। हूँ; संतान का मोह मां-बाप से कुछ भी करवा सकता है।

    अजय बिंदु की और पलटा- बिन्दु?

    बिन्दु- हां; आपने क्या सोचा कि मुझे नन्दिनी के जाने का दुख नहीं है। हमने अपनी बेटी को प्यार से पाल पोस कर इतना बड़ा किया, बस इसलिए कि उसे एक दिन इस घर से जाना था।

    अजय- बिन्दु, अजय एक कदम बढ़ाकर बिन्दु को अपने गले से लगा लेता है। बिन्दु की आंखो से आंसू बहने लगे। अजय बिन्दु के सर को सहलाते हुए बोला- शांत हो जाओ।

    बिन्दु अपनी आंखों से आंसू पोछते हुए बोली- पता नहीं उसे कैसा इन्सान मिला है, वो उसका ख्याल भी रखेगा या नहीं।

    अजय अपनी आंखो से आंसू पोंछते हुए बोला- चंद्रकांत एक अच्छा लड़का है, वो जरूर हमारी बेटी का ख्याल रखेगा।

    बिन्दु- हर कोई मास्टर जी नहीं है कि वो अपनी पत्नी की खुशी के लिए अपने उसूलों के साथ समझौता कर लेगा।

    अजय- हर कोई अपनी पत्नी से बहुत मोहब्बत करता है बिन्दु।

    बिन्दु- मैं बहुत खुशनशीब हूँ कि मुझे आप जैसा इन्सान मिला। पता है, आपके प्रिय भ्राता आपकी भाभी के सामने आपकी तारीफ में क्या कह रहे थे ? अजय- क्या ? मास्टरजी बहुत गुस्सैल इंसान है; पर अपनी पत्नी से मोहब्बत इतनी करते है कि बिन्दु के सामने उनकी गर्दन कभी उठी नहीं

    अजय मुस्कुराने लगा।

    बिन्दु- मुझे आप पर भरोसा है, नन्दिनी की यादों ने परेशान किया तो मैं आपके पास चली आई।

    बिन्दु और अजय वापिस घर की मुंढेर के पास आकर खड़े हो गए। बिन्दु एक लम्बी सांस लेने के बाद- हूँ; याद है बचपन में कितनी प्यारी लगती थी नन्दु। मैं बहुत गुस्से में भी उसे मार नहीं पाती थी। मेरे हाथ में छड़ी देखते ही कैसे चिल्लाती थी, ‘मां मुझे मत मारो’।

    अजय मुस्कुराने लगा- हां; और फिर वो भागती हुई मेरे पास आती थी, पापा प्लीज मुझे बचा लो। मम्मी मार रही है। अजय ने एक लम्बी सांस ली, क्या पता था एक दिन ये दिन भी आएगा। बिन्दु- अगर पता होता कि उसकी विदाई हमे इतना रुलाएगी तो हम अपनी बेटी को कभी अलग ना करते। मन करता है वो कहीं से दौड़ती हुई आए और मैं उसे कसकर गले से लगा लूं।

    ठण्डी पुरवाई चल रही थी। अपनी बेटी की यादों के साथ दोनों खामोश खडे थे। बिन्दु- सुनो, मैं जिन्दगी की आखिरी सांस तक आपको छोड़कर नहीं जाऊंगी।

    अजय ने बिन्दु की तरफ देखते हुए कहा- मैं भी,

    बिन्दु अजय की बाजू पकड़ कर बोली- चलो अब खाना खाओ।

    अजय- मुझे भूख नहीं है बिन्दु,

    बिन्दु अपने दोनों हाथ कमर पर रखकर अजय के सामने खड़ी हो गई- क्यों, नंदिनी के जाने का दुख है ?

    अजय- मालूम नहीं, पर आज घर काटने को दौड़ रहा है। कुछ अच्छा नहीं लग रहा, ऐसा लग रहा है जैसे इस घर की खुशियां भी नन्दिनी के साथ चली गई हो।

    बिन्दु पागलो की तरह हंसने लगी- घर की खुशियाँ; नीचे देखो नीचे, लोग कैसे खुशी के मारे पागल हो रहे हैं।

    नीचे दरभेष अभी भी अपने लड़खड़ाते कदमो से लोगों की सलाम-दुआ कर रहा था। मेहमानों का आदर-सम्मान करते-करते खुद का आदर-सम्मान कुछ ज्यादा ही हो गया था। अंगूरी (शराब) के यौवन का रस ऐसा था कि दरभेष के कदम झूम-झूम के गिर रहे थे। होश का कोई ठिकाना नहीं था।

    दो दिन बाद; दोपहर के 12 बजे थे। घर के अन्दर कर्ण अपनी मां के साथ काम में हाथ बंटा रहा था। शादी में जो सामान इधर-उधर बिखर गया था, दोनों उसे समटने में लगे थे। अजय अभी-2 शहर से लौटकर आया था। मासूम सा दिखने वाला इंसान लावे की तरह दहक रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो मास्टर जी किसी के खून के प्यासे हो। बाहर आंगन में स्कूटर खड़ा किया, हाथ में छाता उठाया, थोङी देर यही खड़े होकर कुछ सोचते रहे, फिर तेज कदम रखते हुए घर के अन्दर आ गए। अन्दर आते ही जोर से चिल्लाया- बिन्दु ?

    सामने के कमरे से बिन्दु भी बाहर आ गई– क्या हुआ?

    अजय- बिन्दु मैं एक सरकारी अध्यापक हूँ।

    बिन्दु- हां तो; इसमें इतना चिल्लाने की क्या बात है?

    अजय- मैंने अपने जीवन में यही सिखाया है कि इंसान को अपने उसूलो का पक्का होना चाहिए। मैं घर-घर जाकर लोगों को शिक्षा की अहमियत के बारे में बताता हूँ। मैं बताता हूँ, समाज में बिना शिक्षा के बदलाव सम्भव नहीं है। आखिर ज्ञान की नौका ही इंसान को कामयाबी के छोर पर ले जाती है। पर मेरा दुर्भाग्य है कि लोग पढ़ने-लिखने के बावजूद खुद को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। इन्सान के स्वार्थ के सामने, उसके जमीर, उनकी शिक्षा की ताकत कमजोर पड़ जाती है।

    बिन्दु- हुआ क्या है, बातों को क्यों गोल-गोल घुमा रहे हो।

    अजय- गुप्ता जी के पास गया था, वो जो नंदिनी की शादी में उसकी जरुरत का सामान उसे दिया था, उसके पैसे देने।

    बिन्दु- आप दहेज के सामान की बात कर रहे हो?

    अजय- ओहो! मुझे इस शब्द से भी घिन है।

    पीछे खड़ा कर्ण ये सब सुन रहा था। कर्ण- पर पापा इन्सान की पढ़ाई-लिखाई और नेकी का कोई सम्बन्ध नहीं होता है। जितना मैं समझता हूँ एक अनपढ़ इंसान भी ईमानदार हो सकता है और पढ़ा लिखा इंसान बेईमान। अजय गुस्से में कर्ण की तरफ देखने लगा- बिन्दु?

    कर्ण तुरंत समझ गया, यहां से भागते हुए बोला- पापा मैं आपके लिए पानी लेकर आता हूँ, आप बहुत गुस्से में लग रहे हो।

    इसके बाद अजय घर के आंगन में चारपाई पर बैठकर बड़बड़ाने लगा- घोर कलयुग; इंसान ने भेड़िये का रूप ले लिया है। इसे एक बार कोई चीज मिल जाए फिर तो उसे नौच खाते हैं। बिन्दु गुस्से में बोली- ओहो! हुआ क्या है, कुछ बताओगे भी। अजय- लूट मची पड़ी है पुरी दुनिया में, बेईमानी की भी हद होती है। गुप्ता जी शादी से पहले कह रहे थे मास्टर जी 12-13 लाख में सारा सामान हो जाएगा, अब गया तो जनाब 15 लाख का बिल बनाए बैठे है। उनका बेटा कह रहा है, मास्टर जी नमस्ते। पांव को हाथ लगाकर गर्दन ही काट डाली, भाई ये कैसे नमस्ते?.... जिनको मैंने पढ़ाया वो आज मुझे पढ़ा रहे है?

    बिन्दु- कोई बात नहीं सब बेटी के घर ही गया है।

    अजय- बात बेटी की नहीं है बिन्दु, बात है इन्सान को व्यवहार का अच्छा होना चाहिए।

    एक तो गर्मी ऊपर से गुस्सा, अजय ने सर की पगड़ी उतार कर सिरहाने रख दी। चारपाई से पंखा उठाकर हवा करने लगा, तब तक कर्ण पानी लेकर आ गया।

    पानी पिकर अजय ने गिलास चारपाई के नीचे रखा था कि फिर बड़बड़ाने लगा- इंसान के जीवन भर की कमाई पल भर में छीन लेते हैं। बेईमानी का कोई उसूल नहीं होता। फिर अपने कुर्ते की जेब टटोलने लगा, जैसे सर्वस्व लुट गया हो। कर्ण अपने पापा की ऐसी हालत देख, दुखी हो गया। इसके बाद कर्ण और बिन्दु यहां से चले गए। कर्ण बीच रास्ते मुड़कर अपने पापा की तरफ देखने लगा- मम्मी पापा बहुत दुखी है? बिन्दु- मैं जानती हूँ बेटा,

    कर्ण- जबकि सामान सारा वही था, जो आप पसंद करके आई थी।

    बिन्दु- पर असली वजह पैसा नहीं है, असली वजह है नन्दिनी। आज मास्टर जी जब घर आए तो उनकी लाडली उसे घर पर नजर नहीं आई, उनकी आत्मा तड़प उठी।

    कर्ण अचरज भरी निगाहों से अपनी मां की तरफ देखते हुए बोला- तो असली वजह दीदी है।

    बिन्दु- हां, सोचो मास्टर अजय जी, जो अपने उसूलों का इतना पक्का

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