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Krishna: Mahabharat Ke Baad
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Ebook143 pages55 minutes

Krishna: Mahabharat Ke Baad

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About this ebook

कृष्ण, एक परिपूर्ण व्यक्तित्व हैं, मानवता और धर्म से भरा हुआ व्यक्तित्व। महाभारत युद्ध के बाद की कथा में कृष्ण का विषाद है, वेदना है, व्याकुलता है फिर भी जीवन का संतुलन है, मानव कल्याण की भावना है और असामाजिक, विधर्मी तत्वों से समाज को बचाने के लिए, अपने कुल को नष्ट करने की क्षमता भी। जब जन्म लिया तब भी किसी को पता नहीं चला और अंतिम दिन भी कोई नहीं जान पाया। कष्टों और विपत्तियों से भरा जीवन, फिर भी मनोहारी मुस्कान, कृष्ण को भगवान बनाती है।

 

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वरिष्ठ लेखक प्राणेन्द्र नाथ मिश्र एयर इंडिया (Air India-पहले इंडियन एयरलाइन्स) के साथ 35 वर्षों तक विमानों के रखरखाव के क्षेत्र से जुड़े होने के बाद 2012 में मुख्य प्रबंधक (इंजीनियरिंग) पूर्वी क्षेत्र के पद से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं. जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ लेकिन अभी पश्चिम बंगाल में रहते हैं. प्राणेन्द्र जी ने एम एन आई टी इलाहाबाद उत्तर प्रदेश से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बी.ई. (BE) करने के बाद एम. बी. ए. (MBA) किया है.

प्राणेन्द्र जी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा अखबारों के लिए कविताएँ लिखते रहे हैं. तीन काव्य पुस्तकें, अपने आस पास, तुम से तथा मृत्यु-दर्शन लिख चुके हैं. दुर्गा के रूप काव्य संग्रह समाप्ति की ओर है. कुछ कहानियाँ एवं गज़लें (साकी ओ साकी..) जल्दी ही प्रकाशित होने वाली है. प्राणेन्द्र जी के द्वारा अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवादित कुछ लेख तथा उपन्यास "नए देवता" प्रकाशित हो चुके हैं और अनुवादित पुस्तक "अनुपस्थित पिता" प्रकाशन की ओर है.

Languageहिन्दी
Release dateJan 13, 2023
ISBN9798215655955
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    Krishna - Pranendra Nath Misra

    दो शब्द

    साहित्य में श्रीकृष्ण भिन्न भिन्न रूपों में, भिन्न भिन्न प्रकारों से उपस्थित हैं। उनका व्यक्तित्व, द्वैपायन व्यास से लेकर आज तक के रचनाकारों को अगर आकर्षित करता है तो इसलिए कि उसमें जो भी, जो देखना चाहता है, दिखाई देता है। यही कारण है कि कोई उनके विराट व्यक्तित्व को अपनी रचना का पाथेय बनाता है, तो कोई उनसे संबन्धित किसी घटना या प्रसंग को। प्राणेन्द्र नाथ मिश्र की दृष्टि, श्रीकृष्ण के उस स्वरूप पर केन्द्रित हुई है जो महाभारत के बाद का है। यह बात अलग है कि इस पुस्तक की शुरुआत काम्यक वन की घटना से की है। कृष्ण के व्यक्तित्व को थोड़ा विस्तार में समझने के लिए इसकी ज़रूरत भी थी। उस उद्घोषणा के निदर्शन (आतंकहीन धरती होगी, यह शपथ मैं धारण करता हूँ ) के लिए, स्थान की तलाश में कवि को यहाँ आना ही था। द्रौपदी – श्री कृष्ण के संवाद के माध्यम से, प्राणेन्द्र नाथ मिश्र ने, संक्षेप में ही सही, विगत-आगत घटनाओं की सूचना देकर पाठक – मन में रुचि वर्धन का कार्य किया है। इसके साथ ही यह बताने की कोशिश की है कि महाभारत का युद्ध एक तरह से आतंक के समापन का युद्ध था, जिसकी प्रतिज्ञा कृष्ण ने काम्यक वन में की थी।

    आज सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद की समस्या से ग्रस्त है। आतंकवादी घटनाओं ने मानवता की जड़ें हिला दी हैं। ऐसे भयावह युग में कोई भी संवेदनशील व्यक्ति चिंतित और व्यथित हुये बिना नहीं रह सकता। प्राणेन्द्र नाथ मिश्र के हृदय को भी आतंकवाद ने आंदोलित किया होगा और तब उनकी दृष्टि कौरवों के आतंक पर गयी होगी। उन्होने छह प्रकार के आतंक की कल्पना का समावेश कौरवों में देखा होगा। यही कारण है कि महाभारत युद्ध के बाद जब धृतराष्ट्र ने कृष्ण से अपने पुत्रों के विनाश का कारण जानना चाहा, तब मिश्र जी की लेखनी कह उठी है: तुम राजन, प्रजा के पालक हो/ तुमको क्या यह सब ज्ञात नहीं/ आतंकी को दंडित करना/ क्या विधि विधान की बात नहीं? ज़ाहिर है, कोई भी रचना अपने युग – संदर्भ से निरपेक्ष नहीं रह सकती। पौराणिक अथवा ऐतिहासिक चरित्रों की पुनर्रचना करते समय, कवि – कलाकार अपने वर्तमान को उसमें अवश्य अनुस्यूत करते हैं। प्राणेन्द्र नाथ मिश्र ने भी यही किया है। उन्होने महाभारत की कथा की पुनरावृत्ति अथवा विश्लेषण नहीं करते हुये, युगानुकूल नवीन संदर्भों का सन्निवेश किया है। इसलिए इस पुस्तक में आतंकवाद की समस्या को प्रमुखता से उभरने का अवसर मिला है तथा कृष्ण ने आतंकियों/ आततायियों के वध को उचित माना है – क्या नहीं जानते तुम, राजन/ आततायी का वध, पाप नहीं।

    इस पुस्तक को पढ़ते हुये, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के ‘कुरुक्षेत्र’ की याद स्वाभाविक है। जिस तरह दिनकर ने ‘कुरुक्षेत्र’ का प्रारम्भ करते हुए, विजयी युधिष्ठिर द्वारा राजसिंहासन पर विराजमान नहीं होने के पीछे जो तर्क दिया है, लगभग उसी तरह के कुछ विचार और तर्क, प्राणेन्द्र नाथ मिश्र के इस काव्य में भी हैं। ‘कुरुक्षेत्र’ में युधिष्ठिर अपने प्रश्नों का समाधान भीष्म से पाते हैं और मिश्र जी के इस काव्य में, युधिष्ठिर को श्रीकृष्ण प्रबोधित करते हैं–

    "अनुशोचना  से मत होओ ग्रस्त

    सिंहासन   पर चढ़ना  होगा,

    हो प्रजा सुखी, न्यायोचित कर्म

    तुम्हें  राजभार  धरना  होगा।"

    प्राणेन्द्र नाथ मिश्र ने अपने इस काव्य ग्रंथ में, द्रौपदी और गांधारी को बहुत महत्व के साथ उपस्थित किया है। दोनों की अपनी अलग-अलग वेदनाएं हैं। इन दोनों चरित्रों को भारतीय साहित्य में भी काफी स्थान दिया गया है। इनके प्रति हर रचनाकार, संवेदना और सहानुभूति के साथ खड़ा दिखाई देता है। द्रौपदी और गांधारी, दोनों की शिकायत श्रीकृष्ण से है। वे द्रौपदी के समक्ष, कौरव–कुल के विनाश की प्रतिज्ञा करते हैं तो गांधारी से अपने कुल के विनाश का अभिशाप पाते हैं। इन दोनों अवस्थाओं में, वे अपने कर्तव्य का सम्यक निर्वहन करते हैं। द्रौपदी और गांधारी, दोनों को श्रीकृष्ण की शक्ति का ज्ञान है, इसलिए दोनों को श्रीकृष्ण से अपेक्षाएँ हैं। अगर द्रौपदी को कौरव- कुल के विनाश की अपेक्षा है तो गांधारी को उनके रक्षण की अपेक्षा है। गांधारी श्रीकृष्ण से कहती हैं कि अगर तुम चाहते तो यह युद्ध रुक सकता था लेकिन तुमने खुद चाल चलने, यानि षडयंत्र करने का कर्म किया है

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