हृदय की देह पर
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मैंने 13 वर्ष की अवस्था से हृदय की अभिव्यक्ति को कागज पर उतरना शुरु कर दिया था। हृदय में उगे भाव कभी पद्य बन कर बहते तो कभी गद्य बन कर अपनी कहानी कहते। जब कभी अतीत हावी होता तो कलम से साथ साथ आँखें भी टपकती और पन्नें चितते जाते। यह क्या विधा थी नही जानती थी किन्तु दुबारा पढ़ने पर कुछ अलग सा महसूस होता तो अलग उठा कर रख देती। इस प्रकार बिना कोई शास्त्र पढ़े अपनी विधाएं स्वयं बनाती गयी और सतत लिखती रही।
मैंने 13 वर्ष की अवस्था से हृदय की अभिव्यक्ति को कागज पर उतरना शुरु कर दिया था। हृदय में उगे भाव कभी पद्य बन कर बहते तो कभी गद्य बन कर अपनी कहानी कहते। जब कभी अतीत हावी होता तो कलम से साथ साथ आँखें भी टपकती और पन्नें चितते जाते। यह क्या विधा थी नही जानती थी किन्तु दुबारा पढ़ने पर कुछ अलग सा महसूस होता तो अलग उठा कर रख देती। इस प्रकार बिना कोई शास्त्र पढ़े अपनी विधाएं स्वयं बनाती गयी और सतत लिखती रही।
वर्जिन साहित्यपीठ
सम्पादक के पद पर कार्यरत
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हृदय की देह पर - वर्जिन साहित्यपीठ
हृदय की देह पर
सुशीला जोशी
वर्जिन साहित्यपीठ
प्रकाशक
वर्जिन साहित्यपीठ
78ए, अजय पार्क, गली नंबर 7, नया बाजार,
नजफगढ़, नयी दिल्ली 110043
9868429241 / sonylalit@gmail.com
सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रथम संस्करण – फरवरी 2019
कॉपीराइट © 2018
वर्जिन साहित्यपीठ
कॉपीराइट
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सुशीला जोशी
9719260777
जन्म तिथि: 5 सितम्बर 1941
शिक्षा: एम ए (हिंदी एवं अंग्रेजी), बीएड
संगीत प्रभाकर: गायन, सितार, तबला, कथक (प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद)
प्रकाशन: 6 पुस्तकें, 39 साझा संकलन; विमर्श, गीत गागर, रंगोली, वाणी, सरस्वती पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
सम्मान: अन्य तथा अर्णव कलश एसोसिएशन द्वारा प्रदत्त
12 पुरस्कारों के साथ उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य संस्थान लखनऊ द्वारा 2009 में अज्ञेय
पुरस्कार
मेरी अपनी बात
मैंने 13 वर्ष की अवस्था से हृदय की अभिव्यक्ति को कागज पर उतरना शुरु कर दिया था। हृदय में उगे भाव कभी पद्य बन कर बहते तो कभी गद्य बन कर अपनी कहानी कहते। जब कभी अतीत हावी होता तो कलम से साथ साथ आँखें भी टपकती और पन्नें चितते जाते। यह क्या विधा थी नही जानती थी किन्तु दुबारा पढ़ने पर कुछ अलग सा महसूस होता तो अलग उठा कर रख देती। इस प्रकार बिना कोई शास्त्र पढ़े अपनी विधाएं स्वयं बनाती गयी और सतत लिखती रही।
तुकांत कविताएं शुरू से लिखती थी लेकिन उनका विधान, विभाग, लय, धुन, ताल सब मेरी कविता जन्य होती थी। हर कविता की अलग धुन दिमाग में उपजती और मैं उसे पूरे दिन हफ़्तों तक गुनगुनाती रहती। जिसे सुनाती खूब वाहवाही बटोरती। अतः लेखन की ओर से निश्चिंत रहती थी।
समय बदला। नेट का युग शुरू हुआ। कई साहित्यिक समूहों से जुड़ी। अपनी कविताएं भेजी जिन में से कुछ को गीतों की संज्ञा मिली और कुछ को कविताओं की। तब गीत और कविता का फर्क समझ आया।
गीतों और कविताओं को समूहों में भेज कर पाठकों की प्रतिक्रिया स्वरूप जो प्रसाद मिला उससे पता चला कि मेरा लेखन दोषपूर्ण है क्योंकि उनमें छंन्द के नियमों का अभाव है। मात्रा दोष है। मात्राएं क्या होती है? इनकी गणना कैसे होती है? मात्रपतन क्या होता है? गीत निर्वहन में कौन कौन से तत्वों का ध्यान रखना पड़ता है? इन सभी प्रश्नों से मैं अनभिज्ञ थी। क्योंकि मैंने काव्य की परिभाषा - वाक्य रसात्मकम कव्यम
पढ़ी थी। साथ ही यह भी सोचती थी कि प्रथम कवि के मुँह से जो वाक्य फूटे थे उनकी मात्रा गणना उंसने नही की होगी। कविता तो हृदय का ओज है जो अपनी लय, ताल, छंद, धुन और गति स्वयं साथ ले कर आती है। वही किसी गीत कविता की वास्तविक छंन्द या मापनी है।
कविता होगी, भाषा होगी तभी तो व्याकरण होगा। भाषा में व्याकरण की खोज होती है न कि व्याकरण के नियमों पर शब्द सजा कर भाषा लिखी जाती है। ठीक इसी प्रकार किसी छंन्द या मापनी पर शब्द सजा कर गीत या कविता