गुरु-शिष्य
By दादा भगवान
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About this ebook
लौकिक जगत् में बाप-बेटा, माँ-बेटी, पति-पत्नी, वगैरह संबंध होते हैं। उनमें गुरु-शिष्य भी एक नाजुक संबंध है। गुरु को समर्पित होने के बाद पूरी ज़िंदगी उसके प्रति ही वफादार होकर, परम विनय तक पहुँचकर, गुरु की आज्ञा के अनुसार साधना करके, सिद्धि प्राप्त करनी होती है। लेकिन सच्चे गुरु के लक्षण और सच्चे शिष्य के लक्षण कैसे होते हैं ? उसका सुंदर विवेचन इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है। गुरुजनों के लिए इस जगत् में विविध मान्यताएँ प्रवर्तमान है। तब ऐसे काल में यथार्थ गुरु बनाने के लिए लोग उलझन में पड़ जाते हैं। यहाँ पर ऐसी ही उलझनों के समाधान दादाश्री ने प्रश्नकर्ताओं को दिए है। सामान्य समझ से गुरु, सदगुरु और ज्ञानीपुरुष – तीनों को एक साथ मिला दिया जाता है। जब कि परम पूज्य दादाश्री ने इन तीनों के बीच का एक्ज़ेक्ट स्पष्टीकरण किया है। गुरु और शिष्य – दोनों ही कल्याण के मार्ग पर आगे चल सके, उसके लिए तमाम दृष्टीकोणों से गुरु-शिष्य के सभी संबंधों की समझ, लघुतम फिर भी अभेद, ऐसे ग़ज़ब के ज्ञानी की वाणी यहाँ संकलित की गई है।
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Book preview
गुरु-शिष्य - दादा भगवान
त्रिमंत्र
नमो अरिहंताणं
नमो सिद्धाणं
नमो आयरियाणं
नमो उवज्झायाणं
नमो लोए सव्वसाहूणं
एसो पंच नमुक्कारो,
सव्व पावप्पणासणो
मंगलाणं च सव्वेसिं,
पढमं हवइ मंगलम्॥ १॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥२॥
ॐ नम: शिवाय ॥३॥
जय सच्चिदानंद
‘दादा भगवान’ कौन?
जून 1958 की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर ‘दादा भगवान’ पूर्ण रूप से प्रकट हुए और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घंटे में उन्हें विश्वदर्शन हुआ। ‘मैं कौन? भगवान कौन? जगत् कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?’ इत्यादि जगत् के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सम्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजी भाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कॉन्ट्रैक्ट का व्यवसाय करनेवाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष!
‘व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं’, इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घंटों में अन्य मुमुक्षुजनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात् बिना क्रम के, और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढऩा। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट।
वे स्वयं प्रत्येक को ‘दादा भगवान कौन?’ का रहस्य बताते हुए कहते थे कि ‘‘यह जो आपको दिखते हैं वे दादा भगवान नहीं हैं, वे तो ‘ए.एम.पटेल’ हैं। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे ‘दादा भगवान’ हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और ‘यहाँ’ हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।’’
निवेदन
ज्ञानी पुरुष संपूज्य दादा भगवान के श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहारज्ञान से संबंधित जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता है। विभिन्न विषयों पर निकली सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो नए पाठकों के लिए वरदान रूप साबित होगा।
प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो, जिसके कारण शायद कुछ जगहों पर अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के अनुसार त्रुटिपूर्ण लग सकती है, लेकिन यहाँ पर आशय को समझकर पढ़ा जाए तो अधिक लाभकारी होगा।
प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाए गए शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गए वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गए हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गए हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों इटालिक्स में रखे गए हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में, कोष्ठक में और पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं।
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है।
अनुवाद से संबंधित कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं।
*****
आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक
‘मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करने वाला हूँ। बाद में अनुगामी चाहिए या नहीं चाहिए? बाद में लोगों को मार्ग तो चाहिए न?’
- दादाश्री
परम पूज्य दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आप श्री ने अपने जीवनकाल में ही पूज्य डॉ. नीरू बहन अमीन (नीरू माँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थी। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरू माँ उसी प्रकार मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थीं। पूज्य दीपक भाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरू माँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपक भाई देश-विदेश में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरू माँ के देहविलय पश्चात् आज भी जारी है। इस आत्मज्ञान प्राप्ति के बाद हज़ारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं।
ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शन में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग आज भी खुला है। जैसे प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी से आत्मज्ञान प्राप्त करके ही स्वयं का आत्मा जागृत हो सकता है।
- डॉ. नीरू बहन अमीन
संपादकीय
लौकिक जगत् में बाप-बेटा, माँ-बेटा या बेटी, पति-पत्नी वगैरह संबंध होते हैं। उनमें गुरु-शिष्य भी एक नाजुक संबंध है। गुरु को समर्पित होने के बाद पूरी ज़िंदगी उनके प्रति ही वफादार रहकर परम विनय तक पहुँचकर, गुरु आज्ञा के अनुसार साधना करके सिद्धि प्राप्त करनी होती है। वहाँ सच्चे गुरु के लक्षण, वैसे ही सच्चे शिष्य के लक्षण कैसे होते हैं, उसका सुंदर विवेचन यहाँ पर प्रस्तुत हो रहा है।
जगत् में विविध मान्यताएँ गुरु के लिए प्रवर्तमान हैं और तब ऐसे काल में यथार्थ गुरु बनाने के लिए लोग उलझन में पड़ जाते हैं। यहाँ पर वैसी उलझनों की प्रश्नकर्ता द्वारा ‘ज्ञानी पुरुष’ से पृच्छा हुई हैं और समाधानी स्पष्टीकरण रूपी उत्तरों की प्राप्ति हुई है।
‘ज्ञानी पुरुष’ मतलब जगत् के व्यवहार स्वरूप की, वैसे ही, वास्तविक विज्ञान स्वरूप की ओब्ज़र्वेटरी! ऐसे ‘ज्ञानी पुरुष’ के श्रीमुख से - गुरुपद अर्थात् क्या? गुरु की अध्यात्म में ज़रूरत है क्या? ज़रूरत है तो कितनी? गुरु के लक्षण क्या-क्या होने चाहिए? गुरुत्तम या लघुत्तम? गुरुकिल्ली सहित हैं? लोभ, लालच या मोह में गुरु फँसे हुए हैं? लक्ष्मी, विषय या शिष्यों की भीख अभी भी है उनमें? गुरु की पसंदगी किस प्रकार की जाए? गुरु किसे बनाएँ? कितने बनाएँ? एक बनाने के बाद फिर दूसरे को बना सकते हैं? गुरु नालायक निकलें तो क्या करें? इस प्रकार गुरुपद के जोखिमों से लेकर, शिष्यपद अर्थात् क्या, शिष्य कैसे होने चाहिए, और शिष्यपद की सूक्ष्म जागृति तक की तमाम समझ तथा गुरु के किस प्रकार के व्यवहार से खुद का और शिष्य का हित होता है, और शिष्य को खुद के हित के लिए कौन-सी दृष्टिपूर्वक गुरु के पास रहना चाहिए और शिष्य को गुरुपद कहाँ स्थापन करना चाहिए कि जिससे उसे ज्ञान की प्राप्ति होकर परिणमित हो, और गुरु में कौन-कौन से रोग नहीं होने चाहिए, ताकि वैसे गुरु उनके शिष्य का हित करने के लिए समर्थ बने। एकलव्य जैसी गुरुभक्ति कलियुग में कहाँ से मिले? ज्ञानी पुरुष ने गुरु बनाए हैं या नहीं? उन्होंने शिष्य बनाए हैं या नहीं? खुद कौन-से पद में बरतते हैं, वगैरह-वगैरह तमाम प्रश्नों के संपूर्ण समाधान देने वाले प्रत्युत्तर संपूज्य दादाश्री के श्रीमुख से बही हुई वाणी द्वारा मिलते हैं!
सामान्य समझ में गुरु, सद्गुरु और ज्ञानी पुरुष तीनों को एक-दूसरे के साथ मिला दिया जाता है। जबकि यहाँ पर इन तीनों के बीच का एक्ज़ेक्ट स्पष्टीकरण मिलता है।
अध्यात्म का मार्ग मार्गदर्शक के बिना कैसे कटेगा? वह मार्गदर्शक अर्थात् कि गाइड यानी...
मोक्ष मार्गस्य नेत्तारं भेत्तारं सर्व कर्माणाम्
ज्ञातारम् सर्व तत्वानाम् तस्मै श्री सद्गुरु नम:
(मोक्षमार्ग के नेता, सर्व कर्मों के भय को दूर करने वाले,
सर्व तत्वों को जानने वाले, ऐसे श्री सद्गुरु को नमस्कार)
इतने से ही मोक्ष मार्ग के नेता, गुरु कैसे होने चाहिए? वह समझ में आता है।
गुरु और शिष्य दोनों कल्याण के मार्ग पर प्रयाण कर सके, उसके लिए तमाम दृष्टिकोणों से गुरु-शिष्य के अन्योन्य संबंधों की समझ, लघुत्तम फिर भी अभेद, ऐसे गज़ब के पद में बरतने वाले ‘ज्ञानी पुरुष’ की वाणी द्वारा प्रकाशमान हुई, वह यहाँ पर संकलित हुई है, जो मोक्षमार्ग पर चलने वाले पथिक के लिए मार्गदर्शक (गुरु) बन पड़ेगी।
- डॉ. नीरू बहन अमीन
गुरु-शिष्य
गुरु अर्थात् गाइड
प्रश्नकर्ता : मैं बहुत जगह पर घूमा हूँ और सब जगह मैंने प्रश्न पूछे कि गुरु अर्थात् क्या? लेकिन मुझे कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला।
दादाश्री : हमें यहाँ से स्टेशन जाना हो ओर रास्ते में चलते-चलते उलझ जाएँ और रास्ता नहीं मिले, रास्ता भूल गए हों तो किसी से पूछने की ज़रूरत है? किसकी ज़रूरत पड़ेगी?
प्रश्नकर्ता : जानकार की।
दादाश्री : वह जानकार अर्थात् गुरु! जब तक रास्ता नहीं मालूम हो तब तक रास्ते में किसी को पूछने की ज़रूरत पड़ती है। किसी छोटे बच्चे से भी पूछना पड़ सकता है। जिस-जिससे पूछना पड़े, वे गुरु कहलाते हैं। गुरु हों, तभी रास्ता मिलता है। ये आँखें नहीं हों तो क्या होगा? गुरु, वह दूसरी आँख है! गुरु मतलब जो हमें आगे की सूझ दें।
गुरु की ग़रज़ किसे?
प्रश्नकर्ता : आपका ऐसा कहना है कि गुरु ज़रूरी हैं?
दादाश्री : ऐसा है न, जो रास्ता खुद भूला है, और वह रास्ता खुद को पता नहीं चले, स्टेशन का रास्ता नहीं जानते हों, तब तक मुश्किल पड़ती है। लेकिन रास्ते का जानकार मिल गया तो हम तुरंत स्टेशन पर पहुँच जाएँगे न?
प्रश्नकर्ता : हाँ, ठीक है।
दादाश्री : यानी जानकार की ज़रूरत है। रास्ता दिखाने वाले ऐसा नहीं कहते कि आप हमें रास्ता पूछो! अपनी ग़रज़ से पूछते हैं न? किसकी ग़रज़ से पूछते हैं?
प्रश्नकर्ता : अपनी ग़रज़ से।
दादाश्री : नहीं तो पूछे बिना चलो न, पूछो नहीं और वैसे ही चलो न, कोई अनुभव करके देखना न! वह अनुभव आपको सिखाएगा कि गुरु बनाने की ज़रूरत है। मुझे सिखाना नहीं पड़ेगा।
इसलिए रास्ता है, लेकिन उसे दिखाने वाले नहीं हैं न! दिखाने वाले हों तो काम चलेगा न!
गुरु मतलब कोई दिखाने वाला जानकार चाहिए या नहीं? जो गुरु हैं, उनके हम फॉलोअर्स कहलाते हैं। वे आगे चलते हैं और हमें आगे का रास्ता दिखाते जाते हैं, वे जानकार कहलाते हैं।
एक व्यक्ति सूरत के स्टेशन पर जाने के लिए इस तरफ मुड़ गया। यहाँ से इस रास्ते पर निकला और वह रोड आई, औरतुरंत इस दिशा के बदले उस दिशा में चला जाए, फिर वह सूरत ढूँढने जाए तो मिलेगा क्या? घूमता रहे तो भी नहीं मिलेगा। रात पड़े, दिन हो जाए तो भी नहीं मिले! ऐसी यह उलझन है।
भुलावे में, मार्गदर्शक साथी
प्रश्नकर्ता : कोई भी गुरु सच्चा रास्ता नहीं बताते हैं।
दादाश्री : परंतु वे गुरु ही रास्ता नहीं जानते, वहाँ पर क्या हो फिर! जानकार ही कोई नहीं मिला। जानकार मिला होता तो यह उपाधि ही नहीं होती। जानकार मिला होता तो यहाँ हमें स्टेशन भी दिखाता कि, ‘यह स्टेशन है, अब तू गाड़ी में बैठ।’ सब दिखाकर पूरा कर देता। यह तो, वह भी भटका हुआ और हम भी भटके हुए, इसलिए भटकते ही रहते हैं। इसलिए सच्चा जानकार ढूँढ निकालो, तो वह स्टेशन दिखाएगा, नहीं तो अनुमान से कुछ भी बताकर भटकाते ही रहेंगे। एक अंधा दूसरे अंधे को ले जाए, तो वह कहाँ ले जाएगा? सच्चा जानकार तो तुरंत बता देगा। वह उधार वाला नहीं होता, वह तो नकद ही होता है सब। अर्थात् जानकार नहीं मिला, इसलिए जानकार ढूँढो।
प्रश्नकर्ता : परंतु जानकार, वह ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) होता है या नहीं?
दादाश्री : जानकार ऊपरी होता है, परंतु कब तक? हमें मूल स्थान पर ले जाए तब तक।
इसलिए सिर पर ऊपरी चाहिए ही, दिखाने वाला चाहिए, मार्गदर्शक चाहिए, गाइड चाहिए ही हमेशा। जहाँ देखो वहाँ गाइड चाहिए। गाइड के बिना कोई काम होगा नहीं। हम यहाँ से दिल्ली गए हों और गाइड को ढूँढें तो वह क्या कहलाएगा? गुरु! वह गुरु ही कहलाएगा। पैसे दिए इसलिए गाइड बन जाता है। गुरु मतलब जो हमें मार्ग दिखाएँ, गाइड की तरह।
प्रश्नकर्ता : इसलिए मार्गदर्शन की ज़रूरत तो पड़ेगी ही!
दादाश्री : हाँ, मार्गदर्शन दें, वे गुरु कहलाते हैं। वह रास्ता दिखाने वाला कोई भी हो, वह गुरु कहलाएगा।
सर्व श्रेणी गुरु अवलंबित
प्रश्नकर्ता : गुरु रास्ता बता दें, उस रास्ते पर चलें। फिर गुरु की ज़रूरत है या गुरु को छोड़ देना चाहिए?
दादाश्री : नहीं, ज़रूरत है अंत तक।
प्रश्नकर्ता : फिर क्या ज़रूरत है?
दादाश्री : इस गाड़ी में ब्रेक था इसलिए टकराए नहीं, यानी इस ब्रेक को निकाल देना चाहिए?
प्रश्नकर्ता : वे रास्ता दिखा दें, फिर हमें उन्हें पकड़कर रखने की क्या ज़रूरत है?
दादाश्री : रास्ते में अंत तक गुरु की ज़रूरत पड़ेगी। गुरु को उनके गुरु की ज़रूरत पड़ती है। हमें इन स्कूलों में मास्टरों की कब तक ज़रूरत पड़ती है? हमें पढऩा हो तब न? पढऩा नहीं हो तो? यानी हमें दूसरा कोई लाभ नहीं चाहिए हो तो गुरु बनाने की ज़रूरत ही नहीं है। यदि लाभ चाहिए तो गुरु बनाएँ। यानी कि ऐसा अनिवार्य नहीं है। यह सब आपकी इच्छानुसार है। आपको पढऩा हो तो मास्टर रखो। आपको आध्यात्मिक जानना हो तो गुरु बनाने चाहिए और नहीं जानना हो तो कुछ नहीं। कोई नियम नहीं है कि ऐसा ही करो।
यहाँ यदि स्टेशन तक जाना हो तो वहाँ पर भी गुरु चाहिए, तो धर्म के लिए गुरु नहीं चाहिए? अर्थात् गुरु तो हमें हर एक श्रेणी में चाहिए ही।
गुरु बिना ‘ज्ञान’ नहीं
इसलिए कोई भी ज्ञान गुरु के बिना प्राप्त हो सके, ऐसा है ही नहीं। सांसारिक ज्ञान भी गुरु के बिना नहीं होता और आध्यात्मिक ज्ञान भी गुरु के बिना हो ऐसा नहीं है। गुरु के बिना ज्ञान की आशा रखें, वे सारी गलत बातें हैं।
प्रश्नकर्ता : एक व्यक्ति कहते हैं कि ‘ज्ञान लेना नहीं होता है, ज्ञान देना भी नहीं होता है, ज्ञान हो जाता है।’ तो वह समझाइए।
दादाश्री : यह मूर्छित लोगों की खोज है। मूर्छित लोग होते हैं न, उनकी यह खोज है कि ‘ज्ञान लेना नहीं होता, देना नहीं होता, ज्ञान अपने आप हो जाता है।’ परंतु वह मूर्छा कभी भी जाती नहीं। क्योंकि बचपन में जो पढ़ा, वह भी ज्ञान लेते-लेते आया है, अध्यापक ने तुझे दिया और तूने लिया। फिर वापस तूने दूसरे को दिया। लेने-देने का स्वभाव वाला जगत् है। अध्यापक ने आपको ज्ञान नहीं दिया था? और आपने दूसरों को दिया। ऐसे लेने-देने का स्वभाव है।
प्रश्नकर्ता