Ten Tykten (तेन त्यक्तेन)
By Sujata
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Ten Tykten (तेन त्यक्तेन) - Sujata
..1..
पचीस दिसंबर की सुबह वैसे तो काफी सर्द होती है, लेकिन उस दिन गुनगुनी धूप थी, हालांकि हल्की सी कँपकँपी भी थी। ठीक वैसी ही ठंढ थी, जैसी ठंड का आनंद लेने लोग हिल स्टेशनों पर गर्मियों के मौसम में जाते हैं। कुल मिलाकर परिदृश्य बेइंतेहा गुलजार था। सामने फूलों की क्यारियों में सफेद, पीली और बैगनी गुलदावदी भी पूरे निखार पर थी। डाहलिया की बड़ी बड़ी फूलों की डालियां अपने ही सौन्दर्य के भार से झुकी जा रही थीं।
इस सर्द मौसम में अपनी पेशानी पर पसीने की बूंदें देख इंदू ने आश्चर्यचकित होकर अपने दुपट्टे से मुख को पोंछा और फिर उन बच्चों को देखने लगी, जिनकी हथेलियां ईसा मसीह की तस्वीर पर पुष्प चढ़ाने के लिए भरी हुई थीं।
पिछले तीन साल पहले तक इस सुदूर गांव शादीपुर में ईसा मसीह का नाम भी बच्चों ने क्या, बड़े बूढ़ों ने भी कम हीं सुना था। ईसा मसीह क्या, बुद्ध, नानक, कबीर किसी का नाम नहीं सुना था। एकाध कबीरपंथी हैं भी, तो अब उनके मुख से कोई कबीर की चर्चा कहाँ सुनाई पड़ती है। कभी- कभी लगता है कि कबीर पंथियों ने असली कबीर की जगह एक दूसरे कबीर को गढ़ लिया है, जहाँ दिन रात सिर्फ कर्मकांड होते रहते हैं। हाँ, , राम, कृष्ण, दुर्गा, काली, छठ मैया, सूरज भगवान को इस दलित बस्ती में सभी जानते हैं।
इसके अलावा इन सब के अपने-अपने लोक देवता भी हैं, जो कभी रुष्ट तो कभी तुष्ट होते रहते हैं। कभी कभी इनके देवता नाराज होकर किसी को बीमार कर देते हैं, तो किसी के सिर के बाल को उड़ाकर गंजा भी कर देते हैं। देवता भी ऐसे कि इनकी नाराजगी तबतक नहीं जाती, जबतक ओझा एक मुर्गी या पांच किलो अनाज नहीं ले लेता है। ओझा को मुर्गी मिलते ही देवता संतुष्ट होते हैं या नहीं यह तो बेचारों को पता नहीं, पर इस मद में खर्च हुए पैसों के कर्ज चुकाने की चिंता में दूसरी सारी चिंता पीछे छूट जाती है। अगर बीमारी ठीक नहीं होती है, तो भी बेचारे ओझा को कुछ नहीं कह पाते, ओझा उलटे उन्हीं पर चढ़ बैठता है, तुम्हारी मुर्गी बहुत बीमार थी, देवता बहुत अधिक नाराज हो गए थे, तुम्हारा विनाश होना तय था पर मैंने किसी तरह अपने घर की अच्छी मुर्गी उन्हें देकर तुष्ट किया। तुम्हारे प्राणों की रक्षा कराने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है, मैं ही जानता हूँ और इन जाहिलों को लगता है, देवता से मैंने अच्छे ढंग से संपर्क नहीं किया। बेचारे ग्रामीण उसके कोप से अपनी रक्षा करवाने के लिए उसकी खुशामद में लग जाते।
इंदू इस दलित बस्ती में पिछले तीन सालों से अपने कुछ साथियों के साथ बच्चों को पढ़ाने के लिए एक छोटा सा स्कूल चला रही थी और एक बड़ा सा स्कूल खोलने का सपना देख रही थी। दरअसल बड़े से स्कूल के सपने का तानाबाना बुनने के लिए इन्हीं बच्चों की क्रियाकलापें बाध्य कर रही थी। कल तक गांव में आने वाली गाड़ियों के पीछे भागने वाले नंग धड़ंग बच्चे जब हाथ में कॉपी पेंसिल लेकर ग से गाँधी पढ़ते समय इतने एकाग्र हो जाते कि उनकी एकाग्रता देख आँखों पर विश्वास ही नहीं होता। सभी बच्चे पंक्तिबद्ध होकर न सिर्फ प्रार्थना करते, पी. टी भी उतनी ही तन्मयता से करते, जितने किसी महंगे स्कूल के अनुशासित बच्चे।
अभी कुछ दिन पहले की बात है, जब आज के अनुशासित बच्चे दिनभर धूलधूसरित होकर कीचड़ में खेलते रहते थे, यह भी कह सकते हैं वे मस्ती में रहते थे। परंतु उनकी मस्ती सभ्य समाज के माथे पर कलंक के टीके जैसा है, हर उस व्यक्ति के सिर पर यह कलंक का टीका चिपका हुआ है जो, अपने को शिक्षित और सभ्य मानते हैं।
कीचड़ में खेलते शतप्रतिशत बच्चों के बाल ताम्रवर्ण के और उनके हाथ पैर सूखी लकड़ियों के समान दुबले- पतले और पेट गुब्बारों की तरह फूले हुए थे। इनमें से कुछ को कुपोषित बच्चों की सूची में डालकर, कुछ की जनगणना कर, सरकार भी अपने कर्तव्य का इतिश्री कर लेती है। कुछ लोगों को सभ्य संवेदनशील दिखना होता है तो च. च.. च करके खिसक जाते हैं तो कुछ सभ्य लोग नाक पर रूमाल रखकर आगे बढ़ जाते हैं।
ऐसा सिर्फ बच्चों के साथ ही नहीं इनके अभिभावकों के साथ भी होता रहा है। कुछ वर्षों पहले इन बच्चों के माता-पिता भी उसी तरह कीचड़ों में खेल रहे थे। कीचड़ से निकलकर, धूल में खेलने लगते हैं। एक दिन खेलते खेलते उनके शादी विवाह हो जाते हैं।
सौ में से आधी लड़कियां तो चौदह वर्ष की उम्र में माँ बन जाती हैं; बची खुची पचास प्रतिशत के भी सोलहवें साल में गोद में बच्चा आ ही जाता है। फिर अगले सोलह साल बाद यानी बत्तीस तेंतीस साल की उम्र में दादा-दादी, नाना-नानी बन जाते हैं। फिर क्या, उसके बाद क्या! बूढ़ा-बूढ़ी बन एक कोने में बैठकर खाँसने लग जाते हैं।
इंदू बचपन से यहाँ आती रही है। उसकी गाड़ी को देखते ही सभी बच्चे उसके पीछे भागते दौड़ते बंगले तक पहुँच जाते। इतनी तेज दौड़ लगाने के बाद बच्चे हांफने लगते किन्तु उनके चेहरे पर कौतूहल भरी एक अजीब चमक होती थी। इंदू की माँ उन के लिए टॉफ़ी या बिस्किट लेकर आतीं। एक टॉफी की प्राप्ति की कल्पना से उनके मन में कितना हुलस रहता था, उनकी होंठों की मुस्कान कितनी बढ़ जाती थी।
इंदू उन्हें बहुत गौर से देखती और महसूस करती, जिस समय उन बच्चों की हथेलियों पर टॉफी आती भी नहीं थी, वे कल्पना की दुनिया में स्वाद का आस्वादन प्रारंभ कर देते थे। उस समय उन बच्चों की आँखें सामान्य आंखो से बिल्कुल अलग लगती, ऐसा लगता उनकी आँखों के अंदर कोई बल्ब जल रहा हो। उस समय इंदू का मन करता वह अपने सारे पाकेटमनी से बिस्किट खरीदकर इनकी आँखों में दीपोत्सव मना दे पर वह समझती थी, यह उसके वश में नहीं है।
उसकी स्मृति मे आज भी वह दृश्य तैर रहा था-सामने कतार में लगे बच्चों के चेहरे की चमक लगातार बढ़ रही होती थी, ठीक उसी समय पीछे से उसका ड्राइवर कहता पहले- राम राम बोलो, राधे राधे बोलो, तब टाफी मिलेगी। उस समय उन बच्चों को राधे राधे नाम विघ्नकर्ता लगता था या दाता यह तो ईश्वर ही जानता होगा, इंदू यह सोचकर मुस्कुराई।
पर बात इससे अधिक बढ़ नहीं पाई। स्थिति में कुछ सुधार नहीं हो पाया। गाड़ियों के पीछे भागते भागते शादीपुर की आबादी के दो जेनरेशन निकल गए। ना आरक्षण का लाभ नजर आया और न स्वजातीय नेताओं की ही कोई फिक्र दिखाई पड़ी। दलित से महादलित का दर्जा मिल गया पर होना क्या था, वही ढाक के तीन पात।
मात्र चार साल पहले की बात है, जब इंदू की गाड़ी को देखते, हमेशा की तरह बच्चे पीछे पीछे दौड़े आ रहे थे। पर पता नहीं उस दिन उसे क्या हो गया, वह खुद नहीं समझ पा रही थी, तभी तो वह अपने पर काबू नहीं रख पायी। उस का संयम टूट गया। लाख कोशिश के बावजूद अपनी आँखों के अश्रु प्रवाह को वह नहीं रोक पाई। उसके मन में बवंडर मच रहा था, आखिर कब तक ये मासूम बच्चे गाड़ी वालों के पीछे यूं ही भागते रहेंगे। ओर गाड़ी वाले एक पैकेट टाफी बांटकर दाता बनने की अपने अहं की तुष्टि करते रहेंगे?
उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, बस एक ही बात दिमाग में कौंध रही थी, देखते देखते दो जेनरेशन निकल गए और वह कुछ करने की कोशिश भी नहीं कर पाई। कोशिश नहीं करने के मलाल की वजह से पूरी रात क्षणभर भी वह सो न सकी। उसका मस्तिष्क चलायमान हो रहा था- चाहे गहने बेचने पड़े, चाहे नमक रोटी खानी पड़े, इनके लिए कुछ करना है, पर क्या? छोटे से मस्तिष्क में कुछ स्पष्ट दिग्दर्शन नहीं हो रहा था, तभी अन्तर्मन से एक आवाज आई- शिक्षा। शिक्षा ही एक मात्र वह औषधि है, जिसका पान कर इनकी दुरावस्था दूर हो सकती है।
पर शिक्षा की व्यवस्था कैसे हो? क्या यह इतना आसान है? उसका मन बैठ रहा था, पर वह सारी रात अपने कमरे में चहलकदमी करती रही। ईश्वर से गुहार लगाती रही-प्रभु, एक पग दिखा। तभी अंतर्मन से एक आवाज सुनाई पड़ी- पहले आगे तो बढ़।
बस फिर क्या था! कीड़े की दवा, लाइफबॉय साबुन, शैंपू, बाल काटने की कैंची और दो सौ बच्चों के कपड़े, दो सौ स्लेट, थ्री इन वन वाली दो सौ पतली सी किताब और उतनी ही कॉपी-पेंसिल गाड़ी पर लादकर इंदू शादीपुर के लिए निकल पड़ी, अपने वर्तमान घर से दो सौ किलोमीटर दूर। बिना यह सोचें कि क्या वह यह काम कर पाएगी? क्या पूरा हो पाएगा वह स्वप्न, जिसे देखने की हिम्मत करना भी अपने आप में एक बड़ी हिम्मत थी।
हमेशा की तरह उस दिन भी बच्चे गाड़ी देखकर भागे आए थे पर इस बार उनके लिए टॉफ़ी बिस्कुट नहीं थे। कोई राधे राधे कहने के लिए भी नहीं कह रहा था। टॉफ़ी की जगह नोवर्म कीड़े की दवा थी। पर हाय रे बचपना! हाय रे गरीबी! बच्चों ने दवा लेने के लिए