Mansvini (मनस्विनी)
()
About this ebook
नारी का यही संघर्ष मेरी कहानियों की मुख्य विषय वस्तु है। मेरा मानना है कि प्रत्येक स्त्री में संघर्ष करने की एक ईश्वर प्रदत्त शक्ति होती है, जो उसे हारने नहीं देती। मेरी कहानियों के पात्र मुखर हैं। वे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाते हैं। मेहनत करके अपने जीवन को सुधारने की क्षमता रखते हैं, तथा उनका अपना एक वजूद है।
वे जीवन अपनी शर्तों पर तो जीते हैं परन्तु अपने संस्कार और मर्यादायें नहीं भूलते। मर्यादाओं के भीतर रहकर संघर्ष करना और जीवन में आगे बढ़ना उनका लक्ष्य है। मानवीय सम्बन्ध और सम्वेदानाओं को उजागर करती हुई कुछ कहानियाँ...
Related to Mansvini (मनस्विनी)
Related ebooks
परिणय के बाद Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsएक हवेली नौ अफ़साने Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsAnmol Kahaniyan: Short stories to keep children entertained Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsकफ़न के लुटेरे Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsRisthon Ke Moti (रिश्तों के मोती) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsबहुत ही सरल लघु कथाएँ Rating: 0 out of 5 stars0 ratings21 Shreshth Naariman Ki Kahaniyan : Jammu (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : जम्मू) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsधीरज की कलम से...: Fiction, #1 Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsसांझी तड़प (लघु उपन्यास) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsकहानियाँ सबके लिए (भाग 2) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsहृदय की पीड़ा Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsNirmala (Hindi) Rating: 3 out of 5 stars3/521 Shreshtha Balman ki Kahaniyan: Madhya Pradesh (21 श्रेष्ठ बालमन ... प्रदेश) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsPath Ke Davedar (Hindi) Rating: 5 out of 5 stars5/5@ Second Heaven.Com (@ सैकेंड हैवन.कॉम) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsलुटेरों का टीला चम्बल Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBoss Dance Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsNirmala Rating: 5 out of 5 stars5/5अनकही बातें: Fiction, #1 Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsडफरं Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsLal Anchal Ka Tukada (लाल अंचल का टुकड़ा) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsअजीब कहानियाँ Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsLove Or Compromise Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsजनम जनम की हसरतें: उम्मीदों के दरख़्त Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsकथा सागर: 25 प्रेरणा कथाएं (भाग 34) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsDinesh Dohavali (दिनेश दोहावली) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsAprichita Aur Avgunthan: Do Kahaniya Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsThe Soft Corner Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsकथा सागर: 25 प्रेरणा कथाएं (भाग 39) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsYogi Kathaamrt : Ek Yogi Ki Atmakatha Rating: 0 out of 5 stars0 ratings
Reviews for Mansvini (मनस्विनी)
0 ratings0 reviews
Book preview
Mansvini (मनस्विनी) - Shivani Chaturvedi
(1)
क्या हारा क्या जीता
आज न जाने क्या हुआ सुबह जल्दी ही आँख खुल गई। किचन में जाकर अपने लिए चाय बनाई। हाथ में चाय का प्याला और न्यूज पेपर लेकर बालकनी में आकर बैठ गई। सर्दी अभी शुरु नहीं हुई थी, पर गर्मी पूरी तरह विदा ले चुकी थी। शरद ऋतु का आगमन धीरे-धीरे हो रहा था।
न्यूज पेपर खोला तो पहले ही पेज पर ‘डॉ० लक्ष्मी सिन्हा कन्या महाविद्यालय’ का बड़ा-सा चित्र साथ ही उद्घाटन की तिथि व निमन्त्रण था। उसे देखने के बाद में न जाने कब यादों के झरोखे से अतीत में प्रवेश कर गई। एक-एक पल मेरी आखों के सामने ऐसे तैरने लगा जैसे कल ही की घटना हो।
मुझे वो दिन आज भी याद है, जब लक्ष्मी जीजी को लड़के वाले देखने आने वाले थे। अम्मा बहुत खुश थी। ऊँची आवाज में घर के हर सदस्य को आदेश दे रही थीं। सब के लिए उनके पास कुछ न कुछ काम था। इतना उत्साहित तो मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था। और होती भी क्यों न, लक्ष्मी जीजी घर की सबसे बड़ी बेटी थीं, हम चार बहन भाईयों में सबसे बड़ी, और अम्मा ने उनके ब्याह के न जाने कितने अरमान संजो रखे थे। आज तो उनका उत्साह देखते ही बनता था। आज न तो उन्हें अपने घुटने का दर्द याद था और न ही कमर की तकलीफ। हमारी छोटी-सी रसोई में सुबह से न जाने कितने व्यंजन बन चुके थे, जिसकी गमक से सारा घर महक रहा था।
अचानक बाहर से लल्लन की आवाज़ आई भाभी वो लोग आ गये हैं, लल्लन की आवाज़ से घर में हलचल शुरु हो गई। पिता जी स्वागत के लिए बाहर भागे और अम्मा भीतर लक्ष्मी जीजी के कमरे की तरफ। ये देखने के लिए कि जीजी अभी तैयार हुई या नहीं। मैंने खिड़की से बाहर झांका तो एक सभ्रान्त-सी महिला रिक्शे से उतरती नज़र आई। लम्बी, गोरी, खूबसूरत। उसने जूड़ा बना रखा था। गुलाबी जार्जेट की साड़ी उसके सुडौल शरीर पर बहुत जंच रही थी।
अम्मा भी उनके स्वागत के लिए बाहर आ चुकी थी। पिता जी उन्हें अन्दर ले आए।
उन्हें बैठक में बैठा कर अम्मा अन्दर आकर कहने लगी। ‘देख छोटी, लक्ष्मी को ठीक से तैयार किया है न’ उस महिला की खूबसूरती से वे अभिभूत को चुकी थी और अब उन्हें अपनी पतली, दुबली, सांवली और साधारण-सी लक्ष्मी और भी साधारण लगने लगी थी।
अम्मा और मैं जल्दी से उस कमरे की तरफ भागे जिधर लक्ष्मी जीजी तैयार होकर बैठी थीं। लक्ष्मी जीजी को देखकर अम्मा कहने लगी, लक्ष्मी! तू वो पीली जोर्जेट वाली साड़ी पहन लेती तो रंग थोड़ा निखरा-सा लगता।
पर चल अब कोई बात नहीं, तू नाश्ता लेकर जल्दी बाहर आ जा।
लल्लन की बहू से कहा भी था कि समय निकाल कर तेरे दो-चार बार उबटन लगा दे, पर मरी सुनती कहां है। उसे तो दो बखत के बासन ही भारी लगने लगते हैं।
अम्मा यह सोचकर बौखलाई जा रही थीं कि बनारस के धनाढ्य परिवार से आया ये रिश्ता कहीं हाथ से निकल न जाए।
लाल रघुनाथ प्रसाद जी का परिवार बनारस के धनी मारवाड़ी परिवारों में से एक था। उनके तीन बेटों में यह दूसरा बेटा था जिसका रिश्ता लक्ष्मी जीजी के लिए आया था। ये महिला जो लक्ष्मी जीजी को देखने आई थी, वे रघुनाथ प्रसाद जी के सबसे बड़े बेटे की पत्नी थीं। रघुनाथ प्रसाद की पत्नी का निधन वर्षों पहले उस वक्त हो गया था जब वे तीसरे पुत्र को जन्म दे रही थीं। सभी बच्चों को रघुनाथ प्रसाद जी की बड़ी बहन ने पाला था, जो विधवा थीं। विधवा होने के बाद वे अपने भाई और भाभी के साथ ही जीवन बिता रही थीं। उनका अधिकतर समय पूजा-पाठ और घर के काम -काज में बीतता था। बच्चे के जन्म के समय जब रघुनाथ प्रसाद जी की पत्नी का निधन हुआ तब बुआ ने नवजात शिशु का लालन-पालन करके अपनी पूरी ममता इन्हीं बच्चों पर उड़ेल दी।
यह सब ब्यौरा हमारे एक रिश्तेदार ने अम्मा-पिताजी को दिया था, जिनका इन लोगों से भी कुछ दूर का सम्बन्ध था।
लल्लन की बहन लक्ष्मी जीजी को लेने आ गई थी। लक्ष्मी जीजी नाश्ते की ट्रे लेकर पहुंची तो अम्मा ने जीजी के हाथ से ट्रे ले ली और उन्हें वहाँ बिठाया। निर्मला जी, यानी कि जो महिला देखने आईं थी, वे जीजी के पास आकर बैठ गईं। अम्मा ने लक्ष्मी जीजी के गुणों का बखान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पर निर्मला जी शायद पहले से ही मन बनाकर आईं थीं और ज्यादा सुनने से पहले ही उन्होंने अपनी ऊंगली में से एक अंगूठी उतार कर जीजी को पहना दी। अम्मा से ब्याह की तैयारियां करने को कहकर वे जल्दी ही उठ कर चली गईं।
घर में खुशी की लहर दौड़ गई। लेकिन लक्ष्मी जीजी की बड़ी-बड़ी गहरी आंखें बिलकुल शान्त थीं, हमेशा की तरह। जीजी पढ़ी-लिखीं थीं, साथ ही गृहकार्य में दक्ष थीं। सिलाई, कढ़ाई, बुनाई कोई काम उनसे छूटा नहीं था। चित्रकारी करने बैठतीं तो आदमी की शक्ल ज्यों की त्यों कागज पर तराश देतीं। उनके गुणों की चर्चा सारे रिश्तेदारों में थी। शायद यही वजह थी कि सुन्दरता में निर्मला जी से कहीं कम होने के बावजूद उन्होंने जीजी को अपने देवर के लिए पसंद कर लिया।
निर्मला जी अम्मा को ब्याह का मुहूर्त निकालने को कह गई थीं, सो अम्मा ने पिताजी से कह कर गांव से पंडित बुलवा भेजा। पंडित जी से लग्न पत्रिकाओं का मिलान करके मुहूर्त निकाला और वर को कन्या के लिए हर तरह से योग्य व उपयुक्त बताया। अम्मा और पिता जी आश्वस्त हो गए। इसके बाद उन्होंने किसी भी तरह की तहकीकात की जरूरत नहीं समझीं।
दो महीने बाद ही विवाह था। घर में तैयारियां शुरु हो गईं। देखते ही देखते वह दिन आ पहुंचा जब बारात दरवाजे पर खड़ी थी। दूल्हे को देखने की ललक में सब दरवाजे पर दौड़े। अम्मा को थोड़ा धक्का लगा। लड़का जीजी की तुलना में आयु में कुछ अधिक ही बड़ा जान पड़ता था। इसके अलावा बदन भी थोड़ा भारी और गहरा सांवला रंग। लेकिन थोड़ी ही देर में उसके हंसमुख और व्यवहार कुशल स्वभाव ने सबका मन जीत लिया।
विवाह सम्पन्न हुआ और जीजी ससुराल चली गईं। तीन दिन बाद लौटी तो बहुत खुश दिख रही थीं। भारी-भारी गहनों और बनारसी साड़ी से लदी हुई। दिन भर में अम्मा ने जीजी की ससुराल का सारा इतिहास जान लिया। देर रात तक सब बैठकर बातें करते रहे। एक सप्ताह न जाने कब बीत गया और जीजी चली गईं। घर खाली सा हो गया। थोड़े दिन तो बहुत सूना-सूना लगा, फिर धीरे-धीरे जिन्दगी अपनी रफ्तार पकड़ने लगी।
दिन बीतते गये और मेरा ग्रेजुएशन पूरा हो गया। इस बीच जीजी के खत आते रहते और उनकी कुशल-क्षेम का समाचार मिलता रहता। एम०ए० के दाखिले में अभी समय था, सो मैंने थोडे दिन जीजी के पास बनारस में वक्त बिताने का सोचा। पिताजी ने काशी विश्वानाथ से मेरा टिकट करा दिया। अम्मा ने सारी मिठाईयां और न जाने क्या-क्या सामान जीजी के लिए बांध दिया। जीजाजी स्टेशन पर मुझे लेने आये। उनका व्यवहार पहले की तरह अच्छा लगा। रास्ते भर जीजी से मिलने की सुखद कल्पनाएं लिए हुए घर पहुंची। बनारस की गलियों में बड़ा तीन मंजिला घर, जिसमें नीचे गद्दी थी, जहां बनारसी साड़ियों का थोक का व्यापार होता था। जीना चढ़कर ऊपर घर। जीजी ऊपर मेरा इंतजार कर रही थीं। उनको देखकर मेरा दिल एक बार तो बैठ गया। मैं हतप्रभ रह गई। कहां मेरी कल्पनाओं की सजी धजी, लकदक करती, थोड़ी मोटी-सी जीजी की जगह सूखा हड्डियों का ढांचा था। आखें के नीचे काले गड्ढे। मैं यह समझ ही नहीं पाई कि उनको क्या हुआ है। उनके खत पढ़कर हमेशा ये लगता था कि वे बहुत खुश हैं।
मैं उनके गले लग गई और मेरी आँखों से आंसू बहने लगे। वो भी बिना कुछ बोले आँखों से आंसू बहा रही थी। उस समय जीवन में पहली बार ऐसा प्रतीत हुआ कि जब भावनाओं का अतिरेक होता है तो अभिव्यक्ति के लिए शब्द छोटे पड़ने लगते हैं।
जीजी के दु:ख का कारण मैं समझ नहीं पा रही थी। पर कुछ तो ऐसा था जो कि मुझे नहीं पता था। मैंने बहुत कोशिश की जीजी से पूछने की, पर वे हर बात को टाल गईं।
अगले दो दिन तक मैं इस घर की सारी व्यवस्थाएं और तौर तरीकों को बारीकी से देखती रही। न जाने किस बात के तार जीजी की मायूसी से जुड़े हैं। कहीं कुछ तो था जिसकी डोर मैं अभी पकड़ नहीं पाई थी।
सास तो जीजी की थी नहीं। ससुर यानी रघुनाथ प्रसाद जी का बनारस साड़ी व्यापार जगत में काफी नाम था। वे व्यापार मंडल के अध्यक्ष भी थे। वे जीजाजी के साथ मिलकर व्यापार संभालते थे। सबसे छोटा भाई डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चुका था और कई सरकारी अस्पतालों में नौकरी के लिए आवेदन कर चुका था।
बुआ और दोनों बहुएं घर का काम-काज सम्भालती थीं। घर में नौकर चाकर भी थे। पर रसोई घर को औरतें ही सम्भालती थीं।
नीचे गद्दी में कई लोग काम करते थे। मुनीम, सैम्पल बनाने वाले और भी कई लोग। सुबह से ही सिल्क तोलने वाले आ जाते। वे सिल्क तौल कर बुनकरों को साड़ी बनाने के लिए दे देते। फिर ग्राहकों का वक्त हो जाता। जिसमें अधिकतर व्यापारी जो हिन्दुस्तान के हर कोने से आते थे।
दिन में घर की औरतों को गद्दी में जाने की इजाजत नहीं थी। पर शाम को जब गद्दी बन्द होती और सभी के जाने के बाद बड़ा फाटक बन्द होता तो सारी औरतें नीचे आ जातीं। साड़ियां देखने का आकर्षण ही कुछ ऐसा था। नयी साड़ियों को देख-देख कर उसकी जांच-परख करते रहते। इतना मनोरंजन ही औरतों के लिए पर्याप्त था। उनका सारा संसार इसी फाटक