Siddhartha - Ek Tyag Gatha
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पृथयानी राज्य उत्तर में हिमालय और अन्य दिशाओं में सागर से घिरा हुआ भूखंड है। राज्य की राजधानी का नाम कर्मावती है। पृथयानी राज्य काकरण राज्य के अधीन है और पृथयानी राजन अपने राज लोभ के कारण अधीनता को चुनौती नहीं देते हैं। पृथयानी राज्य रूपवान युवतियाँ, स्वर्ण, अनाज हर वर्ष काकरणों को समर्पित करते हैं ताकि काकरण उन पर कभी भी आक्रमण न करें और उनके राजसुखों में ग्रहण न लगे। इस प्रथा को बलिदानम को नाम दिया गया है और कहानी के पहले भाग 'बलिदानम एक राजगाथा' में इस स्थिति के बारे में बताया गया है।
त्रिशला कबीले की प्रमुख मैत्रयी इस प्रथा के विरुद्ध चुनौती देती है और पृथयानी राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर देती है। युवराज रुद्रा पृथयानी के कर्त्तव्य पारायण युवराज हैं जो प्रजा को उनके मौलिक अधिकार देने के पक्षधर हैं। जो कोई व्यक्ति इस धरा पर और आकाश तले रहता है, जो वायु और जल का सेवन करता है, उनके अधिकार बराबर होंगे – रुद्रा इस बात को क्रियान्वित करना चाहता है। युवराज रुद्रा त्रिशला कबीले से शांति वार्ता के लिए जाते हैं। युवराज रुद्रा को बलिदानम कुप्रथा के बारे में ज्ञात होता है जिसे सुनकर वो व्यथित हो जाते हैं। वो प्रजा को इस प्रथा को समाप्त करने का वचन देते हैं और पृथयानी राजभवन में काकरणों से युद्ध का प्रस्ताव रखते हैं जिसे राजन अश्रवण अस्वीकार कर देते हैं। पृथयानी राजदरवारियों को अपने राजसुख छीनने का भय महसूस होता है जिस कारण वो गहरा षड्यंत्र करते हैं और रुद्रा को पृथयानी राज्य से निष्काषित कर दिया जाता है। मैत्रयी भी इस युद्ध में पराजित होकर काकरणों की दासी बन जाती है। सिद्धार्थ एक त्याग गाथा – यह उपन्यास इसी कहानी को आगे बढ़ाता है।
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Siddhartha - Ek Tyag Gatha - Manu Saunkhala
खंड- 1 लक्ष्योन्मुख
पृथयानी साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र में स्थित त्रिशला नगर शीत ऋतु की चपेट में है। त्रिशला राजभवन पूरी तरह सफेद बर्फ की चादर में ढक चुका है। त्रिशला राजभवन भूरे रंग के पत्थरों से बना है जो इस शीत ऋतु में बर्फ की चादर ओढ़ने के बाद; संगमरमर की तरह चमक रहा है। त्रिशला नगर के विशाल वृक्ष सफ़ेद मीनार की तरह दिख रहे हैं जिनकी शाखाओं से बर्फ रुई की तरह चिपकी हुई है। त्रिशला नगर में बहने वाली नदी समतल मैदान में बदल चुकी है। नगर का हर मार्ग इस बर्फ से ढक कर, अपने दिशा बताने को सामर्थ्य को भूल चुका है। इस कठोर शीत ऋतु ने सूर्य की गर्मी को भी सोख लिया है और सूर्य मात्र प्रकाश पुंज बन कर चमक रहा है।
नगर का हर निवासी इस शीत ऋतु की बर्फीली हवाओं से बचने के लिए एक लम्बा वस्त्र पहने हुए हैं जो उनकी एड़ियों तक आता है और पूरे शरीर को इस कठोर शीत ऋतु से बचाता है। इसी त्रिशला नगर के एक कोने में आग जलाकर कुछ लोग कर बातें कर रहे थे कि एकाएक उन सब की दृष्टि एक साधु पर पड़ी, वो साधु भगवा वस्त्र धारण किए था। साधु ने धोती पहन रखी थी और उसके पाँव में लकड़ी की चरण पादुकाएँ थीं। उसके शरीर का ऊपरी भाग बहुत ही पतले वस्त्र से ढका था और अधिकांश भाग नग्न ही था। उसकी बहुत लम्बी और घनी दाढ़ी थी जो उसके नाक को भी छुपा रही थी। उसकी दाढ़ी और उसके लम्बे केशों में सफ़ेद बर्फ चमक रही थी; शरीर लम्बा और सुडौल था और दिखने में एक योद्धा की तरह था।
उस साधु के एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ में चिमटा था। उसकी पीठ पर म्यान सहित बंधी हुई एक विशाल तलवार थी। नगर वासी यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि साधु इस कठोर शिशिर ऋतु में भी; बिना किसी कंपकंपी के समान्य तरीके से भ्रमण कर रहा है। तभी वो साधु उन लोगों के समूह को देखकर वहाँ आया।
साधु को देखते हुए एक व्यक्ति बोला – अरे साधु! इस भीषण शिशिर ऋतु का आप पर कोई प्रभाव क्यूँ नहीं दिख रहा?
साधु हँसते हुए – एक साधु से उसकी साधना का रहस्य पूछ रहे हो?
फिर दूसरा व्यक्ति बोला – अरे साधु! परंतु आप तलवार लिए क्यूँ चल रहे हो?
साधु संयम से भरकर बोला - जंगली जानवरों से बचने के लिए। मैं अधिकतर समय जंगल में रहता हूँ इसलिए अपनी सुरक्षा के लिए तलवार साथ ही रखता हूँ।
वो साधु युवा था, उसके चेहरे पर चाँद की तरह आभा थी, सूर्य की तरह तेज था। यह सब देखकर एक त्रिशला वासी आचम्बित होकर बोला – आप के चेहरे पर तेज का क्या कारण है? हमने आजतक ऐसा तेज किसी मानव के चेहरे पर नहीं देखा।
साधु मुस्कुराते हुए - हम इस दुनिया के मायाजाल को लांघ चुके हैं।
त्रिशलावासी - आपके चेहरे की आभा से यह प्रतीत हो रहा है। कृपया आप इस नगर में आने का प्रयोजन बताएं?
साधु - हम त्रिशला नगर के समीप कुटिया बनाना चाहते हैं। इसलिए हम निर्माण- अनुमति के लिए कबीले की मुखिया मैत्रयी से भेंट करना चाहते हैं।
त्रिशलावासी साधु को अपनी वाणी धीमे करने का संकेत करते हुए बोले - अरे यहाँ मैत्रयी का नाम लेना अपराध है। उसके साथ तो बहुत बुरा हुआ। वो अब त्रिशला की मुखिया नहीं है।
साधु यह सुनते ही विचलित हो गया और धीरे से बोला - क्या हुआ? क्या वो जीवित है? साधु के माथे पर पसीना आ गया।
त्रिशलावासी धीमे स्वर में – पृथयानी के राजा लक्षम उसको यहाँ से बंदी बनाकर ले गए थे। पृथयानी के राजा और राजदरवारियों ने उनके शारीरिक सम्मान का बलपूर्वक हरण किया। अब किसी को ज्ञात नहीं कि वो जीवित है भी या नहीं? हमारे सुनने में तो यह भी आया था कि उसको काकरणों के राज्य में भेज दिया गया जहां वो उनकी दासी बनकर रहती है।
साधु की आँखों में पानी भर आया। जिह्वा बोलने से पहले कांप गयी। फिर उसने साहस जुटाकर पूछा - वो काकरणों के राज्य में तो जिंदा ही होगी?
त्रिशलावासी – यह तो भगवान जाने। परंतु अगर आपको अपनी कुटिया बनानी है तो हम आपको इस कबीले के मुखिया अंधक से मिलवा देते हैं। आप उसके सामने मैत्रयी का नाम बिल्कुल मत लेना।
साधु – नहीं, हम बाद में उनसे भेंट कर लेंगे। अभी हम यहाँ से प्रस्थान करेंगे।
साधु नगर से बाहर आ गया। मैत्रयी के साथ हुए दुर्व्यवहार के बारे में सुनकर उसका मन अस्थिर हो चुका था, वो बहुत बेचैन होकर घूमने लगा, वो अति शीघ्र मैत्रयी से मिलना चाहता था और उस साधु ने अब मैत्रयी की खोज में काकरण राज्य जाने का निश्चय कर लिया। काकरण राज्य जाने का एक ही मार्ग था - पृथयानी के दक्षिणी छोर से समुद्री मार्ग द्वारा ही काकरण राज्य जाया जा सकता था। उस साधु ने समय व्यर्थ न किया। वो पृथयानी के एक छोर त्रिशला से, दूसरे छोर दक्षिण के सागर की लम्बी यात्रा पर चल पड़ा और एक माह बाद वो दक्षिणी तट तक पहुँच ही गया।
उसके सामने विशाल सागर था जिसे पार करके ही काकरण राज्य पहुंचा जा सकता था। व्यापारियों के समूह समुद्री जहाज के माध्यम से काकरण राज्य जाया करते थे परंतु इस यात्रा के लिए उसे स्वर्ण मुद्राओं की आवश्यकता थी और उस साधु के पास कुछ न था। हर सप्ताह में एक समुद्री जहाज काकरण राज्य की यात्रा पर निकलता था।
उसने तीन सप्ताह तक वहीं प्रतीक्षा की और हर बार काकरण राज्य जाने वाले समुद्री जहाज पर सवार होने की कोशिश की, परंतु वो असमर्थ ही रहा। वो बिना स्वर्ण मुद्राओं के काकरण राज्य नहीं जा सकता था और अपने हर प्रयास में बिफल हो रहा था, बिना धन के कोई भी उसकी सहायता नहीं कर रहा था। उसे अपने लक्ष्यमार्ग पर बढ़ने के लिए स्वर्ण मुद्राओं की आवश्यकता थी; उसने धनी व्यापारियों से याचना भी की परंतु उसे उपहास के अतिरिक्त कुछ न मिला। इस तरह एक माह बीत गया, साधु समुद्री तट को ही अपना ठिकाना बना चुका था। अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए वो हर दिन प्रयासरत रहता। एक दिन वो उठा, सूर्य पूरी तरह उदय नहीं हुआ था किन्तु मंद प्रकाश में वातावरण का बहुत ही धूमिल दृश्य दिख रहा था। हर कोई निद्रा के मायाजाल में लिप्त होकर स्व्पन सागर में डूबा हुआ था। उसी समय साधु को व्यापारियों का एक छोटा समूह समुद्री बेड़े की ओर आता दिखा। साधु किसी भी तरीके से काकरण राज्य जाना चाहता। साधु उस समूह की ओर बढ़ने लगा और उनके समीप जाकर बोला – मुझे स्वर्ण मुद्राएँ चाहिए। व्यापारी साधु की याचना पर हंसने लगे और अट्टहास करने लगे। साधु शांत होकर यह सब देखता और सुनता रहा फिर उसने एकाएक पीठ पर बंधी म्यान से तलवार निकाली और एक ही वार में व्यापारी का सिर धड़ से अलग कर दिया। अन्य व्यापारी कुछ सोच पाते कि साधु ने क्षण भर में ही दो और व्यापारियों के सिर धड़ से अलग कर दिये। सिर्फ एक व्यापारी बचा था। वो डर से ज़मीन पर गिर गया और पीछे की ओर हाथों और पैरों के बल रेंगने लगा। वो इस दृश्य से इतना भयभीत हो गया की वो भाग तक नहीं पा रहा था। उसके साथी व्यापारियों के सिर धड़ से अलग पड़े थे और उसके समक्ष रक्त की नदी बह रही थी।
वो साहस जुटाकर बोला - तू साधु के वेश में कोई लुटेरा है। मेरे पास स्वर्ण मुद्राएँ हैं। तुम यह सब ले लो और मुझे प्राण दान दो।
साधु रक्त से सनी तलवार हाथ में लेकर धीरे- धीरे उस व्यापारी कि ओर बढ़ते हुए और हँसते हुए बोला - वो तो मैं ले ही लूँगा पर साथ में तुम्हारे प्राण भी लूँगा। तभी साधु ने उसी क्षण व्यापारी का सिर धड़ से अलग कर दिया। साधु ने सारी स्वर्ण मुद्राएँ लूट लीं। उन स्वर्ण मुद्राओं की सहायता से वो समुद्री जहाज से काकरण राज्य चल पड़ा।
साधु भगवान से निरंतर प्रार्थना कर रहा था की मैत्रयी जीवित हो। भगवान उसके प्राणों की रक्षा करे। कई सप्ताह की यात्रा के पश्चात साधु काकरण राज्य की राजधानी मायापुर पहुँच ही गया।
ऐसी चकाचौंध पृथ्वी के किसी नगर में न होगी। स्वर्ण और हीरों से जड़ित यह नगर प्रकाश पुंज से कम प्रतीत न होता था। मायापुर में गगनचुम्बी भवन थे, चौड़े मार्ग और स्वर्ण से बनी विशाल मूर्तियाँ मायापुर की भव्यता को बढ़ाती थीं। नगर के हर भवन पर नक्काशी मानव की कल्पना से परे थी। हर भवन के विशाल द्वार थे और हर भवन के बाहर पहरेदार थे। नगर के परिवहन बहुत ही व्यवस्थित थे। वास्तुकला और शिल्पकला की उच्च कोटी की कल्पनाओं की झांकी मायापुर में प्रतिबिम्बित होती थी जिसे देखते ही हर कोई दंग रह जाता था। मायापुर नगर भौतिक विश्व की हर कल्पना पर सही उतरता था जहां सदाचारी को दुराचारी बनने में समय नहीं लगता था।
साधु ने मैत्रयी की खोज शुरू कर दी परंतु इतने विशाल नगर में मैत्रयी की खोज अति कठिन थी। वो हर नगर वासी से पूछने लगा – एक स्त्री आयी थी पृथयानी से। वो कहाँ मिलेगी? कोई उसकी बात को सुनकर हँसता तो कोई उत्तर ही नहीं देता। बहुत समय ऐसे ही बीत गया। साधु को कुछ समझ न आ रहा था कि क्या पूछ के ढूँढे और कहाँ ढूँढे? उसे सफलता मिलने की उम्मीद कम हो रही थी। वो कई दिनों तक मायापुर की भीषण गर्मी में मैत्रयी की खोज में झुलसता रहा। उसका कंठ जल से रहित हो जाता परंतु उसका मस्तिष्क मैत्रयी के विचारों से रहित न हुआ। मैत्रयी को ढूँढने की उत्कंठा के कारण त्रिशला की बर्फीली ऋतु और न ही मायापुर की आग बरसाती ग्रीष्म ऋतु, उस पर कोई भी प्रभाव डाल रही थी। नगरवासी उसे देखकर अचरज से भर रहे थे कि आकाश से बरसती आग साधु पर कोई भी प्रभाव क्यूँ नहीं डाल पा रही।
साधु को ऐसी स्थिति में देखते हुए एक मायापुर निवासी उसके पास आकर बोला – अरे साधु! क्या चाहिए तुझे?
साधु उत्सुकता से - एक स्त्री जो पृथयानी राज्य से आई थी।
मायापुरवासी हँसते हुए बोला – तू है साधु पर तुझे भी स्त्री सुख चाहिए। मायापुर की हवा ही कुछ ऐसी है।
साधु - वो आठ वर्ष पहले पृथयानी राज्य से यहाँ लाई गयी थी।
मायापुरवासी – यहाँ हर राज्य से अप्सरा की तरह दिखने वाली स्त्रियाँ आती हैं। तू स्वर्ण मुद्राएँ फैंक और सब जानकारी मिलेगी।
साधु ने तुरंत एक सौ मुद्राएँ उस मायापुरवासी को दे दी।
मायापुरवासी इतना स्वर्ण देखकर हैरान होते हुए बोला – देख साधु, आठ वर्ष पूर्व लाई गयी स्त्रियाँ यहाँ से 100 कोस दूर व्यसनपुर में बेची जाती हैं। वो स्त्रियाँ तुझे ज्यादा आनंद नहीं देंगी। तू अभी भी सोच ले, तुझे यहाँ कोई भी अप्सरा मिल जाएगी जो तेरी हवस तृप्त कर देगी।
परंतु साधु तो मैत्रयी के लिए ही विशाल सागर पार करके आया था और उसी के विचारों में संलिप्त था। साधु ने उस व्यक्ति का धन्यवाद किया और वो मायापुर से व्यसनपुर की ओर चल पड़ा। व्यसनपुर पहुँचने के लिए उसे रेगिस्तान को पार करना था। यह यात्रा ऊँटो के माध्यम से होने वाली थी। उसने अपनी लूटी हुई स्वर्ण मुद्राओं का भरपूर लाभ उठाया और इस कठिन यात्रा पर निकल पड़ा। यह मार्ग अति दुर्गम था जिसे पार करना हर किसी के वश की बात न थी। काकरण राज्य के अधिकारी कई युद्ध अपराधियों को मरने के लिए इस रेगिस्तान में छोड़ देते थे, जिनके कंकाल मार्ग पर बिखरे पड़े थे। रेत के विशाल पर्वत पवन के वेग में मस्त होकर हर राहगीर को मृत्य का तांडव दिखाते रहते थे। बहुत विरले लोग ही इस रेगिस्तान को पार करने के मार्गों से परिचित थे और स्वर्ण मुद्राओं के कारण साधु ऐसे व्यक्तियों को ढूँढने में सफल रहा। कुछ दिनो की यात्रा के पश्चात वो व्यसनपुर पहुँच ही गया। व्यसनपुर मरुस्थल के बीचों-बीच बना हुआ नगर था जहां वासना पूर्ति के लिए स्त्रियों का व्यापार होता था। वासना ग्रसित पुरुषों के कारण पूरे विश्व की युवतियों का सौंदर्य उनके लिए अभिशाप बन चुका था। अज्ञानी पुरुषों को यहाँ युवतियों का परम आकर्षक सौंदर्य और ज्ञानी पुरुषों को वासना के दास दिखते। साधु ने वहाँ पहुँचते ही नगर वासियों से पूछना शुरू कर दिया - यहाँ स्त्रियाँ कहाँ मिलती हैं? लोग उस पर हँसते, तो कोई कहता - व्यसनपुर में तो साधुओं का भी वैराग्य भ्रष्ट हो ही जाता है। इस साधु को भी सम्भोग की याद आ गयी है; तो कुछ लोग उसे संकेत करके आगे की ओर जाने को कहते और साधु को जैसे-जैसे लोग बताते गए, वो उसी मार्ग का अनुसरण करता रहा। वो एक मैदान में पहुँच गया जिसका बहुत ऊंचा प्रवेश द्वार था, मैदान के चारों ओर लाल पत्थरों की ऊंची दीवार बनी हुई थी और इस दीवार के ऊपर लोहे की कंटीली तार थी। मैदान वासना के भूखे लोगों से भरा हुआ था, उस साधु ने देखा की मैदान के बीचों-बीच स्त्रियों को बांध