Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

बासी फूल
बासी फूल
बासी फूल
Ebook167 pages1 hour

बासी फूल

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

‘बासी फूल’ मानवीय मूल्यों से जुड़ी, दो प्रेमियों की कथा, व्यथा है| हमारी भारतीय समाज की जीवन शैली का प्रतिबिम्ब है| यह उपन्यास, बाल-विवाह और उससे उपजे उत्पीडन की कहानी है, जो वैदिक काल से ही हमारे समाज में चली आ रही है| नारी को देवी, श्रद्धा, अबला जैसे सम्बन्धों से संबोधित कर, उसे अबला के रूप में मात्र भोग्या और चल-संपत्ति समझ लिया| उसे एक निरीह पशु मानकर, जब मर्जी, चाहे शैशव अवस्था में ही क्यों न हो, उसके भाग्य की डोर, जिस-तिस को पकड़ा दिया जाता है| चूँकि शैशव अवस्था में बालक और बालिकाएं, दोनों ही पूर्णतया अबोध रहते हैं, इसलिये वे विवाह संस्कार का विरोध भी नहीं कर पाते| कारण जो भी हो, पर बाल-विवाह, हमारे समाज का एक गलित कोढ़ है|
‘बासी फूल’ की नायिका पुष्पा, एक बेहद गरीब परिवार में जन्मी, पली, युवती है| उसके तथा उसके परिवार का, ज़िंदा रहने का एकमात्र अवलंब है, घास| वह घास काटकर नित बाजार में ले जाकर बेचती थी, और उससे मिले पैसों से अपना और अपने बूढ़े माँ-बाप की पेट भरती थी| मगर ऊपरवाले का उपहास देखिये, जिसके पास पेट की रोटी की व्यवस्था नहीं दिया, उसे रूप-रंग से इतना धनवान बनाया, कि देखने वाला देखता रह जाय, मानो कोई पुरानी देवकथा की पात्री हो|
पुष्पा जब छ: साल की बालिका थी| तभी उसके माँ-बाप ने, उसका विवाह कर दिया| मगर विधि का विधान कौन टाल सकता है? जब वह आठ साल की हुई, उसके पति का किसी कारण स्वर्गवास हो गया| इन सब बातों से अनभिग्य पुष्पा बड़ी होती गई| जब वह जवान हुई, उसका यौवन भदवी नदी के सामान उमड़ने लगा| वह हिरणी की तरह, चहल-पहल करने लगी| तब उसकी माँ ने उसे बताया, बेटा, तुम्हारा यह व्यवहार ठीक नहीं है, तुम एक विधवा हो| तुम्हारी शादी हो चुकी है, मगर तुम्हारे पति बे-समय दुनिया को छोड़कर चले गए|यह सुनकर वह सन्न रह गई| तब से वह मौन रहने लगी| एक दिन चाँदनी रात का सबेरा था| अभी चंद्रमा में फीका प्रकाश बाकी था| पुष्पा नदी के किनारे-किनारे चलती चली जा रही थी, कि अचानक उसके कदम रूक गए| उसे लगा, कोई उससे कह रहा है, इतना सबेरे? पुष्पा गर्दन घुमाकर पीछे की और देखी, तो शर्म और डर से सिहर गई| देखी, एक 20-22 साल का लड़का शिला पर लेटा हुआ था| उससे उसकी आँखें मिल गईं| उसने कुछ कठोरजबाव से कहा, ’घास लेने’ जा रही हूँ, पर आपको इससे मतलब? उस पहली मुलाक़ात में ही पुष्पा के सूखे वृक्ष की टहनी में जान पड़ गई| उसके मन में हरी-हरी पत्तियां निकल आईं| उसका शुष्क, नीरस जीवन सरस और सजीव होने लगा| जीवन निरर्थक नहीं, सार्थक दीखने लगा|
मगर शीघ्र ही उसके मनोभावों का हरण हो गया, जब उसे याद आई, कि मैं एक विधवा हूँ, मुझे कोई अधिकार नहीं, कि मैं किसी पर-पुरुष से प्यार करूँ?
मगर सच्चा प्यार रूकता कहाँ है? वह तो नदी की वो धारा है, कि जब तक वह समुद्र जाकर मिल नहीं लेती, पहाड़, पत्थर सब पार करती, गिरती और बजरती; बिना थके, बिना हारे चलती जाती है|
सामाजिक विघ्न-बाधाओं के बावजूद दोनों के मिलने का सिलसिला चलता रहा| जब प्यार का पानी, सर से ऊपर जाने लगा, तब पुष्पा ने कहा, ’देवव्रत बाबू! मैं एक विधवा हूँ, आप मुझसे मिलना छोड़ दीजिये| एक विधवा को किसी से प्यार करने का हक़ नहीं है| भले ही मुझे याद नहीं, मेरा पति कौन था, और मेरा विवाह कब हुआ?’ मान कहती है, जब मैं छ: साल की थी, तभी मेरा विवाह कर दिया गया था, और आठ साल की उम्र में विधवा हो गई|
देवव्रत, पुष्पा की बात को अनसुनाकर कहा, ’विवाह और संस्कार सब दिखाबा है| संस्कृत के चार अक्षर पढ़ लेने से कुछ नहीं होता|मंत्रोच्चारण कर विवाह करने के बावजूद भी तो शादियाँ टूटती हैं| रही बात, विधवा होने की, जिसे तुमने देखा नहीं, छूआ नहीं, वह पति कैसा? यह सब हमारे समाज द्वारा बनाए नियम हैं| हमारा समाज विधुर होकर, भी एक बार नहीं, दो बार नहीं, चार बार भी शादी कर लेता है| मगर, एक अबला को मूक और वधिर मानकर जब जी में जो आता है| उस पर कानून लाद देता है, जिसे मैं नहीं मानता| मैंने तुमको चाहा है, चाहता रहूँगा, और एक दिन विवाह कर पुष्पा को अपने घर ले आता है|
मेरी समझ से जीवन में उतना सार भी नहीं: साँस का भरोसा ही क्या और इसी नश्वरता पर हम इच्छाओं के कितने बड़े-बड़े किले बनाते हैं| नहीं जानते, नीचे जाने वाली साँस ऊपर आएगी या नहीं| पर सोचते इतनी दूर की हैं, मानो हम अमर हैं| जिसके ऊपर पड़ती है, वही जानता है| वैधव्य जीवन क्या होता है? अगर हम और हमारा समाज कल्याणी की इस मानसिक यातना का एहसास कर पाते, तो शायद यह बाल-विवाह खुद-बा-खुद रूक सकता है| इसके लिए किसी सरकारी कानून की जरुरत नहीं पड़ती| प्रश्न यह उठता है कि इस कुप्रथा और गलित कोढ़ से छुटकारा पाने का उपाय क्या है? मेरी समझ से समाज का शिक्षित होना जरूरी है|

Languageहिन्दी
Release dateFeb 5, 2023
ISBN9788195609512
बासी फूल
Author

डॉ. तारा सिंह

Dr. Tara Singh, well known Hindi Litterateur, a versatile writer, taking keen interests in writing Poems, Short Stories, Novels, Ghazals, Filmy Songs and Essay Books.She always deals with real facts and original aspects of a relationships between individuals / family members / friends. Thus, she illustrates not only the pleasant love but also sometimes resulting development like despair, betrayals and disloyalties.With publication of 46 books (Novels-4, poetry books-20, story books-15, Ghazal books-7), she is presently working as the Editor-in-Chief and Administrator of www.swargvibha.com (A leading Hindi Website) and the Swargvibha Hindi quarterly magazine. She has gotten wide applauses for her emotional and thoughtful Poems, Stories and Ghazals, while dealing with Social and Family issues, Personal and Social delicacies, Philosophy of life and Reality, Birth and Death Cycles, etc.Dr. Tara Singh's outstanding works have been duly recognized and she has already been awarded 255 awards / felicitations / trophies from both National and International Organizations of repute. Her writings / books are now available at www.swargvibha.com and www.kukufm.com (As Audiobooks), Google books, www.amazon.in, www.flipkart.com, Insta Publish, Suman Publications, www.pothi.com, Central and State Libraries in India and 30 other websites world over, etc. Her Biography, “TARA SINGH AUTHOR” has been published by Barnes and Noble (USA 2011) and also by Rifacimento International, 9 times in Who's Who (2006-2019) and Wikipedia. Her writings are always full of serious thoughts, topics, pace of happenings and philosophy of life.

Read more from डॉ. तारा सिंह

Related to बासी फूल

Related ebooks

Reviews for बासी फूल

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    बासी फूल - डॉ. तारा सिंह

    बासी फूल

    उपन्यास

    Author: डॉ. तारा सिंह

    Published: 4 February 2023

    E-book Edition

    Copyright © डॉ. तारा सिंह

    All rights reserved including the right to reproduction of this book whole or in part

    Publisher: Swargvibha Publishing House

    Publisher Address: A-1601, Sea Queen Heritage, Plot-6, Sector-18, Sanpada, Navi Mumbai, Maharashtra - 400705

    प्रस्तुति

    ‘बासी फूल’ मानवीय मूल्यों से जुड़ी, दो प्रेमियों की कथा, व्यथा है| हमारी भारतीय समाज की जीवन शैली का प्रतिबिम्ब है| यह उपन्यास, बाल-विवाह और उससे उपजे उत्पीडन की कहानी है, जो वैदिक काल से ही हमारे समाज में चली आ रही है| नारी को देवी, श्रद्धा, अबला जैसे सम्बन्धों से संबोधित कर, उसे अबला के रूप में मात्र भोग्या और चल-संपत्ति समझ लिया| उसे एक निरीह पशु मानकर, जब मर्जी, चाहे शैशव अवस्था में ही क्यों न हो, उसके भाग्य की डोरजिस-तिस को पकड़ा दिया जाता है| चूँकि शैशव अवस्था में बालक और बालिकाएं, दोनों ही पूर्णतया अबोध रहते हैं, इसलिये वे विवाह संस्कार का विरोध भी नहीं कर पाते| कारण जो भी हो, पर बाल-विवाह, हमारे समाज का एक गलित कोढ़ है|

    ‘बासी फूल’ की नायिका पुष्पा, एक बेहद गरीब परिवार में जन्मी, पलीयुवती है| उसके तथा उसके परिवार का, ज़िंदा रहने का एकमात्र अवलंब है, घास| वह घास काटकर नित बाजार में ले जाकर बेचती थी, और उससे मिले पैसों से अपना और अपने बूढ़े माँ-बाप की पेट भरती थी| मगर ऊपरवाले का उपहास देखिये, जिसके पास पेट की रोटी की व्यवस्था नहीं दिया, उसे रूप-रंग से इतना धनवान बनाया, कि देखने वाला देखता रह जाय, मानो कोई पुरानी देवकथा की पात्री हो|

    पुष्पा जब छ: साल की बालिका थी| तभी उसके माँ-बाप ने, उसका विवाह कर दिया| मगर विधि का विधान कौन टाल सकता है? जब वह आठ साल की हुई, उसके पति का किसी कारण स्वर्गवास हो गया| इन सब बातों से अनभिग्य पुष्पा बड़ी होती गई| जब वह जवान हुई, उसका यौवन भदवी नदी के सामान उमड़ने लगा| वह हिरणी की तरह, चहल-पहल करने लगी| तब उसकी माँ ने उसे बताया, बेटातुम्हारा यह व्यवहार ठीक नहीं है, तुम एक विधवा हो| तुम्हारी शादी हो चुकी है, मगर तुम्हारे पति बे-समय दुनिया को छोड़कर चले गए|यह सुनकर वह सन्न रह गई| तब से वह मौन रहने लगी| एक दिन चाँदनी रात का सबेरा था| अभी चंद्रमा में फीका प्रकाश बाकी था| पुष्पा नदी के किनारे-किनारे चलती चली जा रही थी, कि अचानक उसके कदम रूक गए| उसे लगा, कोई उससे कह रहा है, इतना सबेरे? पुष्पा गर्दन घुमाकर पीछे की और देखी, तो शर्म और डर से सिहर गई| देखी, एक 20-22 साल का लड़का शिला पर लेटा हुआ था| उससे उसकी आँखें मिल गईं| उसने कुछ कठोरजबाव से कहा, ’घास लेने’ जा रही हूँ, पर आपको इससे मतलब? उस पहली मुलाक़ात में ही पुष्पा के सूखे वृक्ष की टहनी में जान पड़ गई| उसके मन में हरी-हरी पत्तियां निकल आईं| उसका शुष्क, नीरस जीवन सरस और सजीव होने लगा| जीवन निरर्थक नहीं, सार्थक दीखने लगा|

    मगर शीघ्र ही उसके मनोभावों का हरण हो गया, जब उसे याद आई, कि मैं एक विधवा हूँ, मुझे कोई अधिकार नहीं, कि मैं किसी पर-पुरुष से प्यार करूँ?

    मगर सच्चा प्यार रूकता कहाँ है? वह तो नदी की वो धारा है, कि जब तक वह समुद्र जाकर मिल नहीं लेती, पहाड़, पत्थर सब पार करती, गिरती और बजरती; बिना थके, बिना हारे चलती जाती है|

    सामाजिक विघ्न-बाधाओं के बावजूद दोनों के मिलने का सिलसिला चलता रहा| जब प्यार का पानी, सर से ऊपर जाने लगा, तब पुष्पा ने कहा, ’देवव्रत बाबू! मैं एक विधवा हूँ, आप मुझसे मिलना छोड़ दीजिये| एक विधवा को किसी से प्यार करने का हक़ नहीं है| भले ही मुझे याद नहीं, मेरा पति कौन था, और मेरा विवाह कब हुआ?’ मान कहती है, जब मैं छ: साल की थी, तभी मेरा विवाह कर दिया गया था, और आठ साल की उम्र में विधवा हो गई|

    देवव्रत, पुष्पा की बात को अनसुनाकर कहा, ’विवाह और संस्कार सब दिखाबा है| संस्कृत के चार अक्षर पढ़ लेने से कुछ नहीं होता|मंत्रोच्चारण कर विवाह करने के बावजूद भी तो शादियाँ टूटती हैं| रही बात, विधवा होने की, जिसे तुमने देखा नहीं, छूआ नहीं, वह पति कैसा? यह सब हमारे समाज द्वारा बनाए नियम हैं| हमारा समाज विधुर होकर, भी एक बार नहीं, दो बार नहीं, चार बार भी शादी कर लेता है| मगर, एक अबला को मूक और वधिर मानकर जब जी में जो आता है| उस पर कानून लाद देता है, जिसे मैं नहीं मानता| मैंने तुमको चाहा है, चाहता रहूँगा, और एक दिन विवाह कर पुष्पा को अपने घर ले आता है|

    मेरी समझ से जीवन में उतना सार भी नहीं: साँस का भरोसा ही क्या और इसी नश्वरता पर हम इच्छाओं के कितने बड़े-बड़े किले बनाते हैं| नहीं जानते, नीचे जाने वाली साँस ऊपर आएगी या नहीं| पर सोचते इतनी दूर की हैं, मानो हम अमर हैं| जिसके ऊपर पड़ती है, वही जानता है| वैधव्य जीवन क्या होता है? अगर हम और हमारा समाज कल्याणी की इस मानसिक यातना का एहसास कर पाते, तो शायद यह बाल-विवाह खुदबा-खुद रूक सकता है| इसके लिए किसी सरकारी कानून की जरुरत नहीं पड़ती| प्रश्न यह उठता है कि इस कुप्रथा और गलित कोढ़ से छुटकारा पाने का उपाय क्या है? मेरी समझ से समाज का शिक्षित होना जरूरी है|

    -तारा सिंह

    बासी फूल

    गोधूलि थी, और वहीं उदास, वेगमती झील, देवव्रत, थका हुआ बैठा था| आज उसके मन में न जाने कहाँ से इस झील के प्रति, स्नेह उमड़ा था कि घंटों बैठने के बाद भी वहाँ से चलने का दिल नहीं कर रहा था| तभी उसने देखा कि झील के उस पार, एक फूल हिल रहा है| आँख उठाकर देखा तो, एक फटी साड़ी में लिपटी, प्राचीन देवकथाओं की पात्री, जिसके मुख पर अपार तेज था, वह वहाँ घास काट रही है| उसे देखकर, देवव्रत के मन में स्नेह, और कौतुहल जाग उठा| वह उसके पास गया, पूछा, ‘घास काट रही हो, घर पर पशुएँ हैं क्या?

    पुष्पा मलिन वस्त्र से मुँह पर का पसीना पोंछती, बोली, ’नहीं, पशु तो नहीं हैं|’

    देवव्रत, अचंभित हो बोले, ‘तो यह घास घर ले जाकर क्या करोगी?’

    पुष्पा, ’खुद खाउँगी!’

    फिर गुस्से में लाल-पीली होती हुई बोली, ‘और कुछ जानना है, तो बोलो! तुमने बेकार में मुझे देरी करा दी, मुझे घर लौटना है|’

    देवव्रत, बेबसी से बोला, ‘तुम तो ऐसी बातें कर रही हो, जैसे मुझे यहीं झील में सोकर रात बिताना है| मुझे भी घर जाना है|’

    पुष्पा, ‘तो जाओ न, रोका किसने?’

    पुष्पा, अपने गाँव में सबसे चंचल लड़कियों में एक थी| लड़की क्या, वह तो युवती हो चली थी, भले ही उसका ब्याह नहीं हुआ था| उसमें सबसे बड़ा दोष था कि उसे जो जी में आता था, बक दिया करती थी| सामने कौन खड़ा है, इसकी ज़रा भी परवाह नहीं करती थी| उसका गाँव, वहीँ झील के कुछ कदम पर था, नाम था ‘माधोपुर’, पर माधोपुर कब मधेपुरा कहलाने लगा, कोई नहीं जानता| पुष्पा, घास की गठरी, माथे पर रख, बिना कुछ बोले जाने लगी| उसे जाता देख, देवव्रत सोचता रहा, उसका सुन्दर, सुगठित शरीर, बिना देख-रेख के, मलिनता में भी कंचन की तरह चमक रहा था| अगर सही देखभाल होता, तब न जाने, यह देवपरी, स्वर्ग सुन्दरी को भी मात करती| देवव्रत की मांसल पीन भुजाओं में उस युवती के आलिंगन के लिये प्यार उमड़ आया| उसके प्यार की गर्मी उस शीतल रात्रि में भी अंक में अनुभूत हो रही थी| उसे असत्य या उसे कल्पना कहकर, उड़ा देने के लिए देवव्रत का मन हठ कर रहा था, पर वैसा कर न सका, और वह वहीँ खड़ा-खड़ा, जाती हुई पुष्पा को देखकर, उसके यौवनोन्माद की माधुरी पी रहा था, और चारो ओर से नाना प्रकार के घास, जंगली जड़ी-बूटियों वाले पौधों की मंजरियों से सुगंध आ रही थी|

    हरियाली से लदा हुआ ढलुवां तट था, बीच स्थिर, शांत झील, संध्या

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1