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निःशब्द
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निःशब्द

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वो शब्द जो ख़ामोशियों में छिप कर आते हैं, हमारे ज़हन को निःशब्द कर के जाते हैं।

 

उस घने जंगल के अविश्वसनीय अन्धकार और असीम प्राकृतिक ख़ूबसूरती को लांघते हुए, अचानक एक दिन वो बच्ची शहर की भीड़ तक पहुँच जाती है। पशुसदृश्य हरकतों और ख़ामोशी में लिप्त उस बच्ची के पास ना तो कोई अतीत है, और ना हीं कोई पहचान। उसके ज़हन में गूंजती हैं तो बस डरवाने सपनों की चीखें, शरीर और मन पर हैं, तो बस असहनीय ज़ख्मों के निशान, और व्यक्तित्व में है, तो बस मानवता के प्रति संदेह और अविश्वास।

 

नलिनी राय, एक बाल मनोचिकित्सक! सुलझी हुई, सफल एवं कर्तव्यनिष्ठ। बचपन में अपनी माँ की मृत्यु और पिता के अवसाद से लड़ते हुए भी एक सफ़ल मक़ाम हासिल करती है, पर जीवन उसे एक ऐसे मोड़ पर ले आती है, जहां वो खुद को बिखरता हुआ पाती है। अपने स्वयं के अन्धकार से लड़ने के क्रम में, वो एक ऐसी बच्ची से आ टकराती है, जिसके शब्दों और पहचान की तलाश में वो, खुद के सार्थक अस्तित्व से मिल जाती है।

 

राजवीर राठौड़, एक वन अधिकारी! अंतर्मुखी, परिष्कृत और ईमानदार। सुकून की तलाश में उसने जंगलों का रुख किया। उसके जीवन में काम के अलावा किसी और चीज की महत्ता नहीं थी, फिर किस्मत ने उसे ऐसी परिस्थितियों से मिलवाया, कि नए आयामों के द्वार तक वो खींचा चला आया।

पृथक-पृथक रास्तों और परिस्थितियों पर चलते इन मुसाफ़िरों की राहें जब आपस में टकरातीं हैं, एक नयी रौशनी से किस्मत इन्हें रूबरू करवाती है।

 

Languageहिन्दी
Release dateDec 2, 2022
ISBN9789391470531
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    निःशब्द - Manisha Manjari

    समर्पण

    माता एवं पिता

    के कर-कमलों में सादर,

    सस्नेह समर्पित

    * * *

    प्रस्तावना

    जीवन एक साधारण शब्द है, जो अकल्पित अर्थों को परिलक्षित करता है। हमें लगता है की इसकी कलम हमारे हाथ में है, और हम हीं इसके रचनाकार हैं। हमारे निर्णय हमें हमारे इच्छित गंतव्य तक ले कर जायेंगे, और बहुत सारे प्रकरणों में ये सत्य भी होता है। परन्तु कई बार ऐसा भी होता है की हम जो सोचते हैं, या जो चाहते हैं, अथवा जो करते हैं, वो कोई मायने हीं नहीं रखता। क्योंकि अपनी मूर्खता में हम यह भूल जाते हैं की हम तो बस हमारी कहानी के तुच्छ से पात्र हैं। हमारी कहानियाँ तो जाने कब की उसकी कलम द्वारा लिखी जा चुकी हैं, हम तो बस उन पात्रों को जीने और उसकी लिखी कहानी को जीवंत स्वरुप देने आये हैं। कभी उसे लगता है की उसने हमें इतनी शक्ति दी है की हम उसके लिखे पात्रों के साथ न्याय कर सके, तो कभी उसके लिखे दृश्य हीं हमारे अंदर शक्ति का संचार कर देते हैं।

    जीवन सिर्फ संघर्षों और सफल कहानियों का समन्वय नहीं है, अपितु ये ज्ञान और अनुभवों को भी परिभाषित करता है। हममें से अधिकांशतः लोगों का ऐसा मानना है की जीवन संघर्षपूर्ण है और ये संघर्ष हीं हैं जो हमें सफल बनाते हैं। और इस तरह कभी-कभी हम सरल जीवन को भी जटिलताओं से भर देते हैं। अक्सरहां हम जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों की उपेक्षा करते हैं और ऐसे अवयवों को महत्ता देते हैं जिसका अंततः कोई मोल नहीं रहता। कई बार करुणा, संवेदना, सहानुभूति, क्षमा जैसे भावों को हम विस्मृत कर जाते हैं। हमारे पास वक़्त हीं नहीं होता ईश्वरकृत इस ख़ूबसूरत आकाश को सराहने का, या इस ताज़ी हवा को महसूस करने का, दरख्तों की छाँव में बैठने का, जो उसने हमें बेमोल दे कर रखा है। हमारा मन तो बस प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि, विख्याति, शान और संपत्ति से हीं भ्रमित रहता है। सदैव हीं कहीं पहुँचने की जल्दी होती है हमें। अक्सर इस भागमभाग में हम ये भूल जाते हैं की जीवन सिर्फ सफलताओं को पाने की प्रक्रिया नहीं है, अपितु ये सिखने का सफर भी है। इस सफर में जाने कितने हीं नए आयाम सीखते हैं हम और सच पूछिए तो इसके सिखाने की प्रक्रिया भी कितनी व्यंगात्मक है, जीवन हमें दुःखों की गहराई में ले कर जाता है ताकि ये हमें सच्चे सुखों का अनुभव करवा सके। अराजकता का वातावरण देती है ताकि हम शांति की महत्ता समझ सके। कभी ये हमसे अपनों को छीनती है ताकि हम अपनों के होने का मतलब समझ सके, तो कभी पराये रिश्तों में अपनों का रंग घोल देती है, ताकि अन्य रिश्तों के महत्त्व को भी समझा जा सके।

    जाने कितने हीं रंग हैं उसकी कहानियों में, कहीं नकारात्मकता का अन्धकार है, और कहीं सकारात्मकता का प्रकाश। सबसे महत्वपूर्ण बात तो ये है की वो हमें उन सारे हीं रंगों का अनुभव करवाता है। कभी वो गहरे रंगों की उदासी हमारे नाम करता है, तो कभी सुनहरे रंगों का पुरस्कार हमें भेंट करता है। सदैव हीं हम इसके अन्धकार की उपेक्षा करते हैं और इससे दूर भागने की चेष्टा में रहते हैं, परन्तु ये एक असंभव कृत्य है। अन्धकार का सामना किये बगैर प्रकाश की प्राप्ति व्यर्थ सी प्रतीत होती है। यदि हमें ये पता हीं न चले की अन्धकार होता क्या है तब तक प्रकाश का महत्व कैसे समझा जा सकता है?

    जब जीवन में ग़मों के बादल छाते हैं और कुछ अप्रिय घटता है, तो उसे स्वीकार करने के बजाये हम अतीत में जाना चाहते हैं ताकि उस क्रम को हीं बदल सकें। परन्तु ये तथ्य समझ से परे है क्यों? क्यों ये आरंभ अभी यहीं से नहीं हो सकता? जब वर्तमान हीं भविष्य की आधारशिला है तो, यात्रा तो आज में होनी चाहिए, न की बीते हुए कल में या आने वाले कल में। हमारी मनस्थिति ऐसी है की हम यात्रा के आरम्भ, और अंत को हीं प्राथमिकता देते हैं। सफर शुरू होता नहीं की मंजिल पे पहुँचने की होड़ में लग जाते हैं, पर ये आरम्भ और अंत के मध्य का सफर हीं तो है, जो दोनों धुरियों का सबसे खूबसूरत पहलु है। उस सफर को हम नज़रअंदाज़ कर जाते हैं। जीवन तय करते-करते जीवन जीना भूल जाते हैं।

    हम जीवन को नियंत्रित नहीं कर सकते, ये हमारी क्षमता से परे है। पर कम से कम हम उस ईश्वर का आभार तो व्यक्त कर सकते हैं, जिसने हमें इसका आशीष दिया है। वो हीं तो वास्तविक रचनाकार है, और यदि उसने हमारे लिए कुछ लिखा है तो अवश्य हीं वो अर्थपूर्ण और सुयोग्य होगा। उसे ज्ञात है की हमारे लिए क्या जरुरी है, बजाये इसके की हमें क्या चाहिए। बस हमे उस आस्था की डोर थामे चलना है, जिससे हम उस परमसत्ता से बंध कर रह सके।

    1

    रात का अन्धकार अपनी पराकाष्ठा पर था, और आसमान घने बादलों से बातें कर रहा था। ठंडी हवाएँ रात के सन्नाटों को तोड़ती हुईं, पत्तों की झरझराहट में गायब हो रहीं थी। नवीन सरेन अपने कमरे से लगे बरामदे में खड़े होकर आसमान में जाने क्या देखने की कोशिश कर रहे थे। उनके दाहिने हाथ में एक जलती हुई सिगरेट थी, और अपने बायें हाथ से उन्होंने बालकनी की रेलिंग को थाम रखा था। उनकी आँखों में जाने किस बात का ख़ौफ़ था, जो उनके चेहरे पर परेशानी बनकर झलक रहा था। उन्होंने सिगरेट का एक अंतिम और लम्बा कश लिया, और बचे हुए सिगरेट को अपने पैरों तले कुचलते हुए बेडरूम में वापस आये। नाईट बल्ब की हल्की रौशनी में उन्होंने अपनी पत्नी सुरभि और अपनी साढ़े तीन साल की बेटी को देखा, जो अपनी माँ से लिपट कर सोयी थी। दोनों के चेहरे के निश्चिंतता के भाव और मासूमियत देख, नवीन सरेन के परेशान चेहरे पे एक हल्की सी मुस्कान फैल गयी। उन्होंने एक लम्बी साँस ली, और बिस्तर पर लेट कर अपनी आँखें मूँद ली।

    नवीन सरेन बाँध प्रबंधन योजना में सिविल इंजीनियर के रूप में कार्यरत थे। दिन रात की परवाह किये बगैर नवीन सरेन अपने काम के प्रति पूरी तरह से ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ थे। खुले विचार और हँसमुख व्यक्तित्व के धनी नवीन सरेन अपने कार्यस्थल पर भी सभी सहकर्मियों के प्रिय थे। पर कुछ दिनों से वो काफी तनाव में थे, वजह थी उस क्षेत्र में दो हफ़्तों से लगातार हो रही बाऱिश। मूसलाधार बाऱिश की वजह से नदी का जल-स्तर लगातार बढ़ता जा रहा था, और नदी अब खतरे के निशान से काफ़ी ऊपर बह रही थी, जिससे बाँध पे दबाब भी अत्यधिक हो गया था। बाँध के दरवाज़ों को खोलना आवश्यक हो चुका था, नहीं तो बाँध के टूटने की संभावना थी। एक ओर अगर ऐसा नहीं किया जाये आसपास के शहर तबाह होने थे, और दूसरी ओर बाँध के दरवाज़े खोलने से निचले इलाके पूरी तरह से ध्वस्त होने थे। बस यही सारी बातें नवीन सरेन को सोने नहीं दे रहीं थी। आज दो हफ़्तों के बाद कुछ घंटों के लिए बाऱिश रुकी तो उनकी साँस में साँस आयी, पर आकाश में छाये बादलों ने उनकी आत्मा को सकते में डाल रखा था।

    अभी कुछ हीं क्षण पहले उन्होंने आंखें बंद की थी, कि लगातार बजती मोबाइल की घंटी ने उन्हें नींद से वापस खींच लिया। अर्धनिंद्रा की अवस्था में हीं उन्होंने मोबाइल को ऑन कर कानों से लगाया और कहा,

    हेलो!

    नवीन सर, मौसम विभाग से खबर आयी है भारी बाऱिश शुरू होने वाली है, और पहाड़ी के ऊपरी इलाकों में तेज़ बाऱिश शुरू भी हो चुकी है, वो ऊपरी बाँध से बड़ी मात्रा में पानी छोड़ने वाले हैं। हमें पांच घंटे का समय दिया गया है। बाँध के दरवाज़े खोलने क लिए और, इलाक़े को खाली करने को लिए।

    नवीन जी झटके से बिस्तर से उठे और घबरायी आवाज़ में कहा,

    आख़िर जिसका डर था वही हुआ, ठीक है रोहन, तुम बाकियों को भी खबर कर दो। ईश्वर की शायद यही मर्ज़ी है।

    नवीन सरन ने ज़ल्दी से कॉल काटा और अपनी पत्नी को आवाज़ लगायी,

    सुरभि! सुरभि ज़ल्दी उठो।

    आंखें मलती हुई सुरभि ने नवीन को देखा और अलसाते हुए कहा,

    सुबह हो गयी क्या?

    नवीन सरेन ने झुंझलाते हुए कहा, नहीं! बाँध के दरवाज़े खोलने के ऑर्डर्स आये हैं, हमे यहां से निकलना होगा। वो भी अभी। तुम्हे कहा था मैंने, मायके चली जाओ, यहां रहना सुरक्षित नहीं है अभी, पर तुम्हे तो मेरी सुननी हीं नहीं थी। अब चलो, जल्दी करो। हमारे पास बस पांच घंटे हैं।

    घबराई हुई सुरभि जल्दी से बिस्तर से उठी, और नवीन सरेन से कहा,

    आप परेशान मत होईये। चलिए, जल्दी से यहाँ से निकलते हैं।

    बीस मिनट बाद नवीन सरेन अपनी पत्नी और बेटी को साथ लिए अपनी सफ़ेद रंग की गाड़ी के पास खड़े थे। ड्राइविंग सीट पर बैठने से पहले उन्होंने सर उठा कर आकाश की ओर देखा, अँधेरे आसमान में बिजली की धनक से रेखाएं सी खींच रहीं थी, साथ में बादल के गरजने से, रात का वो नज़ारा और भी डरावना सा लग रहा था। हल्की हवाएँ आँधी में बदलने को उतावली थी। नवीन सरेन तेज़ी से गाड़ी में बैठे और बगल की सीट पर आराम से बैठी अपनी पत्नी और बेटी को देखा। सुरभि ने मुस्कुराते हुए नवीन सरेन का हाथ छुआ और कहा, चलिए अब।

    नवीन सरेन ने ब्रेक से पैर हटाया और जल्द हीं उनकी गाड़ी हवा से बातें करने लगी। आँधी ने धीरे-धीरे जोर पकड़ लिया था, और बारिश की बूँदें गाड़ी के सामने वाले शीशे पर गिरनी शुरू हो चुकी थी। हल्की बूंदा बांदी धीरे-धीरे पत्थरों जैसी बूंदों में तब्दील हो गयीं। तेज़ आँधी और बारिश की वजह से नवीन सरेन को रास्ता देखने में परेशानी हो रही थी। पर किसी तरह वो बस उस इलाके से अपने परिवार को निकालने को ढृढ़संकल्पित थे। पानी के छींटे उड़ाती हुई उनकी गाड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। हवा और पानी के थपेड़े गाड़ी से टकराते और, विखंडित हो जाते। आँखों को सड़क से लगाये नवीन सरेन आगे बढ़ हीं रहे थे, कि उनके मोबाइल पर आती कॉल ने उनका ध्यान भंग किया। पहले तो उन्होंने कॉल को नज़रअंदाज़ किया पर, जब दूसरी बार वो बजा तो उन्होंने कॉल उठा कर उसे स्पीकर पर डाल दिया।

    हेलो! प्रसाद बोलो।

    नवीन सर, आप निकले या नहीं?

    हाँ! मैं निकल गया।

    चलिए, बहुत बढ़िया सर। बस यही जानने के लिए कॉल किया था, मैंने। अभी कहाँ हैं आप, सर? घाटी से निकल गये?

    नहीं! अभी लगभग एक घंटा और लग जायेगा।

    ठीक है सर, पहुँच कर बताइये।

    इधर प्रसाद ने फ़ोन रखा हीं था कि आसमान से कड़कती हुई बिजली, नवीन सरेन की गाड़ी से कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक पेड़ पे आ गिरी, और उसकी डालियाँ अग्नि से जल उठीं। सुरभि ने नवीन सरेन का हाथ जोर से दबाया और घबरा कर कहा,

    ओह माई गॉड!

    नवीन सरेन ने हड़बड़ा कर हैंडब्रेक लगाया, जिससे उनकी तेज़ी से भागती गाड़ी अपनी जगह पर हीं नाच गयी। नवीन सरेन ने गाड़ी को नियंत्रित करने की कोशिश कि, और ब्रेक को अपनी ताक़त से दबाया, पर उससे पूर्व हीं उनकी गाड़ी बाईं तरफ के रोड ब्लॉक को तोड़ती हुई ढलान की तरफ लुढ़क गयी, जहां नीचे नदी अतिवेग में बह रही थी। सुरभि ने चीखते हुए कहा,

    नवीन!

    अपनी माँ की चीख से सुरभि के गोद में सोई उनकी बेटी डर गयी और जोर से रोने लगी। नवीन सरेन के दिल की धड़कने बहुत तेज़ हो गयीं और उनका मस्तिष्क सुन्न पड़ गया। उन्हें अपने और अपने परिवार का अंत साफ़ दिखने लगा, उन्होंने अपनी पत्नी का हाथ पकड़ा और अपनी आंखें बंद कर ली। ऊँचाई से ढलकती हुई गाड़ी बड़े वेग से नदी के सतह से टकराई और नदी में समाती चली गयी।

    नवीन सरेन का सर गाड़ी की स्टीयरिंग से जा लगा। नदी की गहराई में डूबते हुए उन्होंने हाथ पैर मारने की नाकाम कोशिश की। कुछ क्षणों बाद, गहरायी से गाड़ी ऊपर की ओर उठी और तेज़ बहाव के साथ बहने लगी। कुछ समय के लिए उनकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया, पर तभी अपनी बेटी के रोने की आवाज़ ने उन्हें, बेहोशी से बाहर खींचा। पानी की तेज़ धारा गाड़ी को बहाये लिए जा रही थी, होश सँभालते हीं नवीन सरेन ने बायीं ओर देखा, घुप अँधेरे में कुछ भी देखना असंभव सा लग रहा था। खुद से संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने बाएँ हाथ से अपनी पत्नी को छूने की कोशिश की, पर उनके साथ वाली सीट पर उन्हें कोई नहीं मिला। उन्होंने अपनी पत्नी का नाम लिया और पागलों की तरह चिल्लाये,

    सुरभि।

    गाड़ी का बायां हिस्सा पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया चूका था और गाड़ी में ना हीं उनकी पत्नी थी, और ना हीं बेटी। वो दोनों का नाम लेकर चिल्लाये पर बारिश और नदी के शोर में उनकी आवाज़ दब कर रह गयी। उन्होंने अपनी सीट बेल्ट को जोर से खींचा और गाड़ी का दाहिना दरवाजा खोलने की कोशश की, पर असफल रहे। तभी तेज़ी से बहती हुई उनकी गाड़ी किसी बड़े पत्थर से जा टकराई और एक बार फिर गाड़ी ने अपनी दिशा बदलते हुए किसी किनारे की ओर बढ़ गयी। टकराव काफी भयंकर था, जिससे नवीन सरेन एक बार फिर से जख्मी हुए और ड्राइविंग सीट पर हीं अचेत हो गए।

    बारिश और नदी के कलरव के अलावा अब कोई आवाज़ शेष नहीं थी। ऐसा लग रहा था जैसे कुछ हुआ हीं ना हो। बारिशों से खेलती हुई उफनती नदी बस अपनी निर्धारित दिशा में बहे जा रही थी।

    * * *

    2

    ढेड़ साल बाद ...

    शिवोमा एक छोटा सा शहर था, जिसके एक तरफ था घना जंगल और दूसरी ओर थे ऊँचे पहाड़। इस शहर के एक छोर पर उहल नदी स्थिरता से बहती थी। हवाएँ भी यहाँ थोड़ी सुस्त सी चला करती थीं, जैसे बस यहीं की होकर रहना चाहती हों। ऊँचे-ऊँचे पेड़ शहर को अंदर और बाहर से घेरे हुए थे। कुछ मुख्य सड़कों को छोड़कर बाकी शहर कच्ची और उबड़ -खाबड़ पगडंडियों द्वारा एक दूसरे से जुड़ा था। प्राकृतिक सौंदर्य से अलंकृत ये शहर, आधुनिकता से थोड़ा दूर अपनी हीं दुनिया में सिमटा सा खड़ा था।

    हर सुबह की तरह आज भी राजवीर की आंखें पांच बजते हीं बिना अलार्म के खुल गयीं। झटके से बिस्तर छोड़ वो किचन की ओर बढ़ा और खुद के लिए एक कड़क कॉफ़ी बनायीं। उसने आंखें बंद करके पहला घूंट लिया, और फिर एक लम्बी सांस ली। कैफीन ने उसकी बची-खुची नींद को भी गायब कर दिया। कॉफ़ी मग हाथ में लेकर वो बाहर बरामदे की ओर गया, और वहां पर रखी बेंत की कुर्सी पर धम्म से जाकर बैठ गया। सूरज शायद किसी और क्षितिज़ पर था अभी, पर उसके आने की आहाट में चिड़िओं ने चहचहाना शुरु कर

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