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अपराजित
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अपराजित

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यह पुस्तक अपराजिता मुख्य रूप से हमारे समाज की सामान्य महिलाओं पर आधारित है। जो उच्च नैतिक मूल्यों, JUNNUN और आत्मविश्वास के साथ आंतरिक और बाहरी दोनों क्षेत्रों में जीवित रहते हैं।


यह दो भागों में है- 1. सामाजिक संबंधों पर कहानियां। तथा


2-वास्तविक पात्रों की कहानियां जो दूसरों को वास्तविक स्वतंत्र इंसान बनने में मदद करती हैं।

Languageहिन्दी
Release dateNov 4, 2022
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    अपराजित - सुधा रणधीर चतुर्वेदी

    शहीद

    डाक्टर कलाम की छवि, राष्ट्रपति बनने से पूर्व एक नम्र, विद्वान, संवेदनशील वैज्ञानिक की रही है। राष्ट्रपति बनने के बाद भी कोई परिवर्तन नहीं आया। अपने पूर्ववर्र्तीराष्ट्रपतियों के समान प्रोटोकाल में जकड़े असंवेदनशील, स्टोनी मुखमुद्रा से कहीं दूर भावनाओं से बद्ध इंसान अभी भी बने हुए हैं। पद का भार उन्हे झुका नहीं सका है। वे पद भार से उपर, देश के प्रथम नागरिक, एक जागरूक नागरिक हैं। सर्वोच्चपद की गरिमा में वृद्धि ही हुई है। पूर्व राष्ट्रपति अधिकतर पद के प्रकाश में गौण हो जाते थे, कितने ही विद्वान क्यों न हो मानवीय भावों के प्रदर्शन में कृपण हो गये थे। देखने में एकदम काष्ट प्रतिमा के समान। ‘‘ आमों से भरी की डाली झूक जाती है’’ उक्ति सर्वोच्च पद के पदासिन से सिद्ध नहीं होती है। नम्रता, उदारता और दया का भाव का अभाव दिखता था। कहावत है न-&^^If you love somebody then show it. नहीं तो स्नेह का भाव शायद होता ही नही है। इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हुआ था। मैं किसी को भी दोष नही देती हूं। पर मन में उठने वाले विचारों की धारा कहां से कहां पहुंच जाती है। ऋषि दधीच का दान भी आज सर्वोच्च दान है। सीमा पर या सीमा के अंदर अदम्य साहस, वीरता के शहीद, क्या ऋषि दधीच से कम सम्माननीय है? इसीलिए देश-वीरता के सर्वोच्च सम्मान से उन्हे विभूषित करती है। पर उस सम्मान के बाद वह शहीद और उसके परिवार वाले देश के परिपेक्ष्य में, अंधकार में लीन हो जाते हैं। उनके शारीरिक, मानसिक अभाव, अन्तर्मन तक पहुंचने वाली, लहुलूहान करने वाली घटनायें- अन्दर तक क्षत-विक्षत कर जाती हैं।

    युद्ध काल नहीं था। सीमा पर सियाचीन में तैनाती थी। मेरे पति ने शत्रु को वीरता से परास्त कर वीरगति पाई थी। महीना भर पहिले छुट्टियों में घर आये थे। मुझे स्वप्न में दिखा था कि ये सफेद, स्वर्ग से सुन्दर श्वेत बर्फ पर पड़ें हैं। सर पर लहू का टीका लगा है। नींद उड़ गयी थी, देखा सब ठीक है तो ढाढस आया कि यह सब घटना मिथ्या है, मात्र स्वप्न है। इन्हे बतलाया पर ये हंसकर टाल गये। बात आयी-गई हो गई। वापस जाने का दिन पास आने लगा। कुछ अच्छा नहीं लग रहा था, फिर वही अकेलापन। हर पल खुशियों को, सुखों को चुनना चाह रही थी। स्वंय इनके लिए, परिवार के लिए, मेरे लिए- जो उस अकेलेपन में , अच्छी दोस्त होगी। उन साथ बिताए लम्हों को अपने में पूरी तरह जज्ब करना चाहती थी। उनकी हर हंसी, मुद्रा, स्पर्श, उष्मा को अपने याददाश्त में कैद करना चाहती थी। जाने की शाम स्टेशन पर छोड़ने जाते समय, संयुक्त परिवार में ज्यादा बात नहीं होती है। साथ इनके भाई जा रहे थे। चाहती तो मैं भी साथ जा सकती थी पर घर से अलग होना और स्टैशन पर अलग होने में कोई अन्तर नही था। मन में बार-बार इच्छा हो रही थी इन्हे जाने न दूं, मै दुबारा इन्हें देख नही पाऊंगी। पकड़कर रख लूं पर जबान तक यह शब्द नहीं आ पा रहे थे। बुद्धि बार-बार लगाम कसती थी। क्या बेवकूफी है? क्या एक सैनिक ऑफिसर को, बीबी डयूटी पर जाने से रोकेगी? क्या कारण है? महज इसलिए की आप में यह भाव आ रहा है कि ये वापस नहीं आयेगें। इसलिये जाते वक्त तक की विदाई भी मैं, नहीं मेरी मन की आंखें तक कैद करना चाहती थीं। इन्हे उदासी न हो, मन कच्चा न हो इसलिए बड़ी ही हिम्मत से सभी काम हो रहे थे- घर से इनके जाने के बाद बार-बार एक तीव्र इच्छा हो रही थी, इन्हे लौटा लाऊं किसी तरह। मां बाबा क्या कहेगें? मै क्यों स्टैशन जाना चाहती हूं? साथ क्यों नही गई? वे क्या सोचेगें? वे क्या कहेगें? मन मसोस कर रह गई। जो भगवान की इच्छा।

    व्यस्त दिनचर्या में दिन बीत रहे थे। वह सपना, वह जाते वक्त के विभिन्न भाव- सबको भूल गयी। इनका फोन-चिट्ठी आये, सब ठीक है के परदे में, मेरे डर, अनहोनी की चिंतां सब दब गये।

    एक शाम, मन उचाट हो रहा था, कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। लग रहा था यहां से दूर कहीं चली जाऊं। क्या करूं? बंद कमरे में घुटन होने लगी बाहर निकली, रात होने तक सबके बीच रही, सास ने पूछा भी कि क्या हो रहा है? जवाब दिया- कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। रात को नींद नहीं आयी। अधिकतर नींद न आने पर पढ़ना अच्छा लगता है पर आज तो पढ़ना भी अच्छा नहीं लग रहा है। सुबह-सुबह फोन की घन्टी बजी- और अन्दर से आवाज आयी, उनकी ही खबर है, उनकी ही खबर है।

    और खबर आयी, वे शत्रुओं को परास्त कर स्वंयशहीद हो गये हैं। आगे ज्यादा सुन नहीं पाई। लगा, सब मिलकर मुझे सता रहें हैं। ऐसा नहीं हो सकता है। कैसे हो सकता है? भावशून्यता, संवेदनहीनता और अपने प्रति, दूसरों के प्रति नंपुसक क्रोध ओर प्रश्न चिन्ह, मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? अपने सर्वनाश पर विश्वास नहीं हुआ। नहीं, यह सब गलत है। अभी आयेगें और बोलेगें-यह सब झूठ है। अन्तिम दर्शन हेतु घर लाया गया। राजसी सम्मान से अन्तेष्टी हेतू व्यवस्था मे घड़ी भर निहारने का अवसर भी नहीं मिला। संवेदनहीनता की घड़ीयों में लगा, तकिया क्यों नहीं है? अपनी गोदी में सर रखूं, हमेशा की तरह एक चुंबन देना चाह रही थी। इन्हे ले जाना चाहते हैं, जल्दी क्यों कर रहें हैं? इनके पांवों पर सर रखूं, सब कुछ ठीक हो जायेगा। नहीं इनके हाथ पकडं़ू-जिसे पकड़कर उन्होने मेरी जीवन घारा बदल दी थी। बर्फ में ठंडी ऊंगलियां- मुझे जरा भी ढाढस नहीं दे रही हैं। अव्यक्त मौन संभाषण नहीं हो पा रहा है। अनकहे शब्दों से साथ सिद्ध नहीं हो पा रहा है। सबकी तीक्ष्ण, क्रूर नजरों से आंचल मे छीपा लूं ? मै उन हाथों को छू रही थी जिनसे सीमा पर अतिक्रमण करने वालों का वद्ध कर दिया, उन आंखों को फिर देखना चाहती हूं कि शत्रु को भागते, मिटता देखकर कैसा अनुभव किया होगा? सीमा को निरापद रखने मे-कैसा एहसास जागृत हुआ होगा? निःशंक हो अपने साथियों को देख क्या भाव आया होगा। निश्ंिचत होने पर अपने घावों पर ध्यान गया होगा, उनसे उठने वाले असह्य दर्द में और कोशिश की होगी, पुनः अपने को बटोरने की निष्फल कोशिश में उन्हे हमारी वे सभी सुखद अंतरंग क्षणों की, अपने मां-पिता का आशीर्वाद का स्पर्श याद आया होगा और जरूर मेरे हाथों को पकड़ने का संबल लेने का प्रयास किया होगा। उस समय मैं भी अपने में नही थी, शायद अन्तिम समय में मेरे हाथ उनके हाथों में होगें- अपनी पूरी उष्णता, आश्वासन और अन्तर्तम के मौन स्नेह को अनुभव करते होंगें। सबको खुश रहने का संदेश देते खुद गहरी नींद में सो गये।

    काम करते हर वक्त दिल-दिमाग में झनझनाहट रहती है, उस उबाल में कुछ भी सुनाई नहीं देता है। सूनी आंखों में पानी आता ही नहीं है। अपने से, दूसरों से, गुस्सा, असंतोष, खासकर उस उपर वाले से जिसने यह सब किया या होने दिया, क्यों? मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ? मेरा कसूर क्या था? तुम कहां हो?इन प्रश्नों के उत्तर आज तक नहीं मिले हैं?

    मां ने बतलाया- 26 जनवरी को इन्हे सर्वोच्च वीरता पुरस्कार दिया जावेगा। पत्नी लेने जावेगी। माता-बाबा ने छाती पर पत्थर रख समझाया- जाने में क्या हर्ज है। जावो! वह अमर है, देश उसे सम्मानित करना चाहता है। आखिर तक मुझे जाने की इच्छा नहीं हो रही थी। दबावों मे आकर- आखिर जाना पड़ा। पति की अनुपस्थिति जहां भारतीय महिला का सर्वस्वहरण करती है वहीं शिक्षित परिवार में भी स्थिती बदल देती है। सारा वातावरण बदल जाता है। प्रेम, आदर, परिवार के अधिकारों और कर्तव्य की अधिकारिणी अचानक दया की पात्र हो जाती है। सर पर से आशीर्वाद महज आश्वासन में परिवर्तित हो जाता है। सहारा होने की जगह, सहारा लेने वालों में बदल जाता है।

    मैं वहां हजारों की भीड़ के समक्ष पुरस्कार ग्रहण करने नहीं जाना चाहती थी। उस स्थिती से छूटकारा पाना चाहती थी। हो सकता है अपने वीर पुत्र के बलिदान पर अपने ममत्व पर काबू कर- मां गौरव से वह पुरस्कार प्राप्त करे,ं पर एक पत्नी जिसका सर्वस्व हरण हो गया है, सर्वस्व निछावर करने पर उस पुरस्कार को सहर्ष, गौरव से ग्रहण करने को उत्सुक नही होगी। पति के अन्तिम दर्शन से भी कठिन घड़ी का सामना नहीं कर पायेगी। लाखों व्यक्तियों के समक्ष खड़े होकर पति की प्रशंसा में कहे गये कुछ वाक्यां को सुन नही पायेगी।।

    सेना में, अपने अधिकारी के आदेश पर सैनिक अपना जीवन न्यौछावर कर देते हैं तो सर्वोच्च सेनापति की इच्छा या आदेश की अवमानना सैनिक पत्नी कैसे कर सकती है? अंततः अंदर तक क्षत-विक्षत भयंकर स्थिती में एक सुरक्षा महिला कर्मी के साथ खड़ा होना पड़ा। वहां खड़े-पति की गौरव गाथा सुनना, मानवीयता की सभी हद्दों को पार करना था। पति के किए अति पराक्रमी, साहसी, कृत्यों, देशवासियों को मीठी नींद सोने के लिए- अपने प्राणों को आहूत करने के एवज में यह पुरस्कार अत्यंत हीन है। यह मूल्यहीन है। निरर्थक है। क्या इस पुरस्कार को, मोती के दानों को तोड़ने पर क्या एक झलक मेरे पति की मिलेगी? फिर इसका क्या अर्थ है?

    आसपास के शब्द-शून्य वातावरण में मैं जीवन-शून्य हो गयी थी। महिला सुरक्षकर्मी ने कोंचा-चलिए। कदम उठे-एक-एक सीढ़ी कठिन चढ़ाई थी। लग रहा था अब गिरी- अब गिरी। आंखें के सामने अंधेरा सा था। आखिर मंच तक पहुंच ही गई। देश के सर्वोच्च सेनापति अपनी पत्नी के साथ, प्रधानमंत्री भी अपनी पत्नी के साथ विराजमान थे।

    सेना के सर्वोच्च सेनापति, राष्ट्र के प्रथम नागरिक द्वारा मेरे हाथ में कुछ दिया गया। मैं संज्ञाशून्य खड़ी रही। तभी महिला सुरक्षाकर्मी ने हलका सा इशारा किया- और चैतन्य हुई। पर वह चेतना विवशता, क्रोध और असहायता की थी। मैं यहां क्यों खड़ी हूं? तब विचार आया -यह देश के सर्वोच्च सेनापति क्या दो शब्द भी नहीं बोल सकते हैं? मात्र गौरव गाथा का वर्णन ही अपने कार्य की इतिश्री है? प्रथम महिला नागरिक मात्र दर्शक बनी बैठीं है? प्रोटोकॉल की आड़ में भावशून्य आंखों में कहीं स्नेह का स्पर्श नहीं है। प्रधानमंत्री और उनकी पत्नि मात्र दर्शक हैं, कहीं कोई अनकहे आश्वासन, संवेदना नहीं है? 26 जनवरी को अन्य कार्य निपटाने जैसा ही यह कर्तव्यपालनकी पूर्ती हो गयी है। क्या इसलिए इन्होने अपने प्राण न्यौछावर किए? सैनिक शहीद के प्रति इनके कैसे भाव हैं? प्रोटोकाल की आड़ में ये राजनीतिज्ञ कितने संवेदनहीन पदासीन है।

    एक शहीद सैनिक की विधवा-जिसका सर्वस्व बलि चड़ गया है। क्या ये पदासीन महिलायें भी मूर्तिवत बैठी रहेंगी? पत्थर की देवी भी मूिर्त होती है पर नेत्र, हाव-भाव से पूरा संरक्षण, आश्वासन, निर्भय होने का संकेत देती है। ये तो हाड़-मांस की महिलायें हैं। क्या ये भी मेरी इस भयंकर घड़ी में मेरे साथ नहीं है? इस सामाजिक-राष्ट्रीय समारोह में, एक शहीद की पत्नि के साथ न हो सकीं, उसे संबल प्रदान न कर सकीं तो-ये क्या मात्र सजावटी वस्तुऐं हैं? पति के पद और उससे मिलने वाले अधिकारों, लाभों की भोग्या मात्र है? देश की प्रथम व दूसरी महिला प्रतिनिधि क्या इतनी निर्विकार हो सकती है?

    देश के सर्वोच्च सेनापति के मुंह से क्या दो शब्द भी निकलना- उनकी मानहानि होगी? क्या उन्हे कोई रोक रहा है? क्या उनकी इच्छा ही नहीं होती है? मात्र खाना पूर्ति है?

    तभी कानों में मेरे पति की आवाज आयी,- चलो, डार्लिंग।

    खुश रहना देशवासियों, हम तो सफर करते हैं।

    अपराजिता

    लगा, कोई पुकार रहा है। भाभी आंखें खोलो, भाभी-भाभी तुम मेरी बात सुन रहे हो ना? भाभी, आंखें खोलो। ये क्यों पुकार रहे हैं? मैं आंखें खोलने की कोशिश करती हूं, पर आंखे खुलती क्यों नही? देखने की कोशिश कर रही हूं पर दिखता नहीं है? फिर आवाज आयी-भाभी-भाभी आंखें खोलो। पर धीरे-धीरे आवाज डूबती जा रही है।

    फिर कोई बुला रहा है, -भाभी। मैं कब तक सोई रहूंगी? उठने की कोशिश की पर उठ नहीं पा रही हंू । आंँख खोलना चाहती हूं, पर पलकंे उठती ही नहीं, यह मझे क्या हो गया है? मैं फिर सो जाती हूं।

    डॉक्टर जैन पूरा एक्जॉमिन कर रहें है। भाभी पिछले दस दिनों से बेहोश हैं। बोलना तो दो- तीन दिनों पहिले ही बंद हो गया था। मस्तिष्क के वायरल फीवर ने धीरे-धीरे मस्तिष्क पर कब्जा कर लिया था। पहले तारतम्यता फिर संबद्धता टूटी, बोलने में लड़खड़ाहट आयी, फिर बोलना बंद हो गया। आंखें धूमती थी, समझती थीं, गरदन हिलाती थीं, कुछ संकेतों का आदान-प्रदान था। पर फिर मस्तिष्क का शरीर पर कंट्रोल कम होता गया। पिछले कई सालों से ब्लडप्रेशर व अस्वस्थता के कारण सामान्य सांस में रूकावट आने लगी थी जिससे न ठीक से खा सकती थींे न ठीक से सो पाती थीं। पिछले साल तो तबीयत इतनी खराब हो चली थी कि लगा अब गये। पर अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए जीने की अदम्य लालसा ही मौत के मुंह से वापस ले आई थी। कई दिनों अस्वस्थ रहीं थीं। कभी भी आक्सीजन की जरूरत पड़ सकती थी। पर घर में डॉक्टर हैं तो सब मेडिकल सुविधा मिल जाती हैं। शायद इच्छाशक्ति के सहारे प्राण शरीर में अटके हैं। थोड़ी तबियत ठीक होते ही स्वस्थ व्यक्ति के समान काम करना, बातें करना, इधर उधर जाना शुरू हो जाता था। पैंसठ वर्ष की आयु में चालीस किलो के जर्जरशरीर पर वातावरण में वायरल के कीटाणुओं ने हमला कर दिया है और उसे झेलपाना कठिन हो रहा है। डॉक्टरों को आशा नहीं है। पर घर के सदस्य, परिवार के सदस्य, करीबी व्यक्ति जानते हुए भी इस परिस्थिति की संभावना को सोच भी नहीं पा रहें हैं। यथासंभव हर कोशिश जारी है। सभी, मस्तिष्क पर वायरल फीवर, मियाद खत्म होने की प्रतिक्षा में है। स्वस्थ व्यक्ति में मस्तिष्क वायरल फीवर से, मस्तिष्क सौ प्रतिशत निष्क्रिय व मियाद के बाद पुनः सौ प्रतिशत रिकवरी होती है। ये शरीर की ताकत पर निर्भर करता है कि पुनः कितने प्रतिशत स्वस्थ हो पायेगा। इसलिए भाभी का जर्जर शरीर कितना सह पायेगा? रेस्पिरेटर से आक्सिजन दी जा रही है पर बेहोशी तो टूट ही नहीं रही है। पुतलियों में पिछले दो दिनों से हलचल नहीं है। मॉनिटर जहां दिल की हालत को ठीक बता रहा है, मूत्र का प्रवाह भी सामान्य है पर ठहरी हुई पुतलियां आशा की किरण को बुझा रही हैं। डॉक्टर ने निराशा से गर्दन हिला दी। हम पांचों बहिनें आसपास खड़ी, नियति के इस निर्णय को स्वीकार नहीं कर पा रही थीं।

    डॉक्टर काका व बुआ, डॉक्टर जैन और दूसरे डॉक्टर आपस में भाभी की शारीरिक स्थिति का विश्लेषण कर रहे थे। रोज यही होता है, आशा दिन-प्रतिदिन धूमिल होती जा रही है। डॉक्टर जैन बोल रहे थे कि ये बहुत जीवट वालीं हैं, लड़ाई कर रहीं हैं। शरीर साथ नहीं दे रहा है, पेरेलिसिससे उभर नहीं पा रहीं हैं। आज और देख लेते है। नहीं तो रेस्पिरेटर पर रखना बेकार है। इन्हें घर ले जाकर शन्ति से सोने दो। हमारे एक-जूट परिवार में, जैसा मैं विश्वास करती थी, काका, बुआ, जीजी बहनें समझ पा रहे थे और ऐसा निश्चय कर सकते थे, पर हम पांच बेटियों के गले यह बात उतर नहीं रही थी। हम में एक डॉक्टर भी थी, वह सबसे ज्यादा भावूक है। डॉक्टर-वैद्य परिवार में पली-बड़ी हुई, इन सब कॉम्पलिकेशन को समझ रही थीं पर मन, बुद्धि कासाथ नही दे रहा था। पिछले बीस-पच्चीस दिनों की मानसिक संत्रास में भाभी की यह हालत, नाक में नलियां, गले में छेद कर वेंटिलेटर, मुंह में भी नली, ऊंगली में दिल की हालत बतानेवाला यंत्र सभी देखने में भयानक थे, चैतन्य व्यक्ति के लिए बड़े दर्दनाक हैं। ये बेहोश हैं इसलिये सह रहें हैं।पर मन नहीं मानता इन्हे घर ले जाने के लिए, सर्वस्व लुटाने पर भी इन्हे होश आ जावे, बोलनें लगे तो हम अपने को धन्य मानेगें।

    चिकित्सा क्षेत्र की कितनी ही खबरें-खोजें-अनुसंधान की रोज सुनने को मिलती हैं पर ये खोजें क्या कर पायीं हैं? बीमारी से निश्चित मृत्यु को चंद कोशिशों से विलंबित किया जा सकता है, पर नकारा नहीं जा सकता है। ये सब निरर्थक है।

    सब सुविधायें देने पर भी चंद सांसे बचायी जा सके? मनुष्य प्रकृति के सामने कितना बौना महसूस करता है? लगता है विज्ञान का प्रचार कितना भ्रामक है। कितनी ही बीमारियों की दवाईयां ही नहीं है। भाभी को भी कार्टिजोन की वेटनरी मात्रायें दी जा रही हैं, पर कोई असर नहीं है। बहनें मेरा संबल चाह रही थीं, डॉक्टर की राय के विरूद्ध भाभी को बचाने के लिए कितनी शारीरिक यातनायें दे रहे थे, पर घर ले जाकर उन्हें निश्चित रूप से सोने नहीं दिया जा सकता है। रेस्पिरेटर हटाकर फैसला हम अपने हाथ में नहीं ले सकते हैं। फैसला हम नहीं कर सकते, किसी भी कीमत पर नहीं। फैसला भविष्य ही करेगा। हम आखिरी दम तक कोशिश करेगें। दिल-किडनी ठीक काम कर रहे हैं। शायद मस्तिष्क फिर काम करने लगे। सालों से बेहोश लोगों को होश में आता भी देखा गया है। बेहोश हैं तो क्या? दिनभर डॉक्टर बहन वहां रहती और रात को छोटी वहां डटी रहतीं, उन्हे डर था कहीं मैं, बडों के दबाव में आ जाऊंगी। बड़ों की बुद्धि, अनुभव, विवेक और छोटों की भावुकता, ‘‘मां’’ के अस्तित्व के बीच में पिस रही थी। मेरे घोर तनाव का कारण आर्थिक भी था। शुरू मंे ही काका ने हाथ खड़े कर दिये था कि वे यह खर्च अफोर्ड नही कर सकते हैं और मेरा एकॉउंट अजमेर में चलता था। 1992 में YONO की सुविधा नहीं थी।

    सुबह करीब तीन बजे उनकी पुतलियांे ने टॉर्च की रोशनी पर हलचल की। एक बार देखा, फिर देखा, छोटी बहन ने भी देखा, डयूटी डॉक्टर को बुलाया, बाहर से डॉक्टर आये बेहनोई को भी जगाया। बंद पलकों में भी पुतलियों की हलचल देखी जा सकती थी। आतंक ओर भयग्रस्त मन इस के होने की सूचना से भूचालित हो गया। तुरन्त घर पर फोन किया, सब जाग गये थे। बाद में मालूम हुआ कि सभी उस अनचाही खबर की

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