फितरत
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शख़्सियत तो आनी-जानी है, परन्तु फ़ितरत की शाश्वता एक अचल कहानी है।
अभय, एक सफल हृदय रोग विशेषज्ञ! छोटे-छोटे पलों को जीवंत करने और मुस्कराहट के परदों में आंसुओं को भी, देखने में माहिर व्यक्तित्व का सीधा, सरल एवं सुलझा हुआ व्यक्ति। जिसके जीवन में सर्वाधिक महत्त्व उसके परिवार एवं अस्पताल में रोगों से लड़ते हुए उसके मरीज हैं।
मीरा, अपने माता-पिता की एकमात्र खुशी एवं उम्मीद। एक सफल एवं ईमानदार आर्किटेक्ट इंजीनियर, पर स्वभावतः बेहद हीं संवेदनशील। लोगों की मदद करने को सदैव आतुर रहना भी जिसके व्यक्तित्व का एक प्रमुख गुण है। परन्तु अपने अतीत में कुछ इस तरह उलझी हुई की वर्तमान में भी उसे शून्यता के अलावा और कुछ नहीं दिखता।
लक्षित, एक सिविल इंजीनियर। जो अपने जीवन में आयी उथल-पुथल को संभालने में असमर्थ हुआ। और परिणामतः अवसाद का शिकार हो, मृत्यु के मुख तक पहुँच गया। स्वभावतः एक सहज एवं हसमुख व्यक्तित्व का युवा, जिसने अपने जीवन में प्रेम को सर्वोच्च माना और अपना जीवन तक प्रेम को समर्पित कर दिया।
ये तीन पृथक-पृथक व्यक्तित्व के लोगों की राहें जब एक-दूसरे से टकराती हैं, तो प्रेम, मित्रता और छल की एक अलग कहानी समक्ष चली आती है। नज़रें तो वही रहतीं हैं, परन्तु नज़ारे में विविधता आती है, समय के उतार-चढ़ाव में बस फ़ितरत हीं रंग दिखाती है।
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फितरत - Manisha Manjari
Published by:
Sahityapedia Publishing
Noida, India – 201301
www.sahityapedia.com
Contact - +91-9618066119, publish@sahityapedia.com
Copyright © 2023 Manisha Manjari
All Rights Reserved
First Edition - 2023
ISBN - 978-93-91470-92-0
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समर्पण
माता एवं पिता
के
कर-कमलों में
सादर, सस्नेह समर्पित
प्रस्तावना
जीवन, कहने को तो एक सामान्य सा शब्द है, पर गूढ़ रहस्यों और अभूझ पहेलियों का तानाबाना है। हम जितना इसे समझने की कोशिश करते हैं, ये उतना हीं हमारी उलझनें बढ़ाती है। जब हम सकारात्मकता के प्रकाश की ओर भागते हैं ये हमें नकारात्मकता से परिपूर्ण अन्धकार की खाई में गिराती है, जब नकारात्मक अन्धकार हमारी आदत बनता जाता है, तब ये हमें सकारात्मक प्रकाश के दीप्तिपुंज से जा मिलवाती है। जन्म के साथ हीं व्यक्ति मृत्यु की दिशा में गमन करना शुरू कर देता है, हर बीतता पल मनुष्य को मृत्यु के क़रीब लेकर जाता है। और अज्ञानी मनुष्य क्षणभंगुर से जीवन को जीने के लिए अपना सर्वश्व समर्पित कर देता है। और अंततः जब ज्ञान खुद को प्रकाशित करती है तो मनुष्य उस शास्वत सत्य के समक्ष नतमस्तक हो, उसमें हीं समाहित हो जाता है। इस जटिल यात्रा में मनुष्य अनगिनत अनुभवों से रूबरू होता है, कितनीं हीं भावनाओं का साक्षी बनता है। उम्र के कई पड़ाव उसकी यात्रा के सराय होते हैं, और हर पड़ाव उसे जाने कितनें हीं नये और अचंभित करने वाले तथ्यों से मिलवाते है।
जहाँ भोर की लालिमा, हमारे नजरों को हृदयस्पर्शी दृश्यों से अवगत कराती है, तो वहीँ शाम की गोधूलि बेला सारा का सारा नज़रिया हीं पलट कर रख देती है। साधारणतया मनुष्य दुःख और सुःख, इन्हीं दो भावनाओं द्वारा अपने जीवन का मूल्यांकन करता है। दुःख से भागना और सुःख को पाना, यही तो लक्ष्य है मनुष्य का, और इस दौड़ में कब वो जीवन के अंतिम पड़ाव तक पहुँच जाता है, स्वयं उसे भी यह बात ज्ञात नहीं हो पाती। ज़िंदगी बीत जाती है, पर जिंदगी जीनी भी थी, अक्सरहां मनुष्य ये भूल जाते हैं।
हम संघर्षों को जीवन की आधारशिला बना लेते हैं और उसकी धारा में यूँ प्रवाहित होने लगते हैं, की जीवन की सरलता की उपेक्षा कर जाते हैं। भौतिकवादी सुखों और प्रतिष्ठा के आडम्बरों में संलिप्त हो, जीवन की सादगी की अवहेलना कर देते हैं। जो हमारे समीप है, उसकी अवहेलना कर जो नहीं है उसकी कुंठा में एक ऐसी दौड़ का हिस्सा बन जाते हैं, जिसमे जीतते भी हम हैं और हारते भी हम हीं हैं। प्रकृति का प्रेम हमारी दृष्टि के समक्ष होते हुए भी हम दृष्टिहीन हो जाते हैं, पर्वतों पर सुस्ताती हवा जब हमें छूती है, तब हम उसकी ठंडक का आभास नहीं कर पाते। बारिश के बहाने जब प्रकृति बिना भेद किये हमसे मिलती है, हम उसकी बूंदों को झटक कर आगे बढ़ जाते हैं। उस नीले आकाश की खूबसूरती को हमारी आँखें दो पल ठहर कर निहारती तक नहीं, बस एक अनचाहे और अनजाने गंतव्य की दिशा में भागते हैं, हमारे कदम। औरों का मूल्यांकन करने को तो हमारे पास समय का कभी आभाव नहीं रहता, पर दो पल रुक कर कभी भी हम खुद का मूल्यांकन नहीं करते, और गतिमान समय के साथ ज़िन्दगी व्यतीत हो जाती है।
अपनी पिछली कहानी निशब्द में कल्पना के रंग भरने के बाद आज, जब मैं एक नए सृजन की तरफ बढ़ी तो सच कहूँ तो पहले शब्द हीं नहीं मिल रहे थे, क्या लिखूं और कहाँ से शुरू करूँ। मन ने ना जाने कितनी हीं दिशाओं में उड़ान भरी, पर फिर थक कर बैठ गया। पर अगले हीं पल ध्यान आज की युवा पीढ़ी की तरफ गया, और एक अनिश्चितता सी दिखाई दी, उनके स्वाभाव में। भीड़ की दिशा में भागती पीढ़ी, जो स्वयं में परिपूर्ण होते हुए भी, अकेलेपन और कुंठा से सदैव लड़ती रहती है। कुछ नए रंगों से मुलाक़ात हुई, जो अजनबी से लगे मेरी आँखों को। कुछ नए अनुभव बटोरे, नयी संवेदनाओं का संचार देखा और फिर वहाँ से फ़ितरत ने जन्म लिया।
फ़ितरत की कहानी आजकल के समाज के एक महत्वपूर्ण एवं अनछुए पहलु को सामने लाने का एक छोटा सा प्रयास है। ये व्यक्ति के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण अवयव प्रेम और दर्द के धागों को बुन कर लिखी गयी है। कुछ लोग जहां अतिसंवेदनशील होते हैं, वहीँ कुछ में संवेदनाओं का आभाव और स्वार्थ की पराकाष्ठा स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। निस्संदेह हीं हमारे समाज का अधोपतन हो रहा है, जानकारियां आज ज्ञान का रूप नहीं ले पातीं, और आकर्षण प्रेम नहीं बन पता। एक समग्र जीवन होने के बाद भी हर व्यक्ति स्वयं में अधूरेपन का शिकार होता है। संतुष्टि, क्षमा, और प्रेम जैसी भावनाएं बस पुस्तक के पृष्ठ की शोभा बन गयी है और प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि, विख्याति, शान और संपत्ति जैसे अवयवों ने समाज में अपनी पैठ बना ली है।
कहते हैं की व्यक्ति के पास जो होता है, वो वही लोगों को बाँट सकता है, ज्ञानी ज्ञान बांटता है, दम्भी दम्भ। अन्धकार हमेशा से हीं प्रकाश की ओर आकर्षित होती है, ऐसे हीं नकारात्मक स्वाभाव वाले व्यक्ति को सकारात्मकता अपनी ओर आकर्षित करती है। हर व्यक्ति आज किसी ना किसी दर्द और कमी से लड़ रहा है। सामान्यतः यदि कोई व्यक्ति दर्द में होता है, तो उसका प्रथम प्रयास ये होता है, की वो किस ना किसी तरह उस दर्द कर निवारण करे, परन्तु क्या ये उचित है की अपने दर्द को समाप्त करने हेतु व्यक्ति सारी नैतिकताओं का हनन कर डाले।
1.
आज सुबह से हीं स्याह बादल नीले आसमां में अटखेलियां कर रहे थे। हर आधे घंटे पर बारिश का एक झोंका आता और हल्की सूखी सड़क को एक बार फिर से भींगा कर जाता। सड़क के गड्ढों में पानी भर आया था और फुटपाथ कीचड़ से सन गया था। मद्धम हवाओं का साथ पाकर, मिट्टी की सौंधी खुशबू दूर-दूर तक अपना एहसास फैला रही थी। उस चौड़ी सी सड़क के ठीक दूसरी ओर था, अरावली हॉस्पिटल। अरावली हॉस्पिटल की इस छह मंजिला ईमारत पर सफ़ेद रंग चढ़ा था, और नीले रंग की पट्टियों से इसकी खूबसूरती को बढ़ाया गया था। यूँ तो बैंगलोर शहर को कुछ ऐसा बनाया गया है, जहाँ बस कदम रखने की देर होती है, और सुकून से मुलाक़ात हो जाती है, पर अरावली अस्पताल के आस-पास का इलाका और भी शान्ति और सुकून से भरा था। सड़क के दोनों ओर घने पेड़ों का जाल था, और सड़क के उस पार थी, माडीवाला (बी. टी. एम.) झील। अस्पताल के बड़े से कैंपस में अनगिनत एम्बुलेंस लगीं थी, और वहीं कितनी हीं गाड़ियां आना-जाना भी कर रहीं थी। ऐसे तो ये कैंपस हमेशा हीं भरा-भरा सा रहता था, पर रुक-रुक कर हो रही बारिश की वजह से इक्का-दुक्का लोग हीं कैंपस में दिखाई दे रहे थे। दिन के लगभग दस बजने वाले थे, और अस्पताल के बाहरी गेट पर तैनात पहरेदारों ने बस अभी-अभी अपनी शिफ्ट बदली थी। गेट पर अभी-अभी आया वॉचमैन रामचंद्र, बगल में पड़ी अपनी लोहे की मोड़ने वाली कुर्सी पर बैठा हीं था की उसकी नज़र सामने से आती सफ़ेद रंग की एक्स यू. वी. कार पर पड़ी, और वो हड़बड़ा कर उठ कर खड़ा हो गया। उसने गेट के पूरी तरह खोला ताकि गाड़ी अंदर आ सके, बगल से गुजरती गाड़ी के अंदर देखते हुए उसने मुस्कुराहट के साथ चालक को सलाम किया और कहा,
गुड मॉर्निंग, सर!
गाड़ी के अंदर से आवाज़ आयी,
गुड मॉर्निंग, रामचंद्र जी।
और गाड़ी आगे पार्किंग एरिया की तरफ़ बढ़ गयी। कुछ पलों के बाद पार्किंग एरिया से एक सत्ताईस-अट्ठाइस साल का युवक उस गाड़ी को पार्क कर बाहर आया। बारिश ने फिर से गति पकड़ ली थी, उस व्यक्ति ने आसमान की ओर देखा और फ़िर अपनी आँखों को बंद कर बारिश की बूंदों को अपने चेहरे से टकराने दिया। उस गिरते हुए बारिश की बूंदों ने उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट फैला दी। लगभग पाँच फ़ीट और दस इंच की लम्बाई वाले उस व्यक्ति ने सफ़ेद शर्ट और नीले रंग की जींस पहन रखी थी। उसके पैरों में सफ़ेद रंग के स्पोर्ट्स शूज थे और हाथ में था, एक सफ़ेद कोट और एक स्टेथोस्कोप। बारिश की बूँदें उसकी शर्ट को भींगाते जा रहीं थी, जिस वजह से उसके कसे हुए शरीर की बनवट पता चल रही थी, साथ हीं ये भी पता चल रहा था की वो अपने दिन के कुछ घंटे ज़िम में जरूर बीताता होगा। बारिश की ठंडी बूंदों और मिटटी की सौंधी सी खुशबू में वो मदहोश सा होने हीं लगा था की सामने से आयी आवाज ने उसके इस मदहोशी में खलल सी डाल दी।
गुड मॉर्निंग, डॉक्टर अभय!
अपनी बंद आँखों को बेमन से खोल, अभय ने उस आवाज की दिशा में देखा और मुस्कुराते हुए कहा,
गुड मॉर्निंग, सिस्टर पूजा।
अगर डॉक्टर हीं ऐसे भींगने लगे और बीमार हो गए तो उनके पेशेंट्स का फिर क्या होगा, अभय सर?
डॉक्टर्स भी इंसान हीं होते हैं सिस्टर, अब क्या वो बारिश का मज़ा भी नहीं ले सकते?
इतना कहते हुए अभय ने मुँह बनाया और एक लम्बी सांस लेते हुए सिस्टर पूजा के साथ हॉस्पिटल की मुख्य ईमारत में प्रवेश कर गया। रिपोर्टिंग रजिस्टर पर डॉक्टर आशुतोष अभय (कार्डियोलॉजिस्ट) के आगे साइन कर अभय राउंड्स के लिए चल पड़ा। हँसते-मुस्कुराते लगभग सभी अस्पताल कर्मियों के अभिवादन का नम्र सा जवाब देता हुआ, अभय अपने सबसे चहेते वार्ड, चाइल्ड केयर विंग में पहुंचा। उसने हल्के से दरवाजा खोला और अपने नन्हे मरीजों पर एक सरसरी निगाह डाली। दो बच्चों को छोड़कर बाकी सारे या तो सो रहे थे या आँखें बंद कर सोने की कोशिश कर रहे थे। खामोश क़दमों से अभय कमरे में गया, और बेड नंबर सात के पास जाकर खड़ा हो गया। सफ़ेद रंग के चादर पर अस्पताल के कपड़ों में इस वार्ड की सबसे नयी और सबसे छोटी पेशेंट लेटी थी। अभय ने पास रखे मेज पर से उस बच्ची की रिपोर्ट्स शीट उठायी और सूक्ष्म निरीक्षण किया। वो रिपोर्ट शीट बता रही थी की पेशेंट का नाम अदिति है और उसकी उम्र पांच साल है। बच्ची को साँस लेने में तकलीफ है, बच्ची का वज़न बहुत तेजी से गिरता जा रहा है, बार-बार श्वसन-संक्रमण की समस्या आ रही है। ये सारे बिंदु इस तथ्य की तरफ इशारा कर रहे थे की बच्ची के हृदय में छेद है। अभय की नज़र रिपोर्ट्स में हीं उलझी हुई थी की उसने महसूस किया की कोई उसके कोट को खींच रहा है। उसने उस दिशा में देखा तो पाया की अदिति जिसकी आँखें अभी पलभर पहले तक बंद थीं, वो अपनी छोटी-छोटी मासूम नज़रों से उसकी तरफ़ देख रही थी और उसका ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए उसने उसके कोट को खींचा। अभय ने मुस्कुरा कर अदिति की तरफ देखा और उसकी पेशानी को छूते हुए उससे पूछा,
तो कैसी है, हमारी छोटी सी अदिति?
अदिति ने कुछ क्षणों तक अभय को अपलक देखा, फिर वहाँ मौजूद नर्स की तरफ ईशारा करते हुए कहा,
अंकल वो आंटी मुझे घर नहीं जाने दे रही।
अभय ने ड्यूटी नर्स की तरफ देखा और बनावटी गुस्से से कहा,
क्यों सिस्टर जया, आप अदिति को घर क्यों नहीं जाने दे रहीं?
सिस्टर जया ने अभय की तरफ़ मजबूरी भरी नज़रों से देखा तो अभय ने मुस्कुरा कर उसे संयम रखने का ईशारा किया, और अदिति की तरफ देखकर कहा,
वो क्या है ना बेटा, आपके मम्मी-पापा को बहुत जरुरी काम आ गया है और उन्हें बाहर जाना पड़ गया है। तो उन्होंने सोचा की आप घर पर अकेली कैसे रहोगी इसलिए कुछ समय के लिए यहाँ हमारे पास रहने को कहा है। देखो यहां तुम्हारी तरह कितने बच्चे हैं, यहां सब के साथ खेलो और तुम बीमार भी तो हो ना। एक बार अच्छे से ठीक हो जाओ फिर मैं खुद तुम्हें घर ले कर चलूँगा।
अदिति ने बेमन से अभय की हाँ में हाँ मिलाया और थोड़ा गुस्सा दिखाते हुए अपनी आँखें बंद कर ली। अभय ने एक लम्बी सांस ली और बाकी सभी बच्चों के पास एक-एक कर गया। यूँ तो बच्चे बाकी डॉक्टर्स को देख कर सहम जाते थे पर अभय को देख कर खुश होते और उसके साथ सुरक्षित महसूस करते थे। उसका हंसमुख स्वाभाव और बच्चों के बीच बच्चा बन जाना अस्पताल के गंभीर माहौल को भी आरामदायक और खुशनुमा बना देता था। जैसे हीं अभय बच्चों के विंग के बाहर निकला, बाहर खड़ी