Namaste
()
About this ebook
पृथ्वी पर हिमालय पर्वत और सागर से घिरा एक भूखंड है - जो भारतवर्ष के नाम से जाना जाता है। कई हज़ार वर्षों से भारतवर्ष पूरी पृथ्वी की सत्ता का केंद्र है। पूरे विश्व के मानव समुदाय के लिए यह भूखंड ज्ञान का भी स्त्रोत है। यह कहानी द्वापर के अंत और कलियुग के प्रारम्भ में भारतवर्ष में हुए सत्ता संघर्ष की एक अभूतपूर्व गाथा है जिसका आरम्भ कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध से होता है। युधिष्ठिर के बाद अभिमन्यु पुत्र परीक्षित भारतवर्ष के राजन बनते हैं। किन्तु कलियुग के प्रभाव में शीघ्र ही कुरु वंश समाप्त हो जाता है। उसके बाद भारतवर्ष की सत्ता के लिए संघर्ष होता है।
-----
युवा हिन्दी लेखक मनु सौंखला हिमाचल प्रदेश से ताल्लुक़ रखते हैं। इन्होंने राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, हमीरपुर, हिमाचल (NIT - National Institute of Technology, Hamirpur, Himachal Pradesh, India) से स्नातक (B.Tech) की शिक्षा हासिल की है। तत्पश्चात् मनु सौंखला जी सार्वजनिक क्षेत्र (पब्लिक सैक्टर) की एक ऑइल कम्पनी में कार्यरत हैं। मनु जी अपने सामाजिक लेखन और समाज में फ़ैली अव्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ लिखने के लिए विशेष तौर पर जाने जाते हैं। प्रस्तुत पुस्तक इनकी तीसरी हिन्दी भाषा में प्रकाशित होने वाली पुस्तक है। इससे पहले "रिज़र्व्ड वन वॉन" एवं बलिदानम् नामक दो उपन्यास लिख चुके हैं जो प्रमुख ऑनलाइन स्टोर्स पर उपलब्ध है।
Related to Namaste
Related ebooks
चरित्रनायक एकलव्य: पतित पावन गाथा भाग १ (God of the Sullied) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsMahasamar Ke Maun Prashna Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsहिंदू पौराणिक कहानियाँ Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsजलती मशाल: Revolution/Poetry/General, #1 Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsकाल चक्र: जागतिक मैत्री की ओर बढ़ते कदम Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsPurano Ki Kathayen Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsश्रीमद्भगवद्गीता: चौपाई (कविता) में Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBharat Ke 1235 Varshiya Swatantra Sangram Ka Itihas : Shiva Bairagi ka Pratap Bana Muglon ka Santap Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsकृतांश Rating: 5 out of 5 stars5/5पराक्रमो विजयते Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsभीम-गाथा (महाकाव्य) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsLahoo Bote Maanav Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBharat Ke 1235 Varshiya Swatantra Sangram Ka Itihas - Weh Ruke Nahin Hum Jhuke Nahin : Bhag - 2 Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsGarud Puran in Hindi Rating: 2 out of 5 stars2/5Shaktiswaroopa (शक्तिस्वरूपा) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsShrimad Bhagwat Geeta Yatharoop Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsइंद्रधनुष: चोका संग्रह Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsसंविधान निर्माता: भारत रत्न डॉ. बी. आर. अंबेडकर (एक काव्यमय झलक) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsNIRASHA CHHODO SUKH SE JIYO Rating: 5 out of 5 stars5/5राही- सफ़र जिंदगी और मौत के बीच का Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsSAMASYAYO KA SAMADHAN - TENALI RAM KE SANG (Hindi) Rating: 2 out of 5 stars2/5Bharat Ke Mahan Krantikari : Chandrashekar Azad Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsचिंगारियाँ Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsदशावतार: अवतार कथाएँ Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsजय श्री कृष्णा: श्रीमद्भागवत कथा Rating: 0 out of 5 stars0 ratings21 Shreshth Nariman ki Kahaniyan : Haryana (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : हरियाणा) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsKaam-Kala Ke Bhed - (काम-कला के भेद) Rating: 5 out of 5 stars5/5ArdhViram Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsRashtraprem Ke 105 Geet (राष्ट्रप्रेम के 105 गीत) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsHari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 3 (हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता - भाग - 3) Rating: 0 out of 5 stars0 ratings
Reviews for Namaste
0 ratings0 reviews
Book preview
Namaste - Manu Saunkhala
खंड -1 उत्पत्ति
जीवन की उत्पत्ति का रहस्य लाखों वर्ष पहले जैसा बना हुआ था वैसे ही आज भी है। सृष्टि की रचना रहस्यमयी है, हम सब यह अवश्य जानते हैं कि सृष्टि किन तत्वों से बनी है, लेकिन क्यूँ बनी? कब बनी? और कब तक इस अवस्था में रहेगी, इसका प्रमाणिक उत्तर किसी के पास नहीं है। करोड़ों वर्ष पूर्व एक ऊर्जा पिंड में विस्फोट जीवन की उत्पत्ति का आधार बना। असंख्य तारामंडल, ग्रह, उपग्रह अस्तित्त्व में आए और इन सबके समूह को हम ब्रह्मांड के नाम से जानते हैं और इसी विस्फोट के साथ आरंभ हुआ समय
। समय की परिभाषा देना असम्भव है। इस ब्रह्मांड में स्थित हर ग्रह और उपग्रह के लिए समय अलग है। इस पूरी सृष्टि की रचना के पीछे एक रहस्यमयी ऊर्जा है जिसे कोई नहीं जानता परंतु यही वो ऊर्जा है जो भिन्न-भिन्न तत्वों से बनी इस सृष्टि के हर प्राणी में विद्यमान है।
ब्रह्मांड असंख्य तारामंडलों से भरा हुआ है और यह तारे प्रकाश और ऊर्जा का स्त्रोत हैं। इन तारामंडलों के चारों ओर इनके ग्रह परिक्रमा करते हैं जिन पर जीवन इन तारों की ऊर्जा से संचालित हो रहा है। ब्रह्मांड के केंद्र से दस हज़ार प्रकाश वर्ष दूर सूर्य नाम का एक तारा है जिसके चारों ओर नो ग्रह परिक्रमा करते हैं और इन ग्रहों में एक ग्रह है - पृथ्वी, जिस पर पशु, पक्षी, वृक्ष, मानव जैसे चेतन प्राणी जी रहे हैं जिनके समूह को प्रकृति कहते हैं। पृथ्वी की इस रहस्यमयी प्रकृति में मानव सबसे श्रेष्ठ प्राणी है।
पृथ्वी पर रहने वाला हर प्राणी पाँच महाभूतों से बना है जो उसे शारीरिक रूप देते हैं। इंद्रियों के माध्यम से वो बाहरी जगत से क्रियाशील होता है। परंतु इसके साथ ही पृथ्वी पर अन्य तत्त्व भी हैं जो दिखाई नहीं देते और यही तत्व पृथ्वी के हर प्राणी को कर्मबंधन में बांधते हैं। यह तत्त्व हैं – अंहकार, प्रेम, लोभ, मोह, भय, वासना, ईर्ष्या, इच्छा, तप और क्रोध। पृथ्वी पर मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो इन अदृष्य तत्त्वों के प्रभाव को समझने में सक्षम है। अपने परम ज्ञान के कारण वो इन पर विजय पा सकता है और अज्ञान के कारण वो इनका दास बन जाता है। पृथ्वी पर भगवान ने स्वयं बार-बार मानव अवतार लेकर सम्पूर्ण मानव समुदाय को यह परम ज्ञान दिया है जिससे वो इस सृष्टि के भेद को जान सकें।
पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ और अन्त चार भागों में बंटा हुआ है। पहला भाग सतयुग था जहां तप सबसे अधिक प्रभावी गुण था। यह सत्य का युग था जहां निस्वार्थ प्रेम था। पृथ्वी का हर प्राणी प्रेमपूर्वक एक दूसरे के सान्निध्य में रहते थे। मानव, पशु, पक्षी, वृक्ष एक परिवार की भांति थे जो प्रकृति का संतुलन बनाए रखते थे। इस युग में भगवान का परम लोक और पृथ्वी एक समान दिखाई देते थे। अगला युग त्रेता युग था। त्रेता युग में असुरों के अज्ञान के कारण असत्य, घृणा, वासना और लोभ बढ़ने लगे तो भगवान ने अवतरित होकर असुरों का संहार कर पूरी पृथ्वी के प्राणियों को उद्धार किया। त्रेता युग के बाद द्वापर युग का आरम्भ हुआ। द्वापर युग में जब धर्म और अधर्म के बीच का युद्ध हुआ तो उन्होने धर्म की ही विजय सुनिश्चित करवाई। द्वापर के बाद पृथ्वी पर कलियुग का काल खंड आरम्भ होता है। चार युगों के सम्पूर्ण हो जाने के बाद पृथ्वी पर भयंकर प्रलय काल होता है जिसके बाद पुन जीवन एक नए रूप में आरम्भ होता है।
********
खंड -2 द्वापर युग
पृथ्वी पर हिमालय पर्वत और सागर से घिरा एक भूखंड है जो भारतवर्ष के नाम से जाना जाता है। कई हज़ार वर्षों से भारतवर्ष पूरी पृथ्वी की सत्ता का केंद्र है। पूरे विश्व के मानव समुदाय के लिए यह भूखंड ज्ञान का भी स्त्रोत है। यह कहानी द्वापर के अंत और कलियुग के प्रारम्भ में भारतवर्ष में हुए सत्ता संघर्ष की एक अभूतपूर्व गाथा है जिसका आरम्भ कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध से होता है।
हिमालय की ऊंची चोटियों के बाद कई घाटियों को पार कर कुरुक्षेत्र का मैदान स्थित है। आकाश में बादल छाए हुए हैं और इन बादलों से बहुत कम प्रकाश धरती तक आ पा रहा है। कुरुक्षेत्र के मैदान पर दो विशाल सेनाएँ युद्ध के लिए तैयार खड़ी हैं। इस युद्ध में एक तरफ कुरु वंश के कौरव हैं तो दूसरी ओर पांडव हैं। पूरे विश्व के महान योद्धा इस युद्ध मैदान में उपस्थित हैं, कौरवों की ओर से भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, महावीर कर्ण और दुर्योधन हैं तो पांडवो की ओर से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन अपनी सेना का मनोबल बढ़ाएँ हुए हैं। सब योद्धा अपने घातक शस्त्रों से सुसज्जित हैं। लाखों की संख्या में सैनिक एक दूसरे के सामने एक भीषण युद्ध के लिए खड़े हैं। इस युद्ध को रोकने का पूरा प्रयास किया गया किन्तु शांति स्थापित करने की हर कोशिश विफल रही। जब वार्ता से सही गलत का निर्णय न हो सका, तो युद्ध का मार्ग चुना गया। अब जिसकी युद्ध में विजय होगी इतिहास उसी के मार्ग और कथन को सत्य एवं उचित मानेगा। स्वयं भगवान श्री कृष्ण भी अर्जुन के सारथी बनकर इस युद्ध में भाग ले रहे हैं। भगवान श्री कृष्ण के घुंघराले केश उनके कंधो तक आते हैं, बलिष्ठ शरीर है और चेहरे पर मन मोहक हंसी जो उनके शत्रुओं को भी उनका मित्र बना दे। भगवान श्री कृष्ण का पांडवो के साथ होना ही इस युद्ध में उनकी विजय को सुनिश्चित कर चुका था। कौरवों के ज्ञानी योद्धा और इच्छा मृत्यु के कवच पहने भीष्म पितामह, गुरु द्रोण और महावीर कर्ण भी जानते थे कि भगवान श्री कृष्ण के होते हुए पांडवों को युद्ध में हराया ही नहीं जा सकता किन्तु कोई अपनी प्रतिज्ञा, कोई अपने वचन और कोई अपनी मित्रता निभाने के लिए इस युद्ध में खड़ा था। युद्ध आरंभ होने ही वाला था कि अर्जुन को अपने सभी सगे संबंधियों को देखकर उनसे मोह हो गया। यह सत्य पूरा भारतवर्ष जनता था कि भीष्म पितामह सबसे अधिक स्नेह अर्जुन से करते हैं और आज वही अर्जुन उनसे युद्ध कर उन्हे मृत्यु शैय्या पर लेटाना चाहता है। गुरु द्रोण का सबसे अधिक चहेता अर्जुन रहा है और उन्होने हमेशा हर युद्ध में अर्जुन की विजय की कामना की है, यहाँ तक उन्होने एक श्रेष्ठ योद्धा एकलव्य से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया था कि कहीं वो अर्जुन से श्रेष्ठ योद्धा न बन जाए और आज वही अर्जुन उनसे ही युद्ध करने को खड़ा हो गया। अर्जुन अपने ही संबंधियों को मारकर राज्य नहीं पाना चाहता था। अर्जुन कांपने लगा और उसकी आँखों से अश्रुधारा बह उठी। उसके हाथों से गाँडीव धनुष छूट गया और वह अब यह युद्ध नहीं करना चाहता था।
इस स्थिति में अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से बोले – हे श्री कृष्ण! इस युद्ध में अपने ही स्वजनो का वध करने में न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न ही अब उन्हे मारकर राज्य पाने कि इच्छा रखता हूँ।
हे श्री कृष्ण! मैं इन सबसे युद्ध नहीं करूंगा, भले ही बदले में मुझे तीनों लोकों का राज्य ही क्यूँ न मिल जाए।
तब करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर श्री कृष्ण बोले - हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह अज्ञान कहाँ से आया। यह अज्ञान उस मानव के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है जो जीवन के मूल्य को जनता हो, इससे उच्च लोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है। तुम्हें यह शोभा नहीं देता। अपने हृदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।
तब अर्जुन फिर बोला – हे वासुदेव! मैं इस युद्धभूमि में किस तरह पितामह भीष्म तथा गुरु द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर अपने बाण चलाऊँगा? इन लोगों को मार कर जीने की अपेक्षा भीख मांग कर खाना ज्यादा अच्छा है। भले ही वो सब संसारिक लाभ के इच्छुक हों किन्तु हैं तो मेरे गुरुजन ही। यदि मेरे हाथों उनका वध हुआ तो मेरे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी। मैं यह भी नहीं जानता की मेरे लिए क्या श्रेष्ठ है - उनको जीतना या उनके द्वारा जीता जाना?
अर्जुन हाथ जोड़ते हुए बोला - मैं अपना कर्तव्य भूल चुका हूँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपका शरणागत हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें। मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरे इस शोक को दूर कर सके। अर्जुन फिर बोला- हे वासुदेव! मैं युद्ध नहीं करूंगा और चुप हो गया।
तब भगवान श्री कृष्ण ने हँसते हुए अर्जुन से कहा – हे अर्जुन! तुम उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने के योग्य नहीं है। विद्वान पुरुष न जीवित के लिए और न ही मृत के लिए शोक करते हैं।
ऐसा कभी नहीं हुआ की मैं न रहा हूँ या तुम न रहे हो अथवा यह समस्त राजा न रहे हों। जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस वर्तमान शरीर में बाल्या अवस्था से तरुण अवस्था और फिर वृद्ध अवस्था में निरंतर अग्रसर होती है उसी प्रकार मृत्यु के बाद आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होते।
हमारे भौतिक शरीर का तो चिर स्थायित्व नहीं है, किन्तु आत्मा हमेशा अपरिवर्तित रहता हैं। इस आत्मा को नष्ट करने में कोई समर्थ नहीं है।
आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वो न कभी जन्म लेता है और न ही लेगा। शरीर के मारे जाने पर भी वो नहीं मारा जाता। हे अर्जुन! जो व्यक्ति यह जनता है कि आत्मा अविनाशी है, अजन्मा है, शाश्वत है, वो भला किसी को कैसे मार सकता है या मरवा सकता है। जिस प्रकार