पराक्रमो विजयते
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"पराक्रमो विजयते" उसके सेना में बिताए सेवाकाल का संस्मरण है, जो मुख्यतः 1971 के युद्ध के बाद हुए, तीन मुख्य अभियानों क्रमशः सियाचिन ग्लेशियर, श्रीलंका और संयुक्त राष्ट्र संघ के अभियान और कई अन्य अभियानों से संबंधित है। उसने अपनी पुस्तक में अपनी असल ज़िन्दगी की कहानी और उससे जुड़े तथ्यों को, जो शायद दूसरों की जानकारी में ना हो ख़ासकर नई पीढ़ी की जानकारी में, उन्हें, इस पुस्तक में समेटा है। उसने यह किताब आसान और स्पष्ट भाषा में लिखी है, ताकि सभी इसके तथ्यों और वास्तविकता को समझ सकें। उपरोक्त इन अभियानों के अनुभव के अलावा, उसके पास उग्रवाद विरोधी अभियानों और फौजी अभियानों को चलाने का बृहद अनुभव है। यह कहने की ज़रूरत नहीं है, कि पुस्तक न सिर्फ नई पीढ़ी के अफसरों को प्रभावित करेगी बल्कि नवयुवकों और पुराने लोगों को भी प्रभावित करेगी। - मेजर जनरल संजय सोई (सेवानिवृत्त)
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कर्नल अरुण परासर रांची के सेंट जॉन्स स्कूल और सेंट जेवियर्स कॉलेज के पूर्व छात्र हैं। उन्होंने अपना स्नातक अंग्रेजी में किया और उसके बाद भारतीय सेना में शामिल हो गए। उन्होंने 35 वर्षों तक संगठन की सेवा की और 2013 में सक्रिय सेवा से सेवानिवृत्त हुए। एक सैनिक होने के अलावा, 1982 से भारतीय सेन्य सेवा के संचालन को देखा और इसका हिस्सा बने। वह गर्व महसूस करता है और अपने पेशेवर जीवन को संस्मरण के रूप में लिखित शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करके देखता है। वह रक्षा सेवा स्टाफ कॉलेज के पूर्व छात्र रहे हैं, उन्होंने अपनी 35 साल की पेशेवर यात्रा में विभिन्न नियुक्तियां की हैं। वर्तमान में उन्होंने उपाख्यानों को लिखकर समाज को देने के लिए खुद को प्रतिबद्ध किया था, चाहे वह किसी भी रूप में हो। कहानी का सबसे अच्छा हिस्सा यह है कि इसने आकार ले लिया है।
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पराक्रमो विजयते - Colonel Arun Parasar (Retd)
आमुख
मैं और अरुण प्रशिक्षण पाठ्यक्रम के दौरान से मित्र रहे हैं और एक दूसरे को हम पिछले 37 वर्षों से जानते हैं। हम दोनों एक दूसरे के अच्छे मित्र और शुभचिंतक हैं, क्योंकि सर्वप्रथम तो हम एक ही रेजीमेंट से हैं, दूसरा पेशेवराना और अभियान संबंधी निपुणता और तीसरा उसका हमेशा मुस्कुराता चेहरा। हम दोनों ने पूरे पाठ्यक्रम और रेजीमेंट के जोश को साथ जिया है।
उसकी पुस्तक पराक्रमो विजयते
उसके सेना में बिताए सेवाकाल का संस्मरण है, जो मुख्यतः 1971 के युद्ध के बाद हुए, तीन मुख्य अभियानों क्रमशः सियाचिन ग्लेशियर, श्रीलंका और संयुक्त राष्ट्र संघ के अभियान और कई अन्य अभियानों से संबंधित है। उसने अपनी पुस्तक में अपनी असल ज़िन्दगी की कहानी और उससे जुड़े तथ्यों को, जो शायद दूसरों की जानकारी में ना हो ख़ासकर नई पीढ़ी की जानकारी में, उन्हें, इस पुस्तक में समेटा है। उसने यह किताब आसान और स्पष्ट भाषा में लिखी है, ताकि सभी इसके तथ्यों और वास्तविकता को समझ सकें। उपरोक्त इन अभियानों के अनुभव के अलावा, उसके पास उग्रवाद विरोधी अभियानों और फौजी अभियानों को चलाने का बृहद अनुभव है। यह कहने की ज़रूरत नहीं है, कि पुस्तक न सिर्फ नई पीढ़ी के अफसरों को प्रभावित करेगी बल्कि नवयुवकों और पुराने लोगों को भी प्रभावित करेगी।
मैं उन्हें इस नई शुरुआत के लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ देता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि वे ऐसी बहुत सारी पुस्तकें हमारे लिए लिखें।
मेजर जनरल संजय सोई (सेवानिवृत्त)
लेखक की क़लम से
अपनी माँ के प्रति आभार व्यक्त करना चाहूँगा, स्वयं एक लेखक और उपन्यासक हैं ओर अपनी मातृभाषा में लिखती हैं। उनके प्रोत्साहन और समर्थन के बिना, इस पुस्तक का लिखा जाना संभव नहीं होता। मैं अपनी पत्नी और बच्चों का भी शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ, जिन्होंने इस बात का विशेष ध्यान रखा और इस पुस्तक को लिखे जाने तक धैर्य दिखाया। मेरे पाठ्यक्रम के साथी और बचपन के दोस्तों के लिए एक विशेष धन्यवाद, जिन्होंने मुझे इस पुस्तक को लिखने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया। मैं मेजर जनरल डी पी मर्चेंट, AVSM (सेवानिवृत्त), जो एक संरक्षक, मित्र और दार्शनिक, ब्रिगेडियर पी एन कौल (सेवानिवृत्त), बटालियन के दूसरे कमांडिंग ऑफिसर और मेरे बचपन के मित्र श्री कुंतल कुमार सेन, भारतीय राजस्व सेवा, के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, जिन्होनें पांडुलिपि की समीक्षा करने और इसके प्रकाशन के लिए मुझे प्रोत्साहित किया। विशेषकर कंप्यूटर से जुड़े मामलों से जुड़ी प्रक्रिया में, मेरी मदद करने के लिए श्री संजीव तिवारी को मेरी सराहना। मेजर जनरल संजय सोई, एक अच्छे दोस्त, शुभचिंतक और सहपाठी के लिए मेरा धन्यवाद, जिन्होंने पुस्तक के लिए आमुख लिखने पर सहमति व्यक्त की। मैं पुस्तक को पूरा करने के लिए प्रेरित करने के लिए श्री देबाशीष बसु मल्लिक और उनकी पत्नी अर्चना के प्रति हार्दिक धन्यवाद व्यक्त करना चाहूँगा। हमारी बटालियन और भारतीय सेना के प्रति मेरी कृतज्ञता, जो मेरी पहली किताब को मंजिल तक ले जाने में सक्षम है। इस पुस्तक को पहली समीक्षा में प्रकाशित करने के लिए सहमत होने के लिए मेरे प्रकाशक राजमंगल प्रकाशन को भी धन्यवाद। - लेखक
प्रस्तावना
जीवन के कुछ उतार-चढ़ावों को छोड़ दें, तो जैसा कि हर किसी के जीवन में होता है, जीवन की नाव अब तक मंथर गति से चलती आई है। मेरी जीवन यात्रा आनंद और उल्लास से भरी रही है। हर बच्चे कि तरह मेरे बचपन का सपना कुछ और था, पर माँ की इच्छा और सलाह दोनों, मुझे सेना की जैतूनी हरे रंग की वर्दी में देखने की थी। आज जीवन के इस मोड़ पर महसूस होता है, कि माँ सही थी।
मेरी माँ
मेरी नज़र में माँ से बेहतर शिक्षक कोई नहीं हो सकता। जीवन में आगे आने वाली आवश्यकताओं के अनुरूप हम विद्यालय जाते हैं, जहाँ शिक्षक हमारी क्षमताओं के अनुरूप, हमारे गुणों को उभारने का प्रयास करते हैं और हमारे लक्ष्य तक पहुँचने को हमें अग्रसर करते हैं। उम्र और ज्ञान की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए, हम अपने लक्ष्य के बारे में लगातार सोचते हैं और पाने को प्रयासरत रहते हैं। हर बच्चे का प्रयास यही होता है, लेकिन उम्र के साथ बदलता भाग्य कई बार बेसहारा अधर में भी छोड़ देता है। ऐसे स्थिति में, हम ख़ुद को असहाय महसूस करते हैं, लेकिन जब कभी ऐसी स्थिति आती है, तो हमारे अंदर का अवचेतन मन, नई राह तलाशना शुरू कर देता है, और यही जीवन है। परंतु मेरा विश्वास है, कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए शिक्षा के साथ-साथ विरासत में मिले संस्कार एवं नैतिकता तथा उस वातावरण का, जिसमें आप रहते हैं, और इस दौरान जो ज्ञान प्राप्त करते हैं, उन सभी का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इस पूरे सफ़र के दौरान माँ हमारे साथ मार्गदर्शक, मित्र एवं दार्शनिक के रूप में सदा साथ होती है। अपने बारे में न तो हम ख़ुद उतना जानते हैं, ना कोई और जान पाता है, जितना हमारी माँ, हमारे बारे में जानती है। मैं हमेशा से मानता हूँ, कि उस सर्वशक्तिमान ने हमें जीवन का आशीर्वाद इसीलिए दिया है, ताकि हम उस उद्देश्य को पूरा कर सके, जिसके लिए हमें भेजा गया है। परंतु दुर्भाग्यवश कुछ लोग उस के सपनों को नष्ट कर देते हैं। उपरोक्त बातों एवं तर्कों के बावजूद, मैं अपनी पेशेवराना ज़िन्दगी की यात्रा पर आगे बढ़ना चाहूँगा। आमतौर पर हम जिस तरह के वातावरण में रहने के व्यस्त होते हैं, उसी के अनुरूप चलना चाहते हैं। लेकिन मैं सोचता हूँ, कि जीवन जीने का यह सही तरीका नहीं है।
जोश
सन 1983 में, काफी कम उम्र में मेरी यात्रा की शुरुआत हुई। सौभाग्य से कुमाऊं रेजीमेंट में मुझे सर्वप्रथम कमीशन किया गया। यह देश में अपनी वीरता, परंपराओं और देश के लिए तीन सेनाध्यक्ष, क्रमशः जनरल थिमैया, जनरल श्री नागेश और जनरल टी एन रैना के रूप में दिए गए, अपने योगदान के लिए भी जाना जाता रहा है। थलसेना और सेवा के चुनाव के रूप में कुमाऊँ मेरी पहली पसंद थी और सौभाग्य से यह मुझे प्राप्त भी हुआ। बचपन का उल्लास और 1965 एवं 1971 के युद्धों से जुड़ी कहानियां मेरी पसंद के पीछे के मुख्य कारण थे। यह एक सपने के सच होने जैसा था। मुझे 18 कुमाउँ में रिपोर्ट करने को कहा गया। मैं, अपने परिवार से पहला व्यक्ति था, जो सेना में गया था, वरना अबतक सभी शिक्षा के क्षेत्र से ही जुड़े रहे थे। जब मैं बटालियन में शामिल हुआ, उस समय तक, यह बटालियन 1976 में स्थापित होने के बाद, 6 वर्ष की हो चुकी थी। सेना मुख्यालय के आदेश के अनुसार, जब किसी रेजीमेंट में किसी नई बटालियन की शुरुआत होती है, तो उस नए रेजिमेंट में, सभी बटालियन, अपने श्रेष्ठ अफसरों एवं जवानों को, उसमें शामिल करने का प्रयास करते हैं, ताकि उनके अनुभवों के साथ एक बेहतरीन आधार, नए बटालियन के लिए तैयार किया जा सके। हमारी बटालियन के साथ भी, कुछ ऐसा ही हुआ था। इसमें रेजिमेंट के विभिन्न बटालियनो ने, सभी अफसरों और जवानों को, उनकी श्रेष्ठता के आधार पर चुना था। उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दिया और जिसका नतीजा आज महसूस किया जाता है। उत्तर पूर्व में उन दिनो उग्रवाद चरम पर था। स्थापना एवं प्रशिक्षण के बाद, हमारी बटालियन को नागालैंड एवं त्रिपुरा के उग्रवाद प्रभावित इलाकों में भेजे जाने का आदेश प्राप्त हुआ। हमारे बटालियन के लिए उग्रवाद विरोधी अभियानों में शामिल होने का यह पहला अनुभव था और इसने वह परीक्षा सफलतापूर्वक पास की, जिसके लिए इसकी स्थापना हुई थी। बटालियन, ज़िन्दगी के साथ आगे बढ़ती रही और इस दौरान यह देहरादून और डलहौजी में भी रही। मैं यहाँ इस बात पर ध्यान दिलाना चाहूँगा, कि हमारी बटालियन ने इंडिया टुडे पत्रिका के वार्षिकांक में भारतीय सेना की उन सात बटालियनों की सूची में स्थान प्राप्त किया था, जिन्होंने अपनी स्थापना के प्रारंभिक दस वर्षों में ही, श्रेष्ठ उपलब्धियों को प्राप्त करने का गौरव हासिल किया था। अगर मेरी याददाश्त धोखा ना दे रही हो, तो वह सन 1988 का संस्करण था, जब हमारी यूनिट भारतीय शांति सेना का एक हिस्सा थी।
सैन्य यात्रा वृतांत
पेशेवराना ज़िन्दगी की शुरुआत डलहौजी से हुई। मैंने पेशे की बारीकियों को सीखना शुरू कर दिया था। उसी दौरान ऑफिसर मेस के एक कार्यक्रम में, हमारे कमांडिंग ऑफिसर ने मुझे सबसे युवा अधिकारी होने के नाते, उपस्थित लोगों को 'रसेल' और हमारी रेजीमेंट के आदर्श वाक्य 'पराक्रमो विजयते' के बारे में बताने को कहा। मैंने बिल्कुल वैसा ही किया, जैसा कि हमारे कमांडिंग ऑफिसर ने, मुझे करने को कहा। मेरे सम्बोधन के बाद, मेरे कमांडिंग अफसर, मेरे पास आए और मुझे शाबाशी देते हुए कहा, कि जब कभी लोगों को संबोधित करें, इसका ध्यान अवश्य रखें, कि संबोधन 'मेरी बटालियन' ना होकर 'हमारी बटालियन' हो। इससे बटालियन के संबंध में, एक मजबूत संदेश जाता है। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद, इस युवा बटालियन को सियाचिन ग्लेशियर में स्थानांतरित होने का आदेश मिला। मुझे इसका थोड़ी भी जानकारी नहीं थी, कि हमें कहां भेजा जा रहा है। मैं यहां ज़रूर उल्लेख करना चाहूँगा कि बटालियन के शुरुआती दौर के अफसरों ने living dangerously
को बटालियन के आदर्श वाक्य के रूप में गढ़ा था। इसके पीछे उनका उद्देश्य अभियानों के दौरान अनुशासनात्मकता के साथ-साथ वीरता की भावना को भी बढ़ावा देना था। मैं खुश हूँ कि हमारी बटालियन ने हमारे पुर्ववर्तियों को कभी निराश नहीं किया।
मित्र एवं शुभचिंतक
बेलगांव में तीन दिनों का पुनर्मिलन कार्यक्रम आयोजित किया गया था। वहां हमारे एक साथी मेजर जनरल संजय सोई, जो कि कमांडो यूनिट के प्रमुख के रूप में वहाँ तैनात थे और वहीं से सेवानिवृत्त होने वाले थे। वहां हम लोग करीब 45 कैडेट, अपने जीवन साथियों के साथ मौजूद थे। पहली रात को, हम सभी को अपने जीवन साथियों के साथ, अपना परिचय देना था। अपनी पारी आने पर, मैं प्रारंभिक परिचय के बाद, कुछ पलों के लिए रुका। मैंने सोचा, कि मुझे, अपने विभिन्न अभियानों के अनुभव को, अपने साथियों एवं उनके जीवन साथियों के साथ, साझा करना चाहिए। मैंने अपनी बातों को ऑपरेशन मेघदूत (सियाचिन), ऑपरेशन पवन (श्रीलंका), ऑपरेशन UNOSOM 2 (सोमालिया) पर केंद्रित किया। मेरे अनुभवों के वर्णन को सभी ने पसंद किया। अगली सुबह नाश्ते की टेबल पर, मेजबान ने मुझसे कहा, कि मैं अपने अनुभवों को किताब की शक्ल क्यों नहीं देता। मैंने सहमति में सिर हिलाया। अपने कमरे में लौटने के बाद, मैंने अपनी पत्नी से इस पर बात की।
मेरी पत्नी
बिना एक पल गंवाये, पत्नी ने कहा, शुरू हो जाओ।मैंने उससे कहा, कि किताब लिखने का मुझे जरा भी अनुभव नहीं है। उसका जवाब था, कि जब कोई बच्चा जन्म लेता है, तो वह सीधे सेना के अफसर के रूप में जन्म नहीं लेता। उसे भी इस जीवन के सागर-जल में डुबकी लगानी पड़ती है, तब कहीं जाकर उसे तैरने का अनुभव प्राप्त होता है। तुमने अपनी ज़िन्दगी, इस जैतूनी हरे रंग की वर्दी को समर्पित कर दी है, तो अब किस चीज से डरते हो। मैंने उससे कहा, कि मैं उससे सहमत हूँ। लिखना शुरू करने से पहले, मैंने अपने जीवन के पिछले पन्नों में झांकना शुरू किया, जिसकी मुझे बिल्कुल आदत नहीं थी। जब मैंने किताब लिखने का निर्णय ले ही लिया था, तो मेरे लिए यह जरूरी था, कि मैं अपने जीवन के पिछले 33 वर्षों में, वर्दी में की गई यात्राओं को, फिर से याद करुं।
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फौजी की याददाश्त
एक फौजी के रूप में, मैं ख़ुद को भाग्यशाली समझता हूँ, कि मैंने सन 1971 के युद्ध के बाद, भारतीय सेना के तीन बड़े अभियानों में भाग लिया। इसके अलावा ऑपरेशन राइनो, ऑपरेशन बजरंग, ऑपरेशन पराक्रम और ऑपरेशन विजय में भी या तो मुझे बटालियन के साथ या एक सैन्य सदस्य के रूप में, भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
मेरा बेटा
मेरे बड़े बेटे ने, जो कि इतिहास का एक छात्र था, मुझसे कहा, कि सियाचिन, श्रीलंका और सोमालिया पर फौजी इतिहास को पढ़ने वालों के लिए, कई किताबें उपलब्ध हैं , तो फिर मैं इसमें अपना हाथ क्यों डाल रहा हूँ। मैंने उसे कहा, कि फौजियों और अनुसंधानकर्ताओं ने, स्थितियों को,उनकी समझ के मद्देनज़र समझा है, लेकिन मेरा, एक ऐसे फौजी होने के नाते, जिसने उन पलों को, उन अभियानों को जिया है, और वह आधार किसी भी अनुसंधानकर्ता एवं फौजियों पर लिखने वाले को पीछे छोड़ सकता है। और इस तरह से कहानी की शुरुआत होती है।
प्रथम अध्याय
1. सियाचिन: - उच्चतम युद्ध क्षेत्र
इससे पहले, कि मैं ऑपरेशन मेघदूत से जुड़े अपने अनुभवों को साझा करूं, मैं महसूस करता हूँ, कि इस संघर्ष की पृष्ठभूमि पर भी थोड़ी चर्चा करुं।
पृष्ठभूमि
सियाचिन का ग्लेशियर क्षेत्र, करीब 1000 वर्गमील के बर्फ़ से ढके पहाड़ों में फैला है, जो भारत एवं पाकिस्तान की सीमा पर है। इस संघर्ष की शुरुआत, सन 1949 में हुई, जब बंटवारे के बाद के, भारत एवं पाकिस्तान के नक्शे में इसे नहीं दर्शाया गया। इस इलाके को बंजर एवं वीरान समझकर सीमा रेखा में नहीं दर्शाया जाना, झगड़े की वजह बना। नक्शे पर को-आर्डिनेट का निर्धारण NJ 9842 तक ही था। 1949 के कराची समझौते और 1972 के शिमला समझौते में भी, यह साफ साफ उल्लेखित नहीं किया गया, कि ग्लेशियर पर किसका नियंत्रण रहेगा। समझौते में सिर्फ इतना कहा गया, कि सीजफायर लाईन, NJ9842 पर खत्म हो जाती है। सयुंक्त राष्ट्र संघ के अफसरों ने यह मान लिया था, कि उस ठंढे, बंजर इलाके को लेकर, दोनों देशों में कोई झगड़ा नहीं होगा। सन 1949 के कराची समझौते में, यह लिखा गया था, कि डालुनाग की ओर सीजफायर लाइन बिंदु 15495 तक सामान्य रेखा के रूप में जाएगी,अर्थात यह इसमान, मानूस, गंगम, गुंदारमान, बिंदु 13620, फुंकार, मामक, नालसारा, साग्रुटी, चोर बाटला, चालुँका, खोर और फिर उसके बाद ग्लेशियर के उत्तर तक जाएगी। दोनों तरफ के सेनाध्यक्षों ने, सयुंक्त राष्ट्र संघ के पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में, यह फैसला किया, कि सीजफायर लाइन का निर्धारण, 27 जुलाई 1949 की वास्तविक स्थिति के आधार पर किया जाएगा।
सन 1971 के बांग्लादेश की स्वतंत्रता के समय हुए भारत-पाक युद्ध के कारण एवं बाद में सन 1972 के शिमला समझौते के बाद, सीजफायर लाइन को लाइन ऑफ कंट्रोल में बदल दिया गया, जो कि चंब सेक्टर से दूर-दूर तक फैली है, परंतु यह सीमा निर्धारण बेहद अस्पष्ट तरीके से था और इसमें कहीं भी स्पष्ट रूप से पता नहीं चलता था, कि कौन सा हिस्सा किसके अधीन हैं। उनके हिसाब से, भारतीय सीमा चंब की अन्तरराष्ट्रीय सीमा से लेकर तुरतुक के प्रतापपुर सेक्टर तक फैली थी। लाईन ऑफ कंट्रोल, थांग के उत्तर पूर्व की ओर से लेकर, पूर्व की ओर से होते हुए ग्लेशियर तक जाती थी। इस प्रकार के सीमा निर्धारण ने ही कड़वाहट के बीच बोये, जो आगे चलकर संघर्ष में बदल गए। सयुंक्त राष्ट्र संघ ने, इस सीमा निर्धारण और नक्शे को स्वीकारा, जिसमें सीजफायर लाइन, जम्मू कश्मीर राज्य में दिखाई गई थी। लेकिन सयुंक्त राष्ट्र संघ के एक दूसरे नक्शे में, जो एक उपग्रह द्वारा ली गई, तस्वीर पर बनाया गया था और जिसमें सीजफायर लाइन को NJ 9824 पर खत्म दिखाया गया था। यह रेखा, जो ग्लेशियर के उत्तर तक जाती थी, वह, 1948 या 1972 के समझौतों से जुड़े किसी अधिकृत नक्शे पर, कभी नज़र नहीं आई।
सन 1963 के एक समझौते के बाद, पाकिस्तान ने अक्षम घाटी को चीन को दे दिया था। इसके अलावा पाकिस्तान ने, पश्चिमी देशों के काराकोरम 2 के उत्तर के अभियानों को भी स्वीकृति देनी शुरू कर दी थी। सन 1957 में पाकिस्तान ने एरिक शिगटन के दल के अभियान को, बेला फोन्ड ला और रिसेस सलटारो रेंज होते हुए, सियाचिन जाने की अनुमति दे दी। पाँच साल के बाद, एक जापानी-पाकिस्तानी अभियान दल के दो जापानी और एक पाकिस्तानी पर्वतारोही, सलटारो कांगड़ी की चोटी पर पहुंचे। भौगोलिक राजनीति के खेल की, यह कुछ शुरुआती चालें थी। सन 1970 में और 1980 के शुरुआत में, सियाचिन के पहाड़ों की ऊंची चोटियों पर चढ़ने के लिए, कई अभियानों के आवेदन पाकिस्तान को मिले, जो सयुंक्त राज्य अमेरिका की मैपिंग एजेंसियों की तरफ से थे। अधिकतर नक्शा और एटलस में, सियाचिन को पाकिस्तानी सीमा रेखा के अंदर दिखाया गया था। पाकिस्तान ने उस दौरान कई परमिट जारी किए, जो एक तरह से, उस क्षेत्र पर पाकिस्तानी आधिपत्य को मजबूत कर रहे थे। जापानी पर्वतारोही दल ने, एस काटायामा के नेतृत्व में