Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

Udayee Samrajy Ka Suryast
Udayee Samrajy Ka Suryast
Udayee Samrajy Ka Suryast
Ebook634 pages6 hours

Udayee Samrajy Ka Suryast

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

उदयी साम्राज्य ‘एक ऐसा साम्राज्य’ जो सदा उदय और सदा विजय के पथ पर ही आगे बढ़ता रहा | लेकिन उदय और अस्त जैसे सिद्धांत ने अंततः इसे भी अस्त कर ही दिया | क्योंकि कोई सदा उदय भला कैसे रह सकता है, कभी ना कभी उसे भी अस्त तो होना ही होगा | जो हो भी गया और यहाँ तक तो सारी बातें ठीक भी थी ‘लेकिन उन लोगों का क्या’ जो जनहित का कार्य करते हुए जनहित के लिए ही बलिदान हो गये, वो भी उन अधर्मियों के द्वारा | क्या उन अधर्मियों के लिए कोई सिद्धांत नही हैं और अब उन दोनों अधर्मियों का अंत नही होना चाहियें? विधाता ने इनके लिए अपनी आँखें क्यों मूंद ली है ! क्या उन दोनों का अंत करने के लिए अब कोई नही आएगा | हे ईश्वर, काश की वो भविष्यवाणी नही हुयी होती और भविष्यवाणी के अनुसार वो घटनाएँ नही घटी होती तो आज उदयी वासियों को इतने कष्ट नही झेलने पड़ते ‘अपने संतान को ये लोग’ अपने आँखों के सामने ऐसे मरने नही देते और दोनों महाराज को भी अपनी पत्नी और अपने पुरे प्रजा के साथ उस सिकतादंड की सजा नही भुगतनी पडती, जिसे मृत्यु से भी बड़ी सजा मानी जाती है| काश की कबीले के दरुनों ने उनसे हाथ नही मिलाया होता तो हमारे सम्राट मारे नही जाते और श्रेष्ठ सुमम्बा के साथ लोगो की ऐसी हालत नही हुयी होती | अब तो एक आखिरी उम्मीद ही बची हुयी है ‘हमारे राजगुरु’ जो ना जाने कहाँ हैं और अब जीवित हैं भी या नही और अगर वो जीवित हैं तो उस कपटी घृताली को वो दंड मिलकर ही रहेगा ! वो कुछ ना कुछ तो जरुर करेंगे, उदयी साम्राज्य पुनः उदय होगा और दोनों महाराज भी उस सजा से जरुर मुक्त होंगे, मगर कब और कैसे ? इन सारी बातों को जानने के पढ़िए इस रोमांचक उदयी साम्राज्य की कहानी को, जो आपके इन सारे प्रश्नों के उत्तर जरुर देगी |

Languageहिन्दी
PublisherZorba Books
Release dateOct 19, 2021
Udayee Samrajy Ka Suryast

Related to Udayee Samrajy Ka Suryast

Related ebooks

Related categories

Reviews for Udayee Samrajy Ka Suryast

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    Udayee Samrajy Ka Suryast - Manoj Soni

    उदयी साम्राज्य

    का

    सूर्यास्त

    उदयी साम्राज्य

    का

    सूर्यास्त

    मनोज सोनी

    Published by Zorba Books, October 2021

    Website: www.zorbabooks.com

    Email: info@zorbabooks.com

    Author Name & Copyright © मनोज सोनी

    Email :- sonimanoj546@gmail.com

    Title :- उदयी साम्राज्य का सूर्यास्त

    ISBN Print Book - 978-93-90640-37-9

    ISBN eBook - 978-93-90640-45-4

    All rights reserved. No part of this book may be reproduced or transmitted in any form or by any means, electronic or mechanical, except by a reviewer. The reviewer may quote brief passages, with attribution, in a review to be printed in a magazine, newspaper, or on the Web—without permission in writing from the copyright owner.

    The publisher under the guidance and direction of the author has published the contents in this book, and the publisher takes no responsibility for the contents, its accuracy, completeness, any inconsistencies, or the statements made. The contents of the book do not reflect the opinion of the publisher or the editor. The publisher and editor shall not be liable for any errors, omissions, or the reliability of the contents of the book.

    Any perceived slight against any person/s, place or organization is purely unintentional.

    Zorba Books Pvt. Ltd. (opc)

    Sushant Arcade,

    Next to Courtyard Marriot,

    Sushant Lok 1, Gurgaon – 122009, India

    Printed by Thomson Press (India) Ltd.

    B-315, Okhla Industrial Area, Phase 1, New Delhi- 110020

    नमस्कार दोस्तों

    कल्पनाओं के आधार पर मेरे द्वारा लिखी गई इस अनोखी काल्पनिक कहानी की दुनिया में मैं आप सभी का हार्दिक स्वागत करता हूँ | इस उम्मीद से कि आप सभी को मेरे द्वारा लिखी गई ये कहानी बहुत पसंद आएगी, जो मैं केवल आप सबके मनोरंजन के लिए ही लिख रहा हूँ, जिसमे आप बड़े और बच्चे सभी उम्र के लोग शामिल हैं |

    वैसे, किसी कार्य का अकारण ही हो जाना एक संयोग होता है ‘मगर किसी कार्य को करना’ उसके पीछे कोई ना कोई कारण तो जरुर होता हैं | कुछ ऐसी ही बात यहाँ मेरे सन्दर्भ में भी लागू होती है की क्यूँ, मैं इस कहानी को लिख रहा हूँ तो इस प्रश्न के अभी मेरे पास कई उत्तर हैं | जिन सबका यहाँ जिक्र ना करते हुए एक ख़ासबात का जिक्र तो मैं यहाँ जरुर करना चाहूँगा, जो यह है की अभी मुझे इस क्षेत्र में खुद का परीक्षण करना हैं और यहाँ मेरे द्वारा किये गये इस कार्य के निरीक्षक तो अभी आप सब ही हैं | इसलिए उम्मीद भरी निगाहों से अभी मैं आप सबकी ओर ही देख रहा हूँ, अपनी इस पहली पुस्तक के माध्यम से | जिस कार्य में मैं सफल हूँ या असफल, ये बात कहानी पढनें के पश्चात आप तय कर ही लेंगे | मगर एक बात का आश्वासन तो मैं आप सबको अपनी ओर से यहाँ जरुर देना चाहूँगा की भले ही इस क्षेत्र में मेरे भीतर अभी अनुभव की थोड़ी कमी है, लेकिन मैं आप सबको यहाँ निराश होने का एक भी अवसर नही दूंगा, ऐसा मुझे पूरा यकीन है |

    अतः अब आप सबका अधिक समय जाया ना करते हुए मैं अपने परिवारजन, मित्रगण, सहयोगियों तथा ऐसे सभी लोगों का आभार प्रकट करता हूँ, जिन्होंने मुझे किसी ना किसी रूप में मेरे इस कार्य में अपना सहयोग प्रदान करके मेरा उत्साह बढाया है | मैं, ऐसे उन सभी लोगो को हृदय से बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ और ईश्वर से उन्हें खुश तथा स्वस्थ रखने की कामना करता हूँ |

    प्रस्तावना

    आईये अब हम प्रवेश करते हैं, मेरे कल्पनाओं की इस छोटी सी दुनियाँ में, एक अलग नयी कहानी की दुनिया में जहाँ आपको मनोरंजन के लिए वो सब कुछ मिलेगा, जिसकी आप कल्पना और इच्छा रखते हैं | वैसे आप सबने अपने बचपन में किसी ना किसी अपने बड़े-बुजुर्ग के द्वारा ‘पुस्तक के द्वारा या फिर आधुनिक युग में मोबाईल जैसे अन्य संसाधनों के द्वारा, कोई ना कोई कहानी सुनी या फिर पढ़ी जरुर होगी | इसलिए आईये, अब हम कहानी पढने या सुनने का कुछ वैसा ही भाव अपने मन में एकबार फिर से जगाते हुये, आजकल के भाग-दौड़ भरे जीवन का कुछ समय निकालकर, पुस्तक पढने वाले उन सुनहरे मनोरंजक दिनों में पुनः वापस लौटने का प्रयास, इस कहानी के माध्यम से एकबार फिरसे करते हैं, जो अब आपको इसमें खो जाने का पूरा अवसर जरुर देगी | इसलिए अभी हमारा आपसे केवल इतना ही अनुरोध है की आप अपनी कल्पना शक्ति को जागृत कीजिये और इस पुस्तक के माध्यम से ऐसा अनुभव कीजिये की आप कोई पुस्तक नही पढ़ रहे हैं, बल्कि आपके आँखों के सामने कोई फिल्म चल रही है और आपको कुछ वैसा ही अनुभव हो, इसके लिए मैंने इस कहानी को थोडा विस्तार दिया है और वो सबकुछ किया है, ताकि आप इस कहानी के पूरा आनंद लें सकें |

    प्रारम्भ और अंत

    जन्म और मृत्यु

    उदय और अस्त

    अगर किसी का नाम उदय रख दिया जाय तो क्या ये सम्भव है की वो सदा उदय ही रहेगा ? जी नही ‘ऐसा कभी भी सम्भव नही है’ प्रकृति स्वयं भी इसका उत्तर हमेशा ना में ही देती है | क्योंकि जो प्रारम्भ हुआ, वो पूर्ण हो या ना हो, मगर उसका अन्त तो जरुर होगा | इसी प्रकार जिसने जन्म लिया, उसे मरना भी होगा और जब सूर्योदय हुआ तो सूर्यास्त भी जरुर होगा | इसलिए केवल उदयी साम्राज्य नाम मात्र होने से ही ये साम्राज्य भी हमेशा उदय ही नही रहेगा, इसे भी कभी ना कभी अस्त तो होना ही होगा, जोकि आज से कुछ वर्ष पहले हो भी चुका है |

    अतः कुछ ऐसे ही मनोरंजक घटनाक्रमों और प्रकृति के सिद्धांतो को सत्य साबित करते हुए प्रारम्भ और पुर्ण होती है ये कहानी | इसलिए आईये अब हम चलते हैं ‘वास्तविकता से कोशों दूर’ काल्पनिक पूरब की धरती के एक छोटे से हिस्से की तरफ, अपने कल्पनाओं की दुनियां में हजार दो हजार साल पीछे, जिस कहानी का किसी भी वास्तविक साम्राज्य या व्यक्ति से कोई लेना-देना नही है और यह कहानी भी पूरी तरह से काल्पनिक ही है |

    जैसाकि आप सभी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं की प्रतेक उदय का अस्त होता ही है और हर अस्त के पश्चात एक नया उदय भी | कुछ ऐसी ही घटना इस कहानी के अनुसार उदयी साम्राज्य के साथ भी घटती है | लेकिन यहाँ उदयी साम्राज्य के साथ एक सच्चाई यह भी जुडी हुई है, जो यह है की उदयी साम्राज्य का इतिहास सदा उदय और सदा विजय का ही रहा है | जिस परम्परा को इस साम्राज्य के आखिरी वंशज सम्राट द्विपन भी सफलतापूर्वक आगे बढ़ाते हैं, फिरभी अपने उस आखिरी युद्ध में विजयी होने के कुछ दिनों पश्चात ही ‘उदयी साम्राज्य को’ अपने सम्राट के साथ-साथ अपना मान-सम्मान सबकुछ खोना पड़ता है, घटे उस घटना के पश्चात |

    जिस घटना के घटने की किसी एक ने भी कल्पना नही की थी शिवाय राजगुरु के और अगर बात की जाय राजगुरु की तो वह ये तो जानते थे की क्या घटने वाला है, मगर कैसे और किसके द्वारा ये बात वो आखिरी समय तक नही जान पाए | क्योंकी पिछली तीन पीढियों से गुप्त रखी गयी वो बहुत सारी बातें, जो उस गुप्त राजपुस्तक में लिखी गयी थी ‘उसका अध्ययन करने के पश्चात’ राजगुरु को यह आभाष तो हो ही चुका था की कुछ बहुत ही भयंकर और विनाशकारी घटने वाला है | जिसके लिए वह तैयार भी थे, मगर नियति के आगे लाचार वह उन घटनाओं को घटने से रोक नही पाए और अगर बात की जाय उस गुप्त राजपुस्तक की तो इसे राजगुरु के गुरु परमधरा ने स्वयं अपने हाथों से लिखी थी ‘एक खास मौके के दिन’ कई वर्षों पहले इनके कुलदेवता द्वारा की गयी एक अविश्वसनीय भविष्यवाणी के अनुसार |

    जिस राजपुस्तक को पढनें की अनुमति ‘अधिकार’ केवल एक सम्राट और राजगुरु को ही था, इसलिए उन सब बातो और एक गुप्त राजपुस्तक के होने की जानकारी, राजगुरु के जीते-जी अबतक कोई भी उनसे प्राप्त नही कर पाया है और वो लोग तो इस विषय में कुछ जानते तक नही थे | जिन्होंने उस घटना को अंजाम दिया था और आगे आने वाले समय में उस राज्पुस्तक में लिखी बातों को वो ना जान पायें तो ही वास्तविक उदयी साम्राज्य के लोगों के लिए और उनके लिए भी अच्छा है |

    फ़िलहाल इनके कुलदेव द्वारा की गई भविष्यवाणी के अनुसार ही वो सारी घटनाएँ, राजगुरु के सामनें घट ही जाती है, ऐसे में राजगुरु उस भविष्यवाणी और नियति के आगे लाचार बहुत कुछ जादा कर भी क्या सकते थे | मगर उन्होंने किया, एक साम्राज्य के राजगुरु होने के नाते अपने कर्तव्यों और अपने दिवंगत पुर्व सम्राट रत्नमणी को दिए उस वचन को पुर्ण करने का पालन, जो वह आज भी करते चले आ रहे हैं | लेकिन एक गुप्त स्थान पर अज्ञातवास का जीवन गुजारते हुए, जिन्हें ढूंढने और अपने षड्यंत्रों को अंजाम देने की कोशिश उसके द्वारा भी अभी जारी है |

    अतः चलिए, अधिक समय जाया ना करते हुए अब हम प्रवेश करतें है, इस कहानी के वर्तमान में जिसके भूत और भविष्य का जिक्र हम बाद में करेंगे और देखते है की अभी वर्तमान समयचक्र के अनुसार, इस समय इन सबके जीवन में क्या कुछ चल रहा है |

    अतः इस कहानी को हम शुरू करते है ‘उस घटना के पश्चात से’ जिस घटना को गुजरे हुए लगभग तीन वर्ष से अधिक का समय गुजर चुका है और उस घटना में ऐसे बहुत सारे लोग थे, जो सम्राट द्विपन के साथ उसी दौरान मारे जा चुके थे | मगर जिन्होंने उस घटना ‘छल को अंजाम दिया था’ अब वो ये बात मान चुके हैं की उन्होंने उस आखिरी लडाई को जीत लिया है, उनसे उनका सबकुछ नस्ट करके छीन लिया है, जिस लडाई को आज से वर्षों पहले शुरू किया गया था | मगर अभी वो गलत हैं, क्योंकि खुद के साथ कुछ प्रमुख लोगो को सुरक्षित बचा पाने में गुरुजी यहाँ कामयाब हो जाते है | जिनमे दो नवजात शिशु, कुछ युवक और युवतियां भी शामिल हैं और उन्ही लोगो में से एक प्रमुख व्यक्ति हैं, उनके परमशिष्य स्वामीजी और स्वामीजी का असली नाम व्यक्तित्व क्या है, ये बात तो आपको आगे चलकर इस कहानी के दौरान पता चल ही जाएगी |

    फ़िलहाल उन्हें सुरक्षित बचाने के बाद गुरूजी, उन सबके साथ एक विशाल जलयान पर सवार होकर, समुद्र का वह ढाई दिन वाला गुप्तमार्ग तय करके, गुप्त अमुकद्वीप चले आते है | जोकि पूरी तरह से एक गुप्त द्वीप है और इस द्वीप के वजूद में होने की जानकारी, यहाँ रह रहे लोगो के अलावा बाहरी दुनियां के किसी अन्य व्यक्ति को नही है | क्योकि इस द्वीप की सुरक्षा प्रकृति स्वयं करती है, इस द्वीप को हर तरफ से अपनी उस्मीय वातावरण और गहरी धुंध से घेरकर, जो गुप्तद्वीप हर तरफ समुद्री जल से पूरी तरह घिरा हुआ है और इस द्वीप पर वर्षों से सोया एक ज्वालामुखी भी है | अतः यहाँ रह रहे सभी, अभी अज्ञातवास का जीवन गुजार रहे हैं, गुरूजी की आज्ञा पर उनकी ही तरह |

    मगर जब ये लोग इस द्वीप पर आये थे, तभी गुरूजी ने अपने शिष्य स्वामीजी को ये आज्ञा दी थी की यहाँ से बाहरी दुनियां में मौजूद, हमारे विश्वासपात्र लोगों को अधिक से अधिक संख्या में सुरक्षित बचाकर और जैसाकि हमारे दिवंगत सम्राट द्वीपन चाहते थे, आप अनन्या के साथ विवाह करके अपने गृहस्थ जीवन में प्रवेश करें और मेरी ही तरह, आप सब भी यहाँ अपना अज्ञातवास का जीवन गुजारे | मगर यह ध्यान रहे की इस द्वीप पर आने वाला व्यक्ति ‘सिवाय आपके’ मेरी अनुमति के बगैर इस द्वीप से बाहर ना जा सके और जबतक मेरी अनुमति ना हो, अब आप भी हमसे मिलने का प्रयास ना करें, उचित समय आने पर वेद्लाम स्वयं आपतक मेरी आज्ञा पंहुचा देंगे | यह बात कहते हुए गुरूजी इस द्वीप के एक दुसरे हिस्से, छोटी पहाड़ी के उस पार, एक प्राकृतिक कन्दरा के गुफा में चले जाते है और इस गुफा का नाम, तब से उन्होंने पुनर्वास कन्दरा रखा है |

    लेकिन इसके बाद से लेकर आजतक गुरूजी उसी गुफा में बिना कुछ खाए-पिए, केवल अपने तपोबल से ध्यान में लीन है और अबतक तीन वर्ष से भी अधिक का समय गुजर चुका है | परन्तु उन्होंने स्वामीजी को एकबार भी नही पुकारा और उन्हें कोई भी आज्ञा नही दी है | इस बीच गुजरे इन तीन वर्षों में स्वामीजी ने गुरूजी की आज्ञा पर ही अनन्या से विवाह करके, अपने कई विश्वासपात्र लोगों को एक-एक करके उसकी क्रूरता से बचा, इन लोगों में मौजूद बहुत सारे युवाओ और बच्चो को एक आचार्य की तरह शिक्षा देते हुए, अभी उन्हें भविष्य के लिए तैयार कर रहे है और अबतक एक आम नागरिक की तरह अपना साधारण जीवन बिताते हुए, गुरूजी के अगले आदेश की बेसब्री से प्रतीक्षा भी कर रहे हैं | लेकिन उनकी प्रतीक्षा अब भी समाप्त नही हुई है, पिछले तीन साल से वैसे ही बरक़रार है और प्रतिदिन की तरह आज भी वह अपनी नित्य दिनचर्या के तहत, यहां मौजुद युवाओ को पठन-पाठन एवं अस्त्र-शस्त्र विद्या का ज्ञान दे रहे हैं | जिसमें तीरंदाजी, तलवारबाजी तथा घुड़सवारी जैसी अनेक, सभी शिक्षाएँ शामिल है और आज जब वह अपने इन कार्यों में व्यस्त थे, तभी यहाँ वेदलाम भी आ जाते हैं ‘प्रतिदिन की तरह’ जैसे वह भोजन ग्रहण करने के लिए यहाँ आया करते है, सुर्योदय के पश्चात और सुर्यास्त होने से पुर्व |

    अतः अब स्वामीजी शिक्षित कर रहे इन बच्चों को अपना कार्य जारी रखनें का निर्देश देकर, वेदलाम का चारा उठा अब उनके पास पहुँच जाते है और फिर उन्हें चारा परोश, स्नेह से उनकी पीठ सहलाने लगते हैं और जबतक वेदलाम अपना भोजन ग्रहण करें, हम आपको उनके विषय में भी थोड़ी सी जानकारी दे देते हैं | वेद्लाम को एक दैवीय अश्व कहा जाता है, क्योकि उनको पुनः जीवन दैवीय शक्तियों के कारण ही प्राप्त हुआ था और उन्हें ये दैवीय शक्तियां क्यों मिली, ये बात आप सब आगे चलकर जान पाएंगे | फ़िलहाल अभी आप ये जान लीजिये की दैवीय शक्तियां मिलने के कारण ही वेद्लाम उड़ने में सक्षम है और अब, जब वह अपना भोजन ग्रहण कर लेते हैं, तब श्वामीजी उनसे प्रतिदिन की तरह आज भी वही प्रश्न पुछते है ‘वेद्लाम’ क्या गुरूजी ने मुझे याद किया है..?

    अब इस प्रश्न के उत्तर में वेद्लाम हमेशा की तरह आज भी दो कदम पीछे खिसककर अपना सिर झुका लेते हैं और तब स्वामीजी ये समझ जाते है की गुरूजी ने उन्हें आज भी नही बुलाया है और आप तो ये जानते ही हैं की गुरूजी के अनुमति के बगैर स्वामीजी उनसे मिलने भी नही जा सकते | इसलिए उनके बुलावे की प्रतीक्षा वह पिछले तीन साल से भी अधिक समय से कर रहे है और फिर भोजन ग्रहण कर लेने के बाद अब वेद्लाम भी यहां से मायुस होकर चले जाते है | छोटी पहाड़ी के उस पार, जहाँ कन्दरा के भीतर गुफा में गुरूजी, पिछले तीन वर्षों से अपने साधना में लीन है |

    मगर वेद्लाम के यहाँ से वापस जाने के दौरान, आज मानों ऐसा लगता है की स्वामीजी और वेद्लाम दोनों की इच्छाएं पुर्ण होने वाली है | क्योकि जैसे ही वेद्लाम अब इस कन्दरा की भुमी पर उतरते है, उन्हें गुरूजी की आवाज में एक पुकार, आज लम्बे समय के पश्चात सुनाई दे जाती है और फिर जैसे ही गुरूजी की आवाज में वेद्लाम नाम का शब्द उनके कानों में गूँजती है | वेद्लाम बड़ी ही प्रसन्नता से उस कन्दरा के द्वार के पास जाकर, उछल-उछलकर अब अपने आगे के पैरों को पटकते हुए यहाँ हिनहिनाने की आवाज करने लगते है, अपनी मौजुदगी यहाँ गुरूजी को दर्शाने लगते है | तब उनके द्वारा की जा रही इस आवाज की ध्वनी को सुनकर, अब गुरूजी अपनें गुफा के भीतर से ही उनसे कहते है, शीघ्र जाईये वेद्लाम और हमारे शिष्य स्वामीनाथ को ये आज्ञा दीजिये की अब हम उनसे अविलम्ब मिलना चाहते हैं |

    तब लम्बे समय के बाद इस आदेश को सुनकर वेद्लाम, बड़ी ही फुर्ती से अपने कदम आगे बढ़ाते हुए, अगले ही पल हवा से बातें करने लगते हैं और आज जिस सुचना को लेकर वह स्वामीजी के पास जा रहे हैं, इसके लिए उन्होंने भी काफी लम्बे समय का इंतजार किया है | जिनके विषय में स्वामीजी उनसे प्रतिदिन पुछा भी करते हैं और अब कुछ ही समय में वेद्लाम यहाँ छोटी पहाड़ी के इस पार, पुष्पवल्ली में पहुँच जाते है | जहाँ अभी स्वामीजी कुछ युवाओं और छोटे बच्चों के साथ भूमि आसन पर बैठे भोजन ग्रहण कर रहे होते है और इन सब लोगो को भोजन परोसने का कार्य, स्वामीजी की पत्नी अनन्या, कुछ अन्य महिलाओ के साथ मिलकर यहाँ कर रही हैं |

    तभी वेद्लाम यहां की भुमि पर अचानक से निचे उतरकर, अब अपना सिर तेजी से हाँ की मुद्रा में हिलाते हुए अपने पैरों से जमीन की मिट्टी को खुरेदने लगते है | तब उन्हें ऐसा करते देखकर, अब स्वामीजी को ये बात समझने में जरा भी देर नही लगती की गुरूजी कि आज्ञा आ चुकी है, जिसकी वह लम्बे समय से प्रतीक्षा कर रहे थे | इसके बाद वह बिना एक पल की देरी किये अपने भोजन को नमनकर ‘भोजन को अधुरा छोड़ अपने हाथ धोकर’ बाकी लोगों को भोजन जारी रखने का संकेत करके, अगले ही पल वेद्लाम पर सवार होकर, अब तेजी से उस पार कन्दरा की तरफ बढ़ जाते है और फिर वहां की भुमी पर अपने कदम रख स्वामीजी, तेजी से उस गुफा के कक्ष में प्रवेश करनें लगते हैं | जहाँ अब गुरूजी की नाजुक और काफी दुर्बल हो चुकी शारीरिक अवस्था को देखकर, स्वामीजी के कदम एकदम से यहीँ, गुफा के द्वार पर ही ठहर जाते है |

    तब गुरूजी अपनी आँखें खोलकर अब स्वामीजी की तरफ देखते हुए उनसे कहते हैं, अपने माथे से चिंता के इस भाव को त्याग दो स्वामीनाथ, क्योंकि जबतक मैं हमारे सम्राट को दिया वह वचन पुर्ण होनें के कगार तक नही पंहुचा देता, अपनें इस देंह का त्याग नही करूंगा | अब गुरूजी के इस बात पर स्वामीजी अपने हाथ जोड़कर, अपना सिर झुकाए गुरूजी का अभिवादन करनें के पश्चात, उनके वेदी सीमा में बने एक यंत्र से कुछ कदम दुर जाकर, अब उनके ठीक सामने निचे भुमी आसन पर बैठ जाते हैं और फिर उनसे कहते है ‘क्षमा कीजिये गुरूजी’ वर्षों के बाद आज अभी कुछ समय पहले जितनी प्रसन्नता मुझे आपके द्वारा यहाँ बुलावे पर हो रही थी | अब आपकी इस शारीरिक दशा को देखकर, उससे कहीं अधिक दुख मुझे अब हो रहा है | तब इसके आगे उत्तर में गुरूजी कहते है, जो दुख और दर्द हमें उस घटना के पश्चात उनसे मिली है, उसके समक्ष तो मेरे इस दुर्बल हो चुके शरीर का दुख, कहीं भी नहीं ठहरता स्वामिनाथ | क्योंकि हम सबके हृदय पर लगे वो जख्म पूर्ण रूप से तभी भरे जायेंगें, जब हमारे लोग और हमारा साम्राज्य पुनः उन सुनहरे दिनों में प्रवेश करेगा और ऐसा तभी सम्भव होगा, जब उन दोनों अपराधियों का अंत कर दिया जायेगा |

    अतः अब उन दोनों के अंत के चरण की प्रक्रिया भी शीघ्र प्रारंभ होने ही वाली है, क्योंकि हमारे उस दैवीयहथियार को पुनः संचालित करने वाला योग, अर्थात उस चंद्राधियोग में जन्म लेनें वाला शिशु, अब इस जगत में आने के लिए तैयार है और ये वही योग है, जिसमें हमारे महान सम्राट वासुमणी का जन्म हुआ था, जिन्होंने उस दैवीय हथियार की रचना की थी | इसलिए अब उन्ही के जन्मयोग में जन्म लेने वाला पहला बालक, जिसका जन्म हीं सबका राजा बनने और अपने शत्रुओं का अंत करने के लिए ही होता है, उसके हाथों अब हमारा अस्त्रशूल अवश्य संचालित होगा | जिस बात की जानकारी अब उस घृताली को भी उसके विद्याओं के माध्यम से हो चुकी है की सम्राट वासुमणी के जन्मयोग में जन्मे पहले बच्चे के हाथों अस्त्रशूल पुनः संचालित हो सकता है और वह, इस बात को भी अच्छी तरह से जानता है कि भले ही अस्त्रशुल को धारण करने वाला अब हमारे सम्राट के राजवंश में कोई भी जीवित नही बचा है | मगर इस चंद्राधियोग में जन्म लेने वाला पहला बालक, हमारे अस्त्रशूल को संचालित करके उसे अवश्य धारण करेगा और अब वही बालक उन दोनों का अंत भी अवश्य करेगा |

    अतः अब अपने आप को जन्म लेने वाले इस बच्चे से बचानें के लिए वह, उस नवजात शिशु को मारनें का भी हर सम्भव प्रयत्न अवश्य करेगा, ताकि ऐसे किसी अवसर को पहले ही समाप्तकर दिया जाए और अब तो उसने भी अपनी खोई शक्तियां, गुजरे इन वर्षों में ना जाने कितनों की जाने लेकर पुनः प्राप्त कर ली है | जिन शक्तियों के वजह से हमारा दैवीय अस्त्रशुल शक्तिविहीन हो गया था और अब इस बात में भी कोई संदेह नही रह गया है की वह अपने तीसरे और आखिरी बचे उस शक्ति का प्रयोग भी इस बच्चे को मारने के लिए जरुर करेगा, जिस शक्ति से उसने हमारे प्रिय सम्राट रत्नमणी की हत्या की थी | इसलिए सर्वप्रथम ‘अभी हमे उस बच्चे की रक्षा करनी होगी’ तभी हम अपने उन सुनहरे दिनों के स्वप्नों को पुनः साकार कर पाएंगे | जिसकी अब उम्मीदें रखना भी, यहाँ से बाहर रह रहे हमारे लोगों ने छोड़ दी है और अब भी हमारे उन लोगों को अपना जीवन, आने वाले कुछ वर्षों तक ऐसे ही गुजारना होगा ‘तबतक’ जबतक की हम एक-एक करके अपने सभी महत्वपूर्ण योजनाओं को अंजाम नही दे देते |

    तब गुरूजी द्वारा कही गयी इन बातों पर स्वामीजी की हालत कुछ ऐसी है की अभी वह चिंतित, किसी विचार में खोये हुए है और फिर अचानक से पूछते है, आपके कहनें का ये अर्थ है गुरूजी की उसके पास बची उसकी वही आखिरी अदृश्य मृतबाण शक्ति? जिसके उत्तर में गुरूजी कहते है ‘हाँ स्वामीनाथ’ घृताली के पास बची उसकी वही आखिरी अदृश्य मृतबाण शक्ति | तब स्वामीजी पुनः कहते है, परन्तु उस शक्ति के समक्ष तो हम उससे अपने सम्राट को भी नही बचा पाए थे गुरूजी, ऐसे में अब उसी अदृश्य शक्ति के प्रहार से एक ऐसे बच्चे की रक्षा करना कैसे सम्भव होगा, जिसका अभी तक इस जगत में जन्म ही नही हुआ हैं !

    अब इस प्रश्न के उत्तर में गुरूजी कहते है, जब हमारे सम्राट के उपर उस अदृश्यशक्ति का प्रयोग किया गया था | तब अदृश्य होने के कारण हम उस शक्ति को उस समय जानते तक नही थे और जब हमें घृताली के द्वारा उस शक्ति के प्रयोग की जानकारी हुई, तबतक तो बहुत देर हो चुकी थी स्वामिनाथ, अन्यथा हम अपनें सम्राट को इस प्रकार अपने आँखों के सामने मरने नही देते, बल्कि उन्हें मृत्यु के मुख से बाहर खिंच लाते | रही बात उस अजन्मे बच्चे की रक्षा करने की तो ‘इतनें दिनों तक साधना में लीन रहने के दौरान’ मैं उन्ही सब कार्य योजनाओं को पुर्ण कर रहा था और अब, इसका एक हल भी मैंने ढूंड लिया है की कैसे घृताली के उस अदृश्यशक्ति का सामना करना है | इसलिए अब उस बच्चे के जन्म से पुर्व ही हमें इस कार्य को अन्जाम देना होगा, उस बच्चे के शरीर पर वैसे ही एक अदृश्य शक्ति का पहरा बनाकर, ताकि हम उस बच्चे की रक्षा कर सके, जिसके लिए आज मैंने आपको याद किया है |

    तब इसबात पर स्वामीजी अब अपना सिर झुकाकर कहते है, हमें आपके आदेश की प्रतीक्षा है गुरूजी, जिसके लिए मैंने इतने वर्ष, केवल इन्तजार में ही गुजार दिए | तत्पश्चात अब गुरूजी अपनें वेदी से उठकर खड़े होते हैं और अपने वेदीयंत्र के सीमा से बाहर निकलकर, अपना हाथ वेदीयंत्र के उपर करके अब अपनी आँखे बंदकर मंत्रोचार करने लगते हैं | जिसके परिणाम स्वरूप देखते ही देखते उनकी वेदी सीमा के भीतर का यन्त्र अब प्रकाशमय हो जाता है | जिस यंत्र का निर्माण गुरूजी ने अपनी रक्षा के लिए ही किया था और अब यंत्र का प्रकाश निचे भूमी से उपर उठकर, गुरूजी के उस हाथ में एकत्रित होने लगती है, जो हाथ उन्होंने अपनी वेदीयंत्र के उपर कर रखा है | फिर जब इस प्रकाश की किरणें कम होते-होते समाप्त हो जाती है ‘तब गुरूजी के हाथ में आयी वह प्रकाशउर्जा’ अब एक दिव्यकुंडल [मनके] का रूप धारणकर लेती है | जिस कुंडल को गुरूजी, अपने शिष्य स्वामीनाथ के हाथों में सौप देते है और अब उन्हें इस दिव्य कुंडलशक्ति का क्या करना है, इससे जुडी सभी जानकारियों से उन्हें अवगत करानें लगते है |

    तब उन सब बातों को ध्यानपुर्वक सुन लेने के बाद अब स्वामीजी, गुरूजी द्वारा बताये उस कार्य को अंजाम देनें के लिए अपना सिर झुकाकर, गुरूजी का अभिवादन करके अब यहां से जाने लगते है | मगर इससे पहले की स्वामीजी इस गुफा से बाहर निकल पाते, गुरूजी उन्हें पुनः टोकते है और फिर कहते है, आपके मस्तक की रेखायें अभी इस बात की ओर संकेत कर रही है स्वामिनाथ की शीघ्र ही आपके जीवन में एक नवजात पुत्री का प्रवेश होने वाला है | अब इस बात पर स्वामीजी अपना सिर झुकाए कहते है ‘क्षमा कीजिये गुरूजी’ इन सब बातों के बिच मैं आपसे ये कहना ही भुल गया की अनन्या इस समय गर्भवती हैं | गुरूजी से यह बात बोलकर स्वामीजी, अब पुनः अपना सिर झुकाकर यहाँ से वेद्लाम के साथ पुष्पवल्ली लौटने लगते है और जबतक वह वहां पहुंचे, हम आपसे यहाँ एक खास बात का जिक्र कर देना चाहते है | जो बात यह है की गुरूजी अपने जिस वेदीयन्त्र सीमा के भीतर बैठे रहते हैं, उन्होंने इस वेदीयंत्र का निर्माण केवल इसलिए किया था ताकि घृताली उन्हें अपनी शक्तियों के बल पर कभी भी ढूढ ना सके और अबतक हुआ भी कुछ ऐसा ही है, जब से गुरूजी यहाँ गुप्त अमुकद्वीप पर आयें हैं, घृताली उन्हें अबतक नही ढूंड पाया है |

    फ़िलहाल अब स्वामीजी वापस पुस्पवल्ली पहुँच चुके है और एक जोगी का भेष भी धारणकर चुके है ताकि कोई भी उन्हें यहाँ से बाहर का पहचान ना ले | जिनके पास, अभी एक वस्त्र थैला लिए खडी उनकी पत्नी अनन्या अब उनसे पुछती हैं, कैसे हैं..हमारे गुरूजी और उन्होंने आपको क्या बताया, क्या हम सबके यहाँ से बाहर जाने का समय आ चुका है ? अब उत्तर में स्वामीजी कहते है, हमारे गुरूजी अब काफी दुर्बल हो चुके हैं और उन्होंने कहा है की अभी हमें कुछ वर्षों तक अपना जीवन, यहाँ ऐसे ही गुजरना होगा और इसके साथ ही गुरूजी ने आपके लिए ये भविष्यवाणी भी कर दी है की आप एक पुत्री को जन्म देने वाली है और फिर थोड़ी ही दुर बड़ेगारू के साथ खेल रहे श्लोक की तरफ देखकर अब इसके आगे वह कहते है, जैसे उन्होंने महाराज अधी के पुत्र, हमारे श्लोक के जन्म की भविष्यवाणी की थी | यह बात कहते हुए वह, अनन्या के हाथ से उस वस्त्रथैले को लेकर अब उसे अपने कंधे पर टांग वेद्लाम के साथ यहाँ इस गुप्तद्वीप से बाहर, उस कार्य को पुर्ण करने के लिए प्रस्थान कर जाते हैं, जो कार्य आज एक लम्बे समय के पश्चात गुरूजी ने उन्हें सौपा है |

    अतः चलिए अब हम रुख करते हैं, इस गुप्त अमुकद्वीप से बाहर निकलकर, उदयी साम्राज्य की तरफ | उदयी साम्राज्य के सबसे आखिर में बसा निहोर गाँव की तरफ, जो समुद्र तट के बेहद निकट बसा है और वहाँ पहुंचनें के लिए स्वामीजी, गुरूजी की आज्ञा पर प्रस्थान भी कर चुके है | मगर अपनी पहचान सबसे छिपाकर और जबतक स्वामीजी निहोर गाँव के पास पहुँचे, हम आपसे उन दोनों छोटे बच्चों का भी परिचय करा देते हैं, जिन बच्चों का जिक्र स्वामीजी ने अपनी पत्नी से उदाहरण के रूप में किया था | अतः जैसाकि आपने जाना, श्लोक महाराज अधी के पुत्र हैं और उनकी उम्र इस समय लगभग चार वर्ष की है, वैसे ही बड़ेगारू महाराज तवल के पुत्र हैं, जिनकी उम्र इस समय लगभग पांच वर्ष के करीब है | मगर बड़ेगारू, महाराज तवल के दत्तक पुत्र है और महाराज तवल ने अपने दत्तक पुत्र बड़ेगारू को उनके एक वर्ष की उम्र में ही उन्हें सेनापती की उपाधि, पद दे दिया था | तबतक के लिए जबतक की बड़ेगारू खुद अपने उस गुम्बन साम्राज्य के महाराज नही बन जाते | परन्तु समय के खेल ने उससे पहले ही बहुत कुछ बदल है और अभी इन दोनों बच्चों के माता पिता कहाँ हैं ‘कैसे है’ किस हाल में हैं और अब, हैं भी या नही, इस बात की जानकारी आप सबको आगे की कहानी के दौरान पता चल ही जाएगी |

    फ़िलहाल इस समय स्वामीजी अब निहोर गाँव में दस्तक दे चुके हैं, जोकि एक जोगी के भेष में है और अपना वश्त्रथैला लटकाए अपने सिर पर भी वश्त्र लपेटे, अपनी नजरें निची किये सधे कदमो से पैदल, अपने-अपने कार्यों में व्यस्त, इधर-उधर आ-जा रहे एक-दो ग्रामीणों के बिच से निकलकर बिलकुल शान्त, अपने मंजिल की तरफ आगे बढ़ते ही जा रहे हैं | क्योकि वेद्लाम, स्वामीजी को समुद्री सीमा के पार एक पहाड़ी ढलान के उपर सुरक्षित स्थान पर छोडकर, खुद को सुरक्षित बचाए रखने के लिए वहीं-कहीं किसी स्थान पर जा छिपे हैं और स्वामीजी के वापस लौटने की प्रतीक्षा कर रहे हैं और वेद्लाम के ऐसा करने के पीछे एक मात्र कारण यही है की कहीं उनकी पहचान यहाँ सार्वजनिक ना हो जाए | क्योंकि लोग, अभी भी यही समझते हैं की वेद्लाम भी अब नही रहे, जिन्हें उनके शरीर पर उभरे सुनहरे पंखों द्वारा आसानी से पहचाना जा सकता हैं और गुरूजी अभी ऐसा कुछ नही चाहते की यह बात उन दोनों तक जाए की कुछ लोग अभी भी जीवित हैं |

    अतः अब इधर स्वामीजी, श्रीधर का घर ढूंढते हुए उनके घर के बिलकुल सामने आकर खड़े हो जाते है और श्रीधर, जोकि इस गाँव के मुखिया एक बड़े जमीदार हैं, इसलिए स्वामीजी को उनका घर ढूढ़ने में अधिक कठिनाई का सामना नही करना पड़ता और पुराने समय का घर, आप सब तो जानते ही है जादातर कच्चे ‘मिट्टी के ही बने होते थे’ इसलिए यहाँ श्रीधर का घर भी कुछ वैसा ही है, लेकिन सामान्य लोगों से कही अधिक समृद्ध और विशाल | परन्तु अभी यहाँ ऐसा लगता है की श्रीधर जी शायद अपने घर में मौजूद नही हैं | क्योकि उनकी पत्नी माहेश्वरी देवी, घर के बाहर खड़े एक जोगी को देखकर स्वयं बाहर आती हैं और अपनें हाथ जोड़कर, इस जोगी का अभिवादन करते हुए उनसे कहती हैं, यह मेरा सौभाग्य है की आप जोगी के मुझे दर्शन हुए ‘कहिये महात्मन’ मैं आपकी किस प्रकार से सेवा कर सकती हूँ |

    अब उत्तर में जोगी भेष धारण किये स्वामीजी कहते है, लम्बी दुरी तय करने के कारण मैं अत्यधिक प्यासा हूँ | अतः मुझे जल ग्रहण कराने की कृपा कीजिये देवी | तब माहेश्वरी देवी कहती हैं, आप यहीं ठहरिये महात्मन मैं अभी आती हूँ, यह बात कहते हुए अब वह अपने घर के भीतर चली जाती है | जिनके यहां से जाने के बाद अब स्वामीजी अपनी निगाहें हर तरफ घुमाकर यह देखने लगते हैं की उन्हें यहाँ कोई अन्य व्यक्ति तो नही देख रहा हैं | तब इस बात की पुष्टि कर लेने के बाद जब वह संतुष्ट हो जाते हैं की उन्हें कोई भी नही देख रहा है, अब वह तेजी से अपना हाथ वस्त्रथैले में डालते है और फिर उसमें से गुरूजी का दिया हुआ दिव्यकुंडल निकालकर, जिस घास से घर को छाया गया है, कुंडल को छत के उसी घास में उपर छिपा देते हैं | इसके बाद तेजी से पलटकर वापस, उस स्थान पर आकर खड़े हो जाते है, जहाँ वह पहले खड़े थे | इसके पश्चात वह दिव्यकुंडल, मानों अपना असर दिखाने लगती है और अदृश्य रूप में ही इस पुरे घर को अपने सुरक्षा के घेरे में ले लेती है |

    तभी घर के भीतर गयी माहेश्वरी देवी, यहाँ वापस आ जाती है, जिनके दोनों हाथों में मिट्टी के दो घड़े जैसे छोटे–छोटे बर्तन हैं और अब वह अपने हाथ स्वामीजी के आगे करते हुए कहती हैं, ये रही छाछ और शीतल जल, जो आपके भुख को भी शांत कर देगी महात्मन | तब इस बात पर स्वामीजी उनसे कहते हैं, मैं आपकी इस सेवा भाव से अत्यंत प्रसन्न हूँ देवी, परन्तु मुझे तो केवल जल की ही आवश्यकता है, यह बात कहते हुए अब वह अपना हाथ, अपने मुख के पास अजुरी स्वरूप रखकर, जल ग्रहण करने के लिए झुक जाते है | तब माहेश्वरी देवी अपनें हाथों से उन्हें जल ग्रहण कराती है और फिर स्वामीजी अपनी प्यास बुझा लेने के पश्चात उनसे कहते है, आपकी यह शारीरिक अवस्था आपके गर्भवती होने का संकेत कर रही है देवी, ईश्वर ने चाहा तो शीघ्र ही आपको पुत्ररत्न की प्राप्ती होगी, जिसकी मधुर किलकारियों से सुना पड़ा आपका ये घर, अब शीघ्र ही गुंज उठेगा | यह बात कहते हुए स्वामीजी, यहां से आगे की तरफ बढ़ चलते हैं |

    इसके बाद माहेश्वरी देवी अपनें हाथ जोड़कर उन्हें यहां से जाते हुए देखती रहती है ‘तबतक’ जबतक की स्वामीजी उनके आँखों से ओझल नही हो जाते और जैसे ही श्वामीजी यहां से ओझल हो जाते है, अब वैसे ही उनके पीछे की तरफ से श्रीधर, अपने बैलगाड़ी पर सवार अनाज लादे हुए अब अपने घर के सामने पहुंच जाते हैं और अपनी पत्नी को दरवाजे पर खड़ा देखकर उनसे कहते है, ऐसे समय में तुम्हे यहाँ खड़ी होकर मेरी प्रतिक्षा नही बल्कि विश्राम करनी चाहिए | यह बात कहते हुए वह अपनी पत्नी का हाथ पकड, उन्हें घर के अंदर ले जाने लगते है और घर के भीतर, सामने की तरफ से बाहर की ओर आ रहे अर्धबुजुर्ग काका को देखकर श्रीधर, अब उनसे कहते है, काका...बाहर पड़े अनाज को बारिस गिरने से पहले भंडारगृह में रखवा दिया जाय, नही तो ये भीग जायेंगे | तब बूढ़े काका एक नजर ऊपर आकाश की ओर उन काले बादलों को मंडराते देखकर, अब उस कार्य के प्रति खुद आगे बढ़ जाते है और इधर माहेश्वरी देवी, अब अपने पति से उस जोगी के आने और उनके द्वारा पुत्ररत्न प्राप्ति जैसे बातों की चर्चा करके प्रसन्न होने लगती है |

    चलिए अब हम रुख करते है, इस गाँव से बाहर निकलकर, साधारण अश्व से डेढ़ दिन की दुरी पर उदयी साम्राज्य के महल की तरफ | जहाँ दरबार पहले से ही लगा हुआ है और घृताली के सहयोग से सम्राट बन बैठा विरूद्धबली, अपने राजगुरु घृताली की ओर देखकर कहता है, आपके इस बात में अब जरा भी संदेह नही रह गया है राजगुरु की आपके द्वारा जब अपनी उस अदृश्य मृतबाण शक्ति का प्रयोग किया जायेगा, तब आपकी उस शक्ति से जन्में उस बच्चे को वहां कोई भी नही बचा सकता | क्योंकि आपकी उस शक्ति ने तो सम्राट रत्नमणी को भी नही बक्शा था, ऐसे में एक नवजात शिशु का आपकी उस शक्ति से बच पाना, कदापि सम्भव नही है | यह बात कहते हुए अब दोनों एक-दुसरे को देखकर जोर-जोर से हंसने लगते हैं | मगर तभी अचानक से मन में आये एक विचार के कारण अब विरुद्धबली पूछता है ‘परन्तु राजगुरु’ हम इस बात को कैसे ज्ञात कर पाएंगे की वाकई आपकी उस शक्ति से जन्मा वह शिशु मारा जा चुका है या फिर नही | क्योंकि इस बच्चे के जन्म स्थान की सही जानकारी तो आप अब भी प्राप्त नही कर पायें है, ऐसे में अभी आप मेरे मन में उठ रहे इन शंकाओं का उचित समाधान कीजिये राजगुरु, ताकि मैं भी आपकी तरह ही निश्चिंत हो जाऊं |

    अब इसके उत्तर में घृताली, मंद मुस्कान भरते हुए कहता

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1