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Yeha Sambhav Hai - (यह संभव है)
Yeha Sambhav Hai - (यह संभव है)
Yeha Sambhav Hai - (यह संभव है)
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Yeha Sambhav Hai - (यह संभव है)

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तिहाड़ जेल के अंदर मैंने जो कुछ भी देखा उसे मैंने उस मानवीय संवेदना से बांध लिया जो मेरे फर्ज़ के लिए जरूरी थी। मैं वहां सुधार लाने गई थी न कि इल्ज़ाम लगाने। समस्या गंभीर थी। उसे समझने में मुझे कुछ महीने लगे। चाहे किसी को कितनी भी जल्दी क्यों न हो, ऐसे संस्थानों की परतें उघाड़ने में वक्त लगता है।
तिहाड़ जेल ने मेरे धैर्य की बेइंतहा परीक्षा ली पर आखिर में उसके निवासियों के मन में जगह बनाने में कामयाब हो गई। अब वही इमारत तिहाड़ आश्रम कहलाती है ।
- इसी पुस्तक से
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 1, 2020
ISBN9789390088133
Yeha Sambhav Hai - (यह संभव है)

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    Yeha Sambhav Hai - (यह संभव है) - Dr. Kiran Bedi

    बेदी

    प्रथम खंड

    क्या चल रहा था

    तिहाड़ जेल के अंदर जो कुछ चल रहा था, उसे मैंने खुद देखा, सुना और महसूस किया है। चर्चा और समीक्षा करके रिकार्ड किया है। तिहाड़ एक जीता-जागता इतिहास है। वह इंसानियत का ऐसा बुत है जो शांति और सौहार्द के लिए जरूरी है। जाहिर है देश की सबसे बड़ी जेल होने की वजह से देश की बाकी जेलों के लिए तिहाड़ जेल की भूमिका का विशेष महत्त्व है।

    तिहाड़ जैसे संस्थानों को जिसके भीमकाय अंधे दरवाजों के भीतर हजारों लोग बंद हैं, या तो वे लोग देख पाते हैं जो अदालती आदेशों के तहत वहां बंद किए जाते हैं, या फिर वे सौभाग्यशाली लोग देख पाते हैं जो वहां के प्रभारी होते हैं। मई 1993 से मई 1995 तक मैं भी उसकी एक ऐसी ही चश्मदीद गवाह रही।

    तिहाड़ जेल के अंदर मैंने जो कुछ भी देखा उसे मैंने उस मानवीय संवेदना से बांध लिया जो मेरे फर्ज के लिए जरूरी थी। मैं वहां सुधार लाने गई थी न कि इल्जाम लगाने। समस्या गंभीर थी। उसे समझने में मुझे कुछ महीने लगे। चाहे किसी को कितनी भी जल्दी क्यों न हो, ऐसे संस्थानों की परतें उघाड़ने में वक्त लगता है।

    तिहाड़ जेल ने मेरे धैर्य की बेइंतहा परीक्षा ली पर आखिर में उसके निवासियों के मन में जगह बनाने में कामयाब हो गई। अब वही इमारत तिहाड़ आश्रम कहलाती है।

    जो कुछ मैंने देखा वह है...

    1

    जेल में मेरा पहला दिन

    किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह मैं भी बिना कोई तैयारी किए जेल पहुंची। फर्क सिर्फ इतना था कि मुझ पर उनकी जिम्मेदारी थी जबकि बाकी लोग मेरे मातहत थे। मुझे मालूम नहीं था कि अंदर सचमुच क्या पक रहा है और मुझे ठीक-ठीक क्या उम्मीद करनी चाहिए। मैं तो सिर्फ इतना ही जानती थी कि उन जंग लगे दरवाजों और ऊंची दीवारों के पीछे हजारों लोग हैं। बाहर से जो कुछ भी दिखाई पड़ता था वह था दीवारों की ऊंचाई पर खिंची तार की बाड़ और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बने निगरानी खंभों पर संतरियों के निर्जीव चेहरे।

    मैंने विश्व मजदूर दिवस (एक मई) 1993 को महानिरीक्षक (जेल) के रूप में अपना कार्यभार संभाला। मुझे इस बात का कतई अंदाज नहीं था कि सलाखों के पीछे जो समस्याएं इंतजार कर रही हैं उनसे निबटने के लिए मुझे किस कदर मेहनत करनी पड़ेगी। मैंने तो उन ऊंची खोजबत्तियों के साए में ढके-छिपे जो खूनी कारनामे होते थे, जिन पर परदा पड़ा था उन्हीं के बारे में सुना था। ऐसा लगा मानों उन जंग लगे दरवाजों और ऊंची दीवारों के पीछे दुनिया वनवास भुगत रही है। मुझे हमेशा यह महसूस हुआ जैसे एक दूसरी दुनिया को उन मुर्दा दीवारों के पीछे धकेल दिया गया है। मैंने जेल में गुटों के झगड़ों, कैदियों द्वारा जेल के अंदर जबरन पैसा-वसूली, भ्रष्टाचार और दिल दहलाने वाली हिंसक वारदातों के बारे में सुन रखा था। लेकिन मैं एक सिपाही थी, इसलिए उस नरक का भार उठाना मेरा फ़र्ज़ था।

    मुझे घर से ले जाने के लिए सफ़ेद स्टाफ कार आई थी, उससे उतरकर मैं अपने नए कार्यालय यानी महानिरीक्षक (जेल) के कार्यालय की ओर बढ़ी। तेज कदम बढ़ाते हुए मैंने तय किया कि खुद को वहां के हालात का शिकार नहीं होने दूंगी। स्थिति का सामना करने के लिए मैंने खुद को तैयार किया। मैं लोगों में सम्मानपूर्वक रहने लायक जगह बनाने गई थी। मैं एक महिला पुलिस अधिकारी हूं और स्वभाव से धार्मिक प्रवृत्ति की भी हूं। ईश्वर में मेरी आस्था है और यही आस्था मेरे पूरे कैरियर के दौरान स्थितियों से निबटने में मुझे शक्ति और संतोष देती रही है। छोटी-सी प्रार्थना करने के बाद मैं बहुत दिनों से खाली पड़ी कुर्सी संभालने के लिए आगे बढ़ गई।

    मैंने इंतजार नहीं किया। मैंने उपमहानिरीक्षक और तिहाड़ जेल के नाम से कुख्यात चारों जेलों के अधीक्षकों की पहली बैठक बुलाई। एक टीम के रूप में कार्य शुरू करने से पहले हम लोगों का एक-दूसरे से परिचित होना जरूरी था। जब वे सब जेल में बनाई गई एक बड़ी मेज़ के सामने आकर बैठ गए तो मैंने महसूस किया कि इन लोगों में यह जानने के लिए उत्सुकता बढ़ती जा रही थी कि मैं उनसे क्या कहती हूं। शायद वे जानना चाहते थे कि मैं कैसे बोलती हूं और एक महिला महानिरीक्षक के रूप में मेरा व्यवहार कैसा है। मेरा एजेंडा क्या है। वहां नियुक्त होने के बारे में मैं उत्साहित हूं या दुःखी? वे लोग सोच रहे थे कि उनकी हमदर्दी हासिल करने के लिए मैं वहां नियुक्त किए जाने के लिए अपने वरिष्ठ अधिकारियों पर दोषारोपण करूंगी या कि उन्हें कोसूंगी। हमारे देश में नियुक्तियों के लिए ‘संबंधों’ का होना बहुत जरूरी है। जिनका कोई संरक्षक या पैरोकार नहीं होता वे लोग ऐसी ही ऊटपटांग जगह पटक दिए जाते हैं। मैं निश्चित तौर पर कह सकती हूं कि मेरे सामने बैठे मेरे सहयोगी यही तय करने की कोशिश कर रहे थे कि कहीं मैं वैसी ही मुसीबत की मारी तो नहीं हूं। ऐसा लगा जैसे वे लोग वहां सिर्फ अपनी नियुक्ति की वजह से ही थे। लगभग सभी तीस वर्ष की उम्र के नौजवान थे। मैंने पाया कि उस दफ्तर में मैं सबसे उम्रदराज थी। पहली बार मैंने महसूस किया कि मैं उनसे पद में ही नहीं कद में भी बड़ी हूं। इसलिए मेरी जिम्मेदारियां भी बड़ी हैं। आज मैं एशिया-प्रशांत की सबसे बड़ी जेल की प्रमुख हूं वह भी भारत की राजधानी दिल्ली में जो अब एक राज्य का रूप ले चुकी है।

    मेरे दफ्तर की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। यूं कहना चाहिए कि 21 वर्षों की पुलिस सेवा में अब तक जितने भी दफ्तर मुझे मिले थे यह उनमें सबसे गया गुजरा था। ऐसा लगता है कि यह दफ्तर एक गैर जरूरी चीज समझकर बनाया गया था और आमतौर पर खाली ही रहता था। यह 15 20 फुट माप का एक खस्ताहाल xकमरा था। दीवारों से पलस्तर उखड़ा हुआ था। कमरे में कीड़ो-मकोड़ों, चूहों के कूद-फांद करने की पूरी आजादी थी। वहां मेरे बैठे होने के बावजूद भी चूहे अपनी उछल-कूद मचाए हुए थे। एक कैदी द्वारा बनाए गए चित्र (पृष्ठ 18) पर नजर डालिए।

    अपने सहयोगियों की जो बैठक मैंने बुलाई थी वह वहां के निवासी कीड़े-मकोड़ों, चूहों-छिपकलियों को बहुत अखर रही थी। शायद अफसरों के समान वे भी यह जानने को उत्सुक थे कि बैठक कितनी देर तक चलेगी। इस दौरान अनेक चूहे मेरे पैरों पर कूद-फांदकर मेरा ध्यान बंटा चुके थे। बैठक (मीटिंग) के दौरान कोई भी अफसर वर्दी में नहीं था। इसकी वजह यह थी कि उस दिन शनिवार था, बल्कि उपमहानिरीक्षक समेत चारों अधीक्षक (सुपरिंटेंडेंट) दिल्ली सिविल सेवा से आए थे। उनके लिए वर्दी पहनना जरूरी नहीं था।

    मैं अपने साथियों के साथ भलीभांति जुड़ जाना चाहती थी क्योंकि मुझे उनके सहयोग से ही जेल का प्रशासन चलाना था। वे लोग कुछ खास नहीं बोले। उन लोगों में शायद अनिश्चितता इस बात को लेकर थी कि मैं कितने दिन वहां रहती हूं। मैंने कुछ सवाल पूछकर उनकी चुप्पी तोड़ी। मैंने देखा कि मेरे प्रश्न पर वे एक-दूसरे को कनखियों से देखने लगे। मैंने इसका फायदा उठाने का फैसला किया। इस संक्षिप्त पूछताछ के दौरान मैंने जान लिया कि वास्तव में उनका अगुवा कौन था और उसी के जरिए मैंने उन लोगों से काम लेना शुरू कर दिया। मैंने उन्हें बता दिया कि मैं टीम की भावना से काम करती हूं। मैं लक्ष्य निर्धारित करके काम करती हूं लेकिन उससे पहले काम और उपलब्ध ऊर्जा को भलीभांति समझ लेना चाहती हूं। मैंने उनके सामने स्पष्ट कर दिया कि मैं काम की कद्र करती हूं और अनुभवी सहयोगी का पूरा सम्मान करती हूं चाहे वह किसी भी पद पर क्यों न हों। मैंने जेल प्रशासन से संबद्ध अपने तमाम मातहतों से उनके तजुर्बे तथा सुझाव मांगे। मैंने उन्हें यकीन दिलाया कि मुझे छोटे-बड़े हर सहयोगी से सीखना है ताकि हम सब मिलकर एक अच्छी दिशा में आगे बढ़ सकें। एकमत होकर लक्ष्य तय होने के बाद उसे पूरा करने की जिम्मेदारी सबकी सांझी होगी बिना यह सोचे कि कौन छोटा है और कौन बड़ा। सही या गलत सभी कामों की जिम्मेदारी मैं लूंगी। मैं विश्वास के साथ काम शुरू करती हूं। किसी प्रकार के विश्वासघात या लापरवाही को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। वास्तविक गलतियों की जांच की जाएगी तथा हर मामले पर मेरिट (पात्रता) के आधार पर निर्णय लिया जाएगा। अच्छे काम की तारीफ तथा लापरवाही की निंदा की जाएगी।

    समय के साथ-साथ जेल के बारे में मेरे जहन में उभरने वाले विचारों की जानकारी मैं अपने सहयोगियों को देती रही। मुझे उन दिनों की याद आई जब मैंने एक पुलिस अधिकारी के रूप में अनेक अपराधियों को सुधरने का मौका दिया और अंततः उन्होंने अपराध से तौबा कर ली। उस समय मैंने महसूस किया था कि उन्हें सुधारने में जेल की कारगर भूमिका हो सकती है। चूंकि उस समय न तो मेरा जेल से कोई सीधा वास्ता था और न ही जिलों में जेल की कोई व्यवस्था थी, अतः मेरी इच्छा महज एक विचार बनकर रह गई। जेल महानिरीक्षक बनने के बाद अब यह संभव हो गया था इसलिए मैंने अपने विचारों को व्यवहार में बदलना शुरू कर दिया। मैंने बैठक में आने के लिए उन्हें धन्यवाद दिया और वापस घर चली गई।

    सोमवार 3 मई को ठीक दस बजे मैं अपने दफ्तर पहुंच गई। मैंने पूरी आशा के साथ अपने समय का सदुपयोग करने का निश्चय कर लिया था। पी.वी. राव और सी.वी. विरमानी नामक मेरे दोनों निजी सहायक वहां पहले से ही मौजूद थे। दफ्तर में बैठने के बजाय मैं जेल नंबर एक के मुआयने के लिए निकल पड़ी। जेल नंबर एक मेरे दफ्तर से लगभग बीस गज की दूरी पर थी। जेल का विशाल दरवाजा मेरे रास्ते में बाधा की तरह खड़ा जैसे किसी अपशकुन की चेतावनी दे रहा था। भीमकाय दरवाजे के बाहर खड़ी होकर मैं हैरानी से सोच रही थी कि क्या यह राक्षसी दरवाजा मुझ जैसी बौनी-सी महिला के लिए खुलेगा। वह नहीं खुला। मेरे अंदर जाने के लिए खोला गया 2x4 फुट का जालीदार छोटा दरवाजा। मैं झुककर ड्यौढ़ी में दाखिल हुई। जेल में दो बड़े दरवाजों के बीच बने हॉल को ड्यौढ़ी कहा जाता है। वार्डन (प्रहरी) ने मुझे वहां रखे रजिस्टर में दस्तखत करने के लिए कहा। जेल के अंदर आने-जाने वालों का ब्यौरा रखने की गरज से वहां एक रजिस्टर रखा गया है जिसमें दस्तखत करना सबके लिए जरूरी है। जिस मेज़ पर रजिस्टर रखा गया था वह जरा ऊंची थी अतः मैंने पंजों के बल खड़े होकर उसमें दस्तखत किए। दस्तखत करने के बाद जब मैं आगे बढ़ी तो मुझे मुख्य दरवाजे जैसा ही एक और बड़ा दरवाजा दिखाई पड़ा। दूसरा दरवाजा पार करने के बाद जब मैं अंदर चली गई तो उसे दुबारा बंद कर दिया गया और फिर कोई भी अंदर नहीं जा सका। ड्यौढ़ी में ही जेल के प्रशासनिक विभाग तथा सुपरिंटेंडेंट वगैरह के दफ़्तर बने हुए थे। वहां जेल के अंदर की गतिविधियों पर निगरानी रखने के लिए एक क्लोज़ सर्किट टेलीविजन भी रखा हुआ था। इसके अलावा वहां कोई अन्य आधुनिक उपकरण नहीं था। पूरा का पूरा तंत्र बाबा आदम के जमाने का था। ड्यौढ़ी पर खड़े जिस दरबान ने मेरे लिए पहला दरवाजा खोला था उसी के पास दूसरे दरवाजे की चाबी थी और उसे हिदायत थी कि पहला दरवाजा बंद करने के बाद ही वह दूसरा दरवाजा खोले। इस दरबान को अपनी आठ घंटे की ड्यूटी के दौरान दोनों दरवाजे खोलने-बंद करने के लिए हजारों गज चलना पड़ता है। अब मैं दूसरे गेट पर थी। इस दरवाजे के बीच में भी एक छोटा दरवाजा था जो जेल के अंदर खुलता था। मेरे अंदर जाने के बाद दरवाजा बंद कर दिया गया और इस प्रकार मैं पूरी तरह ‘कैद’ हो गई।

    जेल के अंदर दाखिल होना एक ऐसे व्यवस्थित कस्बे में दाखिल होने जैसा था जिसकी अपनी खास किस्म की गंध होती है। अंदर ऊंचे-ऊंचे पेड़ जेल के बदनुमा इतिहास की कहानी कह रहे थे। कुछ लोग इधर-उधर घूमते नजर आए और कुछ लोग ड्यौढ़ी में दाखिल होने के लिए दरवाजा खुलने का इंतजार कर रहे थे ताकि वे अपने-अपने काम से बाहर जा सकें। वे लोग सहमे से खामोश खड़े थे। मैंने वहां केवल पुरुष देखे। वर्दी पहनना वहां अनिवार्य नहीं था, इसलिए मैंने भी पूरी आस्तीन का पठानी सूट और उसके ऊपर जवाहरकट जैकेट पहन रखी थी। इस लिबास में मुझे पूरी तरह ढके होने के साथ शालीनता का बोध होता है। मैंने पैदल चलने वाले बिना एड़ी के जूते पहन रखे थे ताकि मेरे पंजे भी दिखाई न पड़े। ऐसा मैंने इसलिए किया था ताकि उस पुरुष प्रधान कस्बे में मेरी मौजूदगी से कोई खलल पैदा न हो।

    जेल अधीक्षक के.आर. किशोर फौरन मेरे साथ हो लिए। मेरे साथ कोई हथियारबंद सुरक्षाकर्मी नहीं था। एक वर्दीधारी वार्डन के अलावा मैंने मौके पर नजर आने वाली बातों को नोट करने के उद्देश्य से अपने हाथ में एक नोट-बुक ले रखी थी।

    जैसे ही मैं कैदियों की ओर बढ़ी संतरियों ने उन्हें सख्ती से एक ओर हट जाने को कहा। कुछ ने मेरी सुरक्षा की चिंता दर्शाते हुए कैदियों पर लाठियां भांजना शुरू कर दिया। उन्होंने मुंह से कुछ निहायत बेहूदी आवाजें निकाली। मैंने उन्हें यह सब कुछ बंद करने का इशारा किया।

    लगभग 70 गज चलने के बाद मैं कैदियों के सबसे बड़े वार्ड में दाखिल हुई। इसमें लगभग 600 कैदी थे। मेरे अधीन चार जेलों में से यह पहली जेल थी। इसमें छोटे-बड़े आकार के 12 वार्ड थे। जब मैं वार्ड में पहुंची तो मुझे उसमें एक गंदा कीचड़ भरा बड़ा मैदान नजर आया। ऐसा लगा शायद एक लंबे अंतराल के बाद कोई महानिरीक्षक इस जगह पर आया है। लॉन में घूम रहे कुछ लोग धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़े लेकिन संतरियों ने डंडे की जोर से उन्हें चुपचाप एक ओर बैठ जाने का इशारा किया। जेल के भीतर यह बात फैल गई थी कि जेल देखने कोई नया व्यक्ति आ रहा है और वह कोई और नहीं बल्कि जेल की महानिरीक्षक स्वयं हैं। मेरे इर्द-गिर्द जगह खाली कर दी गई। मैंने उन्हें सरसरी निगाह से देखा। मेरी समझ में नहीं आया कि इस समय मैं इनके साथ कैसे पेश आऊं। कैदी हैरान थे और यह जानने की कोशिश कर रहे थे कि मुझे इनके बीच आने की क्या जरूरत पड़ गई। वर्दी में न होने की वजह से मुझे उनके साथ अनौपचारिक बातचीत करने में काफी सुविधा हुई। उनको देखकर मैंने सोचा कि क्या हमारा न्यायतंत्र इन्हें सचमुच सुधरने और बदलने का मौका देने के बारे में संजीदा है। यही सोचते हुए मैंने चुप्पी तोड़ी और कैदियों से पूछा, ‘क्या आप लोग प्रार्थना करते हैं?’ किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। मैंने फिर कहा, ‘मैं आप लोगों से पूछ रही हूं कि क्या आप लोग प्रार्थना करते हैं?’ इस बार मैंने हिन्दी में पूछा।

    कैदियों ने संतरियों की ओर देखा। शायद वे यह जानना चाहते थे क्या उन्हें बोलने की इजाजत है। वार्डन परेशान नजर आए परंतु मैं उनकी हालत समझ गई। वे लोग अजीब कशमकश में थे। शायद इसके पहले उनके साथ ऐसा कभी नहीं हुआ। किसी पूर्व महानिरीक्षक ने उनसे सीधे संपर्क नहीं साधा था। अमूमन जब भी पहले कभी महानिरीक्षक मुआयना करने आते थे उनके आने से पहले तमाम कैदियों को बैरकों में ठूंसकर बाहर से ताला लगा दिया जाता था और अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए दरवाजों पर संतरी खड़े हो जाया करते थे। कई साल पहले ऐसे ही एक मुआयने के दौरान एक कैदी ने पूर्व महानिरीक्षक पी.वी. सिनारी की अंगुली काट खाई थी। वहीं मैं उनसे पूछ रही थी, ‘क्या तुम प्रार्थना करते हो?’

    मैं उनके निकट गई और उनमें से एक को झकझोर कर पूछा, ‘क्या तुम प्रार्थना करते हो?’ ‘हां, कभी-कभी।’ सिर हिलाते हुए वह बोला। ‘बहुत अच्छा।’ और कौन प्रार्थना करता है? मैंने उनके और करीब जाकर पूछा, ‘तुम करते हो?’ और फिर एक के बाद एक कई स्वर एक साथ उबरे, ‘हां, हां, मैं भी प्रार्थना करता हूं। हम लोग अपने-अपने समय पर पाठ या प्रार्थना करते हैं।’ मैंने राहत की सांस लेते हुए सोचा-चलो! इनके साथ शायद यह पहली बार मानवीय व्यवहार करने की कोशिश कामयाब रही। मैंने फिर पूछा, ‘अगर हम एक साथ प्रार्थना करें तो क्या ठीक रहेगा? क्या आप लोगों को ऐसा करना अच्छा लगेगा?’ मैंने महसूस किया कि अब मैं, मैं नहीं बल्कि उनके साथ मिलकर ‘हम’ हो गई हूं।

    वे लोग फिर खामोश हो गए, लेकिन मैं सोच रही थी कि कितना अच्छा हो अगर ये सब मिलकर एक स्वर में प्रार्थना करें। उन लोगों ने कभी एक साथ प्रार्थना नहीं की थी। उनमें से एक कैदी ने झिझकते हुए कहा, ‘हां, हम एक साथ प्रार्थना करेंगे।’ धीरे-धीरे सहमति के अनेक स्वर पुन: उभरे।

    मैंने कहा, ‘ठीक है। कौन-सी प्रार्थना हम लोग मिलकर गा सकते हैं? क्या आप लोग कोई सुझाव दे सकते हैं।’ वे फिर खामोश हो गए। मैंने अपनी ओर से एक मशहूर हिन्दी फिल्म के गीत की पहल की : क्या आप लोगों को याद है - ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम। ऐसे हों हमारे करम। नेकी पर चलें...!’

    इस बार तुरंत और जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई, ‘हां’ यह समूहगान ठीक है। मैंने कहा, ‘ठीक है, तो फिर एक साथ सब खड़े हो जाओ।’ जैसे ही वे उठकर खड़े होने लगे संतरियों ने लाठी के इशारे से उन्हें बैठे रहने को कहा। मैं दहाड़ते हुए बोली, ‘मैंने कहा न! खड़े हो जाओ और एक साथ सब मिलकर गाओ।’

    कर्मचारी मेरा संदेश समझ गए और उन्होंने अपने डंडे वापस खींच लिए। मैंने कैदियों से कहा, ‘अपनी-अपनी आंखें बंद करो और मेरे साथ गाओ।’ प्रार्थना के बाद जब हमने आंखें खोलीं तो हमारे हाथ जुड़े हुए थे। मैंने महसूस किया कि हम परस्पर विश्वास का माहौल बनाने में सफल रहे हैं और यही विश्वास हमारी कार्यशैली में सहायक होगा। जो प्रार्थना हमने एक साथ गाई थी उसका सार भी यही था। प्रार्थना का संदेश था : मैं तुम पर विश्वास करना चाहता हूं और तुम भी मुझ पर भरोसा कर सकते हो ताकि हम एक साथ दूसरों की भलाई के लिए काम कर सकें।

    पुरुष बंदियों के वार्ड से निकलकर मैं महिला वार्डों की तरफ बढ़ी। मुझे मालूम था कि महिलाएं मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं। वार्ड में पहुंचते ही महिला कैदियों ने मुझे घेर लिया। मेरे दौरे से वे बहुत खुश थीं। क्या यह मेरी घर वापसी थी? महिला वार्ड पुरुष वार्ड से बिलकुल भिन्न था। मुझसे बात करने और मुझे सुनने के लिए वे सब मेरे इर्द-गिर्द बैठ गई। उनके चेहरे देखकर मुझे ऐसा लगा जैसे वे सब मेरे बच्चे हैं और मैं वास्तव में उन्हीं के लिए आई हूं। मैंने महसूस किया कि वे सबकी-सब मेरा हमदर्दी भरा हाथ अपने कंधों पर पाने के लिए लालायित थीं ताकि वे अपनी तकलीफें बयान करके जेल की पीड़ा से राहत पा सकें। फिर भी वे सबकी-सब मुझे दिखाने के लिए खुश दिखाई पड़ रही थीं।

    मैंने उनसे पूछा, ‘तुम लोग यहां कुछ पढ़ती-लिखती हो?’

    उन्होंने कहा, ‘नहीं।’

    मैंने कहा, ‘क्या तुम्हारी पढ़ने-लिखने की इच्छा है?’

    उन्होंने कहा, ‘हां, हम पढ़ना चाहती हैं।’

    ‘बहुत अच्छा। हम लोग यहां पढ़ेंगे और जब आप लोग यहां से जाओगी तो शिक्षित हो चुकी होगी।’ यह सुनकर वे खुशी से झूम उठीं।

    पुरुष कैदियों के साथ प्रार्थना से जहां मुझे अपने कार्यक्रम के सफल होने की आशा से खुशी मिली वहीं औरतों से मुलाकात के बाद मुझे मेरे भीतर से कोई खींचता महसूस हुआ। अब मैं ‘कैद’ हो गई थी। तिहाड़ मेरा भाग्य बनने वाला था।

    2

    तिहाड़ जेल : धरती का सच

    अगले कुछ हफ्तों में मैंने तिहाड़ जेल की जांच-पड़ताल की। इसका अनुभव बड़ा कष्टदायी था। जल्दी ही मेरी तकलीफ गुस्से में बदल गई। अब मुझे समझ में आ गया था कि इस दुर्व्यवस्था के लिए कौन लोग जिम्मेदार थे। स्थिति बेहद निराशाजनक थी क्योंकि न तो मैं किन्हीं खास व्यक्तियों के खिलाफ कुछ कर सकती थी और न ही उनके तौर-तरीकों की बेइंतहा खामियां उन्हें दिखा पा रही थी। जेल में कार्यरत तमाम लोगों की कारगुजारियां बेनकाब हो चुकी थीं। सारी की सारी मशीनरी चरमरा रही थी। कड़वी सच्चाई यह है कि जेल के लंबे-चौड़े दरवाजों के भीतर जो कुछ चल रहा था उसे आसानी से छिपाया जा सकता था।

    इस संस्था की देखभाल के लिए जिम्मेदार लोगों को पास दूसरे कार्यों का इतना बोझ था कि वे कभी-कभार ही इस संस्था की तरफ देख पाते थे। कभी-कभार होने वाले अधिकारियों के दौरे या तो ‘गॉर्ड ऑफ ऑनर’ की रस्म अदायगी के लिए होते थे या दूसरे किसी काम में। वरिष्ठ अधिकारियों के दौरे के समय जेल कर्मचारी उनकी आवभगत में ही व्यस्त रहते थे। उन्हें जेल के भीतर वही दिखाया जाता था जो जेल प्रशासन चाहता था। अतिविशिष्ट लोगों के दौरों के समय उन्हें अमानवीय तथा गंदी कोठरियों, बैरकों से दूर ही रखा जाता था। बैरकों में क्षमता से अधिक इंसानों को जानवरों की तरह ठूंस कर रखा जाता था और इन बैरकों का मुआयना लगभग वर्जित था। ऐसा शायद विशिष्ट लोगों के दौरों को निरापद बनाने के उद्देश्य से किया जाता था। विशिष्ट लोगों के साथ आने वाले पत्रकारों की टीम पूरी वफादारी के साथ वही छापती थी जो कुछ वे उन्हें जेल सुधारों और कैदियों के पुनर्वास के बारे में बताते थे। अपने कार्यकाल के दौरान मैंने भी कई बार ऐसी आत्मप्रशंसात्मक टिप्पणियां देखी हैं। लेकिन तिहाड़ की नग्न सच्चाइयों से दो-चार होने के बाद मैंने ऐसे दावों की असलियत उजागर करने का मन बना लिया। इन भावों को दर्शाते हुए एक कैदी ने (पृष्ठ नं. 24) पर एक चित्र भी बनाया है।

    1993 में तिहाड़ जेल परिसर में चार जेलें थीं जो 7200 कैदियों-हवालातियों की ‘न्यायिक संरक्षक’ थीं, जबकि उसे कुल 2273 कैदियों के लिए बनाया गया था। इनमें से केवल 900 को सजा हुई थी जबकि बाकी सारे विचाराधीन कैदी थे। जेल में 300 महिलाएं तथा चार वर्ष की आयु के 50 बच्चे और 18 से 21 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 1200 युवा कैदी थे। इसके अलावा नशीली दवाओं की तस्करी के अपराध में 38 देशों के 125 विदेशी कैदी भी थे। एक नंबर जेल में बंद महिलाओं और विदेशी कैदियों के अलावा बाकी कैदियों को वर्णमाला क्रम के अनुसार रखा जाता था। जेल नं. 2 में अदालतों से सजा प्राप्त तथा जेल नं. 3 में टाडा बंदियों को रखा जाता था। जेल नं. 4 भारी जुर्म करने वाले कैदियों के लिए थी।

    तिहाड़ जेल ठसाठस भरी हुई थी। 1958 में 1273 कैदियों के लिए एक जेल बनाई गई थी। 1961 तक दिल्ली में तीन जेल बन गई और चौथी जेल बनाने का फैसला 1974 में लिया गया जो 1980 में बनकर तैयार हुई। इस जेल को कैम्प जेल के रूप में जाना गया। इसमें अपेक्षाकृत कम खूंखार लोगों को बंद किया जाता था। 1984 तक जेल में लगभग ढाई हजार कैदी थे। लेकिन संसद द्वारा 1983 में अपराध कानून संशोधन विधेयक और 1985 में नार्कोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रापिक एक्ट पारित किए जाने के बाद जेल का पूरा दृश्य ही बदल गया। कैदियों की संख्या में इतनी बढ़ोत्तरी का अनुमान शायद किसी को नहीं था। 1989 में यह संख्या बढ़कर 6000 हो गई। 1993 बीतते-बीतते कैदियों की संख्या 8000 तक पहुंच गई। अपराध दर और उसके परिणामस्वरूप होनेवाली गिरफ्तारियों में चौंकाने वाली वृद्धि हुई। इस दौरान जेल क्षेत्र के विस्तार और उनमें बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने के लिए अनेक प्रस्ताव भेजे गए। कैदियों का कोई असरदार पैरोकार नहीं था जिसके जरिए वे अपनी आवाज तथा कठिनाइयों को शासन तक पहुंचा पाते। अगर उन्होंने कभी ऐसी कोशिश की भी तो उनकी अपीलें नीति-निर्धारकों के पास तक नहीं पहुंच सकीं।

    जेल की परिस्थितियों तथा समस्याओं से संबंधित अखबारों में गाहे-बगाहे छपने वाली खबरों का कोई खास असर नहीं होता था। लेकिन इससे ताकतवर अफसरों को कुछ तकलीफ जरूर होती थी। अफसरों का अंततः यही मानना था कि जेल सजा के लिए है मजे के लिए नहीं।

    कैदियों की व्यथा-कथा की फेहरिस्त काफी लंबी और पुरानी है। सबसे पहले भोजन को लें। भोजन बहुत घटिया मिलता था (एक कैदी द्वारा पृष्ठ 27 पर बनाए गए चित्र पर नज़र डालें)। कैदियों के लिए नाश्ते की कोई व्यवस्था नहीं थी। दोपहर का खाना 11 बजे दिया जाता था। पेशी भुगतने के लिए अदालत जानेवाले कैदियों को अक्सर भूखे ही जाना पड़ता था। लंच में पांच रोटियां तथा पानीनुमा पतली दाल दी जाती थी। दाल की चिकनाई वाली ऊपरी पर्त आमतौर पर खूंखार लोगों के लिए होती थी। ठीक वैसा ही खाना कैदियों की शाम पांच बजे ‘डिनर’ के रूप में दिया जाता था। कैदियों का खाना जंग लगे पुराने लोहे के बर्तनों में पकाया जाता था। इन बर्तनों को कपड़े धोने, नहाने तथा पानी के लिए इस्तेमाल किया जाता था। कई बार तो कैदी उन बर्तनों को कूड़ा फेंकने के लिए भी इस्तेमाल कर लेते थे। लेकिन खासतौर से उन बर्तनों का इस्तेमाल कैदियों को दाल या सब्जी परोसने के लिए किया जाता था। यह सारी बदइंतजामी प्रशासनिक लापरवाही के कारण थी। कैदी लंगर (कैंटीन) से तैयार भोजन उठाकर इन्हीं बर्तनों में विभिन्न बैरकों, कोठरियों तथा वार्डों में पहुंचाते थे। सत्तर के दशक में खरीदे गए इन पुराने बर्तनों की हालत का आप अंदाज लगा सकते हैं। एक दिन अपने अफसरों की बैठक में मैंने स्टोर के सुपरिंटेंडेंट (अधीक्षक) से पूछा-

    ‘हम खाना बनाने के लिए इतने पुराने बर्तनों को क्यों इस्तेमाल कर रहे हैं? आप इनकी जगह स्टील के नए बर्तन क्यों नहीं खरीद लेते?’

    ‘मैडम स्टील के बर्तन आसानी से टूट जाते हैं। उनकी कोई पुनर्बिक्री कीमत भी नहीं है।’

    ‘तो क्या हुआ?’ मैंने पूछा।

    ‘मैडम स्टेनलेस स्टील के बर्तन हासिल करना बड़ा कठिन है।’

    ‘लेकिन हम उन्हें सेल (भारतीय इस्पात प्राधिकरण) से खरीद सकते हैं।’

    ‘उसके लिए हमें ऑर्डर देना पड़ेगा।’

    ‘तो कौन रोकता है हमें?’

    ‘मैडम उन्हें खरीदने में काफी लंबा समय लगेगा।’

    ‘कितना समय लगेगा?’

    ‘तीन-चार महीने।’

    ‘तो क्या हुआ?’

    ‘नहीं मैडम। दरअसल बात यह है कि लोहे के ये बर्तन काफी मजबूत और टिकाऊ हैं। हमने इन्हें 15-20 साल पहले खरीदा था और ये आज तक चल रहे हैं।’

    मैं खुद पर ज्यादा देर तक काबू नहीं रख सकी। मैं उस पर बरस पड़ी, ‘क्या तुम इन टिकाऊ बर्तनों में अपने परिवार के लोगों को खाना दे सकते हो। अगर हां, तो फिर इन्हें जारी रखो और अगर नहीं तो हमें अपनी इस कारगुजारी पर शर्म आनी चाहिए।’ अफसर के पास कोई जवाब नहीं था। वह खामोश होकर बैठ गया।

    कैदी इन्हीं बर्तनों के दस्ते में बांस डालकर खाना ढोते थे। लंगर से बैरकों की दूरी लगभग 200 मीटर थी। कई बार तो इन बर्तनों को उठाते समय खाना वहीं फर्श पर बिखर जाता था। कभी-कभार खाने को कैदियों के गंदे तौलिए से ढंककर ले जाया जाता था। ये गंदे अंगोछे-तौलिए कई बार दाल या सब्जी में डूबकर भीग जाया करते थे। खाना कैदियों तक पहुंचते-पहुंचते ठंडा हो जाता था। पश्चिमी जेलों की तरह तिहाड़ में कोई भोजन कक्ष नहीं था और न ही आस्ट्रिया और विएना की जेलों की तरह गर्म भोजन परोसने वाली ट्रालियां थीं। कई कैदियों को थाली, गिलास या अन्य बर्तन भी मुहैया नहीं कराए गए थे जिसकी वजह से उन्हें मजबूरन दूसरे कैदियों के साथ मिलकर खाना पड़ता था। इसके अलावा समय-सारणी बहुत बेतरतीब थी। नतीजतन कई कैदी खाना लेकर रख लेते थे। कभी वे उसे खाते और कभी फेंक देते थे।

    कई होशियार कैदियों ने खाना गर्म करने के अनेक उपाय कर रखे थे। उदाहरण के तौर पर कुछ ने चोरी से हीटर मंगाकर रख लिए थे। हीटर न होने की हालत में वे कागज या प्लास्टिक जलाकर खाना गर्म करते थे और कुछ भी न मिलने पर सूखी रोटियां जलाकर भोजन गर्म कर लेते थे। इस प्रक्रिया के तहत उठने वाले दमघोटू धुएं को आसानी से देखा जा सकता था। जहां तक खाने की गुणवत्ता का सवाल था, उसके बारे में सोचना ही फिजूल था। मसालों के बगैर बना खाना मरीजों के खाने की तरह बेस्वाद होता था। ज्यादातर कैदी इच्छा न होने के बावजूद उसे लेकर रख लेते थे। कुछ कैदी मुलाकात के दौरान घर से आए हुए खाने को आपस में बांटकर खा लेते थे। जेल में बना खाना कई बार तो खाने लायक ही नहीं होता था और कैदी उसे सीवर में फेंक देते थे। नतीजतन सीवर बंद हो जाते थे।

    बेस्वाद होने के अलावा खाना शुद्ध भी नहीं होता था। सफाई का तो कहीं नामोनिशान तक नहीं था। रसोइये के हाथ गंदे और नाखून काफी बड़े-बड़े होते थे। चूंकि जेल में नेल कटर (नख कटनी) ले जाने की इजाजत नहीं है इसलिए कुछ कैदी जेल के नाई से ब्लेड मांगकर अपने नाखून काटते थे। कई कैदियों ने तो दाढ़ी-बाल-नाखून इत्यादि काटना ही छोड़ दिया था। ज्यादातर कैदियों के नाखून बढ़े हुए तथा बाल बिखरे हुए होते थे। उनके कपड़ों से अजीब दुर्गन्ध आती थी। खाना बनाने के बर्तनों पर कलई की हुई होती थी और जब करछी-चमचा वगैरह इस्तेमाल किया जाता था तो उनकी कलई छूटकर खाने में मिल जाती थी। पानी की तंगी के कारण सब्जियों और दालों को पकाने से पहले अच्छी तरह साफ भी नहीं किया जाता था। कई बार दाल और सब्जियों में पड़ी मक्खियों और कॉक्रोच मैंने अपनी आंख से देखे। खाने की जिंसों का स्तर बहुत घटिया होता था क्योंकि वे किसी मशहूर दुकान से नहीं खरीदी जाती थीं। न जाने किन कारणों से ये जिंस सरकार द्वारा निर्धारित दुकानों से नहीं खरीदी जाती थीं।

    किसी ने भी कभी खाने-पीने की चीजों में किसी बदलाव की बात नहीं सोची। उदासीनता इसका प्रमुख कारण थी, इसीलिए जो भी चीज सस्ती और आसानी से मिल जाती थी वही पका दी जाती थी। जेल में खाने-पीने के सामान का निरीक्षण करने के लिए कोई मेस कमेटी भी नहीं थी। हकीकत तो यह है कि जो भी जिंस स्टोर में आती थी वह पकाने के लिए लंगर में भेज दी जाती थी। खाना पूर्णतया शाकाहारी होता था लेकिन दाल या सब्जी में तैरते कीड़े-मकोड़ों या मक्खियों को देखकर उसके मांसाहारी होने का बोध किया जा सकता था।

    खाना सजायाफ्ता कैदी बनाते थे। गंदे कपड़े पहने ये कैदी-खानसामे लंबे-लंबे नाखूनों वाले गंदे हाथों से खाना बनाते थे जिसके कारण कई तरह के कीटाणु भोजन में मिलकर उसे विषाक्त बना देते थे। पानी के साथ-साथ साबुन-तौलिए की सप्लाई भी कम थी। रसोइयों की साफ-सफाई के लिए कोई नियम नहीं थे और न ही उन्हें साफ-सुथरा रहने के लिए कोई कहने वाला था। उनकी कभी मेडिकल जांच भी नहीं होती थी। उनमें से कइयों को टी.वी. और सांस की गंभीर बीमारियां थीं। इन मुलजिमों को सश्रम कठोर कारावास की सजा दी गई थी इसलिए मानवीय संवेदना या करुणा से इनका दूर तक कोई वास्ता नहीं था। खाना बनाने में वे दोहरा मापदंड अपनाते। खुद के लिए ठीक-ठाक और बाकी कैदियों के लिए वे गया-गुजरा खाना बनाते थे।

    रोटियां बनाने का नजारा भी अजीबो-गरीब था। रोटियों को सेंककर उन्हें फर्श पर फेंक दिया जाता था और लंगर के कैदी जूते पहनकर या नंगे पांव उन्हीं रोटियों को रौंदते हुए चले जाते। लंगर और शौचालय एक ही बैरक में होने के कारण ऐसा अक्सर होता था।

    चोरी की वारदातें आम थीं। जो लोग लंगर के इंचार्ज होते थे, वे खाने या कच्ची सब्जियों के पैकेट चुराकर घर ले जाते थे। कीमत दे सकने वाले कैदियों को वे ये सामान बेच भी देते थे। धींगामुश्ती की भी बड़ी अहम भूमिका थी और खूंखार कैदी इसका पूरा लुत्फ़ उठाते थे।

    दूध की भी कमोबेश यही हालत थी। दूध में दूध और पानी की मात्रा बराबर-बराबर होती थी। कैदियों को देने से पहले उसे उबाला भी नहीं जाता था। दूध की भी चोरी होती और उसे भी बेच दिया जाता था। चाय आमतौर पर काली होती थी। इसे एक कैदी द्वारा पृष्ठ 29 पर बनाए गए चित्र में देखा जा सकता है।

    इस मामले में गंभीर रूप से बीमार कैदियों को भी नहीं बख्शा जाता था। यह जानते हुए भी कि अमुक व्यक्ति बीमार है और उसे अधिक शुद्ध दूध चाहिए, उसे भी पानी मिला हुआ दूध ही दिया जाता था।

    बैरकों की हालत का जायजा लेने के बाद यही कहा जा सकता था कि उनकी दशा बड़ी अमानवीय थी। ज्यादातर तंदूरों और गैस भट्ठियों से गर्मी के जो भभके उठते थे उनसे गर्मियों में हालत और भी दयनीय हो जाती थी। बैरकों में रोशनदानों की हालत भी ठीक नहीं थी। एक्जास्ट फैन खुद ही ‘एक्जास्ट’ हो चुके थे इसलिए बमुश्किल से चल पाते थे। बाबा आदम के जमाने के छत के पंखे अपनी चमक खो चुके थे। ‘तले जाने’ के असली मायने क्या होते हैं यह कैदियों को ही मालूम था। दीवार, छत, फर्श सब गर्म थे। इससे भी गर्म मिजाज थे जेल के ‘स्टाफ’ और कैदी मुंशी। इससे भी बुरी हालत जेल में नए आने वाले सजा पाए कैदियों की थी। सश्रम और कठोर कारावास की सजा प्राप्त इन कैदियों से सचमुच खाना बनाने जैसा कठोर काम लिया जाता था।

    जेल के अंदर पानी सबसे कीमती था। जैसा-तैसा खाना तो किसी प्रकार मिल भी जाता, पानी की कोई गारंटी नहीं थी। गर्मियों में कैदियों के लिए जरूरत लायक पानी प्राप्त कर लेना भी बड़ा सिरदर्द था। कृपया पृष्ठ 31 पर चित्र देखें। सबसे कठिन सवाल तो यह था कि क्या उन्हें पीने भर को भी पूरा पानी मिल पाता है। नहाने और कपड़े धोने की तो बात ही छोड़िए। फ़्लश वाली संडास न होने के कारण नालियों को साफ करने के लिए ही काफी पानी की दरकार थी। बैरकों में पानी का जरिया उनमें लगे हुए बर्मे (हैंडपंप) थे। यह दीगर बात है कि नल से पानी निकालने के लिए पहले उसे 50-60 बार चलाना पड़ता था। इसका कारण शायद जमीन के नीचे जलस्तर का घट जाना था। हैंडपंप के मुहाने पर पीली स्याही से चेतावनी लिखी होती थी : ‘यह पानी पीने योग्य नहीं है’ फिर भी कई अनपढ़ कैदी उसे पीते नजर आए।

    बैरकों के अंदर या बाहर कैदियों के धूम्रपान के कारण जेल में धुएं का साम्राज्य था। कैदियों की कैंटीन नकली बीड़ी बेचने के कारण काफी मुनाफे में चल रही थी। लगभग 800 बंडल बीड़ियों की प्रतिदिन खपत थी। एक बंडल में 24 बीड़ियां होती हैं। इस प्रकार वह संख्या बनी 19200 बीड़ी प्रतिदिन। जेल नं. दो, तीन और चार में कुल मिलाकर लगभग 2600 बंडल बीड़ी की खपत थी। जेल नं. एक में सिगरेटों की बिक्री सबसे ज्यादा थी। ‘गोल्ड फ्लेक’ के लगभग तीन सौ पैकेट उसमें बिक जाते थे। बीड़ियों में 502 और ढोलक छाप तथा सिगरेटों में ‘गोल्ड फ्लेक’ और ‘फोर स्क्वायर’ की बिक्री सबसे ज्यादा थी। इसके अलावा बैरकों से जुड़े शौचालय-मूत्रालय की दुर्गंध भी जेल की हवा में घुलती रहती थी।

    तालाबंदी के दौरान (शाम छह से सुबह छह बजे) कैदियों के पास अन्य कोई विकल्प न होने के कारण वे बैरकों में ही टट्टी-पेशाब कर लेते थे। किसी बाहरी व्यक्ति को बैरकों से आने वाली अजीब बदबू का अंदाज नहीं लग पाता था। सुबह दरवाजा खुलने के बाद खुली हवा में बाहर निकलकर सांस लेने के लिए भगदड़ मच जाती थी। बैरकों के बाहर बने शौचालय भी पानी की कमी होने के कारण जाम होते थे और अपनी क्षमता से चार गुना अधिक कैदियों के लिए वे नाकाफी थे। स्मरण रहे कि ये सार्वजनिक शौचालय मात्र 2273 कैदियों के लिए ही बनाए गए थे।

    पानी की सप्लाई का समूचा ढांचा लापरवाही और उदासीनता का बुरी तरह शिकार हो चुका था। पानी के भूमिगत पाइप प्रदूषित हो चुके थे। पेड़ों की जड़ें पानी के टूटे हुए पाइपों में घुस गई थीं। ऐसी हालत में बैरकों तथा शौचालयों तक पानी आसानी से नहीं पहुंच पाता था। नगर निगम निश्चित समय पर पानी की आपूर्ति जेल से बाहरी इलाकों में करता था। बैरकों के भीतर और बाहर रखी पुरानी टूटी हुई टंकियों से रिसकर बेकार जाता पानी देखकर सचमुच कष्ट होता था। ताला बंदी (लॉक-इन टाइम) से पहले कैदी अपनी बैरकों में खोदे गड्ढ़ों और प्लास्टिक की थैलियों में पानी भर लेते थे। जेल नियमावली में सूर्यास्त से पहले ताला बंद करने की सख्त हिदायत है। दुर्भाग्यवश सरकारी पानी की सप्लाई सूर्यास्त के बाद शुरू होती

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