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अपनों के इर्द-गिर्द* (डॉ۔ कुंतल गोयल की कहानियाँ) Hardbound ISBN
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Ebook705 pages7 hours

अपनों के इर्द-गिर्द* (डॉ۔ कुंतल गोयल की कहानियाँ) Hardbound ISBN

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About this ebook

यह पुस्तक डॉ कुंतल गोयल की तीन कहानी संग्रहों का पुनर्प्रकाशन है, जिसमें उन्होंने 60-70 के दशक में पारिवारिक और सामाजिक विषयों पर कहानियाँ लिखीं हैं। इन कहानियों में नारी विमर्श और सामाजिक चेतना मुख्य केंद्र बिंदु रहे हैं. यह कहानी संग्रह वर्तमान की पारिवारिक- सामाजि

Languageहिन्दी
Release dateApr 28, 2024
ISBN9789362614889
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    अपनों के इर्द-गिर्द* (डॉ۔ कुंतल गोयल की कहानियाँ) Hardbound ISBN - Sampa. Mukul Ranjan Goyal

    BLUEROSE PUBLISHERS

    India | U.K.

    Copyright © Mukul Ranjan Goyal 2024

    All rights reserved by author. No part of this publication may be reproduced, stored in a retrieval system or transmitted in any form or by any means, electronic, mechanical, photocopying, recording or otherwise, without the prior permission of the author. Although every precaution has been taken to verify the accuracy of the information contained herein, the publisher assumes no responsibility for any errors or omissions. No liability is assumed for damages that may result from the use of information contained within.

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    BLUEROSE PUBLISHERS

    www.BlueRoseONE.com

    info@bluerosepublishers.com

    +91 8882 898 898

    +4407342408967

    ISBN: 978-93-5819-248-3

    Cover Design: Muskan Sachdeva

    Typesetting: Rohit

    First Edition: February 2024

    अनुक्रमणिका

    फूलों की गंध

    दो किनारे

    छीजते हुए क्षण

    जागी आँखों का सपना

    दायरा

    आवरण

    और इसके बाद

    मुक्ति

    आरम्भहीन अन्त

    फैसला

    एक गांठ उलझी हुई

    सन्नाटा

    जख्म

    दीवार के आर-पार

    एक अधूरी कहानी

    फूलों की गन्ध और उदास मन

    ठहरे हुए अंधेरे

    अँधेरे का कफन

    हँसी की परतें

    भीड़ में घिरी केली

    पिघलता दर्प

    यथार्थ-बोध

    एक कटी हुई जिन्दगी

    दो दुखों के बीच का सुख

    कटी हुई रेखाएँ

    आँचल-भर आकाश

    अंजुरी-भर अंधेरा

    घायल मन का दर्द

    उभरता विद्रोह

    ठहरे हुए अंधेरे

    अनगिनत मोड़ों पर

    सांसो का ऋण

    आत्मा का दंश

    दहशत की परछाइयां

    यातना का सुख

    तुम कितनी अच्छी हो

    सुलगता गुलमोहर

    जंगल बुलाता है

    कल फिर आयेगा

    मैं जल रही हूं

    सब कुछ अनचाहा

    बदनाम गल्तियों का दर्द

    शंख, सीपी और समुंदर

    किरण, गंध और बारिश

    रेत पर की मछलियां

    सूखी आंखों का इन्द्रधनुष

    माँ के लिये

    जिन्होंने कहानियां लिखीं

    कहानियों से गुफ्तगू की

    कहानियों सा जीवन जिया

    और

    कहानी बन चली गईं

    छोड़ गईं पीछे

    कहानियों की सज़ल ऊष्मा

    अपनों के इर्द-गिर्द

    (भूमिका लेखिका डॉ मृदुला सिंह, आवरण महेश वर्मा और प्रकाशन में सहयोगी मिथिलेश पाठक धूमकेतु का आभार)

    भूमिका

    आज जब अपने सरगुजा अंचल की महत्वपूर्ण साहित्यकार कुंतल गोयल की कहानियों की रचनावली की भूमिका लिख रही हूँ तो उनके लेखन और स्त्री लेखन के इतिहास पर नजर डालती हूँ। पाती हूँ कि बीसवीं सदी में गद्य लेखन में स्त्री रचनाकारों की उपस्थिति कम रही पर सशक्त रही है। यह अवसर उन्नीसवीं सदी के आरंभ में आया जब पहली बार हिंदी में 'दुलाईवाली' (1907) कहानी दर्ज हुई। यह कहानी राजेन्द्रबाला घोष ने ‘बंग महिला’ के नाम से लिखी और उनका बाकी लेखन भी इसी नाम से रहा पर वे अकेली नहीं थीं। उनके समय जानकी देवी, ठकुरानी शिवमोहिनी, गौरादेवी, सुशीला देवी और धनवती देवी भी उल्लेखनीय कथाकार के रूप में हिंदी कहानियों में दर्ज हुई हैं। यह हिंदी में महिला रचनाकारों का आरंभ था।

    इसके बाद के छायावादी दौर में जब महादेवी वर्मा की कविताएं और गद्य प्रकाशित हो रहे थे, स्त्री कहानी लेखन भी अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। इस समय सुभद्रा कुमारी चौहान का कहानी संग्रह 'बिखरे मोती' 1932 में आया। चंद्रकिरण सोनरक्सा की 'घीसू चमार' 1933 (भारत मित्र), उषा देवी मित्र 'मातृत्व' 1932 (हंस), शिवरानी देवी की 'साहस' (चाँद), कमला चौधरी की 'उन्माद' 1934, होमवती देवी की 'निसर्ग' 1939, सत्यवती मलिक की 'दो फूल' और अन्य कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। इस समय हिंदी कहानी में स्त्री लेखन की विकास यात्रा धीमी किंतु अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कर रही थी।

    स्वतंत्रता के बाद कहानी लेखन में कई आंदोलनों का सूत्रपात हुआ पर आंदोलनों की अपनी सीमाएं होती हैं। कोई भी कहानी आंदोलन लंबे समय तक नहीं चला। नई कहानी के बाद उसकी दुर्बलताएँ और उसकी उपलब्धियाँ स्पष्ट थीं। यौन प्रसंगों के प्रति आवश्यक मोह, क्षणवादी भोगवादी दृष्टि, शिल्पगत चमत्कारी प्रवृति आदि नें नई कहानी का अवमूल्यन किया। फिर नयेपन की मांग आई जिसके फलस्वरुप अकहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी, समांतर कहानी, सक्रिय कहानी तथा जनवादी कहानी आंदोलन चर्चा में रहा।

    सातवें दशक की हिंदी कहानी बदली हुई मानसिकता की कहानी है। युवा कहानीकारों की दृष्टि, लेखन में यथार्थवादी रूप दे रही थी। समांतर कहानी आंदोलन की शुरुआत 1971-72 में हुई। इसी समय 1974 से सरिता के विशेषांकों का दौर प्रारम्भ हुआ और समांतर कहानी का विकास होता गया। स्त्री लेखन की गतिशीलता में निरुपमा सोबती, मृदुला गर्ग, मन्नू भंडारी जैसे नामों के साथ कुंतल गोयल का नाम भी हिंदी कहानी में उभरा। उनकी समकालीन मेहरुन्निशा परवेज और शांति यदु (छत्तीसगढ़) से आत्मीय संबंध रहे हैं।

    कुंतल गोयल की रचनात्मक उपलब्धि इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि उन्होंने यह रचनाकर्म छत्तीसगढ़ के वन्य क्षेत्र सरगुजा में रहते किया।

    कुंतल गोयल का जन्म बैकुंठपुर (छत्तीसगढ़) 31 दिसंबर 1935 में साहित्यकार श्री बाबूलाल एवं श्रीमती विमला देवी के घर हुआ था। प्रसिद्ध साहित्यकार कांतिकुमार जैन कुंतल गोयल के भाई थे। ऐसे सुदृढ साहित्यिक संस्कारों में पली कुंतल गोयल की अकादमिक उपलब्धियां भी बड़ी रही हैं। वे सरगुजा क्षेत्र की पहली महिला पीएचडी रही हैं।

    कुंतल गोयल की साहित्य यात्रा कविता और गीतों से शुरू हुई थी। उनका पहला प्रकाशित काव्य संग्रह 'हमारा घर' 1970 में आया। इसके बाद इन्होंने कहानियां लिखीं जो कल्पना, ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, गल्प भारती, कहानीकार, मंगलदीप, अम्बिका आदि महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उनकी कहानियां उनके कहानी संग्रहों - 'फूलों की गंध' (1968), 'ठहरे हुए अंधेरे' (1976) और 'अनगिनत मोड़ों पर' (1996) में संकलित हैं। कुंतल गोयल ने अपनी इन कहानियों के माध्यम से मध्यमवर्गीय जीवन की चुनौतियों को उसके अपने मनोविज्ञान के साथ रेखांकित किया है। उन्होंने लिखा है ,मेरी कहानियों में किसी एक की छटपटाहट नहीं वरन उस पूरे समाज की छटपटाहट है जहाँ अपने संस्कारों, सभ्यता और मूल मान्यताओं को ढोने के लिए मनुष्य को लाचार होना पड़ता है और जहाँ पारस्परिक टकराहट में मनुष्य की संवेदनशीलता आहत होती है। संबंधों की आधारभूमि स्नेह और आत्मीयता के होते हुए भी जीवन में परिवर्तित सामाजिक मूल्यों का कितना आक्रामक प्रभाव पड़ता है, यह कुंतल गोयल की इन मध्यमवर्गीय जीवन की कहानियों के चरित्रों में सहज ही देखा जा सकता है।

    किसी भी रचना में रचनाकार के परिवेश की संवेदना सृजित होती है किंतु वह महत्वपूर्ण, सार्थक और उसकी व्यापकता इस बात पर निर्भर होती है कि उसकी वस्तुगत यथार्थ के प्रति की गई मानसिक प्रतिक्रिया कितनी सटीक है या प्रतिक्रिया के माध्यम से वह किस मूल्य-बोध को विकसित करना चाहता है या रचना में व्यक्त मूल्य-बोध बाहरी संसार कहाँ तक गूंथे हुए हैं। इन सभी स्थितियों में रचनाकार की रचनात्मक जागरूकता की पहचान भी होती है जो रचना और रचनाकार दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। यह तथ्य अपने समकालीन स्त्री कथाकारों के बीच डॉ. कुंतल गोयल को महत्वपूर्ण इस बात में बनाता है कि वे कहानी की विषयगत नवीनता, दृष्टिकोण का साहस और विसंगतियों की पड़ताल करती हैं। उनके प्रथम कहानी संग्रह 'फ़ूलों की गंध' में तत्कालीन मध्यमवर्गीय सामाजिक परिवेश का यथार्थवादी चित्रण 'छीजते हुए क्षण', 'फैसला', 'एक अधूरी कहानी' आदि में देख सकते हैं। उनके दूसरे संग्रह 'ठहरे हुए अंधेरे' की कहानियां 'अंधेरे का कफन', 'हंसी की परतें', कटे पंख', 'भीड़ मे घिरी अकेली', 'उभरता विद्रोह' की पृष्ठभूमि पारिवारिक होते हुए यथार्थ की जमीन निर्मित करती हैं।

    कुंतल गोयल के तीसरे कहानी संग्रह 'अनगिनत मोड़ों पर' की कहानियों में मध्यमवर्गीय समाज का यथार्थ चित्रण तो है ही, साथ ही वे उत्तरी छत्तीसगढ़ के आदिवासी स्त्री मन का कैनवास भी खींचती है। इस लिहाज से इस संग्रह की कहानी 'जंगल बुलाता है' को ही लें तो पूरे संग्रह की लेखकीय दृष्टि आसानी से समझ आती है। कुंतल गोयल की कहानियां केवल मध्यवर्गीय समाज की मानसिक पहलुओं को ही नहीं उघाड़तीं बल्कि यह कहानियां समय के साथ समाज में होने वाले परिवर्तनों को भी बखूबी चित्रित करती हैं। इनकी कहानियों के केंद्र में आम आदमी, स्त्री, वृद्ध और आदिवासी स्त्री अपनी निर्भीकता के साथ प्रस्तुत हुए हैं। यह विशेषताएं कथा के अंत तक पहुंचते-पहुंचते कहानी को नया मोड़ देती हैं और कहानी का फलक बड़ा हो जाता है। इनकी कहानियों में स्त्री-पुरुष के आपसी रिश्तों का द्वंद है, उस द्वंद में टकराहट भी है और उससे निकलने का रास्ता भी। कुंतल गोयल लिखती हैं ,जिस कहानी से हमारी संवेदना जुड़ती है अथवा जिस कहानी में मानव मन की संवेदना का प्रवाह हो, वह कहानी कभी भी पुरानी नहीं पड़ती और न ही उसका कथाकार ही पुराना कहला सकता।

    कुंतल गोयल ने कविता और कहानियां ही नहीं, अन्य विधाओं में भी खूब लिखा । 'कुछ रेखाएं : कुछ चित्र' (1967) और 'बातों के बोनसाई' (2004) उनके संस्मरणों एवं ललित निबंधों के संग्रह हैं । इसके अलावा कुंतल गोयल ने सरगुजा के आदिवासी साहित्य को संरक्षित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया और उसे अपनी 'छत्तीसगढ़ की लोक कथाएँ' (1985) पुस्तक में दर्ज कर लिया । सरगुजा के लोकगीतों पर केंद्रित उनकी किताब 'काले कंठों के श्वेत गीत' (2012) महत्वपूर्ण उपलब्धि है ।

    लेखन के लिए उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले । लोक साहित्य में 'पं۔ सुंदर लाल शर्मा सम्मान' , म۔प्र۔ लेखक संघ का 'अक्षर आदित्य सम्मान', विदेशी भाषा में प्रकाशन पर 'पेंगुइन सम्मान' तथा ब्रेल लिपि में कहानियों का प्रकाशन । दर्ज करने योग्य उनकी अन्य उपलब्धियां हैं ।

    उनका यह बहुआयामी लेखन सरगुजा क्षेत्र की साहित्यिक यात्रा में मील का पत्थर है।

    पुराना न पड़ने के नए प्रयास में 'अपनों के इर्द-गिर्द' (कुंतल गोयल की कहानियाँ) शीर्षक से डॉ. कुंतल गोयल के पुत्र डॉ.मुकुल गोयल ने इस रचनावली में उनकी ज्यादातर रचनाओं को समेटने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। यह तीन संग्रहों की कुल 45 कहानियों की किताब है। यह एक जगह संकलित होने से पाठकों और अध्येताओं को कुंतल गोयल के साहित्य को पढ़ने और समझने में निश्चित ही सहूलियत होगी। इस रचनावली का हिंदी साहित्य संसार में स्वागत होना चाहिए।

    मृदुला सिंह

    14 अप्रैल 2023

    कहानी : अपनी दृष्टि में

    अपनी कहानियों के विषय में कुछ कहना वैसा ही कठिन है जैसा अपने बारे में कहना। सामने कहानियाँ हों और अच्छी-बुरी की पहिचान कर उनका विश्लेषण करना, आज के युग को मापदण्ड मानकर उस पर अपनी कहानियों को परखना और निर्णय लेना, वह भी निष्पक्ष भाव से और फिर मनःतोष प्राप्त करना तो और भी कठिन है। अपनी चीज अच्छी किसे नहीं लगती? लेकिन तटस्थ होकर केवल दूसरों की दृष्टि से यदि अपनी कहानियों का विश्लेषण करूँ तो हो सकता है कि वे आज की तथाकथित नयी कहानियाँ कहलाने की अधिकारी न हों या नयी होती हुई भी पुरातन मान्यताओं को झेलते हुए आगे आई हों—अपनी ओर से तो मैं कहानी को केवल कहानी ही मानती आई हूँ— न नई, न पुरानी। दृष्टिगत मूल्य बदल सकते हैं, मानवीय परम्परायें ढह सकती हैं। कहानियों में युग परिवर्तन की बात कोई अचम्भे की बात भी नहीं हो सकती पर नये और पुराने के नाम पर कहानियों का वर्गीकरण करना केवल अपने नाम को 'टॉप-मोस्ट' करने का बहाना मात्र है। यह अवश्य है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मानव मूल्य, जीवन दिशा और दृष्टि केन्द्र का आधार बदला है। मनुष्य और उसका जीवन जटिल हो गया है। आदमी का व्यक्तित्व कुंठित और संश्लिस्ट हो गया है और इस नई पृष्ठभूमि—नये आधार को लेकर चलने वाली जिन्दगी को समझने-परखने के लिए हमें पुराने आग्रह, पुराना कथा-शिल्प, पुरानी सौभ्यता और सरलता त्याग कर एक नया माध्यम, एक नई विधि अपनानी होगी और यह नया माध्यम-नई दृष्टि जिसमें कथ्य और शिल्प दोनों में ही नवीनता है, अपने गुण-धर्म वैभिन्नय के कारण पुरानी कहानियों से अपनी अलग प्रवृत्ति व्यक्त करने के लिए नई कहानी अपने स्थान पर बिल्कुल ठीक भी है। पर कहानी को नये और पुराने में बाँटकर केवल नये लेबल के आधार पर कहानी को अच्छी व बुरी, नई व पुरानी कहकर, एक को निहायत दो कौड़ी की मानकर तथा दूसरी को सर्वगुण सम्पन्न कहकर उसकी सम्पन्नता के साथ अपनी जाति-धर्म का झंडा गाड़कर अपने नाम, अपनी कहानी के नारे लगाता न्यायोचित नहीं कहा जा सकता।

    समय की कसौटी पर किसी भी साहित्यिक विधा को कसा जाना ही नये और पुराने का मापदंड नहीं बन जाता और न ऐसा होना उचित ही है। कहानीकार क्या, हर मनुष्य अपनी दृष्टिबोध के कारण नया और पुराना हो सकता है पर आयु के कारण न तो वह नया होता है और न पुराना। नया और पुराना समय सापेक्ष नहीं है वरन् नया तो वह है जो नये परिवेश में नयी सृजनात्मक चेतना से सम्बद्ध होता है। अतएव इस विशेषता को लिए हुए पुराना लेखक भी उतना ही नया हो सकता है जितना आज का। सही तो यह होगा कि नये और पुराने का वर्गीकरण समय या काल विशेष के आधार पर न कर समवेदना, भाषा व कथ्य के आधार पर किया जाना चाहिये। आज साहित्य में नग्नवाद, कुंठा और भोग की जो प्रवृत्ति फैशन के रूप में प्रचार पा रही है—इसकी तह में यही नये और पुराने का ही द्वन्द है। साहित्य शाश्वत होता है, अतः अच्छी कहानियाँ हर युग में अच्छी ही कही जायेंगी और बुरी कहानियाँ हर युग में बुरी। मोपासा, माम, चेखब, रवीन्द्र, शरद, प्रेमचन्द आदि तमाम बड़े साहित्यकारों ने कभी भी अपनी कहानियों को किसी खास फ्रेम में बैठाने की कोशिश नहीं की। वे उस समय भी जितनी नई थीं, उतनी आज भी।

    हिन्दी कहानी के पाठकों ने कहानी को प्रेमचन्द और प्रसाद की शैली में पढ़ा है और यशपाल तथा जैनेन्द्र की शैली को भी उसने स्वीकार किया है। हिन्दी कहानी का इतिहास विकसनशील रहा है। हर दशक अपने साथ कुछ नयापन लाया है। कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मार्कण्डेय आदि एक लम्बी श्रृंखला की कुछ कड़ियाँ मात्र हैं और यह श्रृंखला समाप्त भी नहीं हो गई है। साहित्य की इस विधा में व्यक्ति और समाज के परिवर्तन के साथ नवीनता आयेगी ही तो फिर प्रश्न उठता है कि हम अगले दशक की कहानियों को किस नाम से पुकारेंगे? शायद आज के कहानीकार के वजन पर भविष्य का कहानीकार अपने आप को नवीनतम कहानीकार कहेगा।

    पिछली पीढ़ी के कहानीकारों की कहानियाँ भी नई थीं। नई इस अर्थ में नहीं कि वे एक विशेष समय में लिखी गई थीं बल्कि उन्होंने युग की नई समस्याओं का चिन्तन किया था। प्रथम विश्व के पश्चात् संघर्षरत पीढ़ी की मानसिक पराधीनता और जागरूकता, नैतिक मूल्यों के परिवर्तन, बदलता हुआ सामाजिक परिवेश और टूटता हुआ संयुक्त परिवार, व्यक्ति और देश का सम्बन्ध, गांधीवादी दर्शन की पृष्ठभूमि में भारतीय समाज की बदलती हुई विचारधारा—यह सब भी उन कहानीकारों के लिये उतना ही नया था जितना कि आज की परिस्थितियों को झेलने वाले कहानीकारों के लिये। सही बात तो यह है कि प्रबुद्ध जागरूक पाठकों को अच्छी चीज चाहिए—चाहे वह नई हो या पुरानी, नहीं तो वह उस बढ़िया बहुरंगी कैलेण्डर की भाँति जिसका शिल्प और साज-सज्जा बहुत थी, जो कभी नया था—नये वर्ष के आते ही चुल्हे की लकड़ी जलाने के काम में ले आया जायेगा।

    सन् ६० के बाद की कहानियां नये अर्थ मे इसीलिए स्वीकारी जायेंगी कि उनमें विषयगत वातावरण की सृष्टि हुई। काल्पनिक थोथे आदर्शों को तिलांजलि देकर यथार्थ अपने अधिक प्रखर रूप से उभरा है और पाठकों के सम्मुख जीवन बिना किसी आवरण ओढ़े अपनी अच्छाई व बुराई लिये ज्यों का त्यो सम्मुख आया है। कहानी आज की हो चाहे कल की, उसका सामीक्ष्य मनुष्य है—उसकी सम्पूर्ण प्रवृत्तियाँ हैं—उसका परिवार और उसका समाज है। युग के परिवर्तन के साथ-साथ उसकी समस्याओं में भी परिवर्तन आता है और यही परिवर्तन कहानी को नई कहानी-सचेतन कहानी या अ-कहानी की संज्ञा देने का कारण बन जाता है। इसमें संदेह नहीं कि आज की कहानी मानसिक कुण्ठाओं, निराशाओं और असफलताओं का सक्षम चित्र प्रस्तुत करती हैं। इस दृष्टि से नया कथाकार जीवन को नये सन्दर्भ में रखकर देखता है, उसकी अभिव्यक्ति करता है। जिस कहानी से हमारी संवेदना जुड़ती है अथवा जिस कहानी में मानव मन की संवेदना का प्रवाह हो, वह कहानी कभी भी पुरानी नहीं पड़ सकती, न ही उसका कथाकार ही पुराना कहला सकता है। जीवन मूल्यों या सृजनात्मक क्षमताओं की उपेक्षा करके मनुष्य बहुत अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकता।

    अतः अपनी कहानियों के सम्बन्ध में मैं केवल इतना ही कहना चाहूँगी कि वे केवल कहानियाँ हैं— न नई, न पुरानी। मैं मानव जीवन को कहानी का सत्य रूप मानती हूँ। जीवन, जो क्षण-क्षण हर स्थिति, हर मोड़ पर टूटता है, जुड़ता है और जुड़-जुड़कर पुनः टूटता है, पल-पल में जिये गये मानव मन की स्थितियों को उजागर करना ही कहानी है। मनुष्य जिन स्थितियों को भोगता है, जिन ऊहापोहों में भटककर अपने को नकारता या स्वीकारता है, उसकी सूक्ष्म पकड़ कहानीकार की कहानी का साफल्य कहा जायगा। यह आवश्यक नहीं है कि स्वयं की जियी हुई जिन्दगी ही कहानी का यथार्थ हो, दूसरे के भोगे गये को महसूस करना और मानसिक स्तर पर उस सम्पूर्ण को बौद्धिक क्षमता के साथ व्यक्त करन—जीवन का सत्य रूप व्यक्त करना है। मनुष्य, मनुष्य की जिन्दगी की स्थितियों का अनुभूत सत्य ही मैंने अपनी कहानियों के माध्यम से व्यक्त करने का प्रयास किया है। इनकी सफलता-असफलता का निर्णय तो मैं अपने प्रबुद्ध पाठकों पर छोड़ती हूँ। अपनी ओर से तो बस इतना ही कि किसी गुट विशेष में सम्मिलित न कर इन्हें निष्पक्ष भाव से लिया जाये तो मुझे संतोष होगा।

    फूलों की गंध

    दो किनारे

    हल्की-हल्की बूँदें पड़ने लगी हैं। नीम के फूलों की अजीब-सी गंध बरामदे में तिर आयी है। कुछ-कुछ मोहासक्त होते हुए भी मैं इस परिवेश से बचना चाहती हूँ। बरामदे से हटकर मैं ऊपर अपने कमरे में लौट आती हूँ। सामने खिड़की के बन्द शीशों पर छलकने वाली बूँदों में जाने कुछ डूबा-सा जा रहा है, पल-पल, क्षण-क्षण। और कुछ ही देर में वर्षा की गिरती पिघले बर्फ की लहरें। उधर से आँखें हटा कर मैं तकिए में सिर गड़ा लेती हूँ कि ऊपर से पानी का बहता वेग संभल जाए। वर्षा का यह बहाव, लग रहा है, मुझे बहाये दे रहा है। लाख बचाव करते पर भी मैं बाहर अनावृत्त आकाश के नीचे, नहीं-नहीं, उसी नीम के नीचे खड़ी-खड़ी भीगती जा रही हूँ। ऊपर से फिसलती ये बर्फ की लहरें जैसे भीतर जा कर जमती जा रही हैं और मन अवश हुआ जा रहा है। मन, जिस पर मैं सदैव से अंकुश लगाती आ रही हूँ, अंकुश दायित्वों का, नैतिक मर्यादाओं का अंकुश। कभी एक दिन मिनी ने कहा था—अनु, कितनी वयस्क की तरह तू अपने मन पर जिम्मेदारियों की ये कठोर परत चढ़ाती जा रही है। मुझे सन्देह होने लगता है कि इन कठोर परतों के नीचे तू दब कर तो नहीं रह जाएगी। संभल जा, नहीं तो दबेगी फिर उबर सकना मुश्किल हो जाएगा। सुन कर मन में हँसी आ गयी थी उस दिन। बीस वर्ष ही तो बीते थे जीवन के, फिर भी सभी से यही सुनती थी कि अनु, तू आवश्यकता से अधिक गम्भीर रहती है, पगली है, कौन- सी ऐसी भावनाएं हैं जिन्हें तू चुप-चुप इस तरह सहेजना सीख रही है अभी से।

    विभा भाभी को देख-देख कर ही तो मेरे रेशमी सपनों की रूप-रेखा बनी है। विभा भाभी की याद अभी भी मुझे खूब आती है और उन्हीं यादों की गहराई में अखिल भैया के शब्द बुद-बुदे से उठ कर विलीन हो जाते हैं। कहते हैं, नारी को समझ पाना कठिन है, पर पुरुषों को समझ पाना भी तो कितना जटिल है। कब कौन-सा रङ्ग सामने आएगा, कौन जाने। और चुप-चुप रह कर अखिल के इन्हीं रूपों को समझ पाने का प्रयत्न करते-करते अपने को अधिकाधिक उलझाती जा रही हूँ। कैसी थीं वो विभा भाभी? अपूर्व ! औरों के लिए अनासक्त योगिनी-सी निर्विकार, पर अपने अखिल के लिए भीतर हिलकोरे लेती, प्रेमिल भावनाओं की अथाह राशि। इसी अधखुली खिड़की से मैं देखती हूँ उन्हें। दस बजते हैं। ठीक समय पर विभा भाभी अखिल भैया को छोड़ने गेट तक पीछे-पीछे गयी हैं और विदा देता ऊपर उठा हाथ ऐसे लरज उठता है जैसे हवा का परस पा कर नयी कोंपल हिल उठी हो। चढ़ती धूप की किरणों को सहती वे उस समय तक गेट पर खड़ी होती हैं जब तक अखिल जी उनकी आँखों से ओझल नहीं हो जाते। फिर नीची निगाहें किये धीमे-धीमे वे अपने कमरे में लौट आती हैं। दरवाजा बन्द होने की खटाक ऊपर तक आती है और मुझे यह अहसास होता रहता है कि अब विभा भाभी चुपचाप अपने पलंग पर पड़ जाएँगी और छाती पर खुली पत्रिका में मन को रमाती रहेंगी। शाम आती है और ऊपर की एकान्तता से छुटकारा पाने के लिए मैं नीचे आ जाती हूँ। नीम के पेड़ की सघन छाया में विभा भाभी दरी बिछाये कुछ-कुछ गुनगुनाती नन्हें मोजे बुन रही होती हैं।

    ओहो भाभी, आगत के स्वागत की तैयारी? लाज से सिंदूरी हो उठा भाभी का मुँह मुझे खूब भला दिखाई देता है। भाभी बतलाती हैं कि पहली जजकी माँ अपने घर कराना चाहती हैं पर ये अखिल जी तो मानते नहीं। कहते हैं, मैं तुम्हारी चिंता में परेशान रहूँगा और भाभी के मन की गुदगुदी उनके चेहरे पर झलक आती है। साइकिल की घंटी टनटनाती है और भाभी हाथ की सलाइया नीचे रख भागी जाती हैं। जैसे, जाने कब से, वे अखिल जी की प्रतीक्षा में आकुल-व्याकुल हों। शायद, अखिल भैया आ गये हैं और हाथ में फाइलें समेटे भाभी को मैं अधखिली कली से भी मोहक पाती हूँ। अखिल भैया कुछ कह रहे होते हैं और भाभी की घंटियों-सी मीठी हँसी आस-पास छितरा जाती हैं। मैं तृप्त हो उठती हूँ। लगता है, जैसे कहीं कुछ पा लिया है मैंने, कुछ अप्राप्य सा।

    अपने को छिपाती हुई नीम की ओट ले मैं एक ओर फैले उस लम्बे-चौड़े बाग की ओर चल देती हूँ। खूबसूरत-सी हरियाली, झूले पर झूलते बच्चे और नर्म-नर्म घास की कालीन पर बैठे ठिठोली करते युवक-युवतियों का समूह। मैं चक्कर लगाती हूँ किनारे-किनारे। सब ओर से नजरें हटा कर मैं कॉलेज की उस निशा के बारे में सोचती हूँ जो प्रशिक्षण लेने के लिए नयी-नयी ही आयी थी। एक दिन अनजाने ही वह मेरे सामने खुल पड़ी थी। मैंने यों ही पूछ लिया था—आने वाली छुट्टियों में तो तुम अपने पति के पास ही लौट जाओगी न !

    लगता है, उसे चोट पहुँची, जैसे उसका घाव कुरेद दिया गया हो, और वह तड़प कर बोली थी—मिस्टर मेहता ! अनु जी, पुरुषों से अभी आपका वास्ता नहीं पड़ा है इसीलिए कुछ सुन्दर ही सोचती हैं आप। लेकिन फिर भी बहुत भाग्यवान समझती हूँ आपको ! यह सब कहते-कहते मुँह बिगाड़ लिया उसने। मेहता के बहुत ऊँचे-ऊँचे सपने हैं और मैं उन्हें छू भी नहीं पाती हूँ। उस लायक नहीं हूँ, ऐसा तो नहीं कहती पर उनके सपनों के सामने अपने को छोटा, बहुत छोटा अनुभव करने लगती हूँ। वे अपने ही कॉलेज के किसी लड़की पर जान दिये हुए हैं। वह बहुत बड़े घर की है इसीलिए उसकी ऊँचाई तक पहुँचने के लिए उसके साथ वे शराब के नशे में डूबे पड़े रहते हैं। अब तो अलग रहते साल से भी अधिक हुआ है। मुझे अपनी चिंता नहीं अनु जी, पर लड़की को पिता का प्यार भी तो चाहिए न? वह अक्सर पड़ोस की पिंकी के पिता को देखकर अपने पिता की बात मुझसे पूछती है— माँ! मेरे पिताजी मेरे पास क्यों नहीं आते? तुम उनके पास क्यों नहीं चलती माँ? और मैं उसकी किसी बात का भी उत्तर नहीं दे पाती।

    मैंने चाहा कि बातों का रुख मोड़ दूँ और निशा के मन का दर्द हल्का हो जाये पर निशा कुछ और ही कह रही थी— कितना निष्ठुर होता है आदमी? निरा जानवर! मेरे मुँह से काँपती-सी हल्की चीख निकलती रह जाती है। निशा की पीठ पर पड़े बेंतों के गहरे निशान। निशा कहती है—अनु जी, बहुत सहा है मैंने। बस इसीलिए कि मुझे उस लड़की का घर आना पसन्द नहीं था। शराब के नशे में खोते हुए मैं अपनी इन आँखों से उन्हें देख नहीं सकती थी। उस समय मन का सारा संचित बल चुक-सा जाता था और मैं अवश हो उठती थी। अपनी बेटी को आँचल से छिपाये कहीं दूर भाग जाना चाहती थी ताकि उस पर अपने पिता के ये संस्कार हावी न होने पाएँ। वह भी अपनी आंखों से मेरी तरह सब न देखे। लड़की मेरी माँ के पास है और मैं यहाँ हूँ, मेहता कहीं और हैं। सब विच्छिन्न, अलग-अलग बिखरे हुए। निशा के इसी दर्द को सहारा देने के लिए मैं उसके बहुत नजदीक आ गयी हूँ। तभी से लगता है कि दो किनारों पर खड़ी मैं बीच में बहती जीवन-धारा को समझने का प्रयास करती रही हूँ।

    मकान बदल लिया है। अब विभा भाभी से मिलना नहीं होता। कॉलेज जाते हुए नीम का वह पेड़ देखती हूँ तो आँखों में अखिल जी को विदा देकर शिथिल-सी विभा भाभी दिखाई दे जाती हैं। खटाक् ! दरवाजे का बन्द होना सुनाई पड़ता है और बहुत समय बीत गया है। कभी ऐसा समय ही नहीं मिल पाता कि प्रत्यक्ष विभा भाभी से मिलना हो। कल लौटते समय बस अड्डे पर अचानक विभा भाभी दिखाई दीं। वे अखिल जी को छोड़ने आयी थीं। भाभी की गोद में चढ़ी पिंकी को प्यार करते अखिल भैया कह रहे थे—तुम घबराना नहीं विभि! जैसे ही घर मिलेगा, मैं तुम्हें लेने आ जाऊँगा। कितना स्नेहिल हो आया था उनका स्वर—तुम्हारे पास तो यह पिंकी बेटी है मन बहलाने को, पर मेरे पास? वे मुस्करा कर रह गये थे। तुम यहाँ की भी बिल्कुल चिंता मत करना। मौसी तो हैं ही, सब सँभाल लेंगी। कितना समझा रहे हैं अखिल भैया। और भाभी की आँखें डबडबा आती हैं—देखिए, आने में बहुत देर मत लगाइएगा। मोटर जा चुकी है और भाभी का उठा हाथ बेसहारा नीचे गिर जाता है।

    मैं भाभी के साथ घर लौटती हूँ। पानी झिरने लगा और उसी नीम के नीचे आत्म विस्मृत-सी भाभी खड़ी भीगती रहती हैं। पानी अधिक हो आया है। पिंकी मेरी गोद में है और मैं बरामदे से चिल्लाती हूँ—पागल हुई हैं भाभी, पानी गिर रहा है और आप भीगती वहीं खड़ी हैं। लगभग गीली साड़ी में धीरे-धीरे चल कर विभा भाभी पास आ खड़ी होती हैं। रो पड़ती हैं, जैसे अधिक पानी के दबाव से बाँध टूट गया हो और भाभी की कोमल भावनाएँ बह रही हों। भावनाओं का वेग सँभाल पाना कितना कठिन हो रहा है, मैं जानती हूँ। भाभी को पांच वर्षों से निकट से देखती आ रही हूँ। दफ्तर जाते हैं अखिल भैया और विभा भाभी सारे दिन अकेले रहने की कल्पना से उदास हो जाती हैं। जब यहाँ आयी थीं तब एक बार बताया था उन्होंने—बड़ी मुश्किलों से मैंने तुम्हारे भैया को पाया है अनु! दोनों साथ पढ़ते थे। माँ-बाप के अत्याचारों को सहने के बाद भी मन का अत्याचार जो उन्हें सहना पड़ा था। दूसरे से सगाई हो गयी तो अखिल को छोड़कर दूसरे को पति रूप में सहारना कितना दारुण होगा, यही सोच कर जहर खाने की कोशिश की थी। पर जीवन के इस त्याग में ही जीवन का प्राप्य उन्हें मिल गया। तब से वे अखिल भैया के ही साथ हैं और एक पल के लिए भी उनसे दूर होकर कहीं खोया-सा लगने लगता है।

    जब से अखिल भैया गये हैं, रोज ही उनका पत्र आता है और पत्र हाथ में लिए हुए भाभी, जाने कितनी घाटियों को पार करती हुई, उसी महादेश में जा पहुँचती हैं जहाँ अखिल जी हैं और वे हैं केवल। मुग्ध, परिपूर्ण होकर वे मगन हैं अपने आप में। अब मैं चली भाभी-मैं कहती हूँ—तुमने तो अभी तक खाना भी नहीं बनाया। पिंकी सो गयी है और मैं इतनी देर से बैठी रही। मोहक-सी हँसी हँस देती हैं भाभी—अनु, तेरे अखिल भैया आ रहे हैं परसों। मकान मिल गया है। जल्दी आने को कह कर दो माह लगा दिए पूरे, देखा! लग रहा है, जैसे दो माह नहीं, जाने कितने माह बीत गये हों, अब हम चले जाएँगे। सच अनु, अकेले तो कुछ खाया-पिया भी नहीं जाता मुझसे। मैं हँस देती हूँ।

    नीम के वृक्ष की उस हरियाली में अब भाभी नहीं दिखाई देतीं। नीम की घनी शाखाओं में बसेरा लिए कितने बगुलों का शोर सुनाई देता रहता है। मैंने कॉलेज जाने की राह बदल दी है। जाने क्यों उस रास्ते होकर जाने पर नीम की छाया तले कुछ बुनती, समय बिताती विभा भाभी की याद मन को भारी कर जाती है। प्रशिक्षण खत्म हो गया है। निशा चली गयी है। जाते वक्त कितना-कितना रोयी थी; पागल है। उसे अधिक नहीं सोचना चाहिए। जो सामने आए उसे सहारना ही तो सार्थकता है। अधिक सोचती हैं स्त्रियाँ इसीलिए तो अधिक दुःख भी वे ही उठाती हैं। निशा ने अपनी लड़की का चित्र दिखलाया, जिसे गोद में लिए वह बादल के उस पार दृष्टि उठाये, बेटी के ग्रह-नक्षत्रों का उद्घाटन ढूँढती हो। कहती थी, अब समर्थ तो हूँ मैं। मैं बेटी को पाल ही लूँगी फिर भी अकेलेपन की शून्यता मुझे भटका न दे। हाँ अनु! यदि कहीं कुछ कर बैठी तो उसकी जिम्मेदारी भी मुझ पर क्यों होगी? बेटी को पिता का प्यार भी चाहिए न! संभल कर कहती है निशा—-कभी जरूर हारती रही हूँ पर अब तो प्रारब्ध को चुनौती दूँगी। मेरे सामने अब मैं रहूँगी और मेरे लक्ष्य। मैं सब सुनकर भी मौन हूँ। कुछ कहती नहीं। रेल चलती है। मैं देखती हूँ निशा की आंखों में कुछ-कुछ तरलता भी है और बर्फ की जड़ता भी।

    बड़ी अकेली-सी हो गयी हूँ। मौसी जब भी मिलती हैं, कहती हैं—अब तो मास्टरानी हो गयी। किसी के आसरे भी नहीं। कमाती-खाती है, पर यह कमाना भी क्या? कहीं शादी-वादी क्यों नहीं कर लेती? हँस देती हूँ मैं—करूंगी, जरूर करूँगी मौसी… कुछ समय तो लगेगा। कोई लड़का-वड़का भी तो मिले। अखिल भैया-से आदमी कितने होंगे, मैं सोचती हूँ।

    तीन वर्ष बीत गये। अब तो विवाह करना ही शेष रह गया है। दुनिया अपनी गति से चलती जा रही है। मैं अपनी नौकरी में रम गयी हूँ। साथ में माँ आयी हैं। अखिल भैया आये थे। माँ ने बताया वे बहुत देर तक मुझसे मिलने के लिए बैठे रहे। अँधेरे में लुकी-छिपी बैठी हूँ। माँ बिजली जलाती हैं, कहती हैं—अनु, तू अँधेरे में बैठी है। अरे बिजली तो जला ली होती। क्या बात है, तू इस तरह बैठी है?

    कुछ नहीं माँ, यूँ ही। माँ कुछ पल रुक कर चली जाती हैं। अखिल मुझसे मिले हैं। अखिल भैया को इस रूप में देखकर धक्का लगा है। उसे झेलने के लिए मुझे ऐसा ही अँधेरा, घोर अँधेरा चाहिए। अखिल रोये थे, निश्चय ही रोये थे। विभा भाभी नहीं रहीं। चौथी जजकी के समय उन्हें बहुत तकलीफ थी। विभा भाभी की एक-एक मुद्रा याद हो जाती है। अखिल भैया भाभी की बातें करते हैं, उस समय उनकी आँखें डबडबा आती हैं। वे अपने को रोक नहीं पाते, कितने ऊँचे सपने लिए थी विभा, अखिल बतलाते हैं, दो बेटे हैं, एक बेटी। दोनों बेटे इंजीनियर बनेंगे और बेटी डॉक्टर। यह होने वाला…? इस बार वे चुप हो जातीं। कहती, बस यह अन्तिम होगा। उसे तुम जो चाहो, बनाना। आँखों के आँसू छलकने-छलकने को होते हैं और अखिल भैया दूसरी ओर मुँह फेर लेते हैं। मैं भी नहीं सह पाती। मैंने भी तो उन्हें जाना था। अब अखिल भैया कॉलेज से प्रायः यहाँ आ जाते हैं। उन्हें बैठे देर होती है और मैं सोचती हूँ विभा भाभी इंतजार में उसी नीम तले खड़ी होंगी। थक रही होंगी। मन नहीं मानता। छोटी-छोटी उम्र के सहमे-सहमे बच्चे दरवाजे पर खड़े आँखों में किसी के आने की प्रतीक्षा लिये हैं। मैं अखिल भैया से आगे बढ़कर उन्हें अपने बाहुओं में समेट लेती हूँ। और चुम्बनों की बौछार से उन्हें तृप्त कर देना चाहती हूँ। मौसी कहती हैं—लाख मना मरती हूँ कि शाम को फाटक के पास जाकर न खड़े हुआ करो, पर ये तो मानते नहीं। बेचारे, बे माँ के बच्चे। बेचारी माँ आँखों में सपने ही भरे-भरे चली गयी। नहीं सुन पाती कुछ। नहीं सुना जाता।

    अखिल भैया अब खुश रहने लगे हैं। भाभी का प्रसंग अब वे नहीं उठाते और इधर-उधर की बहुत अधिक बातें करते हैं। जाने कैसी हूँ मैं भी कि उनके मुँह पर खिलने वाली हँसी में भी उनके भीतर का दर्द पाना चाहती हूँ। वे खुश हैं, इसका संतोष मुझे क्यों नहीं होता? बहुत देर हो गयी है। मैं चाहती हूं वे अधिक समय बाहर न रहा करें, बच्चों को उनके सामीप्य की बहुत अधिक जरूरत है। इसीलिए तो उन्हें मना किया था कि अखिल भैया, अब तुम्हें घर जाना चाहिए। बच्चे आपकी बाट देखते होंगे। सूनी-सूनी-सी निगाहें उन्होंने मेरे चेहरे पर गड़ा दीं—तो तुम नहीं चाहती अनु कि मैं तुम्हारे पास आया करूँ?

    हाय! यह क्या कह रहे हैं अखिल भैया।

    ठीक तो कह रहा हूँ अनु! ऊपर से हँस कर अन्दर के जख्मों को सहलाना चाहता हूँ मैं पर लोग मेरी हँसी को अन्दर का सुख समझ बैठते हैं। तुम भी मेरी भावनाओं को नहीं समझ सकोगी अनु?

    अखिल भैया का वह स्वर अभी भी सीने में गड़ रहा है- तुम्हारे पास आता हूँ, तो कुछ अनु, जी-सा जाता हूँ। नहीं जानता अनु कि ऐसा क्यों लगता है? विभा मिली तो लगता था सबसे ऊपर हूँ मैं। मुझे और कुछ नहीं चाहिए पर विभा को खोकर, आज लग रहा है, मुझे सब कुछ चाहिए। हाँ, अनु, मैं रह नहीं पा रहा हूँ। कभी सोचता हूँ जीवन को सुलझा कर देखना चाहिए, नहीं तो मन उलझता है और आदमी बेसहारा होकर भटक जाता है। जीवन में गति न हो तो आदमी जी कैसे पाए? अपने लिए जाने क्यों तुम्हारी कामना करने लगा हूँ। विभा से तुम्हें बहुत प्यार था न! तुमने भी तो अभी तक विवाह नहीं किया है! क्यों, तुम कुछ भी नहीं कहोगी?

    मैं नहीं बोल पाती। क्षण-क्षण गुजरते गये हैं। काफी समय के छाये उस मौन को तोड़ने की असफल चेष्टा करती हुई मैं सोफे पर धँसी-धँसी बैठी हूँ। अखिल भैया कहते हैं—तो लौट जाऊँ अनु ? तुम कुछ भी नहीं कहोगी? मैं कुछ नहीं कहती, जैसे मेरे बोलने की सारी शक्ति जाती रही है। गेट खुलने की आवाज सुनती हूँ। रिमझिम आती बूँदों को झेलती मैं सहन तक आती हूँ। पानी की ये बूँदें घनी होती जा रही हैं, वर्षा की लहरें शीशे से बहती हुई नीचे को उतरती हैं और मुझे लग रहा है मैं नीम के नीचे खड़ी भीगती जा रही हूँ, जमती जा रही हूँ। विभा भाभी क्या सच ही पागल हुई थीं जो नीम के नीचे उस दिन भीग रही थीं? अखिल भैया-सा आदमी तो कभी का इन आँखों में बसा है पर मैं क्या समझूँ कि विभा भाभी को गये अभी एक साल ही हो पाया है और अखिल भैया दूसरे की कामना करने लगे; अपने लिए या अपने बच्चों के लिए या सच ही अपनी विभा के लिए। मुझे तो सच ही विभा भाभी से प्यार था। मैं क्या करूँ? एक प्रश्न, हजार प्रश्न… मैं प्रश्नों में उलझती जा रही हूँ। बच्चे प्रतीक्षा में खड़े होंगे और अखिल जी की सूनी आँखों में भी क्या अतीत के सपने नहीं आते होंगे? निशा की याद हो आती है। बच्चों को पिता भी चाहिए और माँ भी। तो क्या मैं विभा भाभी के वे सपने पूरे नहीं कर सकती? पर मैं करूँ क्या? बाहर पानी गिर रहा है और भीतर, बहुत भीतर कहीं कुछ बर्फ जैसा जमता जा रहा है। दो किनारों के बीच में अपनी सारी चेतना खोती जा रही हूँ, जड़ होती जा रही हूँ।

    छीजते हुए क्षण

    हरीश ने सौंफ की तशतरी आगे बढ़ायी और डॉक्टर ने झिझकते हुए उठा ली। राशि ने गौर से देखा डॉक्टर ने तशतरी से सौंफ लेकर भी मुट्ठी में बाँध रखी है। हरीश दरवाजे तक डॉक्टर को पहुँचा कर वापस लौट आये थे और रसोई घर में कुछ करने लगे थे। बर्तनों की खनखनाहट को झेलता हुआ राशि का मन डॉक्टर को लेकर ही उलझा जा रहा था। डॉक्टर ने केवल उसका मन रखने के लिए या फिर शिष्टाचार के नाते ही सौंफ उठा ली होगी और कहीं रास्ते में गिरा दी होगी। घर पहुँच कर वह सीधे स्नानघर में जाएंगे। कपड़े बदलेंगे और साबुन से अच्छी तरह हाथ धोएँगे। डॉक्टर को सतर्क तो रहना चाहिये। संक्रामक रोगों से बचने के लिए तो यह सब बहुत जरूरी है। सभी डॉक्टर इसका पालन बड़ी कड़ाई से करते होंगे। राशि ने हल्के-से सोचा-- पर डॉक्टर मेहता के इस व्यवहार को वह इतना तूल क्यों दे रही है? उसका इतना बुरा क्यों मान रही है?

    नहीं, डॉक्टर के वे शब्द उसके बहुत भीतर उठती खाँसी के भी बहुत नीचे जाकर जमते जा रहे हैं। धीमे स्वर से कहे गये डॉक्टर के शब्द—इनके सान्निध्य से आपको बचना चाहिए मिस्टर हरीश! आप जानते हैं कि यह रोग संक्रामक होता है और अधिक अच्छा तो यही होगा

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