Kirdaar Bolte Hain
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About this ebook
कहानी संग्रह 'किरदार बोलते हैं' छोटी-छोटी कहानियों का एक गुलदस्ता है जिसमें सुंदर सुंदर कहानियों के फूलों को सजाकर पिरोया गया है। प्रत्येक कहानी अलग-अलग किरदारों को पाठकों के सामने लाकर प्रस्तुत करती है। पुस्तक की शुरुआती कहानियाँ हल्के-फुल्के अंदाज में लिखी गयी हैं जो धीरे-धीरे संवेदनशील हो जाती हैं। बीच-बीच में कुछ कहानियाँ हास्य का पुट लिये हुए हैं तो कुछ कहानियाँ समाज में फैली गंदगी पर करारा प्रहार हैं। कुछ मानव मन को गहरे से छू जाती हैं तो कुछ हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं।
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Book preview
Kirdaar Bolte Hain - Nishi Prabha Nayyar
चाय पर चर्चा
"जैसे ही मैंने पत्नी से फरमाइश कर दी सातवें कप चाय की
चेहरे से उनके हवा हो गयी सारी रंगत चाह की"
अरे, किताब लिखने से पहले एक काम करती हूँ एक कप चाय पी लेती हूँ, चाय के बिना हमारी तो सुबह ही नहीं होती तो फिर कहानी कहाँ से लिखेंगे भाई, तो लो भाई हमने भी बनायीं एक कड़क चाय और शुरु हो गए। अब चाय की प्याली हाथ में है और सुड़कने के साथ खोपड़ी में खुजली चालू, कहानी तो हम आगे लिखेंगे सोचा पहले चाय पर चर्चा ही हो जाये। चाय वैसे भी हर भारतीय के जीवन का हिस्सा है। सुबह उठते ही सबसे पहले चाय का ही नाम आता है। पति पत्नी को आवाज लगाता है, अरे, सुनती हो, चाय बनी के नहीं बड़े बुज़ुर्ग पोपले मुँह से गरियाते हैं – ‘अरे भई, इन बहू बेटियों की तो आँख ही नहीं खुलती सात बजे तक और कोई एक कप चाय देगा की नहीं ’
‘हाय ये चाय ‘
वैसे तो चाय और चाह एक जैसे ही ‘ साउंड ’ करते हैं। कभी – कभी लगता है दोनों में कुछ तो संबंध है, मसलन चाय भी गुलाबी सर्दी में तरोताज़ा कर जाती है तो चाह भी तो गुलाबी सर्दी की नर्म रजाई में घुसकर चुपके से गर्मी ही तो दे जाती है।
जैसे ‘चाय ‘ अगर थोड़ी – थोड़ी और सुकून से पी जाये तो बहुत असरदार होती है और चाह भी तो हल्की-हल्की और रेशमी ही फायदा करती है। और हाँ, जहां जीवन में चाय की मात्रा बढ़ी वहीं शरीर का नक्शा बिगाड़ देती है और ‘चाह ?’ वह भी तो जरा सी ज़्यादा हुई नहीं कि रिश्तों का ही भूगोल बिगाड़ देती है। कहते है ना कि चाय और चाह दोनों में गर्मा-हट होना ज़रूरी होता है। जहां चाय ठंडी होते ही इंसान कप को एक तरफ सरका देता है वहीं चाह भी ठंडी होते ही अपनी गर्मा-हट खो देने का अहसास करा देती है और इंसान ‘ ठंडी चाह ’ और ‘ ठंडी चाय ’ दोनों से ही मुँह मोड़ लेता है। और कभी-कभी चाय के ठंडा होने पर ‘ दूसरी चाय ’ की दरकार हो जाती है और मनुष्य भी अन्य किसी ‘ चाह ’ की तलाश में निकल जाता है जो थोड़ी बहुत नीरस जीवन में गर्मा-हट ला सके।
अब देखो तो चाय में हल्की मिठास कितनी सुखकर लगती है, वहीं थोडी भी मीठी ज़्यादा होने पर चेहरे की रंगत ही बदल जाती है, और ठीक यही तो होता है चाह में जनाब, हल्की मीठी हो तो बहुत अच्छी, ठीकठाक मीठी हो तो सुखद और कहीं मिठास ज़्यादा हुई नहीं कि चाह की राह ही भटक जाती है साहब।
एक कप चाय के साथ प्रियतम का साथ कितना रूमानी लगता है, हल्की सी बारिश, चेहरे पर बारिश की बूँदें और बरामदे में दोनों पास-पास बैठकर चाय की चुस्कियां ले रहे हो तो पानी की बौछारों से भीगते पंछी और उनके फड़फड़ाते पंखों से झरता पानी और उसका संगीत एक अनजाने अहसास से भर देता है। आँगन में मौसमी फूलों पर गिरती रिमझिम बूँदें उस अहसास को और मखमली बना देती हैं और बालों से बहकर आती पानी की बूँदें तुम्हारे होंठों को छूकर जब कप में जाकर टप से गिरती हैं तो चाय और मीठी-मीठी सी लगती है।
लेकिन कभी-कभी चाय के प्याले में तूफ़ान भी आ जाता है और वही सुकून भरी चाय छिटक कर इधर-उधर बिखर जाती है, फिर मैं अपने हाथों से फर्श पर, टेबल पर और अपने चेहरे पर बिखरी चाय की बूँदों को पोंछने लगता हूँ। चाह भी इसी तरह जीवन में आये तूफ़ान के बाद काँच के टुकड़ों सी इधर-उधर बिखर जाती है, पर जैसे चाय का एक घूंट जो मुँह में कसैला सा स्वाद छोड़ जाता है उसी को मीठा-मीठा सा महसूस करने की कोशिश करता हूँ, पर मुँह में जो कसैलापन रह गया है उसका क्या करूँ? चाह भी दरकने के बाद कुछ कड़वा सा पीछे छोड़ ही जाती है।
" जिन्दगी धीरे-धीरे धुआँ हो रही है,
प्याली में रखी चाय सी चुस्की-दर-चुस्की तमाम हो रही है"
सफ़र
"तमाम उम्र जिस सुकून को ढूंढते रहे हम
नालायक मेरी रूह के एक कोने में दबा मिला"
इस सफ़र के क्या कहने! इसका सफ़र भी तो कितना लम्बा है पूरा इतिहास भरा पड़ा है सफ़र की गाथा से। कोई सा भी युग उठा लीजिये इस सफ़र का कोई ना कोई निशान मिल ही जायेगा। यह ठेठ रथ, बैलगाड़ियों, तांगों, मोटर गाड़ियों, बसों, ट्रेनों, पानी के जहाज से होता हुआ हवाई जहाज पर आ कर ठहरा है और जनाब रॉकेट ने तो हमें चाँद तक पहुँचा दिया है। पहिये के आविष्कार से शुरू होता-होता ये सफ़र बहुत कुछ सफ़र करके यहाँ तक पहुँचा है।
जी हाँ, इस सफ़र में अपनी जीवन यात्रा का सफ़र कब पूरा हो जाता है पता ही नहीं चलता जीवन भर सफ़र करते करते क्या खोया, क्या पाया, क्या मिला, क्या छूटा का हिसाब ही लगाने का समय नहीं मिलता। तो मैं भी निकल पड़ा हूँ अपनी लम्बी यात्रा या कहें तो जीवन यात्रा के रथ पर सवार हो कर एक अनजाने सफ़र पर। जी हाँ, जीवन के सफ़र पर।
इस सफ़र में पीछे छूट गए न जाने कितने स्टेशन देखता आ रहा हूँ। जब जीवन नैया चली तो उस गाड़ी का सबसे पहला स्टेशन था ‘ बचपन ’, वह स्टेशन बहुत ही छोटा सा था। पर अहा ! कितना प्यारा स्टेशन था। वहाँ पर प्लेटफ़ार्म पर बहुत कुछ मिल रहा था, खिलौने, टॉफ़ी, आइसक्रीम, प्यारे दोस्त, उड़ते पंछी, नदी-पहाड़, खेत और उन सब में दौड़ती भागती ट्रेन, पर थकान का नामोनिशान नहीं। उस स्टेशन पर सब कुछ फ्री मिल रहा था। बस, बोलते ही हाजिर हो जाता था, उस स्टेशन पर चारों तरफ एक बेफ़िक्री सी फैली हुई थी। चारों और मस्ती का माहौल था। सब खेल रहे थे, नाच रहे थे, कूद रहे थे, झूले झूल रहे थे। सबसे अच्छी बात थी कि किसी भी बात की कोई फ़िक्र (जिसे आजकल ‘ टेंशन ’ कहते हैं) ही नहीं थी। अभी मैं इसका आनंद ले ही रहा था कि गाड़ी एक झटके से अगले स्टेशन पर चलने के लिए निकल पड़ी। गार्ड सभी को हरी झंडी और सीटी बजा-बजा कर बुला रहा था कोई आने को तैयार ही नहीं था गाड़ी में। यह स्टेशन तो बड़ी जल्दी निकल गया। थोड़ी ही देर रुकी गाड़ी इस स्टेशन पर। और चल पड़ी अगले पड़ाव पर मैं बेमन से अबोध दृष्टि से देखता हुआ गाड़ी में बैठ गया।
दूसरा स्टेशन जब आया तो गर्मी बढ़ गयी थी पर वह स्टेशन बहुत रूमानी और खूबसूरत था। अरे वही ‘ जवानी ’ का स्टेशन, अहा! ये भी सुंदर था। अरे कुछ ज़्यादा ही सुंदर था। उस स्टेशन पर सब तरफ मीठा-मीठा संगीत बज रहा था, रंगबिरंगे खुशबूदार फूल लगे हुए थे जगह-जगह और उन फूलों पर भँवरे मंडरा रहे थे। एक अनजानी सी महक से पूरा स्टेशन सराबोर था एक प्यारी सी बेफ़िक्री थी वहाँ। मुझ पर वहाँ के वातावरण का नशा सा छाने लगा, मैं मदहोश हुआ जा रहा था। उस स्टेशन पर उतर कर देखा तो कुछ अलग ही माहौल था। चलो देखते हैं और मैं प्लेटफ़ार्म पर आ गया। थोड़ी चाय पी जाये यह सोचकर एक कप चाय पी। अहा! कितनी खुशबूदार थी वो चाय। मैं आँखें बंद कर उस अहसास को अपने में समेट लेना चाहता था कि गार्ड की सीटी ने मुझे नींद से जगा दिया। मैं बदहवासी में ट्रेन की तरफ भागा। बड़े ही बेमन से मैं गाड़ी में बैठा। मन अभी भी दौड़ कर उसी स्टेशन पर उतर जाने को कर रहा था, पर हाय रे! थोड़ी ही देर में वह स्टेशन छूट गया और मेरी सारी बेफ़िक्री भी हवा हो गयी।
फिर अगले जो भी स्टेशन आये वो बड़े ही रूखे, बीमार से, कर्तव्यों के बोझ से दबे से थे। कोई रौनक नहीं थी स्टेशन पर, खाने-पीने की भी फ़ुरसत नहीं मिली, थकान, भूख किसी का अहसास नहीं हुआ। ना कोई खुशबू, ना कोई मिठास। अरे हाँ, उस स्टेशन का नाम था, अरे कोई नाम नहीं था उसे तो प्लेटफ़ार्म का एक मकड़ जाल ही कहिये जिसमें स्टेशन तो नजर ही नहीं आ रहा था। प्लेटफ़ार्म पच्चीस से साठ तक चलकर आना पड़ा। इन्हीं में घूमते-घूमते कब वक्त निकल गया पता ही नहीं चला। पच्चीस से पचास प्लेटफ़ार्म के बीच बस ज़िम्मेदारियाँ, पढ़ाई, नौकरी, शादी, बच्चे, मकान, लोन, किश्त, बीमारी, रिश्तेदारी, यही सब बिखरे पड़े थे। उन्हें समेटते – समेटते यह कब निकल गया पता ही नहीं चला पर बड़ा ही बोरियत से भरा स्टेशन था ये स्टेशन तो। गार्ड ने फिर सीटी दी अगले स्टेशन पर जाने के लिए। मैं अपनी मंथर चाल से आकर गाड़ी में बैठ गया कि अब अगला स्टेशन शायद सुकून भरा हो। पर हाय रे किस्मत, अगला पड़ाव तो बहुत डरावना था।
जी हाँ! अगला स्टेशन तो मेरे सफ़र का आखिरी स्टेशन था। मैंने सुकून सोचा था पर उस स्टेशन पर तो सन्नाटा पसरा पड़ा था, जो बिलकुल सुकून नहीं दे रहा था। जिंदगी भर के सफ़र में जिस शांति की तलाश में स्टेशन दर स्टेशन सफ़र करता रहा। वह शान्ति यहाँ थी पर अफ़सोस अब वही शान्ति काटने को दौड़ रही थी। मैंने स्टेशन पर देखा कि वहाँ प्लेटफ़ार्म पर बैठे सभी यात्री चुपचाप थे, कोई कुछ बोल ही नहीं रहा था। बस हर कोई खामोश, तन्हा, चुपचाप प्लेटफ़ार्म पर बैठा अपनी आखिरी यात्रा गाड़ी का इंतज़ार कर रहा था, लेकिन वह गाड़ी तो बहुत लेट हो गयी थी या यूँ कहें कि आने का नाम ही नहीं ले रही थी।
खैर मैं भी अपने सहयात्रियों के साथ हर घोषणा सुनता हूँ कि आख़िरी स्टेशन पर जानेवाली गाड़ी प्लेटफ़ार्म नंबर अस्सी पर आ गयी है और यह सुनते ही दौड़कर गाड़ी की तरफ भागता हूँ यह सोचकर कि उस गाड़ी में मेरी सीट पक्की होगी, पर वह गाड़ी मुझे