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रामचरितमानस-दर्शन
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Ebook364 pages3 hours

रामचरितमानस-दर्शन

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About this ebook

5 अप्रैल 2023 से 15 मई 2023 तक रवि प्रकाश ने सार्वजनिक रूप से संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ किया। इसी की दैनिक समीक्षा का संग्रह रामचरितमानस-दर्शन है।
इसमें एक ओर रामचरितमानस की चौपाइयों और विविध प्रसंगों की दार्शनिक चेतना का सारगर्भित विश्लेषण है, तो दूसरी ओर 'संपूर्ण रामचरितमानस पाठ' की मंगलमय स्मृतियों का आह्लाद भी है।

Languageहिन्दी
Release dateJun 29, 2023
ISBN9788196038021
रामचरितमानस-दर्शन

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    रामचरितमानस-दर्शन - Ravi Prakash

    शुभकामनाऍं

    1)

    प्रिय रवि

    तुम्हारा साहित्य प्रेम और विशेषकर रामचरितमानस के लिए, तुम्हारे व्यक्तित्व का दैवीय गुण है और कुछ हद तक विरासत भी है। इसके लिए हृदय से शुभकामनाऍं। तुम्हारे यह गुण हमें समय-समय पर पूजनीय जीजा जी का स्मरण कराते रहते हैं।

    - डॉ. राकेश कुमार

    (एम.बी.बी.एस, एम.डी (मेडिसिन), मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)

    2)

    आज मानस-पाठ के अंतिम दिवस मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। बहुत ही आनंद आया। राम-रस का पान किया। आपके द्वारा भेजे गए सारांश को रोज पढ़ता था। चालीस दिन में यह पाठ हुआ। आज ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष अपरा एकादशी के दिन पूर्ण हुआ। भगवान विष्णु के अवतार राम की कथा बाबा विश्वनाथ के दिन मतलब आज दिव्य दिन ही पूर्ण हुई, यह भी एक संयोग है। ....समाज के लिए अति उपयोगी होगा आपका यह प्रयास। प्रयास हेतु शुभकामनाऍं

    - सूरज शर्मा (आकाशवाणी रामपुर)

    3)

    बहुत-बहुत साधुवाद आपको। बहुत सराहनीय कार्य आदरणीय।

    - डॉक्टर (प्रोफेसर) ममता (मुरादाबाद)

    4)

    इस पावन अनुष्ठान को बारंबार नमन जय श्री राम

    - राजीव प्रखर (कवि, मुरादाबाद)

    5)

    श्री राम जय राम जय जय राम

    कथा में उतार चढ़ाव ऐसे ही जैसे,

    नदी पर्वत और खाई प्रकृति के मनोहारी सौन्दर्य का अनुपम दर्शन है, इसी प्रकार राम कथा हृदय को विविध स्थान पर अभिभूत करती है। यही रहस्य है रामकथा का।

    धन्य हो, आदरणीय रवि प्रकाश जी, आप हम सभी को घर बैठे राम कथा का रसास्वादन करा रहे हैं। सादर प्रणाम आपकी साधना को।

    प्रभु श्री सीता राम जी की कृपा आप पर बनी है तभी आपको राम कथा सुनाने का उत्तरदायित्व प्राप्त हुआ है। प्रभु श्री राम जी जिससे जो कार्य कराना चाहते हैं करा लेते हैं।

    हृदयतल से आपको एवं आपके सहयोगियों को अतिशय साधुवाद।

    ...अविस्मरणीय ग्रंथ होगा। वर्तमान सामाजिक, साहित्यिक एवं आध्यात्मिक परिदृश्य में लोकप्रिय होगी राम की मानस चर्चा। अग्रिम शुभकामना।

    - शिव कुमार चंदन (कवि, रामपुर)

    ––––––––

    6)

    सराहनीय प्रयास ..बहुत-बहुत शुभकामनाऍं

    - श्रीमती शशि गुप्ता

    धर्मपत्नी श्री राम गुप्ता, कूँचा परमेश्वरी दास,

    निकट मिस्टन गंज, रामपुर

    7)

    भाई साहब! आपका प्रयास सराहनीय व अविस्मरणीय रहेगा तथा राम-भक्त लाभान्वित होंगे।

    - हरिओम गुप्ता, रामपुर

    8)

    आपके द्वारा साहित्यिक एवं आध्यात्मिक आयोजन समाज को जागरूक करने के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण हैं।

    मंगल कामनाओं सहित शुभकामनाएं आदरणीय।

    ...जय राम जी की आदरणीय।

    आज चतुर्थी के दिन अध्यात्म का उत्तम आयोजन रहा।

    जय श्रीराम।

    - राम किशोर वर्मा (कवि, रामपुर)

    9)

    बहुत सुंदर, पठनीय पुस्तक होगी,

    इस पुस्तक के माध्यम से प्रभु श्री राम के संदर्भ में पाठकों को तमाम जानकारियां मिलेंगी।

    साधुवाद आपको।

    - श्रीकृष्ण शुक्ल (कवि, मुरादाबाद)

    भूमिका

    राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल) के तत्वावधान में हमने 5 अप्रैल 2023 से 15 मई 2023 तक संपूर्ण रामचरितमानस के पाठ का सार्वजनिक आयोजन रखा। जमीन पर पालथी मारकर हम बैठ जाते थे। सामने रामचरितमानस एक चौकी पर विराजमान रहती थी। माइक लगा रहता था। ऊॅंची आवाज में मानस की चौपाइयों का सस्वर पाठ प्रतिदिन एक घंटा चला। रविवार को अवकाश रहता था। अक्षय तृतीया वाले दिन हमारे घर पर पुत्रवधू डॉक्टर हर्षिता पूठिया ने हवन का आयोजन रखा था। इसलिए उस दिन भी पाठ से अवकाश रहा। 4 मई को नगर पालिका-मतदान के कारण अवकाश रहा। इस तरह कुल तैंतीस कार्य-दिवसों में रामचरितमानस का पाठ पूर्ण हुआ।

    हमारी इच्छा रामचरितमानस को पूर्ण रूप से पढ़ते हुए उसे समझने की थी। इसके लिए पाठ सबसे अच्छा तरीका रहा। वास्तव में तो इसका श्रेय मेरी धर्मपत्नी श्रीमती मंजुल रानी को जाता है, जिनके मन में ईश्वर की प्रेरणा से रामचरितमानस के पाठ की इच्छा उत्पन्न हुई और बहुत सुंदर रीति से मुख्य रूप से उनकी सहभागिता से यह कार्य पूरा हो सका। सुबह एक घंटा हम रामचरितमानस का पाठ करते थे और उसके बाद घर पर आकर मानस के जो अंश पढ़े गए, उनकी व्याख्या दैनिक समीक्षा के रूप में लिखकर सोशल मीडिया पर प्रकाशित कर देते थे। यह एक प्रकार से पाठशाला में पढ़े गए पाठ को दोहराने जैसा था। उसको स्मरण करने की विधि थी अथवा यों कहिए कि उसके मर्म को समझने और शब्दों के भीतर तक प्रवेश करके उसके संदर्भ को सही-सही समझने की चेष्टा थी।

    रामकथा का प्रवाह ही इतना सुंदर है कि भला कौन मंत्रमुग्ध न हो जाएगा! इस कथा में कोई दिन ऐसा नहीं गया, जब हमें कथा के प्रवाह में कतिपय सद्विचारों का प्रसाद प्राप्त न हुआ हो। चाहे दशरथ जी द्वारा वृद्धावस्था के चिन्ह-स्वरूप अपने सफेद बालों को देखकर सत्ता से संन्यास लेने का निर्णय हो या राम द्वारा पिता की आज्ञा मानकर वन को जाने का प्रसन्नता पूर्वक लिया गया निर्णय हो। सब में ऊॅंचे आदर्शों की गंध हमें मिलती है। भरत, लक्ष्मण और सीता कोई साधारण पात्र नहीं हैं। वे रामकथा के परिदृश्य को अपूर्व शोभा प्रदान करने वाले अभिन्न अंग हैं।

    बिना हनुमान जी के क्या रामकथा को वह गरिमा प्राप्त हो सकती थी, जो उसे मिली। समुद्र को पार करके हनुमान जी लंका चले गए और सीता जी को रामजी की अंगूठी देकर उनकी चूड़ामणि निशानी के तौर पर भगवान राम को सौंप देना, यह सब ईश्वरीय घटनाक्रम का ही एक अंग कहा जा सकता है।

    मनुष्य के रूप में जब भगवान राम अवतरित हुए, तब उनकी सारी लीलाऍं मनुष्य के रूप से मेल खाती हुई चलती चली गईं। तभी तो अनेक बार उनको भी भ्रम हो गया, जिनको माया व्याप्त नहीं होती थी। यह सब प्रकृति का घटना-चक्र था। स्वयं सीता जी माया के मृग से मोहित हो रही थीं। यह भी लीलाधारी की लीला ही थी। अगर मायावी राक्षसों की माया से जूझने के लिए मायापति भगवान राम के पास पर्याप्त अस्त्र-शस्त्र नहीं होते तो युद्ध कैसे जीता जाता? लेकिन यह भी सच है कि अगर रामकथा में सहज-सरल धरती के घटना-चक्रों के उतार-चढ़ाव नहीं होते तो सर्वसाधारण को उसका पाठ करके नैसर्गिक अनंत प्रेरणा कैसे मिलती? यही तो रामकथा का मुख्य आकर्षण बिंदु है कि लक्ष्मण जी मूर्छित होते हैं और चटपट हनुमान जी लंका से वैद्य को बुला लाते हैं। फिर उसके बाद रातों-रात संजीवनी बूटी लेने जाते हैं और पूरा पहाड़ उखाड़ कर रात में ही लेकर आ जाते हैं और लक्ष्मण जी के प्राण बच जाते हैं। यह सब चमत्कारी घटनाऍं होते हुए भी मनुष्य जाति के लिए बुद्धिमत्ता के साथ काम करने तथा बल और बुद्धि के उचित सामंजस्य को जीवन में आत्मसात करने के लिए प्रेरणा देने के बिंदु बन जाते हैं।

    सबसे ज्यादा तो तुलसीदास जी के उन प्रज्ञा-चक्षुओं को प्रणाम करना होगा, जिन्होंने कागभुशुंडी जी के दर्शन कर लिए। न जाने कितने लाखों वर्षों से सुमेरु पर्वत के उत्तर दिशा में नीले पर्वत पर वट वृक्ष के नीचे कागभुशुंडी जी रामकथा कह रहे होंगे, लेकिन उन्हें देखने का सौभाग्य तो केवल तुलसीदास जी को ही मिला। अन्यथा भला किसने उन्हें रामकथा कहते हुए देखा होगा? रामकथा के वक्ता का जो आदर्श काग भुसुंडि जी के माध्यम से तुलसीदास ने प्रस्तुत किया, वह अप्रतिम है। ऐसा वक्ता जो अपने मुख से रामकथा कह रहा है और केवल अपने अंतर्मन को सुनाने के लिए कह रहा है सिवाय काग भुसुंडि जी के इतिहास में भला कौन होगा? काला रंग, कौवे का शरीर और कर्कश आवाज -क्या यही रामकथा के वक्ता का आदर्श तुलसीदास जी को ढूंढने पर मिला? लेकिन नहीं, वक्ता की वाणी का सौंदर्य उसके कोकिल-कंठ होने से नहीं होता। उसके शरीर के रूप और सुंदरता से भी नहीं होता। उसके वाह्य आडंबर से उसकी वक्तृता का मूल्यांकन नहीं हो सकता। रामकथा के वक्ता के लिए सांसारिक प्रलोभनों से मुक्त रहते हुए केवल स्वांत: सुखाय ही रामकथा कहने का आदर्श होना चाहिए। और यही तो काग भुशुंडि जी महाराज का और स्वयं तुलसीदास जी का भी आदर्श रहा है।

    केवल रामकथा के वक्ता का ही नहीं, रामकथा के श्रोता के लिए भी एक आदर्श तुलसीदास जी स्थापित कर देते हैं। भगवान शंकर श्रोता के रूप में काग भुसुंडि जी महाराज की कथा सुनने के लिए नीले पर्वत पर जाते हैं। लेकिन श्रोताओं की भीड़ में अपने को छुपा लेते हैं। अपनी अलग पहचान उजागर नहीं होने देते। जो हंस तालाब में काग भुसुंडि जी की कथा सुन रहे हैं, भगवान शंकर भी उन हंस जैसे रूप में श्रोताओं में बैठ जाते हैं और कथा सुनकर आ जाते हैं। किसी को कानोकान खबर नहीं हो पाती कि भगवान शंकर रामकथा सुनने आए हैं। ऐसी सादगी तथा निरहंकारिता के साथ अपनी पहचान को सर्वसाधारण श्रोताओं के बीच में विलीन कर देना, यही तो रामकथा के सच्चे श्रोता का लक्षण होना चाहिए। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के अंतिम अध्याय में इसी बात को अपने प्रज्ञा-चक्षुओं से देखा और लिखा।

    प्रतिदिन संपूर्ण रामचरितमानस के पाठ की जो समीक्षा हमने लिखी, उसे पाठकों ने सराहा और प्रोत्साहित किया। इसलिए यह विचार बना कि क्यों न इसे पुस्तक रूप में प्रकाशित करा दिया जाए ताकि रामचरितमानस के संबंध में जो साहित्यिक-कार्य अब तक हुए हैं, उसी में एक भेंट के रूप में हमारा कार्य भी सम्मिलित हो जाए।

    आशा है यह लेख पाठकों को रामकथा की रसमयता से परिचित कराने में जहॉं एक ओर लाभदायक रहेंगे, वहीं दूसरी ओर विद्वान हमारे इस परिश्रम को यदि स्वीकार करेंगे तो हमें और भी अच्छा लगेगा। चालीस दिन तक समय-समय पर जिन सहयात्रियों ने रामचरितमानस के पाठ में हमारा मनोबल बढ़ाया, उनके प्रति धन्यवाद अर्पित करना भी हम अपना कर्तव्य मानते हैं। इन्हीं शब्दों के साथ संपूर्ण रामचरितमानस के पाठ के चालीस दिवसीय आयोजन की मधुर स्मृतियॉं आपके सम्मुख हैं।

    - रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ,

    बाजार सर्राफा,

    निकट मिस्टन गंज, रामपुर (उत्तर प्रदेश)

    मोबाइल- 99976 15451

    ईमेल- raviprakashsarraf@gmail.com

    दिनांक- 15 मई 2023 सोमवार

    अध्याय 1

    संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ: दैनिक समीक्षा

    दिनांक 5 अप्रैल 2023 बुधवार

    बालकांड प्रारंभ से दोहा संख्या 14 तक

    तुलसीदास जी के हृदयोद्गार

    बालकांड के आरंभ में लिखित सात श्लोकों का सर्वप्रथम रवि प्रकाश ने पाठ किया तथा बताया कि इन श्लोकों के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास ने विभिन्न देवी-देवताओं की वंदना की है।

    प्रथम श्लोक में गणेश जी और सरस्वती जी की वंदना है। दूसरे श्लोक में शंकर और पार्वती जी की वंदना है। तीसरे श्लोक में शंकर जी के गुरु-रूप की वंदना है। चौथे श्लोक में कविवर वाल्मीकि तथा हनुमान जी की वंदना की गई है। पॉंचवे श्लोक में सीता जी को तुलसीदास का प्रणाम समर्पित है। छठे श्लोक में राम को वास्तव में भगवान श्री हरि के रूप में दर्शन करते हुए तुलसीदास जी ने उनकी वंदना की है। यह श्लोक इस बात का परिचायक है कि तुलसी के राम केवल एक साधारण हाड़-मांस के मनुष्य नहीं है। वह धरती पर भगवान के साक्षात अवतार हैं।

    सातवॉं श्लोक इस बात को प्रदर्शित कर रहा है कि गोस्वामी तुलसीदास ने राम कथा जो कही है, उसका प्रयोजन अथवा उद्देश्य क्या है? वह कहते हैं :

    स्वांत: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा अर्थात तुलसीदास जी राम की कथा केवल स्वांत: सुखाय ही कह रहे हैं। अंतःकरण का आनंद उनका एकमात्र ध्येय है। ऐसे में कवि स्वयं ही वक्ता तथा स्वयं ही श्रोता बन जाता है। वह अपने मुख से रामकथा गाता है और अपने अंतःकरण में विराजमान परमात्मा को वह राम कथा सुनाता है। आकाश में उपस्थित देवगण उस रामकथा को सुनते हैं और प्रसन्न होकर असीम आनंद की वृष्टि करते हैं। संसार में अनेक लेखकों और कवियों ने कभी धन के लिए लिखा है, कभी पद के लिए लिखा है, कभी प्रशंसा के लिए लिखा है। लेकिन सर्वोत्तम लेखन वही है जो अंतःकरण की तृप्ति के लिए लिखा जाता है। इसमें लेखक को लिखने की प्रक्रिया में ही अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त हो जाता है तथा यह प्रश्न शेष नहीं रहता कि लिखने के बाद लेखक को क्या मिलेगा? तुलसी की रामकथा एक ऐसा ही आनंद से भरा हुआ काव्य है, जिसको सुनने और सुनाने की प्रक्रिया में ही सब कुछ मिल जाता है।

    तदुपरांत रामचरितमानस के बालकांड का विधिवत हिंदी-भाषा में पाठ आरंभ हुआ। आज कुल चौदह दोहों तक पाठ हो सका। इन सभी में बालकांड की विधिवत कथा से पूर्व नीति से संबंधित उपदेश तुलसीदास जी ने पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किए हैं। इसमें गुरु की सर्वोच्च महत्ता को स्थापित किया गया है। वह प्रथम दोहा वर्ग से पूर्व लिखते हैं :

    बंदउ गुरु पद पदुम परागा, सुरुचि सुबास सरस अनुरागा

    इस प्रकार गुरु के चरणों को कमल के अनुसार मानते हुए उनकी वंदना की गई है।

    एक अन्य चौपाई है:

    श्री गुरु पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हियॅं होती।।

    इसमें तुलसीदास जी गुरु के चरणों की तुलना मणियों के प्रकाश से करते हैं।

    सत्संग की महिमा से बालकांड का नीति विषयक अंश भरा पड़ा है।

    बिनु सत्संग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

    इस चौपाई के माध्यम से तुलसीदास जी ने सत्संग को इतना महत्वपूर्ण स्थान दिया है कि उनके अनुसार व्यक्ति के अंतर्मन में विवेक का जागरण बिना सत्संग के हो ही नहीं सकता तथा यह सत्संग भी बिना भगवान राम की कृपा के सुलभ नहीं होता। इस प्रकार जब जीवन में विवेक का जागरण परमात्मा कराना चाहता है, तब वह कृपा करके सत्संग की ओर उस व्यक्ति को ले जाता है। जीवन में सत्संग से बढ़कर अच्छा फल देने वाला कोई कार्य नहीं है।

    तीसरे दोहे के अंतर्गत संतो के स्वभाव की चर्चा की गई है। तुलसीदास जी ने लिखा है:-

    बंदउॅं संत समान चित, हित अनहित नहिं कोइ

    अर्थात संतों की वंदना करता हूँ, जिनके हृदय में सबके लिए समान भाव है। न कोई मित्र है, न कोई शत्रु है।

    आश्चर्यजनक रूप से तुलसीदास जी दुष्टों को भी प्रणाम करने से नहीं चूकते। वह लिखते हैं कि दुष्टों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जो उनका हित करता है, वह उसका भी अहित ही करते हैं। वे सदैव कठोर वचनों में विश्वास करते हैं तथा सदैव दूसरों के दोषों को ही निहारते हैं। रामचरितमानस के शब्दों में:

    बचन बज्र जेहि सदा पियारा। सहस नयन पर दोष निहारा।।

    रामचरितमानस में समस्त प्राणियों को विनम्रता पूर्वक प्रणाम करने तथा सब प्राणियों में एक ही ईश्वर के दर्शन करने वाला जो अद्वितीय भाव है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। तुलसीदास जी इस बात को बिल्कुल स्पष्ट रूप से कहते हैं कि इस संसार में चौरासी लाख योनियों में जितने भी प्राणी चाहे वह जल, थल अथवा नभ कहीं भी हों, उन सब में हम राम और सीता के दर्शन करते हैं तथा उनको हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं :-

    आकर चारि लाख चौरासी, जाति जीव जल थल नभ वासी।

    सियाराम मय सब जग जानी, करउॅं प्रनाम जोरि जुग पानी।

    (दोहा संख्या 7)

    एक कवि होने के नाते तुलसीदास जी ने कवियों की मनोवृति के संबंध में बहुत सुंदर व्याख्या बालकांड में कर दी है। उनका कहना है कि अपनी-अपनी कविता तो सभी को अच्छी लगती है। भले ही वह सरस हो अथवा फीकी, लेकिन अद्वितीय स्थिति तो तभी उत्पन्न होती है जब दूसरों की कविता सुनकर व्यक्ति हर्षित हो जाए। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति में प्रशंसा करने का गुण अगर आ जाए तो वह उत्तम कोटि में प्रवेश कर जाता है:-

    निज कवित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका।।

    जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।।

    एक कवि के रूप में यह तुलसीदास जी की निरभिमानता ही है कि उन्होंने अत्यंत लयात्मकता से ओतप्रोत रामचरितमानस लिखने के बाद भी यही कहा कि मुझे काव्य का ज्ञान नहीं है :-

    कबित विवेक एक नहिं मोरे।

    सत्य कहउॅं लिखि कागज कोरे

    (दोहा 8)

    दशरथ के पुत्र राम के रूप में जिन्होंने मनुष्य शरीर धारण किया है, वह साक्षात परमात्मा ही हैं। तुलसीदास जी ने इसीलिए दोहा संख्या 12 के अंतर्गत एक ओर तो ईश्वर के स्वरूप का वर्णन किया है, जिसमें बताया गया है कि ईश्वर एक है, इच्छा से रहित है, उसका कोई रूप और नाम भी नहीं होता, वह अजन्मा है, सच्चिदानंद है, परमधाम है, सर्वव्यापक है अर्थात सृष्टि के कण-कण में समाया हुआ है, विश्वरूप है, लेकिन अजन्मा होते हुए भी उसी परमात्मा ने मनुष्य रूप धारण करके इस धरती पर राम का नाम स्वीकार करते हुए अनेक प्रकार की लीलाऍं की हैं।

    एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा।।

    व्यापक विश्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना।।

    दोहा संख्या 12 वर्ग में ईश्वर के संबंध में यह भी कह दिया गया है कि उसका चाहे कितना भी गुणगान कर दिया जाए लेकिन वह पूर्ण नहीं हो पाएगा। अतः इस संबंध में नेति नेति अर्थात अंत नहीं है -कहना ही उचित रहता है। इसलिए दोहा

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