विष्णु की खोज
By सविता सिंह
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एक बार विष्णु की तीनों पत्नियों लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा के बीच में अनबन हो जाती है।लक्ष्मी को विष्णुलोक से निष्काषित कर दिया जाता है | भगवान् विष्णु उनको विश्वास दिलाते हैं कि जब वह अपना और विष्णु का असली सम्बन्ध समझ जाएँगी तब वे विष्णु को पुन: पा सकेंगी। तब तक उनको धरती पर बार-बार जन्म लेना होगा।
लक्ष्मी अपने पहले जन्म में राजकुमारी वेदवती के रूप में जन्म लेती हैं| विष्णु को पाने के लिए वह घोर तपस्या करती हैं परन्तु रावण उनकी तपस्या भंग कर देता है। अपने को अपवित्र मान कर वेदवती रावण को श्रापदेती हैं कि वह उसका और उसके पूरे खानदान के विनाश का कारण बनेंगी। तत्पश्चात वह आत्मदाह कर लेती हैं।
अगले जन्म मैं लक्ष्मी सीता के रूप में जन्म लेती हैं और रावण और उसके खानदान के विनाश का करण बनती हैं। इस जन्म में वे राम के रूप में विष्णु के अवतार से विवाह तो कर लेती हैं पर कभी उन्हें पूरी तरह से पा नहीं पाती क्योंकि राम सदा अपने राज्य और प्रजा को अधिक महत्त्व देते हैं।
तीसरी बार लक्ष्मी राधा के रूप में जन्म लेती हैं। वे विष्णु के अवतार कृष्ण को सखा के रूप में पाती जरुर हैं परन्तु एक बार पुन: प्यासी रह जाती हैं।
चौथी और आखिरी बार वे चित्तौड़ में मीरा बाई के रूप में जन्म लेती हैं। इस जन्म में भी लक्ष्मी अपने और विष्णु के सम्बन्ध के रहस्य को जानने का प्रयास करती रहतीं हैं| अंत में वे समझ जाती हैं जो विष्णु उन्हें क्या समझाना चाह रहे थे।
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विष्णु की खोज - सविता सिंह
विष्णु की खोज
BY
सविता सिंह
pencil-logo
ISBN 9789356105478
© Savita Singh 2022
Published in India 2022 by Pencil
A brand of
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123, Building J2, Shram Seva Premises,
Wadala Truck Terminal, Wadala (E)
Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA
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DISCLAIMER: This is a work of fiction. Names, characters, places, events and incidents are the products of the author's imagination. The opinions expressed in this book do not seek to reflect the views of the Publisher.
Author biography
सविता सिंह ने अपनी स्कूली शिक्षा डी० पी० स०, मथुरा रोड, और सेंट जोसफ कान्वेंट, पटना, से की। तत्पश्चात, दिल्ली विश्वविद्यालय से विमानन मनोविज्ञान विषय में एम० ए० किया। एम० ए० में इन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया| बीस साल के लम्बे अन्तराल के बाद, सविता जी ने डी० यू० में पुन: दाखिला लेकर सामाजिक मनोविज्ञान में एमफिल की डिग्री प्राप्त की।सविता सिंह ने अपनी स्कूली शिक्षा डी० पी० स०, मथुरा रोड, और सेंट जोसफ कान्वेंट, पटना, से की। तत्पश्चात, दिल्ली विश्वविद्यालय से विमानन मनोविज्ञान विषय में एम० ए० किया। एम० ए० में इन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया| बीस साल के लम्बे अन्तराल के बाद, सविता जी ने डी० यू० में पुन: दाखिला लेकर सामाजिक मनोविज्ञान में एमफिल की डिग्री प्राप्त की।
सविता सिंह 1979 से पेशेवर लेखिका हैं। इन्हें अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में लिखने का तजुर्बा है। अब तक इनकी 350 से अधिक लघु कथाएँ, लेख, कविताएँ, नाटक आदि प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें डेढ़ दर्जन से ज्यादा पुस्तकें शामिल हैं। इन्होने बच्चों के साहित्य से ले कर मिल्स एंड बून्स जैसे रोमांटिक विषय, मानव रूचि की कहानियाँ, और टी० वी० धारावाहिक तक, भिन्न भिन्न विषयों पर कार्य किया है। वोमंस एरा में इन्होंने पाठकों की समस्याओं का समाधन किया है और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए रिपोर्ट लेखनी का कार्य भी किया है। हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद का काम आज भी करती हैं।सविता सिंह 1979 से पेशेवर लेखिका हैं। इन्हें अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में लिखने का तजुर्बा है। अब तक इनकी 350 से अधिक लघु कथाएँ, लेख, कविताएँ, नाटक आदि प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें डेढ़ दर्जन से ज्यादा पुस्तकें शामिल हैं। इन्होने बच्चों के साहित्य से ले कर मिल्स एंड बून्स जैसे रोमांटिक विषय, मानव रूचि की कहानियाँ, और टी० वी० धारावाहिक तक, भिन्न भिन्न विषयों पर कार्य किया है। वोमंस एरा में इन्होंने पाठकों की समस्याओं का समाधन किया है और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए रिपोर्ट लेखनी का कार्य भी किया है। हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद का काम आज भी करती हैं।
इन्होंने कई पत्रिकाओं, जैसे वोमंस एरा, चम्पक, फेमिना, सैनिक समाचार, और इलस्ट्रेटेड वीकली, में लेखनी का कार्य किया है। कई प्रकाशकों ने (इंडिया बुक हाउस, दिल्ली प्रेस, स्ट्रैटेजिक बुक्स, रूपा, ऑथर्स प्रेस, आदि) ने समय-समय पर उनकी पुस्तकें प्रकाशित की हैं।इन्होंने कई पत्रिकाओं, जैसे वोमंस एरा, चम्पक, फेमिना, सैनिक समाचार, और इलस्ट्रेटेड वीकली, में लेखनी का कार्य किया है। कई प्रकाशकों ने (इंडिया बुक हाउस, दिल्ली प्रेस, स्ट्रैटेजिक बुक्स, रूपा, ऑथर्स प्रेस, आदि) ने समय-समय पर उनकी पुस्तकें प्रकाशित की हैं।
इनका विवाह भारतीय सेना के एक उच्च अधिकारी से 1970 में हुआ था, जिनकी असमय मृत्यु 1990 में ड्यूटी के दौरान हुई। कुछ समय तक, सविता जी सेना के सामाजिक कार्यों से भी जुडी हुईं थीं।इनका विवाह भारतीय सेना के एक उच्च अधिकारी से 1970 में हुआ था, जिनकी असमय मृत्यु 1990 में ड्यूटी के दौरान हुई। कुछ समय तक, सविता जी सेना के सामाजिक कार्यों से भी जुडी हुईं थीं।
Contents
आधार
पहला अध्याय – वेदवती की कथा
दूसरा अध्याय – सीता की कहानी
तीसरा अध्याय – कहानी राधा की
चौथा अध्याय – मीरा बाई
आधार
विष्णु लोक में जीवन आराम से चल रहा था। भगवन विष्णु अपनी तीन पत्नियों, लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा, के साथ जीवन का आनंद उठा रहे थे। उनकी तीनों अर्धांगनियाँ उनके रूप को किसी न किसी तरह से पूर्ण करती थीं। लक्ष्मी शांत और दयालु थीं। वह धन की देवी थीं और अपने दहेज़ में अपार संपत्ति लायी थीं। वह हमेशा लाल कपड़े पहनती थीं और सर से पाँव तक हीरे-जवाहरातों से और सोने चांदी के जेवरों से ढ़की रहती थीं। उन्होने यह सब विष्णु भगवान पर न्योछावर कर दिया था और उनसे बेहद प्रेम करती थीं। वह मुख से मीठी थीं और उनको भगवान के चरणों में बैठना सबसे अच्छा लगता था। उनके चरण दबाने में उनको बेहद प्रसन्नता प्राप्त होती थी। उनको अटल विश्वास था कि भगवान उन्ही से सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं।
सरस्वती विद्या की देवी थी। वह अपनी वीणा पकड़े हमेशा विष्णु भगवान के सर के पास बैठती थीं। वीणा वादन उनको बेहद प्रिय था और वह हमेशा भगवान का जी अपनी वीणा से बहलाया करती थीं। जब भी वह अपनी वीणा बजाती तो विष्णु भगवान आँख बंद कर के उसका रस लेते। उनके मुखमंडल पर एक मुस्कान खेल जाती थी और सरस्वती को यह बेहद रुचिकर लगता था। हमेशा श्वेत वस्त्रों में वह अपने को सुन्दर और सुगन्धित पुष्पों के गहनों से सदा सुसज्जित करती थीं। उनको ज्ञात था कि पुष्पों की खुशबू भगवान को बहुत ही पसंद है और वह सदा गहरी सांसो से उनकी खुशबु लेते रहते हैं। सरस्वती को लगता था कि वह भगवान की दूसरी दोनों पत्नियों से श्रेष्ठ हैं और जब भगवान को कोई परामर्श लेना होता है तो उन्हें ही पूछते हैं। उनको भी पूरा विश्वास था कि भगवान उन्ही से सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं।
गंगा, विष्णु की सबसे छोटी और तीसरी पत्नी, हमेशा नीले वस्त्र पहनती थीं। वह आँखों को ठंडक पहुंचाती और हमेशा भगवान से लिपटी रहतीं थीं। जिस दिन से विष्णु ने उनसे विवाह किया था, बिना किसी शर्म या लिहाज के वह एक बेल की तरह उनसे चिपटी रहतीं थीं भगवान भी उनका मन रखने के लिए मुस्कुरा देते थे। लक्ष्मी भी इन करतूतों को सहिश्रुता से देखतीं थीं। उनके मन में गंगा के प्रति कोई सौतिया डाह या मैल न था। पर सरस्वती का मन इतना निश्छल न था। वह भगवान को अपना मानती थीं। गंगा को देख कर चिढ़ जातीं थीं। जब भी भगवान विष्णु को गंगा की इच्छा पूर्ती करते देखती तो उनके मन में डाह का बवंडर उठ खड़ा होता था। उनको लगता था कि भगवान गंगा को बिना मतलब का बढ़ावा दे रहे हैं।
एक दिन सरस्वती लक्ष्मी के पास मिलने के लिए गयीं। लक्ष्मी ने उनका खुले दिल से स्वागत किया। ‘आइये आइये, दीदी। आपका स्वागत है।' और उन्हें यथोचित आदर सत्कार के साथ उपयुक्त आसन दिया।
सरस्वती ने आसन ग्रहण किया और आवश्यक कुशलछेम पूछेंने के पश्चात कहा,' बहन, क्या तुम्हे ज्ञात है कि हमारी नाक के नीचे क्या हो रहा है?'
लक्ष्मी ने आश्चर्य से सरस्वती की ओर देखा।' क्या कुछ हो रहा है? मुझे बताईये न, दीदी।'
सरस्वती ने खेद भरी नज़रों से लक्ष्मी की ओर देखा। 'तुम कितनी भोली हो, बहन। तुम्हे क्या नज़र नहीं आ रहा कि यह चटक गंगा क्या कर रही है? वह भगवान के जीवन में हम दोनों का पत्ता काटने में लगी हुई है।'
लक्ष्मी यह सुन कर मुस्कुरा दीं। 'अरे वह। मेरी प्यारी दीदी। गंगा तो अभी बालिका है। हमारे भगवान के लिए वह महज एक नया खिलौना है। जल्द ही वे उससे ऊब जायेंगे।'
सरस्वती चिढ गइ। 'मुझे इस बात पर इतना विश्वास नहीं है, बहन। तुम बेवकूफ हो। गंगा बालिका नहीं है। वह इतनी व्यस्क है कि उसने हमारे भगवान से विवाह कर लिया है। और अब वह हम दोनों का पत्ता काटने में लगी हुई है।'
लक्ष्मी हॅसने लगी। 'आप सब कुछ को इतनी गंभीरता से न लीजिये, दीदी। मेरा विश्वास करिये, कोई भी हमारे पति परमेश्वर को हमसे नहीं छीन सकता। आप बेकार में जल रहीं हैं।‘ सरस्वती अब तो आगबबूला हो उठी। जलन और उसे? क्या लक्ष्मी उसके बारे में यही विचार रखती थी? उसने ऐसा सोचने का साहस भी कैसे किया!
‘अरे रहने भी दीजिये, दीदी। लीजिये, ठंडा जल पीजिये,’ और लक्ष्मी ने चांदी के गिलास में ठंडा पानी सरस्वती को अर्पित करना चाहा तो गुस्से से तमतमाती सरस्वती ने उसका हाथ झटक दिया और लक्ष्मी पर विफर पड़ी। 'तुम सोचती हो मुझे जलन हो रही है? सौतिया डाह? मैं, जो ज्ञान की देवी हूँ। मैं किसी से, और वह भी गंगा जैसी से, जलूँगी? और तुम्हे क्या लगता है, कि तुम्हे कभी ऐसी जलन नहीं होगी? अभी रुको। जब तुम उसे खो दोगी जो तुम्हारा है तब तुम्हे पता चलेगा। मैं तुम्हे श्राप देती हूँ तुम भूलोक में जन्म लोगी और तुम्हे हमारे भगवान से बिछड़ने की पीड़ा भुगतनी पड़ेगी। वह तुम्हे मिलेंगे और नहीं भी। वे तुम्हारे हो कर भी तुम्हारे नहीं होंगे। तुम्हे भी सौतिया डाह की पीड़ा भोगनी पड़ेगी मेरे जैसे।'
तभी गंगा ने कक्ष में प्रवेश किया और उसने सरस्वती को लक्ष्मी को श्रापित करते सुन लिया। गंगा को लक्ष्मी से बहुत लगाव था क्योंकि लक्ष्मी हमेशा उसको बेहद प्यार से सम्बोधित करती थीं। उनको श्रापित होते देख उससे रहा न गया और उनकी रक्षा हेतु वह अखाड़े में कूद पड़ीं। 'सरस्वती दीदी, आप लक्ष्मी दीदी को क्यों श्रापित कर रही हैं? सब लोको में वे सबसे विनम्र और दयालु हैं और सबसे प्रेम करती हैं।'
'तुम हमारे बीच में मत पड़ो। तुम्हे कुछ नहीं मालुम।' सरस्वती ने गंगा की ओर घूरते हुए बोला।
गंगा को उनका स्वर बिल्कुल नहीं भाया, खास कर जब उसने दयालु और विनम्र लक्ष्मी को रोते देखा।
'दीदी, आप मत रोइये।' गंगा ने लक्ष्मी को शांत करने की कोशिश की और फिर फुफकारते हुए सरस्वती की ओर मुड़ कर उसे श्रापित कर दिया।
'जाइए, दीदी। आप भी भूलोक पर जन्म लेंगी और एक पौधे के रूप में वहां पर वियोग की पीड़ा सहन करेंगी'।
अब तो सरस्वती आपे से बाहर हो गयीं। उन्होने घूम कर गंगा को श्रापित किया। 'जाओ, गंगा, तुम भी भूलोक में एक नदी के रूप में वास करोगी!'
यह सब तहलका सुन कर भगवान विष्णु की निद्रा भंग हो गयी और वह दौड़े-दौड़े यह देखने आए कि सारा शोर क्यों मचा हुआ है। जब उन्होंने तीनों देवियों के तमतमाए हुए चेहरे देखे और उन्हें ज्ञात हुआ कि क्या हुआ है तो वह अपना सर पकड़ कर बैठ गए।
'मैं तुम लोगों के साथ क्या करू?' वह बड़बड़ाये।
सरस्वती को अपनी गलती का एहसास हो गया और पछताते हुए वह भगवान के चरणो में गिर पड़ी।
'मुझे क्षमा कर दीजिये, भगवन। यह सब मेरे इस गुस्से का नतीजा है।'
भगवान ने सरस्वती और गंगा की ओर दुखी नज़रों से देखा।
'बहुत देर हो चुकी है, प्रिये। श्राप दे दिए गए हैं और वह पूरे हो कर ही रहेंगे।'
'क्या आप उन्हें हटा नहीं सकते?' गंगा ने धीमे स्वर में पूछा।
भगवान ने उसे उदासीनता से देखा। 'मैं भी दिए गए श्राप को पूरी तरह से हटा नहीं सकता, प्रिये। हाँ, मैं उसे कुछ मात्रा बदल या कम कर सकता हूँ।'
सरस्वती और गंगा के चेहरे खिल उठे। दोनों ने भगवान को आशापूर्वक देखा। लक्ष्मी अभी भी एक किनारे बैठ कर रो रहीं थीं। विष्णु ने उठ कर उनको प्यार से उठाया। लक्ष्मी ने उन्हें आसुओं से तैरती आँखों से निहारा।
'भगवन, मैंने तो कुछ भी नहीं किया था। फिर मुझे क्यों यह दंड मिल रहा है?'
भगवान विष्णु ने उनको प्यार से निहारा। 'मेरी प्रिय लक्ष्मी। बात तो यह है कि तुम्हे यह सीखना है कोई भी बिना कुछ किये नहीं रह सकता। कर्म तो उसे करना ही है। हमेशा हाथ पर हाथ धरे रहना और किसी भी कार्य का उत्तरदायित्व न लेना ठीक नहीं है। तुम्हे सीखना है कि हर कोई अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है। तुम्हे अपने और मेरे बारे में क्या सत्य है जब तक पता नहीं चलेगा तुम्हारा जीवन अपूर्ण रहेगा।' विष्णु ने समझाया।
'पर, भगवन!’ लक्ष्मी प्रतिवाद करने लगी तो विष्णु ने उसके मुख पर हाथ रख दिया।
'मेरी बात सुनो, प्रिये। अब तुमको भूलोक में तो उतरना ही पड़ेगा। पर मैं तुमको वचन देता हूँ, तुम जिस रूप में जन्म लोगी, मैं भी तुम्हारे साथ ही, तुम्हारे आस-पास, जन्म लूंगा। तुम्हारे साथ साथ वियोग का दुख में भी सहूंगा। जब तुम मेरे और अपने बारे में सत्य जान लोगी तब हम तुम फिर एक साथ हो जायेंगे। पर उसके पहले तुम्हे दूसरों के प्रति दया और विनम्रता का पाठ सीखना होगा। अपने को दूसरों से उत्तम समझने की गलती मत करना। हर कोइ अलग होता है। यह कभी मत सोचना कि कोई तुमसे कमज़ोर या निम्न है अगर वह तुमसे अलग है। इन सब पाठों को सीखने के लिए तुम्हे गोलोक से हो कर धरती पर जन्म लेना होगा।'
लक्ष्मी का चेहरा उतर गया। उन्हें ज्ञात हो गया कि उन्हें इस लिए नहीं दण्डित किया जा रहा है क्योंकि उन्होंने कोई पाप किया पर इस लिए क्योंकि उन्होंने दूसरे की समस्या को तुच्छ समझा। और उन्होंने दूसरे के दुख को न बांटा, ना ही उसे सांत्वना दी। उन्होंने खुद तो पाप नहीं किया था पर पाप होते देख उसका विरोध ना कर के उसकी भागिदार अवश्य बन गयी थीं।
विष्णु ने कठोर नेत्रों से सरस्वती की ओर देखा। 'प्रिये, श्राप इतियादी फूल नहीं होते कि आप उनकी अंधाधुन्द वर्षा कर दें। इस बात को आप से ज्यादा अच्छे से कौन समझता है? आप बिना सोचे समझे किसी भी समस्या के निष्कर्ष पर पहुंच कर मन बना कर आनन्-फानन सबको दण्डित करने लगती हैं जैसे वह आपका जन्म सिद्ध अधिकार है।'
'मुझे क्षमा कर दीजिये, भगवन। मेरे गुस्से और सौतिया डाह ने मुझे गुमराह कर दिया था।' सरस्वती रो पड़ीं। 'आप ही अब कुछ कर सकते हैं इस श्राप को हटाने के लिए।'
'आप, प्रिये, यह सोचती हैं कि आपको ही सब ज्ञान है। आप अपने घमंड में अंधी हो गयी हैं।‘ विष्णु ने आगे डांटा।
सरस्वती ने अश्रपूर्ण नेत्रों से विष्णु की ओर देखा। ‘भगवन, अब तो हम सब आप के अधीन हैं।'
विष्णु भगवान बड़बड़ाये, 'अब तो मैं बस यह कर सकता हूँ कि आपका श्राप थोड़ा घटा दूँ। आपको तब भी भूलोक में तुलसी के पौधे के रूप में जन्म लेना होगा। धरती पर सब लोग आपकी पूजा करेंगे। फिर आखिर में आप हमारे पास वापस लौट आएंगी। पर आपको यह शिक्षा ग्रहण करना अनिवार्य है कि श्राप बस ऐसे-वैसे नहीं दिये जाते। और सीखने के लिए मैं आपको ब्रम्हा जी के पास भेज रहा हूँ। आप उनको ब्रह्माण्ड रचने में सहायता कर सकती हैं। और यह कार्य करते हुए अपने कर्मों पर विचार भी करते रहिएगा।'
फिर विष्णु गंगा की तरफ़ मुड़े। 'और आप, प्रिये। बिना पूरी बात जाने हुए हर जगह छलांग लगा देती हैं। अभी आप उम्र में बहुत छोटी हैं। दूसरों के अनुभवों से सीखिए। इसलिए आप भूलोक में एक नदी के रूप में उतरेंगी। कोई ऐसी-वैसी नदी नहीं पर भूलोक की सबसे पवित्र नदी। आप के पवित्र जल में भूलोक के वासी नहा कर अपने सारे पापों का प्रायश्चित कर लेंगे। आखिर में आप भी मेरे पास लौट आएंगी।'
और इस तरह से विष्णु लोक का सबसे संकटपूर्ण दिन का अंत हुआ।
पहला अध्याय – वेदवती की कथा
हजारों वर्ष पहले मध्य भारत में एक छोटा सा राज्य था जिसके राजा का नाम रथध्वज था। वह विनम्र, भगवान में विश्वास रखने वाला और अपनी रानी और दो बेटों, कुशध्वज और धर्मध्वज, के साथ देवी लक्ष्मी का भक्त था। हर साल वह उनकी पूजा करता और उन्हें बहुमूल्य चढ़ावे चढ़ाता था। लक्ष्मी भी उससे प्रसन्न रहतीं और उसका राज्य समृद्ध था। उसके राज्य में प्रजा सुखी थी। सब लोग लक्ष्मी को तो पूजते ही थे, साथ में अपने राजा को भी भगवान का स्वरुप मानते थे। वे उसपर अपने प्राण न्योछावर करते थे।
एक दिन, राजा रथध्वज अपने महल की खिड़की पर खड़े हो कर अपने राज्य को निहार रहा था। वह काफी वर्षों से राज्य कर रहा था और उसके शासन काल में राज्य समृद्ध हो गया था। इससे उसके मन में अहंकार जाग उठा।
'यह सब समृद्धि मेरे कारण है। मेरा राज्य कितना फल-फूल रहा है। सब लोग कितने सुखी हैं। यह सब मैंने अपने आप से, अपने प्रयास से, उपलब्ध किया है।' और उसकी छाती अहंकार से फूल उठी। उसी समय उसकी रानी ने उसको आवाज़ लगाई कि राज्य पुरोहित पधारे हैं और वह राजा के साथ उस साल लक्ष्मी पूजन पर किये जाने वाली दान-दक्षिणा पर बात करना चाहते हैं। राजा रथध्वज ने रानी को सुना-अनसुना कर दिया। वह तो अपनी संपत्ति और ज़मीन और जायदाद को निहारने में लगे हुए थे।
रानी कमरे से निकल कर उनके पीछे खड़ी हो गयी।
'महाराज, क्या हम इस वर्ष लक्ष्मी पूजन में जो दान-दक्षिणा दी जाती है उस के बारे में बात नहीं करेंगे? क्या हर वर्ष जैसे हम उनको अपने राज्य के समृद्धि के लिए धन्यवाद नहीं देंगे? आप कहें तो मैं कुशध्वज और धरमध्वज को आपकी मदद हेतु बुला दू?'
राजा तुनक कर घूमा। ‘नहीं! यह करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। अगर पूजा होगी तो मेरी होगी। अब जाइये। यह सब समृद्धि मैंने अपने मनोबल से हांसिल की है। तो फिर किसी और को क्यों इसके लिए धन्यवाद दूँ! राज पुरोहित से कह दीजिये कि अब से इस राज्य में किसी की भी पूजा नहीं होगी। होगी, तो मेरी होगी। अब जाइये।'
रानी को धक्का लगा और उसने प्रतिकार करने के लिए मुँह खोला फिर अपने पति का अभिमान से भरा मुख देख कर अपने को रोक लिया। उसका