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महानायक एकलव्य: पतित पावन गाथा भाग २ (Long Live the Sullied)
महानायक एकलव्य: पतित पावन गाथा भाग २ (Long Live the Sullied)
महानायक एकलव्य: पतित पावन गाथा भाग २ (Long Live the Sullied)
Ebook287 pages2 hours

महानायक एकलव्य: पतित पावन गाथा भाग २ (Long Live the Sullied)

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About this ebook

सशस्त्र रक्षकों से घिरे हुए रुद्रपुत्र के शाही महल में एक भयावह सन्नाटा है। कोई कुछ जानता है, कुछ ऐसा जो अभी किसी को नहीं पता। भूतकाल में अगर एकलव्य को गुरुकुल में प्रवेश नहीं मिला होता तो क्या होता? क्या इसका कोई विकल्प होता?
"क्या मैं तैयार हूँ? मैं हारना नहीं चाहता! विजय ही एकमात्र विकल्प है - और यदि आवश्यकता हुई तो मैं विजय छीन लूंगा, चाहे बल से अथवा छल से। या तो मैं जीत जाऊंगा, या मैं कुछ ऐसा कर जाऊंगा जो किसी ने अपने स्वप्नों में भी करने का विचार नहीं किया होगा। मैं इस खेल के नियमों को ही बदल दूंगा। लेकिन क्या इतना ही काफी है? बल से श्रेष्ठ होना ही काफी नहीं, मैं लोगों की सोच पर राज करना चाहता हूँ..."
क्या वह प्रतिशोध लेना चाहता है? प्रतिशोध एक परजीवी है जो तुम पर सवार हो कर बढ़ता रहता है। तुम्हारे शरीर और आत्मा को कुरेदता रहता है, और अंततः यह तुम्हारा अंग बन जाता है!
महानायक एकलव्य की कथा उन सब रहस्यों को उजागर करती है जिन्हें आप चरित्रनायक एकलव्य में पढ़ कर मंत्रमुग्ध हो गए थे।

Languageहिन्दी
Release dateMar 27, 2022
ISBN9788194370543
महानायक एकलव्य: पतित पावन गाथा भाग २ (Long Live the Sullied)
Author

Gaurav Sharma

Hello, I am an Indian author. Writing is something that excites me and helps me to communicate with the world. My first book is on narcissism because I have been targeted by narcissists all my life and I wish other innocent people to not suffer like me. Let's fight together to rid the Earth of greed, hatred and delusion. Hope you enjoy my work.

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    महानायक एकलव्य - Gaurav Sharma

    गौरव शर्मा

    सर्वप्रथम थिंक टैंक बुक्स, नई दिल्ली द्वारा वर्ष २०२०  में प्रकाशित अंग्रेजी उपन्यास

    ‘लॉन्ग लिव द सलिड’ (Long Live the Sullied) का लेखक द्वारा हिंदी में अनुवाद।

    यह पुस्तक सर्वप्रथम संज्ञान, नई दिल्ली (थिंक टैंक बुक्स का उपक्रम)

    द्वारा वर्ष २०२० में प्रकाशित।

    वेबसाइट: thinktankbooks.com

    ईमेल: editorial@thinktankbooks.com

    गौरव शर्मा इस उपन्यास के लेखक होने के मौलिक अधिकार का दावा करते हैं।

    पुस्तक के सभी चित्र अंग्रेजी उपन्यास से लिए गए हैं, अतः उनका श्रेय मूल चित्रक को जाता है।

    कॉपीराइट © संज्ञान / थिंक टैंक बुक्स

    कॉपीराइट © २०२० गौरव शर्मा

    अनुवादक: गौरव शर्मा

    सर्वाधिकार सुरक्षित।

    यह एक काल्पनिक कृति है। नाम, वर्ण, स्थान और घटनाएँ या तो लेखक की कल्पना के उत्पाद हैं या काल्पनिक रूप से उपयोग किए गए हैं, और किसी भी वास्तविक व्यक्ति, जीवित या मृत, घटनाओं या स्थानों से मिलना-जुलना, पूरी तरह से संयोग है।

    ISBN: 978-81-943705-4-3

    मूल्य: २२५ रुपए / INR 225

    इस पुस्तक का अधिकतम खुदरा मूल्य केवल भारतीय उपमहाद्वीप के लिए है।

    विक्रय मूल्य कहीं और भिन्न हो सकते हैं।

    10 9 8 7 6 5 4 3 2 1

    संज्ञान का नाम और लोगो थिंक टैंक बुक्स के ट्रेडमार्क हैं।

    किसी भी अनधिकृत उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध है।

    समर्पण

    सरस्वती के चरण कमलों में करूँ वंदना अर्पित।

    ऐ हिंदी, यह पुस्तक तुझे समर्पित।

    आभार

    इस पुस्तक पर अपना समय देने वाले हर व्यक्ति को मेरा धन्यवाद। पुस्तक का स्वागत करने वालों का धन्यवाद, और आलोचकों का भी।

    लेखक के बारे में

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    गौरव शर्मा थिंक टैंक बुक्स के संस्थापक हैं। उन्होंने लंगारा कॉलेज, वैंकूवर से व्यवसाय की पढ़ाई पूरी की और गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से पत्रकारिता की।

    ‘महानायक एकलव्य’ उनके अंग्रेजी में लिखे गए उपन्यास ‘लॉन्ग लिव द सलिड’ का उन्ही के द्वारा हिंदी में अनुवाद और ‘चरित्रनायक एकलव्य’ का अगला भाग है।

    गौरव को शतरंज और प्लेस्टेशन पर वीडियो गेम खेलना पसंद है। अधिक जानकारी के लिए सोशल मीडिया पर उनके साथ जुड़ें, उनकी वेबसाइट authorgauravsharma.com के माध्यम से संपर्क करें, अथवा उनका नाम विकिपीडिया या गूगल पर खोजें।

    प्रस्तावना

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    रुद्रपुत्र महल: वर्तमान

    समय

    महल के विशाल धातु के बने द्वार पर हाथ में भाला लिए दो पहरेदार तैनात थे। प्रजा के एकलव्य और मंत्रिमंडल से किसी भी समय मिलने हेतु सदैव खुले रहने वाले उस महल में आज बिना राजा या किसी मंत्री के साथ आने वालों का प्रवेश निषेध था। कल रात कुछ ऐसी दुर्घटना घटी, जिसने राज्य की बुनियाद को हिला कर रख दिया, और परिणामस्वरूप तुरंत प्रभाव से प्रतिबंधित नीति लागू हो गई। और यही कारण था कि राजा से मिलने आए आचार्य वीरभद्र को वे पहरेदार अंदर जाने की अनुमति नहीं दे रहे थे। ये कुछ ही दिनों में दूसरी बार था जब आचार्य को महल में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई।

    स्वयं को एकलव्य का गुरु बताने के बाद भी, उन्हें प्रवेश से वंचित रखने का कोई कारण नहीं दिया गया - पहला कारण महल में राजा की अनुपस्थिति था। ऐसा लगता है जैसे रुद्रपुत्र का वो महल अपने विशाल दरवाज़ों के अंदर उनका स्वागत नहीं करना चाहता। यदि आचार्य चाहते तो बलपूर्वक भीतर प्रवेश कर सकते थे। उनके लिए शस्त्रधारी उन दो पहरेदारों को परास्त करना कोई बड़ी बात नहीं थी, परन्तु वे महल के बाहर कोई बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहते थे। और इसलिए वे द्वारपालों से बारम्बार अंदर जाने का निवेदन करते रहे, केवल हर बार उनकी 'ना' सुनने के लिए।

    एक बात तो सुनिश्चित थी कि वीरभद्र इस बार एकलव्य से मिले बिना नहीं लौटेंगे। अपने प्रिय शिष्य से मिलने हेतु वे पहले ही बहुत समय और उम्मीदों को लगा उसके इतने निकट पहुंचे थे अतः आचार्य और पहरेदारों के बीच तर्क वितर्क लम्बे चले। इससे पहले कि वीरभद्र क्रोधित हो कुछ अनर्थ कर बैठते, अपने रथ पर सवार महामंत्री बाहर की ओर से आते हुए महल के द्वार पर रुके। उन्होंने इशारे से ही द्वारपालों को द्वार खोलने की आज्ञा दी और दोनों वीरभद्र की बात बीच में ही काट कर द्वार को खोलने लगे। जैसे ही रथ महल के अंदर की ओर बढ़ा, आचार्य वीरभद्र ने ऊँचे लेकिन निवेदन भरे स्वर में महामंत्री को पुकारा। महामंत्री ने रुक कर आचार्य की ओर एक विचारपूर्ण दृष्टि से देखा।

    एक सादे कपड़ों में, पैरो में खड़ाऊ पहने और हाथ जोड़ खड़े योगी को राजा और महल के लिए खतरा ना जानते हुए महामंत्री अपने रथ से उतरे और आचार्य से उनका परिचय पूछा। आचार्य के पर्वत-गुरुकुल में एकलव्य के गुरु के रूप में अपनी पहचान बताने पर महामंत्री ने उन्हें उनके साथ अंदर आने को कहा। हालाँकि महामंत्री ने आचार्य को पहले कभी नहीं देखा था, फिर भी उन्होंने एकलव्य से उनके बारे में बहुत अच्छी बातें सुनीं थी। वही पहरेदार जो पहले आचार्य और महल के बीच एक दुर्ग बन कर खड़े थे, अब अपना सर झुका उन्हें रास्ता दे रहे थे।

    दरबार में जाते समय, आचार्य वीरभद्र ने महामंत्री से पूछा कि ऐसा क्या था जिसने एक रात में अचानक महल को झकझोर कर रख दिया, एकलव्य को तुरंत राजमहल क्यों बुलाया गया और महामंत्री सहित सभी लोग इतने तनाव में क्यों दिखे। महामंत्री ने आचार्य की ओर देखा और उन्हें अनुचित समय पर महल पहुंचने का बोध कराया। आचार्य वीरभद्र को सावधान करते हुए उन्होंने आगे कहा कि जो कुछ भी अंदर था, वह पहले से ही कई कार्यकर्ताओं और मंत्रियों के होश उड़ा चुका है। एक चोटी के योद्धा और योगी होने के बाद भी, राज दरबार में प्रवेश करते ही आचार्य ने अपनी रीढ़ में एक ठिठुरन महसूस की।

    ऐसा क्या था जिसने रुद्रपुत्र के राज्य को बर्बाद कर दिया? एकलव्य को तुरंत महल क्यों बुलाया गया? आचार्य वीरभद्र के साथ महामंत्री किस अनर्थ की बात कर रहे थे? और ऐसा क्या था जिसे देख लोग अपने होश खो बैठे? केवल समय ही बताएगा...

    महल की ओर जाते आचार्य वीरभद्र

    पुंडीर

    Black_divider_no_background.png

    अरे! ज्येष्ठ, ज्येष्ठ! सभी वहाँ आ चुके हैं - छात्र, संघ और आचार्य वीरभद्र भी। आप... मैंने तुरंत अपने हाथ से इशारा किया, और उसे आगे बोलने से रोक दिया। मेरे गुस्से से डरकर वह जितनी तेजी से आया था उतनी ही जल्दी चला भी गया। वो गुरुकुल का एक छात्र था जिसे मैंने कुछ दिनों पहले परिसर में घूमते हुए और तीरंदाजी सत्र में भाग लेते देखा था। मैं अपने ध्यान के दौरान कोई अड़चन नहीं चाहता था। वो मेरे लिए एक बहुत बड़ा एवं महत्वपूर्ण दिन था, और मैं उसे अपना बनाने के लिए पूरी तरह से तैयार था। मुझे पता था कि मैं कर लूँगा; मुझे करना ही था!

    पद्मासन में रहते हुए ही अपनी आँखें खोलने के पश्चात मुझे अपने पेट में एक अजीब सी गुदगुदी महसूस हुई और हृदय भारी हो गया। ऐसा नहीं है कि मैं पहली बार लड़ने जा रहा था, मैंने अनगिनत प्रशिक्षित योद्धाओं के साथ मुकाबला किया और उनमें से हर एक पर जीत हासिल की। केवल एकलव्य ही था जिसने तीरंदाजी परीक्षा में मुझे एक बार हराया था, जब हम दोनों युवा थे और गुरुकुल में युद्ध कौशल सीख रहे थे। एकलव्य, गुरुकुल में मेरा सबसे अच्छा मित्र और इक्ष्वाकु का वंशज था। आचार्य वीरभद्र और आचार्य भूषण के अधीन गुरुकुल में मेरी सोलह वर्षों की शिक्षा और प्रशिक्षण ने मुझे एक ब्रह्म-क्षत्रिय बना दिया था। अगर भगवान परशुराम कलियुग में होते, तो मेरे जैसे ही होते - महारथी योद्धा और महाज्ञानी ऋषि।

    मैं पद्मासन समाप्त कर खड़ा हुआ और गुरुकुल के संस्थापक आदि शंकराचार्य के दीवार पर लटकते चित्र को नमन किया। चित्र के नीचे पानी से भरा एक मिट्टी का बर्तन था जिसमे मैं अपना प्रतिबिंब देख सकता था। मैं विचलित लग रहा था, जैसे कोई भी आचार्य वीरभद्र के साथ लड़ने से पहले लगेगा। मैंने अपने सर पर वो पट्टी पहनी जो मुझे गुरुकुल का सबसे उत्कृष्ट योद्धा होने के सम्मान में आचार्यों के संघ द्वारा पुरस्कृत की गई थी। जीवन की कुछ क्रूर परिस्थितियों ने मेरा वहाँ सबसे लंबी अवधि के लिए युद्ध कौशल का प्रशिक्षण प्राप्त करना अनिवार्य बना दिया था। मैं गुरुकुल का एकमात्र छात्र था जो अपने जीवन के तीसरे दशक की शुरुआत में था। मुझे भविष्य में बुराई पर विजय प्राप्त करनी थी, अपने परिवार और गाँव को अंधेरे के चंगुल से मुक्त करने का धर्मयुद्ध लड़ना था।

    पद्मासन में पुंडीर, छोटा बालक किवाड़ पर

    मैं आचार्य वीरभद्र जैसा या उनसे भी बेहतर बनना चाहता था। आचार्य वीरभद्र और आचार्य भूषण हमें गुरुकुल के पहले तीन वर्षों तक ही पढ़ाने वाले थे। परन्तु आचार्य संघ से मेरे विनम्र अनुरोधों के बाद मुझे वहाँ अतिरिक्त अवधि तक रह कर आचार्य वीरभद्र से सभी प्रकार के युद्ध कौशलों का प्रशिक्षण लेने की अनुमति मिल गई थी। आचार्य ने मुझे उन सोलह वर्षों में वो सब सिखाया जो वे सिखा सकते थे। और आज गुरुकुल में अपनी पढाई और प्रशिक्षण समाप्त कर विदा होने से पूर्व मेरी अंतिम परीक्षा थी। मैं आचार्य से मुकाबला करने का मन बना अपने कमरे से बाहर निकला।

    सुबह की प्रार्थना समाप्त कर सभी छात्र और शिक्षक मैदान में बने मंच के चारों ओर विराजमान हो बेसब्री से मेरे आने की प्रतीक्षा करते प्रतीत हो रहे थे। हालाँकि, उनमें से अधिकतर तो आचार्य वीरभद्र को मेरे साथ युद्ध करते देखने के लिए उत्साहित थे। आखिर उनका ऐसे युद्ध करना गुरुकुल में होने वाले दुर्लभ आयोजनों में से एक जो था। मुझे तो सबने कई बार युद्ध करते देखा था।

    आचार्य का स्वरूप मंत्रमुग्ध कर देने वाला था, विशेषकर उस दिन। उनकी आँखों में एक अलग ही रोमांच था। उनके लंबे घुंगराले बाल मानो भगवान शिव द्वारा उन्हें दिया गया कोई आभूषण हों। उनकी चौड़ी छाती और मांसल बाहें थीं जो उस दिन पहने हुए लोहे के कवच में बड़ी मुश्किल से समाई। उन्हें कवच की वैसे कोई आवश्यकता ही नहीं थी, उनकी हड्डियाँ स्वयं लोहे जैसी ही कठोर और भारी थीं। उभरे हुए कंधे और बाहुओं की बलिष्ठ मांसपेशियाँ उनके गढ़े हुए धड़ को संपूर्ण करती थीं।

    आचार्य वीरभद्र ने मानो उम्र पर अंकुश लगा दिया हो। मैं पिछले सोलह सालों से उन्हें ऐसे ही देख रहा था, मेरे वरिष्ठों और यहां तक ​​कि उनके वरिष्ठों ने भी उन्हें ऐसा ही देखा था। ध्यान, साधना, योग और व्यायाम के उनके दशकों के अभ्यास से उन्हें चिरयौवन का वरदान प्राप्त था।

    युद्ध शुरू करने से पहले मैंने हाथ जोड़ उनसे आशीर्वाद लिया, मैं आपको प्रणाम करता हूँ, आचार्य।

    आचार्य ने सहजता से कहा, वह जो नहीं है, तुम्हें इस परीक्षा में मुझ पर विजयी होने का आशीर्वाद दे।

    मुझे लग रहा था कि आचार्य ने भी अवश्य ही मुझसे लड़ने और जीतने पर विचार कर कुछ गुप्त योजनाएं विकसित की होंगी।

    सुबह सवेरे आपकी इस उज्ज्वल मुस्कान के पीछे क्या कारण है? मैंने पूछा।

    मुझे खुशी है कि तुमने पूछा, उन्होंने मुस्काते हुए आगे कहा, आज की सुबह मेरे लिए जीत का पैगाम अवश्य लाएगी!

    लेकिन आचार्य, आपने मुझे परीक्षा में विजयी होने का आशीर्वाद दिया, आप और मैं दोनों कैसे युद्ध में जीत सकते हैं? मैं उनका विरोधाभासी कथन समझ नहीं पाया। आचार्य के चेहरे पर अब और भी व्यापक मुस्कान थी।

    अगर मैं जीतता हूँ, तो एक योद्धा के रूप में जीतने के स्पष्ट कारण से खुश रहूँगा। यदि तुम जीतते हो, तो मैं तुम्हारे गुरु के रूप में हार कर भी जीत जाऊँगा। तुम्हारा गुरु होने के नाते, मैं वास्तव में चाहता हूँ कि आज विजय तुम्हारी ही हो, पुंडीर! अपने शिष्य को स्वयं से उत्कृष्ट होते देखना शिक्षक के लिए सबसे गर्व और खुशी का विषय है। मैं और क्या माँग सकता हूँ? उन्होंने समझाया। उनकी बात सुनकर मुझे राहत मिली।

    संघ के हमें तलवार के साथ द्वंद्वयुद्ध शुरू करने का संकेत देते ही दर्शकों में हमारे युद्ध को देखने का उत्साह भर गया। आचार्य ने अपनी दोधारी तलवार को नेत्र स्तर पर बनाए रखते हुए लड़ाकू मुद्रा बनाई, जैसी उन्होंने मुझे बनानी सिखाई थी। लेकिन उनकी सटीकता मेरी तुलना में कहीं बेहतर थी।

    सुबह के सूरज की किरणें उनके दाहिने हाथ में सुसज्जित चमकदार तलवार की धार से परिलक्षित हो रही थीं। आचार्य को द्वन्द के लिए तैयार देखना ही हमे जीवन की कठिनाइयों का डट कर सामना करने की प्रेरणा देता था। माहौल में सन्नाटा छाने की वजह से मैंने चारो ओर नज़रे घुमाई और पाया कि सभी आचार्य को देख अवाक् हो चुके थे। अपने छत्र को हवा में लहराते हुए किसी नाग की भांति आचार्य की वो तलवार देख स्वयं मैं भी मंत्रमुग्ध हो गया था। अब भला मैं अपने शत्रु से प्रभावित हो उसपर आसानी से कैसे विजय प्राप्त कर सकता था। आचार्य पूरी तरह से आक्रमण के लिए तैयार मेरे सावधान होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वहीँ मेरे चित्त में तो उनसे जीतने की रणनीतियां बन और बिगड़ रही थीं। मुझे पता था कि जीतने के लिए या तो लड़ाई में उनके बराबर का होना पड़ेगा या कुछ और करना होगा। आचार्य को उन्ही की सिखाई गई विद्या और कौशल का प्रयोग कर पराजित करना असंभव था। मैंने अपने दाएं पैर को जमीन पर अर्ध चक्र बनाते हुए बाएं के पास ला दोनों हाथों से तलवार पकड़ ली। मुझे उस अद्भुत मुद्रा में आते देख छात्रों ने मेरे नाम के जयकारे लगाए। मेरी तलवार की पकड़ आचार्य की तलवार से बेहतर थी, होती भी कैसे ना, बीती रात पकड़ मजबूत करने के लिए मैंने उसपर काम जो किया था। युद्ध में एक दुसरे को अगली चाल के मामूली संकेत भी ना देते हुए हमारे मुख पर कोई भाव नहीं था।

    मैंने आचार्य पर भागते हुए एक गर्जना के साथ शक्तिशाली प्रहार किया परन्तु वे तेजी से किनारे की ओर हट गए। मैं अपनी दिशा बदलते हुए

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